10 अप्रैल 2021

निर्वाचन आयोग की चुप्पी समझ से परे है

हम सभी आये दिन अपने लेखन में, अपने भाषणों में, अपनी सामान्य सी बातचीत में बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं, बताते हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के वासी हैं. क्या हम सिर्फ इतना कह कर ही अपनी जिम्मेवारी को पूरा मान लें? क्या महज इतने से ही हमारे सारे दायित्व पूरे हो जाते हैं? संभव है कि ये सवाल से आपको संशय हो इसलिए यदि वर्तमान परिस्थितियों के साथ आपको आगे ले चलें तो शायद बहुत कुछ समझ में आए. लोकतंत्र के वासी होने का अर्थ महज अपनी बात को कहने की आज़ादी नहीं है. लोकतंत्र के अर्थ महज यह नहीं कि हमें कुछ भी करने की स्वतंत्रता है. लोकतंत्र का सीधा सा सम्बन्ध अपनी आज़ादी के साथ-साथ हमारे साथ वाले की आज़ादी से भी है.


बहरहाल, लोकतंत्र क्या है, क्यों है की चर्चा से इतर कुछ चर्चा उस पर जिसके लिए इस पोस्ट को लिखना शुरू किया. इस समय देश में कोरोना वायरस की दूसरी लहर देखने को मिल रही है. लोग परेशान हैं, बीमार हैं और इसी के साथ देश के बहुत से हिस्सों में चुनावी लहर भी दिखाई दे रही है. बहुत सारे नागरिक इसका विरोध करते भी नजर आ रहे हैं. इसके साथ-साथ राजनैतिक दल, जनप्रतिनिधि लगातार बड़ी-बड़ी रैलियाँ करने में लगे हुए हैं. लोग सवाल उठा रहे हैं कि कोरोना के इस काल में जबकि शैक्षिक संस्थान बंद हैं, बहुत से कार्यालयों में घर से काम करने की छूट मिली हुई है तो चुनावों का करवाना इतना जरूरी क्यों?




हो सकता है कि पहली नजर में यह सवाल एकदम सही लगे मगर यदि लोकतान्त्रिक दृष्टि से इर पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि संवैधानिक प्रक्रिया में एक स्थिति ऐसी भी होती है जबकि निर्वाचन का करवाया जाना अनिवार्य जैसा ही हो जाता है. लोकतान्त्रिक व्यवस्था सिर्फ कहने मात्र से नहीं बनती है वरन उसके लिए प्रयास भी करने होते हैं. उसी प्रयास का परिणाम होता है निर्वाचन. यहाँ उसी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए देश के बहुत से हिस्सों में बहुत से चुनाव संपन्न हो रहे हैं. लोगों को लग रहा है जैसे चुनाव करवाना सरकार के आदेश पर हो रहा है. इस देश में अभी बहुतायत लोगों को जानकारी ही नहीं कि चुनाव कौन करवाता है, चुनाव में सरकार की क्या भूमिका रहती है.


चलिए, लोकतान्त्रिक दृष्टि से मान भी लिया जाये कि चुनाव लगभग अनिवार्य जैसी स्थिति में थे तो निर्वाचन आयोग को इसके संपन्न करवाने की स्थिति पर, प्रक्रिया पर संवैधानिक रूप से विचार किया जाना था. निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक स्वतंत्र निकाय है, जिसे उसकी निष्पक्षता बनाये रखने के लिए सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखा गया है. ऐसे में जबकि चुनाव करवाया जाना आवश्यक था तो निर्वाचन आयोग को कुछ नियम ऐसे बनाने थे जिनसे चुनाव भी संपन्न हो जाते और कोरोना वायरस से बचाव भी बना रहता. इसके लिए एक-दो उदाहरणों से बात को ऐसे समझा जा सकता है कि किसी भी तरह की रैलियों, जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए था. यदि किसी विशेष परिस्थिति में रैली की आवश्यकता होती भी तो महज पचास-सौ लोगों की उपस्थिति की अनुमति दी जानी थी. यदि वैवाहिक कार्यक्रम कम से कम संख्या में हो सकते हैं तो चुनावी रैलियाँ इस तरह से कम संख्या में क्यों नहीं हो सकती थीं?


इसके साथ-साथ चुनाव प्रचार पर भी सीमित संख्या का प्रतिबन्ध होना चाहिए था. किसी भी उम्मीदवार के लिए समर्थन, वोट मांगते समय एक टोली में अधिकतम चार-पाँच लोग ही होने चाहिए थे. सभी को कोविड के नियमों का पालन करना अनिवार्य किया जाना था. यदि कार के अन्दर अकेले चल रहे व्यक्ति के लिए मास्क लगाना अनिवार्य हो सकता है, यदि सड़क पर बिना मास्क के अकेले चल रहे व्यक्ति का चालान काटा जा सकता है तो फिर चुनाव प्रचार के लिए यह प्रतिबन्ध क्यों नहीं?


एक तरफ प्रधानमंत्री जी दो गज दूरी, मास्क है जरूरी; दवाई भी, कड़ाई भी का नारा लगाते हैं और खुद उनकी ही रैलियों में लाखों लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे हैं. क्या इस तरह से कोरोना फैलने का डर नहीं होता है? क्या चुनावी रैलियों की भीड़ कोरोना वायरस के प्रसार को बढ़ाती नहीं? यदि चुनावी रैलियों, प्रचार से कोरोना नहीं फैलता है तो फिर ये चुनाव पूरे वर्ष भर के लिए कर देने चाहिए. इससे कोरोना से लोग बचे रहेंगे और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया भी सुगमता से चलती रहेगी. समझ से परे है निर्वाचन आयोग का वर्तमान रवैया. आखिर राजनैतिक दलों को तो अपना बाजार सजाना है मगर निर्वाचन आयोग की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो वह कोरोना के खतरे को देखने के बाद भी अपनी आँखें बंद किये है?


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वंदेमातरम्

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