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01 अक्टूबर 2021

भयावह माहौल का इंतजार

सितम्बर माह का भी समापन होने को है। इस साल के नौ महीने बीत जायेंगे कुछ घंटों बाद। वर्ष 2020 खतरनाक आहट के साथ आया था और वर्ष 2021 ने खतरनाक रूप दिखाया भी। इस खतरनाक रूप को गुजरे अभी कुछ महीने ही बीते हैं मगर ऐसा लगता है कि जैसे लोग सबकुछ भूल चुके हैं। याद करिए पिछले वर्ष 2020 को अगस्त सितम्बर से सबकुछ सामान्य होने लगा था। इस सामान्य होती दिनचर्या को तगड़ा झटका इस साल लगा। अचानक से भयावहता दिखने लगी। एकदम से ऑक्सीजन की कमी होने लगी। भयावह तरीके से मौतों की संख्या बढ़ने लगी।


रुकिए, रुक कर सोचिए, विचार करिए कि क्या ये सब महज एक बीमारी के कारण हुआ? फिर सोचिए कि इस साल के आरम्भ में वैक्सीनेशन भी शुरू हो गया था। सबकुछ सामान्य था फिर एकदम से ये भयावह रूप? मानवजनित बीमारी के बाद क्या ये सम्भव नहीं कि मानवजनित माहौल बना दिया गया हो, लोगों के मरने के लिए? क्या ये सम्भव नहीं कि जानबूझकर ऑक्सीजन की कमी कर दी गई हो? चिकित्सकों की लापरवाही तो हमने व्यक्तिगत स्तर पर देखी, अनुभव की थी। बहरहाल, जो हुआ सो हुआ पर अब क्या करना है? क्या अब तीसरी लहर के रूप में एक और साजिश का, एक और मानवजनित माहौल का सामना करना है?


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08 सितंबर 2021

संवेदनहीन इंसान का विनाश निश्चित है

पिछले साल जब कोरोना की पहली दस्तक देश में हुई थी तो उसके बाद लगे लॉकडाउन के समय लोगों के विचार ऐसे बने जैसे अब वे बहुत कुछ सीख चुके हैं. इसके बाद जैसे ही अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई वैसे ही सब पुराने ढर्रे पर वापस आ गया था. इसके बाद जैसे ही दूसरी खतरनाक, जानलेवा लहर समाज में दिखाई दी तो लगा कि शायद अब इंसान कुछ सीखने की कोशिश करेगा. आपसी संबंधों को लेकर, एक-दूसरे की मदद करने को लेकर, संपत्ति के प्रति तृष्णा को लेकर, धन संग्रह की प्रवृत्ति को लेकर हो सकता है कि इंसान कुछ सीखे. बहुत से लोगों के विचारों को जानने-समझने का अवसर मिला. उससे लगा कि न सही सबके सब मगर कुछ हद तक इंसान अपने आपको बदलने की कोशिश करेगा.




इधर विगत कुछ महीनों से कोरोना से डर-भय जैसी स्थिति जैसे समाप्त ही है. इसी समाप्ति ने बहुत कुछ समाप्त कर दिया है. जिन दिनों आसपास मौत दिख रही थी, अपनों के दूर चले जाने की खबरें आ रही थीं, उस समय बहुतायत लोगों को दार्शनिक की मुद्रा में देखा था, माया-मोह के बंधनों से मुक्त होते देखा था. अब फिर वही कोरोना के पहले की स्थिति दिखाई देने लगी है. इससे एक बात तो समझ आती है कि इंसानी फितरत मूल रूप से अपनी भयावहता को भूल जाने की है. उसके मूल में किसी तरह से न सुधरने की स्थिति छिपी हुई है. देखा जाये तो यह स्थिति खतरनाक है. यदि इंसान सीखने की कोशिश में आगे नहीं बढ़ेगा तो फिर किस तरह से नए-नए मानकों को स्थापित किया जायेगा?


पिछले वर्ष से लेकर अभी तक की जो स्थिति निकली है, जो समय गुजरा है उसमें इंसान ने बहुत कुछ अनुभव किया है. पाया कम है और खोया ज्यादा है. इसके बाद भी ज्यादा से ज्यादा लाभ लेने का लालच, आपदा से गुजर रहे लोगों से भी मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति इस समय देखने को मिली. चिकित्सा से सम्बंधित सामग्री की, दैनिक उपभोग की वस्तुओं की कालाबाजारी देखने को इसी समय मिली. ये सब यह बताने को काफी है कि इंसान दर्द का अनुभव तभी करता है जबकि वह स्वयं उससे गुजरता है. उसके पहले उसके लिए दूसरे का कष्ट अनुभव करने वाला मामला नहीं बल्कि उससे लाभ लेने वाला मसला होता है. समझने वाली बात है कि यदि व्यक्ति इस कष्टकारी दौर में भी नहीं सुधरा है, इस आपत्तिकाल में भी उसके अन्दर का मानव नहीं जाग सका है, आपदा के इस दौर में भी वह संवेदित नहीं हो सका है तो ऐसे इंसान का पल-पल विनाश की तरफ बढ़ना स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति के लगातार बने रहने से समाज का भी विनाश निश्चित है, समाज का ध्वंस भी निश्चित है.


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02 जुलाई 2021

कोरोना की अनिश्चितता भरी उलझन

इधर बहुत दिनों से ऐसी स्थिति बनी हुई है कि न पढ़ने का मन करता है और न ही लिखने का. लिखने-पढ़ने के अलावा यदि देखा जाये तो किसी भी काम में मन नहीं लग रहा है. इसे भी हम लॉकडाउन का नकारात्मक प्रभाव मान रहे हैं. संभव है कि ऐसा सबके लिए न हो मगर ऐसा हमारे लिए तो सत्य ही है. पिछले वर्ष कोरोना के आने के बाद से जिस तरह से लॉकडाउन का लगना रहा हो, उसके बाद घर में बंद रहने की स्थिति रही हो, कार्यालय, संस्थान, बाज़ार आदि खुलने का मौका भले ही आया हो मगर पहले की तरह स्वतंत्रता देखने को नहीं मिली है. इसी कारण से एक तरह की बंदिश जैसे, बोझिलता जैसी तन-मन में बनी हुई समझ आ रही है.


कोरोना ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया है. इस साल भी लॉकडाउन का लगना हुआ और फिर उसके बाद धीमे-धीमे कुछ-कुछ नियमों, शर्तों के साथ जनसामान्य के जीवन को वापस पटरी पर लाने की कोशिश की जाने लगी है. लोगों का बाज़ार में घूमना-टहलना पहले की तरह होता दिख रहा है मगर दिमाग में वह आज़ादी नहीं है जो वर्ष 2020 के पहले हुआ करती थी. इस तरह की बंदिश के साथ एक तरह की अनिश्चितता भी है. अभी कोई भी शत-प्रतिशत कोरोना के जाने की, बने रहने की समयावधि के बारे में कुछ भी नहीं कह सकता है. यह अनिश्चितता भी हमें व्यक्तिगत रूप से परेशान सा कर रही है. परेशानी यह नहीं कि कोरोना के कारण ऐसा माहौल बना हुआ है बल्कि परेशानी इसकी कि जीवन-शैली की सामान्य स्थिति कब, कैसे बन सकेगी? काम की वही पुरानी गति कैसे आ सकेगी? लोगों के बीच मिलना-जुलना फिर उसी पुराने अंदाज में हो सकेगा?


जैसी दशा दिख रही है उसमें अभी घर में कैद होकर ही कार्य करने जैसी स्थिति समझ आ रही है. ऐसे में कार्यालय के, संस्थानों के काम तो किये जा सकते हैं मगर बहुत से काम जो व्यावहारिक रूप से फील्ड में जाकर ही किये जा सकते हैं, वे नहीं हो पा रहे हैं. इससे भी उलझन जैसी स्थिति बनी हुई है. फ़िलहाल तो इसी उलझन के साथ रहते हुए आगे बढ़ना है. मन भी इसी के साथ लगाना है.


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24 जून 2021

हाल्ट, हुकुम सर देयर, फंडर फ़ो

हाल्ट, हुकुम सर देयर. फंडर फ़ो. इस वाक्य से आपमें से संभव है कि बहुत से लोगों का पाला पड़ा हो और बहुत से लोगों का नहीं भी पड़ा होगा. बहुत से लोगों से ऐसे वाक्य का सामना प्रत्यक्ष रूप से किया होगा और बहुत से लोग ऐसे होंगे जिन्होंने ऐसे लोगों की जुबानी ही इस वाक्य से परिचय पाया होगा. हम भी उन्हीं लोगों में से हैं जिन्होंने इस वाक्य का परिचय अपने बाबा जी से प्राप्त किया है.


वैसे बहुत से लोग तो अभी तक कई बार पढ़ चुके होंगे इसे और इसके भीतर की टाइपिंग मिस्टेक खोजने में लगे होंगे. बहुत से लोगों ने तो टाइपिंग मिस्टेक निकाल कर इसे सही भी पढ़ लिया होगा. अब पता नहीं उन्होंने क्या गलती निकाली होगी और उसको सही करके क्या पढ़ा होगा? ये तो परदे के पीछे की बात है मगर जो लोग भी इस वाक्य से परिचित हैं वे अवश्य ही मन ही मन में या फिर खुलकर मुस्कुरा रहे होंगे.


असल में ऐसा वाक्य सुरक्षा प्रहरियों द्वारा किसी समय बोला जाता था. हमारे बाबा जी पुलिस में हुआ करते थे. उनकी पुलिस विभाग में सेवाएँ अंग्रेजी राज्य के समय से ही शुरू हो गईं थीं. उस समय के बारे में, सुरक्षात्मक कदमों के बारे में बताते समय ऐसे वाक्य से हम लोगों का परिचय करवाया था. यह वाक्य असल में ऐसा नहीं हुआ करता था बल्कि जो पहरेदार, सुरक्षाकर्मी अपनी ड्यूटी में तैनात हुआ करते थे उनके द्वारा मूल वाक्य को कुछ इस रूप में बोला जाता था.




इस वाक्य का मूल वाक्य भी आपके बीच रखेंगे पहले इसके बोले जाने का कारण तो पढ़ लीजिये. सुरक्षा बलों की तैनाती की जगह पर, कार्यालय, घरों आदि की सुरक्षा में तैनात कर्मियों द्वारा यह वाक्य उस समय जोर से बोला जाता था जब कोई उनकी निर्धारित सीमा के भीतर प्रवेश कर जाता था. इस वाक्य के द्वारा वे सामने से आने वाले की, सीमा रेखा में घुस आने वाले की पहचान करते थे कि वह दोस्त है अथवा दुश्मन. अब आप सोचेंगे कि एक जरा से वाक्य से कोई कैसे पहचान सकता था कि अन्दर आने वाला दोस्त है या दुश्मन. जी हाँ, सही सोचा आपने. असल में सुरक्षा कर्मियों को किसी भी संदिग्ध व्यक्ति के अपनी सीमा रेखा में घुस आने वाले को गोली मार देने तक के आदेश हुआ करते थे. इसलिए जैसे ही कोई संदिग्ध व्यक्ति इन सुरक्षा कर्मियों को अपनी सीमा में घुसता दिखाई देता था तो वे जोर से बोलते थे, हाल्ट हुकुम सर देयर. फंडर फ़ो. ऐसा वे तीन बार जोर-जोर से बोला करते थे. उसमें जवाब मिल जाने पर तो ठीक अन्यथा की स्थिति में वे सुरक्षा कर्मी उस संदिग्ध पर गोली भी चला देते थे.


यह वाक्य सुरक्षा कर्मियों के अल्प शिक्षित होने, ग्रामीण अंचलों से होने के कारण इस तरह बोला जाने लगा था. मूल वाक्य इस तरह का नहीं हुआ करता था. हॉल्ट, हू कम्स देयर, फ्रेंड ऑर फ़ो?  के द्वारा सामने आने वाले से जानकारी ली जाती थी कि वह दोस्त है या दुश्मन. सामने वाला भी पहली बार में ही अपना जवाब दे दिया करता था.


बाबा जी बताया करते थे कि कई बार दुश्मन की तरफ से अचानक से हमला हो जाया करता था. सुरक्षा कर्मियों को बोलने का, पूछने का मौका ही नहीं मिल पाता था कि हाल्ट. हुकुम सर देयर, फंडर फ़ो? और वे इसे बोलने, पूछने के पहले ही दुश्मन के हमले का शिकार हो जाया करते थे. कुछ इसी तरह का दुश्मन अबकी हमारे बीच है, जो हमारी सुरक्षा व्यवस्था को पूछने का अवसर ही नहीं दे रहा है कि हू कम्स देयर, फ्रेंड ऑर फ़ो? वह तो बस सीधे हमला कर दे रहा है. हमारी इम्युनिटी को, हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित कर दे रहा है.


जी हाँ, सही समझे आप, कोरोना अबकी ऐसा ही दुश्मन बनके आया है जिसने पूछने का मौका ही नहीं दिया. अभी भी मौका है संभलने का, अपने सुरक्षा तंत्र को सजग बनाने का. अपनी क्षमता को मजबूत कीजिये, अपनी इम्युनिटी पॉवर को बढ़ाइए और किसी भी दुश्मन के हमला करने से पहले, उसके सीमा रेखा में घुसने के पहले ही सुरक्षा तंत्र को पूछने दीजिये, हाल्ट, हुकुम सर देयर.....


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22 मई 2021

कोरोना पर भ्रम की स्थिति खतरनाक है

कोरोना वायरस जबसे देश में फैला है तबसे उसके उपचार को लेकर रोज ही कोई न कोई नई खबर सामने आती है. कोरोना से बचाव को लेकर जितनी संशय में या कहें कि भ्रम में सरकारें हैं उतने ही भ्रम में चिकित्सक हैं, उतने ही भ्रमित नागरिक हैं. कभी किसी दवा को इसके लिए कारगर बताया जाता है तो कभी किसी पद्धति को. कुछ दिनों तक एक तरह का परीक्षण किये जाने के बाद फिर उसी दवा को, उसी पद्धति को नकार दिया जाता है. इस नकार के साथ ही कोई नई दवा, कोई नई प्रक्रिया सामने आ जाती है. इस भ्रमित अवस्था में एक तरह से नुकसान नागरिकों का ही हो रहा है. उनके स्वास्थ्य के साथ लगातार खिलवाड़ ही हो रहा है. कोरोना के इलाज के लिए लगातार होते प्रयोगों से ऐसा लगने लगा है जैसे कि कोरोना संक्रमित व्यक्ति गिनी पिग बने हुए हैं.


यह भली-भांति समझ आता है कि कोरोना वायरस से उत्पन्न होने वाली यह बीमारी एक तरह से सभी के लिए नई ही है. ऐसे में इसके उपचार के लिए किसी भी सटीक बिंदु पर पहुँच पाना एकदम से सहज नहीं है. सवाल उठता है कि यदि ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है तो नागरिकों को आम आदमी को किसके भरोसे छोड़ दिया गया है? विगत वर्ष (2020 में) व्यक्ति के तापमान, बुखार को प्रमुखता से आँकने की बात की जा रही थी और अब इस वर्ष (2021 में) ऑक्सीजन लेवल की चर्चा होने लगी है. समझ से परे है कि एकदम से ऑक्सीजन लेवल को लेकर इतना पैनिक क्यों बना दिया गया है? क्या दवाओं के सम्बन्ध में, इस तरह के उपकरणों के सम्बन्ध में किसी तरह के अंतर्राष्ट्रीय खेल को खेला जा रहा है?




दवाओं के स्तर पर तो इतना भ्रम है जो न केवल नागरिकों को संशय में डाल रहा है बल्कि दवा व्यापारियों, कालाबाजारी करने वालों को जबरदस्त लाभ दे रहा है. कभी किसी इंजेक्शन से उपचार का प्रचार, कभी किसी दवा से उपचार का दावा आदि किसी बड़े खेल की तरफ इशारा करते हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि इस कोरोना के इलाज के लिए भारत देश में कारगर बताया जाने वाला एक इंजेक्शन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित है. यदि यह इंजेक्शन प्रतिबंधित है तो फिर इसे डॉक्टर्स लिख क्यों रहे हैं? मरीज के परिजन इसे लगाये जाने के लिए जिद क्यों पकड़े हैं? यह सब किसी षड्यंत्र की कहानी की तरफ इशारा करता है.


कोरोना का इलाज क्या हो, इसके साथ-साथ आवश्यक है कि सरकारें, डॉक्टर्स, मनोचिकित्सक, जिम्मेवार लोग बताएं कि किसी नागरिक का, किसी आम आदमी का मनोबल कैसे बरक़रार रहे? कैसे कोई व्यक्ति अपनी मनोस्थिति पर संतुलन बनाये रखे? कैसे कोई संक्रमित व्यक्ति बिना घबराये अपने आपको स्वस्थ बनाये रखने के लिए प्रयास करता रहे? देखा जाये तो ऐसी बातों की तरफ कम से कम ध्यान दिया जा रहा है. रोज ही कोई न कोई नया विशेषज्ञ पैदा होकर कोरोना पर, उसके इलाज पर ज्ञान बाँटने लगता है. रोज ही कोई न कोई नई इलाज पद्धति सामने आकर अपने को असरदार सिद्ध करने लगती है.


शासन, प्रशासन अभी पूरी तरह से कोरोना के इलाज के लिए सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं. इसके लिए बनाई गई वैस्कीन के प्रति भी लोगों में अभी विश्वास पूरी तरह पैदा नहीं हो सका है. ऐसे में सरकारी संस्थाओं, व्यक्तियों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे सक्रियता से, पूरी ईमानदारी से भ्रामक खबरों को रोकने का प्रयास करें. सरकारों की तरफ से इस सम्बन्ध में आधिकारिक जानकारी ही नागरिकों तक प्रेषित करवाने की कोशिश करें. इधर देखने में आ रहा है कि कोरोना से ज्यादा खतरा भ्रामक और गलत जानकारियों को लोगों तक पहुँचाने वालों से है. कोरोना व्यक्ति को अकेले संक्रमित करने में लगा है जबकि ये लोग लोगों को मानसिक रूप से संक्रमित करते हुए उन्हें ख़त्म कर रहे हैं.


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16 मई 2021

बच्चों का मनोबल बनें अभिभावक

कोरोना के संक्रमण गति बढ़ने के कारण देश में फिर एक बार लगभग सभी गतिविधियों पर विराम सा लगा हुआ है. बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी लोग घर पर रहते हुए ही अपने काम को पूरा कर रहे हैं. इस स्थिति में बड़ों के लिए यह समय भले ही ज्यादा सोचनीय न हो, ज्यादा चिंता का कारण न हो मगर बच्चों के लिए यह समय अवश्य ही चिंताजनक बना हुआ है. ऐसे माहौल में जबकि सबकुछ बंद-बंद सा है, ऐसे हालात में जबकि सामाजिकता का स्तर आपसी मेल-मिलाप के मामले में लगभग शून्य हो चुका हो तब बच्चों के शारीरिक, मानसिक स्तर पर, उनकी क्रियाशीलता पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक है.


यह वो स्थिति है जबकि बच्चे पूरी तरह से घरों में बंद हैं तब उनके साथ समय गुजारने के लिए उनके परिजन, विशेष रूप से अभिभावक ही उनके सामने हैं. नित्यप्रति के वही सीमित से कार्य, वही एक जैसी दिनचर्या गुजारते रहने के कारण बच्चों में एक तरह का चिड़चिड़ापन आता जा रहा है. इस वर्तमान परिदृश्य में अभिभावकों के लिए बच्चों के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस लगभग कैदखाने जैसे वातावरण में उनके लिए बच्चों का लालन-पालनउनकी परवरिश समस्याजनक हो गई है. बच्चों का उद्दंड होते जानाअत्यधिक उग्रता धारण करना एक समस्या है तो अभिभावकों का व्यवहार भी चिंताजनक है. बात-बात पर आदेशनुमा कदमकिसी भी कार्य का टोकाटाकी भी उचित नहीं है. इसे समझने की आवश्यकता है. इसके लिए बाल मनोविज्ञान को समझना-परखना अत्यंत आवश्यक है.


यद्यपि इस समय कोरोनाकाल के चलते बच्चों के स्कूल बंद हैं तथापि ऑनलाइन क्लास करवाने के लिए बच्चों को सुबह जगाने के नाम पर चीखना-चिल्लानाउनको नाश्ता कराने-भोजन करवाने के नाम पर क्रोधित होनाउनको पढ़ाने के नाम परहोमवर्क करवाने के नाम पर खीझना अभिभावकों के लिए सामान्य गतिविधि बन गई है. इस तरह के व्यवहार में वर्तमान लॉकडाउन जैसी स्थिति भी बहुत हद तक जिम्मेवार है. इससे पहले भी बच्चों का सड़क पर निकल करघर से बाहर जाकर खेलना-कूदनाशरारत करना जैसे फूहड़पन की बातें हो गई थींइसे इस लॉकडाउन जैसी स्थिति ने और भी भयावह बना दिया है. अब बच्चे घर से बाहर निकले बिना ही अपने समय को व्यतीत कर रहे हैं. जरा-जरा सी बात पर एक तरफ उनके साथ टोका-टाकी बढ़ी है दूसरी तरफ अत्यधिक सुरक्षित रहने के दवाब ने भी बच्चों को परेशान सा कर रखा है.


इस लॉकडाउन जैसी स्थिति के पहले भी बच्चों को बाहर खुले में खेलने की न तो जगह दिखती थी और न ही उनको बाहर खेलने की बहुत ज्यादा अनुमति मिलती थी. जितनी आज़ादीजितनी अनुमति उनको अपनी कॉलोनीअपनी सोसायटी अथवा अपनी गली-मोहल्ले की बहुत छोटी जगह में खेलने-कूदने के लिए मिलती थी वह भी इस आपदा में छीन ली गई है. ऐसी विषम परिस्थिति में उनके शारीरिक मनोरंजन केअपने दोस्तों के साथ शरारत करने के जो नाममात्र के अवसर हुआ करते थेवे तो समाप्त ही हो गए हैं किन्तु स्कूल का जो बोझ उनके दिमाग परउनके मन पर था वह ज्यों का त्यों बना हुआ है. स्कूल के कामपढ़ाई के बोझ, ऑनलाइन क्लास की अनिवार्यता में वे खुद को दबा हुआ पा रहे हैं. इस समय बच्चों के पास खेलने के लिए भी कंप्यूटर या मोबाइल ही हैंजिनके साथ वे ऑनलाइन क्लास के कई-कई घंटे बिताकर आये होते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि उनका नैसर्गिक विकास नहीं हो पा रहा है. यदि इसी में उनको प्रतिदिन की सुबह से शाम तक की टोका-टाकी होने लगे तो ये बच्चे खुद को कमतर समझने लगते हैं. इससे न केवल बच्चे काम करने से दूर भागने लगते हैं बल्कि अपने ही अभिभावकों के प्रति नकारात्मकता पालने लगते हैं.


आज की स्थिति में माता-पिता को बच्चों के साथ न सही एक दोस्त की तरह पर दोस्ताना माहौल में काम करने की आवश्यकता है. यदि माता-पिता इस तरह का वातावरण अपने परिवार मेंघर में बना पाते हैं तो बच्चों का स्वाभाविक विकास करने के प्रति एक कदम बढ़ा सकते हैं. इसके लिए अपने बच्चों से उनके दैनिक अनुभवों के बारे में बात करें. वे दिन के बहुत बड़े भाग को ऑनलाइन क्लास में बिताने के बाद अकेले जैसे ही हैं. ऐसे में उनकी पढ़ाई से ज्यादा आवश्यक है कि उनको उनकी रुचियों की तरफ ले जाया जाये. उनको अन्य गतिविधियों में संलिप्त करवाया जाये. घर के ऐसे छोटे-छोटे कामों में उनको शामिल किया जाना चाहिए जिससे उनके अन्दर सामूहिकता की भावना जगेउनमे कार्य करने के प्रति रुचि बढ़े. बागवानीड्राइंगसंगीतक्राफ्ट आदि ऐसे विषय हैं जिनके द्वारा बच्चों में उत्पन्न हो रही निराशा को दूर किया जा सकता है.


कोरोना का यह दौर बहुत कुछ सिखाने के लिए आया है. यहाँ एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि हर समय सिर्फ पढ़ाई की बातें बच्चे से नहीं करनी चाहिए. वर्तमान युग में कैरियर एक महत्त्वपूर्ण विषय हो सकता है मगर जिस भविष्य की इमारत की नींव को यदि आज कमजोर कर दिया जायेगा उस पर बुलंद इमारत बनाया जाना संभव नहीं होगा. ऐसे में उसके साथ किसी भी तरह से ऐसा व्यवहार न करें जो उसके आत्मसम्मान को चोट पहुँचाये. किसी भी काम को करने के लिए तेज आवाज़ में बोलनाबच्चे की छोटी से छोटी गलती के लिए उसको डाँटनाचिल्लाते हुए किसी काम को करने का आदेश देना आदि ऐसे कदम हैं जिनके द्वारा बच्चे में एक तरह का भय बैठ जाता है. उसके अन्दर कमजोरी के भाव पनपने लगते हैं. ऐसे में वह हीनभावनाअसुरक्षाअवसाद जैसी स्थिति का शिकार होने लगता है. कोरोनाकाल में ऐसी अवस्था बच्चों को नकारात्मकता की तरफ धकेल सकता है. सभी अभिभावकों को ऐसे माहौल में अपने बच्चों के साथ सहयोगात्मक रूप में कार्य करने की आवश्यकता है.

 


(उक्त आलेख दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के दिनांक 16-05-2021 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.

14 मई 2021

पारिवारिक सहयोग और आत्मविश्वास से हराया कोरोना को

कोरोना ने सबसे पहले जकड़ा था ज्योति, मेरी भाभी, सबसे छोटे भाई की पत्नी को. उसे तुरंत आइसोलेट किया गया. वृद्ध सास-ससुर के मन को संभालने-समझने वाली विनम्र ज्योति के सामने वायरस-असुर टिक नहीं पाया, दो दिन के ज्वर के बाद भाग निकला. फिर 6-7 दिन बाद संदीप, ज्योति के पति, मेरे छोटे भाई पर उसने पूरी तैयारी के साथ धावा बोला. ठण्ड के साथ तेज बुखार. उसके आइसोलेशन में जाने के साथ गृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी मम्मी के कन्धों पर आ गई.


संदीप ने एक-दो दिन देखने के बाद संजय भैया को खबर की जो मुझसे छोटा भाई हैसंजय और नीना ने दूसरे शहर में रहते हुए भी चिकित्सा पर निगरानी शुरू कीउन्होंने डॉक्टर से सम्पर्क रखा और रात को जाग-जाग कर ऑक्सीजन-लेवल पर नज़र रखीतीन-चार दिन के बाद जैसे ही ऑक्सीजन लेवल घटना शुरू हुआमेरी प्रिंसिपल भाभी नीना ने एम्बुलेंस बुलाकर संदीप को ज्योति के साथ अस्पताल भिजवाया और दोनों दमुआ से नरसिंहपुर आ गएबिना आराम किए दिन-दिन भर काम कर सकने वाली हमारी 82 साल की मम्मी के लिए घर संभालना कठिन नहीं है पर इस समय आशंका और चिंता से टूटी हुई थींऐसे में बड़े बेटे-बहू के आने से उन्हें निश्चित ही हौसला मिला.


संजय ने संदीप को अस्पताल ले जाकर ड्रिप लगवाईं दो-तीन दिनतब इन्फेक्शन कम होने के कारण डॉक्टर ने घर में रखकर चिकित्सा कराने की सलाह दी थीऑक्सीजन-लेवल मेंटेन करने के लिए संजय के घनिष्ठ मित्र सुनील जायसवाल ने कन्सेन्ट्रेटर दियाएकबारगी लगाअब अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगीसीटी स्कैन स्कोर था और चिकित्सा डॉक्टर के परामर्श पर ही चल रही थी पर दो दिन बाद लगाभर्ती करना ही उचित होगा.


डॉ. नीखरा के कोविड अस्पताल में ऑक्सीजन-बेड के लिए संजय और सुनील ने काफ़ी प्रयास किया पर वे खाली नहीं थेइतना डरावना समय हैसचमुच कहीं कोई खाली बेड खाली नहीं है पर सामान्य बेड उसे मिल गया और निजी स्तर पर ऑक्सीजन-सिलिंडर की सतत आपूर्ति संजय और संदीप के मित्रों के माध्यम से हमने रखी.


संजय ने अस्पताल-घर एक कर दियाचिकित्सा के दौरान हर समय संदीप के पीछे खड़े रहेनीना ने घर से मोर्चा संभाले रखासंजय की दौड़-धूप और युवा डॉ. अभिषेक नीखरा की कुशल चिकित्सा से संदीप दिन बाद स्वस्थ हो गएअभी भी बहुत निगरानी आवश्यक है.


मैं अपने सभी मित्रों- रिश्तेदारों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे संदेश भेजेफोन कियेलगातार अपडेट लेते रहे और मनोबल बढ़ाते रहेमैंने रात ढाई बजे ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए पोस्ट डाली थीइतनी रात से मुझे मित्रों ने मदद के संदेश देने शुरू कियेयह उपकार हैबचपन से सखीअनिता केसकर मैं जानती हूँ उसे कभी भी पुकार सकती हूँअचला जायसवाल ने कई बार फोन किया... वीना बुंदेला... श्री नरेंद्र सतीजा जीजिनकी सूचना से सिलिंडर मिला... श्री पलाश सुरजन जी...डॉ. लोकेन्द्र सिंह जी... मधुर माहेश्वरी जीमुकेश नेमा... अमृता जैन देव... पंकज नेमा... आभार कहना नाकाफी होगा.


नहीं भूल सकते कमलेश की नि:स्वार्थ और अथक सहायताओं कोउसने गृह-सहायक से अधिक पारिवारिक सदस्य की तरह जिम्मेवारी संभाली.


बहुत सावधानी रखें आप सबघर में कोरोना की दस्तक एक बहुत बड़ी परीक्षा है.


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नागपुर निवासी दीप्ति कुशवाह जी के शब्दों में ही उनके परिजनों की कहानी. कोरोना संक्रमण से किस तरह आत्मविश्वास, सहयोग और पारिवारिक अपनत्व के द्वारा पूरा परिवार  स्वस्थ हुआ. कोरोना विजेता के रूप में दीप्ति जी के सभी परिजनों का, सहयोगियों का हार्दिक वंदन-अभिनन्दन. 

 फेसबुक से साभार ली गई इस पोस्ट को यहाँ क्लिक करके देखा जा सकता है. 


दीप्ति कुशवाह जी के बारे में यहाँ से जानें. 


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कोरोना को हराकर बहुत सारे लोग स्वस्थ हुए हैं. ऐसे कोरोना विजेताओं की कहानियों को आप सबके बीच लाने का एक प्रयास है. इसके लिए कोरोना विजेता ब्लॉग आरम्भ किया है. यह उस ब्लॉग की पहली कहानी है. 

शेष कोरोना विजेताओं से परिचित होने के लिए, उनकी कहानी जानने के लिए आपको कोरोना विजेता ब्लॉग पर जाना होगा.

11 मई 2021

प्लाज्मा और थेरेपी : सामान्य जानकारी

रक्तदान करते हुए एक लम्बी समयावधि हो चुकी है. वर्ष 1991 से आरम्भ यह अभियान आजतक निरंतर नियमित रूप से चल रहा है. अपने इस कार्य के दौरान और अध्ययन के दौरान बहुत बार प्लाज्मा शब्द से परिचय हुआ. इतने वर्षों में प्लाज्मा के बारे में सुनते रहने के बाद भी उसके उपयोग की तरफ बहुत गंभीरता से ध्यान नहीं दिया था. इधर विगत वर्ष में कोरोना का प्रकोप शुरू होने के बाद से ही प्लाज्मा के बारे में, प्लाज्मा थैरेपी के बारे में खूब चर्चा सुनाई देने लगी. आये दिन इस बारे में बहुत से लोग जानकारी चाहते हैं कि प्लाज्मा क्या है? यह कैसे काम करता है? इसके द्वारा वर्तमान कोविड-19 बीमारी में कैसे इलाज किया जा रहा है? एक प्रयास है इस बारे में संक्षिप्त जानकारी देने का. 




किसी व्यक्ति के रक्त (Blood) में चार प्रमुख चीजें होती हैं. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (व्हाइट ब्लड सेल्स, WBC), लाल रक्त कोशिकाएँ (रेड ब्लड सेल्स, RBC), प्लेटलेट्स और प्लाज्मा. किसी स्वस्थ शरीर में रेड ब्लड सेल्स (RBC) की मात्रा सर्वाधिक होती है. शरीर में शामिल पूरे खून का 38-40 प्रतिशत भाग RBC होता है. यह रीढ़धारी जन्तुओं के श्वसन अंगों से आक्सीजन लेकर उसे शरीर के विभिन्न अंगों की कोशिकाओं तक पहुँचाने का सहज माध्यम है. इस कोशिका में केन्द्रक नहीं होता है और इसकी औसत आयु 120 दिन की होती है.


श्वेत रक्त कोशिकायें (WBC) को श्वेताणु या ल्यूकोसाइट्स भी कहा जाता है. ये शरीर को संक्रामक रोगों और बाह्य पदार्थों से रक्षा करने वाली प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकायें हैं. इन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में शरीर का सिपाही के नाम से भी जाना जाता है. WBC किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीजन और एंटीबॉडी का निर्माण करती हैं. एक बार बनी हुयी एंटीबॉडी जीवन भर नष्ट नहीं होती है. श्वेत रक्त कोशिकाओं की संख्या किसी स्वस्थ व्यक्ति में उसके रक्त का लगभग 1 प्रतिशत होती है. इन कोशिकाओं की संख्या में ऊपरी सीमा से अधिक हुई वृद्धि को ल्यूकोसाइटोसिस तथा निम्न सीमा के नीचे की संख्या को ल्यूकोपेनिया कहा जाता है.


प्लेटलेट्स को बिम्बाणु भी कहते हैं. ये शरीर में उपस्थित रक्त में अनियमित आकार की छोटी अनाभिकीय कोशिका होती है. ये वे कोशिकाएँ होती हैं जिनमें नाभिक नहीं होता है बल्कि मात्र डीएनए ही होता है. एक प्लेटेलेट कोशिका का औसत जीवनकाल 8-12 दिन का होता है. सामान्यत: किसी मनुष्य के रक्त में एक लाख पचास हजार से लेकर चार लाख प्रति घन मिलीमीटर प्लेटलेट्स होते हैं. ये थ्रोम्बोपीटिन हार्मोन की वजह से विभाजित होकर खून में समाहित होते हैं और मात्र 10 दिन के जीवनकाल तक संचारित होने के बाद स्वत: नष्ट हो जाते हैं. शरीर में थ्रोम्बोपीटिन का काम प्लेटलेट्स की संख्या को सामान्य बनाये रखना होता है.


प्लाज्मा हमारे शरीर में उपलब्ध खून में मौजूद एक तरह का तरल पदार्थ होता है. यह पीले रंग का होता है, जिसमें पानी, नमक और अन्य एंजाइम्स होते हैं. इसकी सहायता से हमारे शरीर की कोशिकाएँ और प्रोटीन शरीर के विभिन्न अंगों में खून पहुँचाते हैं. किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्लाज्मा की मात्रा 52 से 62 प्रतिशत तक होती है. वर्तमान में कोरोना संक्रमण के चलते प्लाज्मा थेरेपी का चलन तेजी से बढ़ा है. ऐसे किसी भी स्वस्थ मरीज, जिसमें एंटीबॉडीज़ विकसित हो चुकी हैं, का प्लाज़्मा निकालकर दूसरे व्यक्ति को चढ़ाना ही प्लाज्मा थेरेपी है.




कोरोना संक्रमित व्यक्ति के उपचार के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का ही प्लाज्मा लिया जा सकता है जो कोरोना संक्रमित होने के बाद ठीक हो चुके हैं. ऐसे लोगों के अंदर एंटीबॉडीज विकसित हो चुकी हो. सिर्फ वही लोग ठीक होने के 14 दिन बाद प्लाज्मा दान कर सकते हैं. यहाँ ध्यान दें वाली बात यह है कि जो व्यक्ति प्लाज्मा दान करता है उसे किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं होता है. इसके देने से हीमोग्लोबिन में भी किसी तरह की गिरावट नहीं आती है. यदि प्रक्रिया की दृष्टि से देखें तो प्लाज्मा का दान रक्तदान से ज्यादा सरल और सुरक्षित है. प्लाज्मा दान करने के बाद सिर्फ एक-दो गिलास पानी पीकर ही वापस पहली वाली स्थिति में आ सकते हैं. प्लाज्मा में सम्बंधित व्यक्ति के  खून से सिर्फ प्लाज्मा लेकर RBC, WBC और प्लेटलेट्स वापस देने वाले व्यक्ति के शरीर में पहुँचाये जाते हैं. इसलिए प्लाज्मा दान करने से शरीर पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.


जो व्यक्ति कोविड-19 से ठीक हो गए हैं, उनके शरीर से रक्त लेकर प्लाज्मा को अलग किया जाता है. जिस स्वस्थ कोविड मरीज से प्लाज्मा लिया जाता है उसके रक्त में एंटीबॉडीज बनी होती हैं. यही एंटीबॉडीज कोविड संक्रमितों को दी जाती है. डॉक्टर्स के अनुसार एक व्यक्ति के प्लाज्मा से दो संक्रमित व्यक्तियों का इलाज किया जा सकता है. कोविड-19 संक्रमण से स्वस्थ होने के 14 दिन बाद से लेकर 04 महीने के अंदर प्लाज्मा दान किया जा सकता है.


किसी व्यक्ति के शरीर से प्लाज्मा का निकालना प्लाज्मा फेरसिस की विधि से होता है. इसमें एक मशीन में ब्लड का संचार होता है. इसमें एक हाथ से रक्त निकलता है जो मशीन से गुजरता है. इस रक्त में से एंटीबॉडी युक्त प्लाज्मा निकाल लिया जाता है और शेष रक्त को देने वाले के शरीर में वापस भेज दिया जाता है. इस प्रक्रिया के द्वारा 200 से 400 मिली के आसपास प्लाज्मा निकाला जाता है. एक बार प्लाज्मा डोनेट करने के बाद दोबारा 14 दिन बाद प्लाज्मा दिया जा सकता है. स्वस्थ शरीर में 14 दिन में प्लाज्मा का निर्माण हो जाता है.


यहाँ एक बात और विशेष है कि जिस व्यक्ति ने कोरोना संक्रमण से बचने हेतु वैक्सीनेशन करवा लिया है वह भी वैक्सीनेशन के 28 दिन बाद प्लाज्मा डोनेट कर सकता है लेकिन यहाँ शर्त वही है कि प्लाज्मा दान करने वाला व्यक्ति कोरोना संक्रमण से स्वस्थ हो चुका हो. कोरोना संक्रमित के इलाज हेतु मरीज को कोरोना वायरस के विरुद्ध बनी एंटीबॉडीज की जरूरत होती है न कि वैक्सीनेशन वाली एंटीबॉडीज की.


यद्यपि कोरोना संक्रमित व्यक्ति के उपचार में प्लाज्मा की भूमिका को लेकर चिकित्सक और चिकित्सा वैज्ञानिक स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह रहे हैं तथापि ऐसी खबरें हैं कि इसके प्रयोग से कोरोना संक्रमित स्वस्थ अवश्य हुए हैं. इसके चलते हुए तमाम चिकित्सक और समाजसेवी लगातार अनुरोध करते दिख रहे हैं कि जो व्यक्ति कोरोना से प्रभावित होकर पूर्णतः स्वस्थ हो चुका है वह अपना प्लाज्मा अवश्य दान करे. यह तो स्पष्ट है कि प्लाज्मा देने वाले को किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं है. ऐसे में यह स्वीकारते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अनमोल है और यह जीवन एक बार ही मिला है, यदि किसी के काम आ जाये तो इससे बेहतर कोई कार्य नहीं. समाजहित में ऐसे व्यक्तियों को कोरोना मुक्त समाज बनाने के लिए आगे आना चाहिए जो कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. उनका प्लाज्मा लाभ लेकर अन्य संक्रमित व्यक्ति भी स्वस्थ हो सकते हैं.   


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06 मई 2021

मौत की दहशत को अपने में भरते लोग

वर्ष २०२० में कोरोना वायरस के आने के बाद लोगों में सुरक्षा को लेकर सजगता भी दिखाई दी थी और एक तरह का डर भी. उस समय डर होने का एक कारण इस बीमारी का नया-नया होना तो था ही साथ ही जिस तरह से मीडिया में इसके वैश्विक स्वरूप को दिखाया गया वह डराने वाला था. इसके साथ-साथ आये दिन आने वाले आँकड़ों, वीडियो आदि ने भी जनमानस को भयभीत कर रखा था. भय के माहौल में लोगों ने राहत लेते हुए वर्ष २०२१ में प्रवेश किया. इसी अवधि में चाक-चौबंद व्यवस्था दिखाई दी, वैक्सीन के बन जाने के समाचार आये, साथ ही कोरोना के असर का कम होना भी दिखाई दिया. इसके बाद अचानक से कोरोना वायरस ने पुनः हमला कर दिया. लोग एकदम से संक्रमित होने लगे. अचानक से कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या बढ़ने लगी. सामान्य से चलते जीवन में एकदम से उथल-पुथल सी मच गई.


एकदम से संक्रमितों की संख्या बढ़ी साथ ही उससे होने वाली मौतों की संख्या भी बढ़ने लगी. कोरोना से होने वाली मौतों की सत्यता-असत्यता के पीछे की सबकी अपनी कहानी है मगर इसके द्वारा लोगों में दहशत पैदा होने लगी. डर का माहौल बुरी तरह से लोगों को भयानक वातावरण का एहसास कराने लगा. इस तरह के वातावरण को बनाने में जहाँ मीडिया पीछे नहीं रही वहीं सोशल मीडिया से जुड़े लोगों ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी. मौत का तांडव, लाशों के ढेर, चिताओं के मेले, मौत का नंगा नाच आदि जैसे शब्दों से समाचारों को लिखा जाने लगा. ऐसा लगने लगा जैसे लोगों को डराने के लिए, उन्हें दहशत में लाने के लिए इस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया जा रहा हो. समाचार, वीडियो जानकारी से अधिक हॉरर मूवी समझ आने लगे.




इन मौतों की खबरों के कारण जिस तरह का भय समाज में दिखाई दे रहा था उससे ज्यादा डर इस कारण भी बना हुआ है क्योंकि लोग अपने आसपास ही नहीं किसी दूसरे शहर में होने वाली किसी भी मौत से स्वयं को जोड़ ले रहे हैं. लोग सोशल मीडिया के द्वारा अनावश्यक रूप से मौत की खबरों को प्रसारित करने में लगे हुए हैं. कुछ लोगों के लिए ऐसा करना जानकारी का संप्रेषण है तो कुछ लोग इसके पीछे सरकार की, शासन-प्रशासन की विफलता दिखाना चाहते हैं. लोगों की मंशा कुछ भी मगर इससे आमजनमानस में दहशत भरने लगी. लोग जान-परिचित वालों की मौत पर तो दुखी हो रहे हैं, ऐसा होना स्वाभाविक है किन्तु बहुतायत में अब लोग अपरिचितों की मौत से भी खुद को जोड़ने लगे हैं. दिन भर की ही नहीं, अपने पड़ोस, अपने शहर की ही नहीं वरन दसियों दिन पुरानी, दूसरे शहरों-राज्यों की मौतों को अब लोग अपने सिर पर लादे घूमने लगे हैं. मौतों के ये समाचार लोगों को जानकारी देने से ज्यादा मौत के करीब ले जाने लगे हैं.


लोग अपने आसपास की मौतों से खुद को जोड़ते हुए भयाक्रांत हो रहे हैं. पिछले हफ्ते हमारे एक मित्र का फोन आया. शाम का समय था, उसकी आवाज़ में एक तरह का डर, निराशा जैसा समझ आया. उसे टोका तो उसने बताया कि वह बहुत घबराया हुआ है, कोरोना से. उसने बताया कि उसकी कॉलोनी में उस दिन तीन लोगों की मौत हो गई. पूछने पर उसी ने बताया कि तीन लोगों में दो लोग पैंसठ वर्ष से अधिक के थे और एक पचपन वर्ष के थे. इसमें भी एक बात उसने बतायी कि इन तीन लोगों में कोरोना से एक का निधन हुआ, पैंसठ वर्ष वालों का.


उसके साथ दो-चार संवेदना भरे वाक्यों के बाद पूछने पर जानकारी हुई कि वह दस-बारह साल से उस कॉलोनी में रह रहा है. उससे यह पूछने पर कि इन दस-बारह सालों में क्या उसकी कॉलोनी में किसी का निधन नहीं हुआ? उसने बताया कि इस दौरान लगभग बीस-पच्चीस लोगों का निधन हो चुका है. उसी ने बताया कि पिछले साल ही तीन लोगों का निधन हुआ.


उसकी यही बातें पकड़ते हुए हमने उससे कहा कि क्या पिछले साल की अथवा पिछले दस-बारह सालों में हुई मौतों की खबर तुमने हमें दी? क्या उन मौतों पर कभी तुमने परेशान होकर, डर कर हमें फोन किया? उसके मना करते ही उसके साथ जरा तेज़ आवाज़ में बात करते हुए कहा कि यही वो स्थिति है जो अनजाने डर को अपने में समाहित करके दहशत पैदा करती है. इसी दहशत को तुम्हारे जैसे लोग फैलाने का काम करते हैं. तुम्हारे जैसे लोग ही ऐसी खबरों से डरते नहीं बल्कि उनका प्रसारण करते हो. तुम जिसे लोग अपने डर को दूसरों के चेहरे पर भी देखना चाहते हैं ताकि समाज में सभी लोग दहशत में जीते रहें.


इसके बाद उसे बहुत से उदाहरणों से समझाते रहे, उसकी हिम्मत बढ़ाते रहे. अब वह डर से कितना बाहर आया यह तो वही जाने पर वास्तविकता यही है कि लोग अपने आपको लेकर कम डर रहे हैं और अनजाने लोगों की मौतों को अपने सिर में लाद कर डर से आगे निकल दहशत को अपने अन्दर भरते जा रहे हैं. इस समय जो माहौल है उसमें हम सभी को अनावश्यक रूप से ऐसी खबरों के प्रसारण से बचना चाहिए जो डर का पैदा करती हों. ऐसी खबरों से न केवल स्वस्थ व्यक्ति घबराता है बल्कि उनको इनसे ज्यादा खतरा है जो कोरोना संक्रमित हैं. ऐसी खबरों से लगता है जैसे चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ मौतें हो रही हैं. यदि स्वस्थ होने वालों और मौतों का आँकड़ा देखें तो स्पष्ट अंतर दिखाई देता है. हमारे देश में कोरोना संक्रमण से स्वस्थ होने वालों की संख्या बहुत अधिक है और मौतों की संख्या दो प्रतिशत से अधिक नहीं है.


इस विपत्ति के समय में यदि किसी का सहयोग नहीं किया जा सकता है तो कम से कम किसी को डराने का काम तो न किया जाये. समझ से परे है कि आखिर इस भय का ऐसा माहौल क्यों बनाया जा रहा है? कहीं इसके पीछे भी आपदा में अवसर बनाने वाला बाज़ार तो नहीं?


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वंदेमातरम्

05 मई 2021

मानसिक रूप से स्वस्थ रहने को स्वार्थी बन जाएँ

कोरोना वायरस की दूसरी लहर के कारण लोगों में बुरी तरह से दहशत दिखाई दे रही है. यह डर कोरोना को लेकर कम है. उससे ज्यादा डर लोगों की होती मौतों का है. बहुत से लोग अपने आसपास से इतर न जाने कहाँ-कहाँ की खबरों को खुद में समेट कर अपने भीतर डर का एक वातावरण पैदा कर ले रहे हैं. कोरोना की पहली लहर के बाद से सबको भली-भांति समझाया गया था कि किस तरह से इसका सामना करना है, कैसे इसका बचाव करना है. इसके बाद भी लोगों की लापरवाही भयंकर तरीके से देखने को मिली.

खैर जो हुआ सो हुआ, अब उस पर चर्चा करने से कोई फायदा नहीं है. अब बात इसकी होनी चाहिए कि कैसे इस माहौल से निकला जाये? कैसे इस माहौल को सामान्य बनाया जाये? कैसे इधर-उधर से आ रही अनावश्यक खबरों से बचा जाये? यदि हम इस समय पर निगाह दौडाएं तो स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि बहुत से लोग घरों में बैठे हैं. जो नहीं बैठ पा रहे थे उनके लिए लॉकडाउन जैसे प्रावधान किये गए. कुल मिलाकर घर में सबके रहने का कारण शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना है. इस समय हम सभी शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए खुद तक सीमित हैं. अपने परिवार संग अपने घरों में बैठे हैं. न पारिवारिक आयोजनों में जा रहे न सामाजिक आयोजनों में. ऐसा करना भी एक तरह का स्वार्थ है.

क्या इसी तरह का स्वार्थ हम मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए नहीं अपना सकते? जितना आवश्यक आज हमारा शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना है उतना ही महत्त्वपूर्ण है हमारा मानसिक रूप से स्वस्थ रहना. सो बस इसी तरह से मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए कुछ दिन खुद तक सीमित हो जाइए. न अपने शहर की बुरी खबरें सुनिए न दूसरों के शहर की. न किसी को बुरी खबरें सुनाइए न किसी से बुरी खबर सुनिए. जैसे पिछली बार घर में रहते हुए जलेबी बनाने, खाना बनाने, व्यंजन बनाने, ड्राइंग करने, बागवानी करने आदि की फोटो लगाते थे वैसे ही इस बार अच्छी-अच्छी खबरें फैलाइए, अच्छी-अच्छी बातें करिए, फोन करके एकदूसरे का विश्वास बनिए. ऐसा करके देखिए, ये दिन बहुत ही सहजता से निकल जाएँगे. आपके मन से, दिल से, दिमाग से सारे भय निकल जाएँगे. 

 
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वंदेमातरम्

30 अप्रैल 2021

कोरोनाकाल में बच्चों का मनोबल बनें अभिभावक

वर्तमान परिदृश्य में अभिभावकों के लिए बच्चों के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है. ऐसा इसलिए क्योंकि उनके लिए बच्चों का लालन-पालन, उनकी परवरिश समस्याजनक हो गया है. बच्चों का उद्दंड होते जाना, अत्यधिक उग्रता धारण करना एक समस्या है तो अभिभावकों का व्यवहार भी चिंताजनक है. बात-बात पर आदेशनुमा कदम, किसी भी कार्य का टोकाटाकी भी उचित नहीं है. इसे समझने की आवश्यकता है. इसके लिए बाल मनोविज्ञान को समझना-परखना अत्यंत आवश्यक है.


यद्यपि इस समय कोरोनाकाल के चलते बच्चों के स्कूल बंद हैं तथापि ऑनलाइन क्लास करवाने के लिए बच्चों को सुबह जगाने के नाम पर चीखना-चिल्लाना; उनको नाश्ता कराने-भोजन करवाने के नाम पर क्रोधित होना; उनको पढ़ाने के नाम पर, होमवर्क करवाने के नाम पर खीझना अभिभावकों के लिए सामान्य गतिविधि बन गई है. इस तरह के व्यवहार में वर्तमान लॉकडाउन जैसी स्थिति भी बहुत हद तक जिम्मेवार है. इससे पहले भी बच्चों का सड़क पर निकल कर, घर से बाहर जाकर खेलना-कूदना, शरारत करना जैसे फूहड़पन की बातें हो गई थीं, इसे इस लॉकडाउन जैसी स्थिति ने और भी भयावह बना दिया है.


बच्चों को बाहर खुले में खेलने की न तो जगह दिखती थी और न ही उनको बाहर खेलने की बहुत ज्यादा अनुमति मिलती थी. जितनी आज़ादी, जितनी अनुमति उनको अपनी कॉलोनी, अपनी सोसायटी अथवा अपनी गली-मोहल्ले की बहुत छोटी जगह में खेलने-कूदने के लिए मिलती थी वह भी इस आपदा में छीन ली गई है. ऐसी विषम परिस्थिति में उनके शारीरिक मनोरंजन के, अपने दोस्तों के साथ शरारत करने के जो नाममात्र के अवसर हुआ करते थे, वे तो समाप्त ही हो गए हैं किन्तु स्कूल का जो बोझ उनके दिमाग पर, उनके मन पर था वह ज्यों का त्यों बना हुआ है. स्कूल के काम, पढ़ाई के बोझ, ऑनलाइन क्लास की अनिवार्यता में वे खुद को दबा हुआ पा रहे हैं. इस समय बच्चों के पास खेलने के लिए भी कंप्यूटर या मोबाइल ही हैं, जिनके साथ वे ऑनलाइन क्लास के कई-कई घंटे बिताकर आये होते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि उनका नैसर्गिक विकास नहीं हो पा रहा है. यदि इसी में उनको प्रतिदिन की सुबह से शाम तक की टोका-टाकी होने लगे तो ये बच्चे खुद को कमतर समझने लगते हैं. इससे न केवल बच्चे काम करने से दूर भागने लगते हैं बल्कि अपने ही अभिभावकों के प्रति नकारात्मकता पालने लगते हैं.




आज की स्थिति में माता-पिता को बच्चों के साथ न सही एक दोस्त की तरह पर दोस्ताना माहौल में काम करने की आवश्यकता है. यदि माता-पिता इस तरह का वातावरण अपने परिवार में, घर में बना पाते हैं तो बच्चों का स्वाभाविक विकास करने के प्रति एक कदम बढ़ा सकते हैं. इसके लिए अपने बच्चों से उनके दैनिक अनुभवों के बारे में बात करें. वे दिन के बहुत बड़े भाग को ऑनलाइन क्लास में बिताने के बाद अकेले जैसे ही हैं. ऐसे में उनकी पढ़ाई से ज्यादा आवश्यक है कि उनको उनकी रुचियों की तरफ ले जाया जाये. उनको अन्य गतिविधियों में संलिप्त करवाया जाये. घर के ऐसे छोटे-छोटे कामों में उनको शामिल किया जाना चाहिए जिससे उनके अन्दर सामूहिकता की भावना जगे, उनमे कार्य करने के प्रति रुचि बढ़े. बागवानी, ड्राइंग, संगीत, क्राफ्ट आदि ऐसे विषय हैं जिनके द्वारा बच्चों में उत्पन्न हो रही निराशा को दूर किया जा सकता है.


कोरोना का यह दौर बहुत कुछ सिखाने के लिए आया है. यहाँ एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि हर समय सिर्फ पढ़ाई की बातें बच्चे से नहीं करनी चाहिए. वर्तमान युग में कैरियर एक महत्त्वपूर्ण विषय हो सकता है मगर जिस भविष्य की इमारत की नींव को यदि आज कमजोर कर दिया जायेगा उस पर बुलंद इमारत बनाया जाना संभव नहीं होगा. ऐसे में उसके साथ किसी भी तरह से ऐसा व्यवहार न करें जो उसके आत्मसम्मान को चोट पहुँचाये. किसी भी काम को करने के लिए तेज आवाज़ में बोलना, बच्चे की छोटी से छोटी गलती के लिए उसको डाँटना, चिल्लाते हुए किसी काम को करने का आदेश देना आदि ऐसे कदम हैं जिनके द्वारा बच्चे में एक तरह का भय बैठ जाता है. उसके अन्दर कमजोरी के भाव पनपने लगते हैं. ऐसे में वह हीनभावना, असुरक्षा, अवसाद जैसी स्थिति का शिकार होने लगता है. कोरोनाकाल में ऐसी अवस्था बच्चों को नकारात्मकता की तरफ धकेल सकता है. सभी अभिभावकों को ऐसे माहौल में अपने बच्चों के साथ सहयोगात्मक रूप में कार्य करने की आवश्यकता है.


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वंदेमातरम्

28 अप्रैल 2021

डराने का ट्रेंड चल पड़ा है सोशल मीडिया पर

कोरोनाकाल फिर एक बार सबको डराने में लगा है. इस डर के पीछे एक कारण लोगों का अनावश्यक रूप से दहशत फैलाना भी है. बहुतेरे लोग ऐसा जानबूझ कर करने में लगे हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जो ऐसा अनजाने में करने में लगे हुए हैं. कोरोना संक्रमित लोगों में से बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो पूरी तरह से स्वस्थ होकर वापस आये हैं. सरकारी आँकड़ों पर ध्यान न देकर यदि अपने आसपास ही नजर दौड़ाएं तो हमें बहुत से लोग ऐसे मिल जायेंगे जो स्वस्थ हो गए हैं. इसके बाद भी हम सभी को सोशल मीडिया पर लोगों के निधन की खबरें ही बहुतायत में देखने-सुनने को मिल रही हैं. इससे एक दहशत भरा माहौल सोशल मीडिया पर बना हुआ है.






दरअसल इसे भी एक ट्रेंड की तरह से देखा जा सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि वर्तमान समय में सबकुछ बाजार की तरह से हमारे सामने आता है. यही बाजार अब हर एक काम के लिए एक तरह का ट्रेंड बना देता है. यही ट्रेंड आजकल चल पड़ा है कि यदि किसी की मृत्यु की सूचना दी जाती है तो तमाम ऐसे लोगों में शोक संवेदना व्यक्त करने की होड़ मच जाती है जो उस दिवंगत व्यक्ति की बीमारी की खबर पाकर उसका फोन भी नहीं उठाते थे. दिवंगत के अपरिचित होने के बाद भी ये भेड़चाल मची रहती है. ठीक है, हमारी संस्कृति, परम्परा में दिवंगत के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करना है मगर बहुत से काम देशकाल, परिस्थिति के अनुसार भी करने चाहिए.


समस्त संवेदनशील लोगों से अनुरोध है कि विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त शोक संदेश को सूचना के तौर पर पढ लें और मन ही मन ईश्वर से आत्मा की मोक्षप्राप्ति की प्रार्थना करें. लगातार ॐ शान्ति, दुखद, RIP इत्यादि लिखकर अस्वस्थ लोगों का मनोबल न गिराएं. बेहतर हो कि दिवंगत के परिजनों से मिलकर या उन्हें फोन कर उनके समक्ष अपनी भावनाएँ व्यक्त करें.


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वंदेमातरम्

23 अप्रैल 2021

एक निवेदन मददगार साथियों से

इधर कोरोना वायरस की दूसरी लहर, जैसा कि ऐसा कहा जा रहा, के आने के बाद से लोगों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है. ऐसे में बहुत से लोगों को आवश्यक चिकित्सकीय सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं. लोग मदद के लिए परेशान हैं. कोई दवाओं के लिए परेशान है तो कोई ऑक्सीजन के लिए. ऐसी स्थिति में हमारे बहुत से मित्र सोशल मीडिया की सहायता से जरूरतमंद लोगों की भरपूर सहायता, सहयोग कर रहे हैं. सभी साधुवाद के पात्र हैं.  


एक निवेदन है सभी से, जो पोस्ट किसी की सहायता के लिए लगाई गई है, यदि उसके द्वारा मदद हो चुकी है अथवा बहुत दिन हो चुके हों तो उस पोस्ट को डिलीट कर दिया करें. पोस्ट बने रहने से वह किसी नये सदस्य के सामने से गुजरती है तो वह संवेदना के साथ सम्बन्धित पोस्ट पर मदद, सहयोग की अपील/प्रयास करने लगता है, जबकि उस पोस्ट के द्वारा मदद पहले ही हो चुकी है. ऐसी स्थिति में कई लोगों को अनावश्यक परेशानी होती है साथ ही ऐसी स्थिति किसी के साथ दो-तीन बार होने पर वह सहायता के लिए आगे आना बंद कर देता है.


मदद के लिए लिखी ऐसी पोस्ट का कोई दीर्घकालिक लाभ भी नहीं. ऐसी स्थिति में वे भविष्य में अन्य लोगों के लिए संशय तो पैदा कर ही सकतीं हैं साथ ही अनावश्यक रूप से इंटरनेट स्पेक्ट्रम की जगह को घेरे रहेंगीं.


एक निवेदन और कि जिस पोस्ट के द्वारा मदद मिल जाए तो उस पोस्ट के स्क्रीनशॉट के साथ इस बारे में अवश्य सूचित कर दिया जाए ताकि सहयोग में लगे सुधिजन उस ओर से निश्चिंत हो सकें.


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वंदेमातरम्

21 अप्रैल 2021

व्यस्त रहो, खुश रहो

==>> घर में अकेले मत रहो। सबके साथ समय बिताओ।

==>> टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर पर समाचार देखना एकदम बंद कर दो।

==>> अपने मन का कोई भी काम करो। कुछ बनाओ, कुछ लिखो।

==>> मोबाइल पर अनर्गल खबरें देखने के बजाय घर के तमाम सामानों की फोटो खींचो। वीडियो बनाओ।

==>> मनपसंद गाने सुनो, फिल्में देखो।

==>> जिनसे बात करके सुकून मिलता है, उनसे फोन से बात करो।

==>> जिनको देखे कई दिन हो गये या जिनको देखने का मन है उनको वीडियो काॅल करो।

==>> ये सब करते हुए थकोगे नहीं बल्कि प्रफुल्लित रहोगे, खुश रहोगे।

==>> करके तो देखो।



वंदेमातरम्

17 अप्रैल 2021

आम नागरिकों का लापरवाही भरा व्यवहार

पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ी है वह निश्चित ही चिंताजनक है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि इस बार इसके कारण बहुत से लोगों को मौत ने छीन लिया है. जिस तरह से मीडिया में आ रहा है उससे लग रहा है जैसे चारों तरफ अव्यवस्था ही अव्यवस्था है. कहीं ऑक्सीजन की कमी दिखाई जा रही है, कहीं श्मशान घाटों पर भीड़ बताई जा रही है, कहीं से बेड न होने की समस्या है तो कहीं से दवाओं का न होना दिक्कत बढ़ा रहा है. जिस तरह से आम आदमी और सरकारी स्तर पर लापरवाही देखने को मिली है उसके बाद ऐसे हालात बन जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं.


इधर लोग सरकार को कोसने में लगे हुए हैं. ये वही लोग हैं जो पिछली बार सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाये जाने के बाद से हाहाकार मचाने लगे थे. इन लोगों ने उस समय सरकार के इस कदम का घनघोर विरोध किया था और लॉकडाउन को मजदूरों, कमजोरों आदि के लिए घातक बताया था. सरकार को, प्रधानमन्त्री को तानाशाह तक सिद्ध कर दिया था. आज यही लोग लॉकडाउन की माँग करने में लगे हैं. अब वे सरकार को, प्रधानमंत्री को लॉकडाउन न लगाने के कारण कोसने में लगे हैं. बहरहाल, इसके इतर बहुत सी जगहों पर किसी तरह की चिकित्सकीय सुविधा के अभाव के लिए सरकार को दोषी ठहराने वाले खुद को दोषमुक्त मान रहे हैं. क्या वाकई सिर्फ सरकार ही दोषी है? माना कि प्राथमिक व्यवस्था करना सरकार का काम होता है मगर क्या आम नागरिक की जिम्मेवारी नहीं कि वह सरकार के साथ ऐसे आपातकाल में खड़ा रहे?


चलिए एक पल को मान लिया जाये कि सरकार ने एक साल बाद भी किसी तरह के इंतजाम नहीं किये. उसे मालूम था कि कोरोना गया नहीं है, ऐसे में वैक्सीन की व्यवस्था किसने की? सरकार ने आम आदमी के किसी रिश्तेदार ने? जितनी भी ऑक्सीजन हॉस्पिटल में उपलब्ध है वह किसने करवाई किसी आम आदमी ने या सरकार ने? आम आदमी ने क्या किया, आपदा बढ़ती दिखी तो उसने दवाओं की कालाबाजारी शुरू कर दी. मुश्किल घड़ी सामने आई तो इंजेक्शन दस-दस गुने दामों पर बेचा जाने लगा. ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ने लगी तो उसकी जमाखोरी शुरू हो गई. कम से कम कीमत वाले मास्क तक के अच्छे-खासे दाम वसूले गए.


ये तो मानिए कि व्यापारी वर्ग की हालत थी. और लोगों को तो मालूम था कि कोरोना अभी गया नहीं है मगर उन्होंने क्या किया? अनलॉक होने के बाद से बहुतेरे घर में रहने को तैयार नहीं थे. सब बाहर सडकों पर निकल कर ऐसे जमा होने लगे जैसे अब सभी संकटों से पार पा गए हैं. एक बारगी यह भी मान लिया जाये कि घरों में बंद लोग अकुलाहट में ऐसा कर बैठे तो भी आम नागरिक ने आने वाले समय के लिए किसी तरह के चिकित्सकीय इंतजाम किये? ये सभी तरफ से बताया जा रहा था कि कोरोना अभी गया नहीं है ऐसे में क्या आम नागरिकों ने एक या दो लोगों के लिए आपातकाल के लिए अपने घर में दवाओं को रखा था? क्या किसी परिवार ने अपने बुजुर्गजनों का मेडिकल चेकअप करवाया ताकि उनको किसी खतरे की आशंका से बचाया जा सके? क्या किसी ने अपने बच्चों को सुरक्षित रहने के टिप्स दिए? नहीं न. जिसने दिए उनकी संख्या लगभग न के बराबर है.


एक ऐसे समय में जबकि सभी नागरिकों ने पिछले साल कोरोना की दहशत को देखा और झेला भी है इसके बाद भी वह सजग नहीं हो सका है. इसी लापरवाही का परिणाम है कि व्यवस्था अचानक से बोझ पड़ने पर चरमरा उठी है. हमें एक जिम्मेवार नागरिक की हैसियत से सरकार का साथ देना चाहिए न कि अपनी लापरवाहियों से उसके लिए परेशानी उत्पन्न करें.


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वंदेमातरम्

10 अप्रैल 2021

निर्वाचन आयोग की चुप्पी समझ से परे है

हम सभी आये दिन अपने लेखन में, अपने भाषणों में, अपनी सामान्य सी बातचीत में बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं, बताते हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के वासी हैं. क्या हम सिर्फ इतना कह कर ही अपनी जिम्मेवारी को पूरा मान लें? क्या महज इतने से ही हमारे सारे दायित्व पूरे हो जाते हैं? संभव है कि ये सवाल से आपको संशय हो इसलिए यदि वर्तमान परिस्थितियों के साथ आपको आगे ले चलें तो शायद बहुत कुछ समझ में आए. लोकतंत्र के वासी होने का अर्थ महज अपनी बात को कहने की आज़ादी नहीं है. लोकतंत्र के अर्थ महज यह नहीं कि हमें कुछ भी करने की स्वतंत्रता है. लोकतंत्र का सीधा सा सम्बन्ध अपनी आज़ादी के साथ-साथ हमारे साथ वाले की आज़ादी से भी है.


बहरहाल, लोकतंत्र क्या है, क्यों है की चर्चा से इतर कुछ चर्चा उस पर जिसके लिए इस पोस्ट को लिखना शुरू किया. इस समय देश में कोरोना वायरस की दूसरी लहर देखने को मिल रही है. लोग परेशान हैं, बीमार हैं और इसी के साथ देश के बहुत से हिस्सों में चुनावी लहर भी दिखाई दे रही है. बहुत सारे नागरिक इसका विरोध करते भी नजर आ रहे हैं. इसके साथ-साथ राजनैतिक दल, जनप्रतिनिधि लगातार बड़ी-बड़ी रैलियाँ करने में लगे हुए हैं. लोग सवाल उठा रहे हैं कि कोरोना के इस काल में जबकि शैक्षिक संस्थान बंद हैं, बहुत से कार्यालयों में घर से काम करने की छूट मिली हुई है तो चुनावों का करवाना इतना जरूरी क्यों?




हो सकता है कि पहली नजर में यह सवाल एकदम सही लगे मगर यदि लोकतान्त्रिक दृष्टि से इर पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि संवैधानिक प्रक्रिया में एक स्थिति ऐसी भी होती है जबकि निर्वाचन का करवाया जाना अनिवार्य जैसा ही हो जाता है. लोकतान्त्रिक व्यवस्था सिर्फ कहने मात्र से नहीं बनती है वरन उसके लिए प्रयास भी करने होते हैं. उसी प्रयास का परिणाम होता है निर्वाचन. यहाँ उसी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए देश के बहुत से हिस्सों में बहुत से चुनाव संपन्न हो रहे हैं. लोगों को लग रहा है जैसे चुनाव करवाना सरकार के आदेश पर हो रहा है. इस देश में अभी बहुतायत लोगों को जानकारी ही नहीं कि चुनाव कौन करवाता है, चुनाव में सरकार की क्या भूमिका रहती है.


चलिए, लोकतान्त्रिक दृष्टि से मान भी लिया जाये कि चुनाव लगभग अनिवार्य जैसी स्थिति में थे तो निर्वाचन आयोग को इसके संपन्न करवाने की स्थिति पर, प्रक्रिया पर संवैधानिक रूप से विचार किया जाना था. निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक स्वतंत्र निकाय है, जिसे उसकी निष्पक्षता बनाये रखने के लिए सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखा गया है. ऐसे में जबकि चुनाव करवाया जाना आवश्यक था तो निर्वाचन आयोग को कुछ नियम ऐसे बनाने थे जिनसे चुनाव भी संपन्न हो जाते और कोरोना वायरस से बचाव भी बना रहता. इसके लिए एक-दो उदाहरणों से बात को ऐसे समझा जा सकता है कि किसी भी तरह की रैलियों, जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए था. यदि किसी विशेष परिस्थिति में रैली की आवश्यकता होती भी तो महज पचास-सौ लोगों की उपस्थिति की अनुमति दी जानी थी. यदि वैवाहिक कार्यक्रम कम से कम संख्या में हो सकते हैं तो चुनावी रैलियाँ इस तरह से कम संख्या में क्यों नहीं हो सकती थीं?


इसके साथ-साथ चुनाव प्रचार पर भी सीमित संख्या का प्रतिबन्ध होना चाहिए था. किसी भी उम्मीदवार के लिए समर्थन, वोट मांगते समय एक टोली में अधिकतम चार-पाँच लोग ही होने चाहिए थे. सभी को कोविड के नियमों का पालन करना अनिवार्य किया जाना था. यदि कार के अन्दर अकेले चल रहे व्यक्ति के लिए मास्क लगाना अनिवार्य हो सकता है, यदि सड़क पर बिना मास्क के अकेले चल रहे व्यक्ति का चालान काटा जा सकता है तो फिर चुनाव प्रचार के लिए यह प्रतिबन्ध क्यों नहीं?


एक तरफ प्रधानमंत्री जी दो गज दूरी, मास्क है जरूरी; दवाई भी, कड़ाई भी का नारा लगाते हैं और खुद उनकी ही रैलियों में लाखों लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे हैं. क्या इस तरह से कोरोना फैलने का डर नहीं होता है? क्या चुनावी रैलियों की भीड़ कोरोना वायरस के प्रसार को बढ़ाती नहीं? यदि चुनावी रैलियों, प्रचार से कोरोना नहीं फैलता है तो फिर ये चुनाव पूरे वर्ष भर के लिए कर देने चाहिए. इससे कोरोना से लोग बचे रहेंगे और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया भी सुगमता से चलती रहेगी. समझ से परे है निर्वाचन आयोग का वर्तमान रवैया. आखिर राजनैतिक दलों को तो अपना बाजार सजाना है मगर निर्वाचन आयोग की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो वह कोरोना के खतरे को देखने के बाद भी अपनी आँखें बंद किये है?


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वंदेमातरम्

03 अप्रैल 2021

कोरोना : चुनाव तुझसे बैर नहीं, जनता तेरी खैर नहीं

देश में एक बार फिर कोरोना लहर दिखाई देने लगी है. इसे यदि थोड़ा सा संशोधित कर दिया जाये तो कहा जा सकता है कि देश के चुनिन्दा भागों, राज्यों को छोड़कर कर कोरोना ने दोबारा अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात आदि सहित अनेक राज्यों में कोरोना संक्रमितों की संख्या अचानक से बढ़नी शुरू हो गई है. इन प्रभावित राज्यों के कई-कई शहर बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं और इनमें रात्रि का लॉकडाउन लगा दिया गया  है. कई जगहों से लॉकडाउन के विरोध में भी उठते स्वरों का सुना जा सकता है. आखिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं.


जनसाधारण ने वर्ष 2020 में लॉकडाउन के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं को बहुत करीब से देखा है. उस स्थिति में बहुतों ने अपने रोजगार को गँवाया है तो बहुत से परिवारों ने उसी स्थिति के कारण अपने परिजनों को भी खोया है. ऐसे में कैसे लॉकडाउन को स्वीकार कर लिया जाये? यह स्थिति उस समय और भी असमंजस वाली हो जाती है जबकि कोरोना का असर उन राज्यों में बिलकुल भी नहीं दिखाई दे रहा है जहाँ चुनाव हो रहे हैं. इन राज्यों में जिस तरह से भीड़ भरी रैलियाँ हो रही हैं, जिस तरह से शीर्ष नेता बिना मास्क के यात्रा करने में लगे हैं, बिना मास्क और सोशल डिस्टेंस के जिस तरह से भीड़ ग़दर काटे है वह कोरोना की भयावहता के उलट कहानी कहता है. ऐसे में लॉकडाउन के खिलाफ लोगों का आना स्वाभाविक है.




इधर अब 45+ आयु वालों को भी कोरोना से लड़ने वाली वैक्सीन लगने लगी है मगर इसे भी शत-प्रतिशत सुरक्षित नहीं माना जा सकता है. यदि चिकित्सकीय दृष्टि से देखा जाये तो वैस्कीन की दो खुराकों और निश्चित सावधानी के बाद ही कोरोना की भयावहता से बचा जा सकता है. ऐसे में स्पष्ट है कि वैक्सीन की एक खुराक कोरोना से बचाव के लिए पूरी तरह प्रभावी नहीं. इसके लेने के बाद सम्बंधित व्यक्ति को मास्क, सुरक्षित दूरी, सेनेटाइज आदि का प्रयोग करते रहना है. यदि ऐसा है तो फिर चुनावी राज्यों में भीड़ को अनदेखा क्यों किया जा रहा है? अभी तक चुनावी राज्यों से इतर जहाँ-जहाँ कोरोना संक्रमितों की संख्या मिल रही है वहाँ विवाहोत्सवों तक के लिए प्रशासनिक अनुमति लेने जैसे प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं. विद्यालय बंद करवा दिए गए हैं. मॉल, मंदिर आदि बंद हैं मगर चुनावी रैलियाँ प्रतिबंधित नहीं हैं. इसे क्या समझा जाये?


गंभीरता के साथ देखा जाये, विचार किया जाये तो ऐसा लगता है जैसे कोरोना की दूसरी लहर नितांत काल्पनिक स्थिति है. ऐसा इसलिए क्योंकि यदि कोरोना की दूसरी लहर भयावह होती तो चुनावी राज्यों में इतनी भीड़ के बाद भी कोरोना संक्रमितों की भयावह स्थिति नहीं दिख रही है. यह भी हो सकता है कि कोरोना की दूसरी लहर भयावह हो मगर चुनावी राज्यों में आँकड़ों को छिपाए रखने के आदेश दिए गए हों? अभी किसी भी स्थिति को पूरी प्रमाणिकता के साथ कह पाना कठिन है मगर यह तो कहना अत्यंत सहज है कि चुनावी राज्यों में या तो कोरोना का असर नहीं है या फिर यहाँ के लोग कोरोना संक्रमण-प्रूफ हो चुके हैं.


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वंदेमातरम्