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29 मई 2025

चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का उत्साह??

22 अप्रैल 2025 को प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया की सबसे बड़ी चौथी अर्थव्यवस्था बन गया है. भारत ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी इस बड़ी छलांग को लगाते हुए जापान को पीछे छोड़ दिया है. आईएमएफ की रिपोर्ट के बाद इसकी पुष्टि करते हुए नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रमण्यम ने बताया कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वर्तमान में चार ट्रिलियन डॉलर से अधिक का हो गया है. इसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था अब विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई ही. आईएमएफ की रिपोर्ट की पुष्टि करने के साथ-साथ उन्होंने बताया कि यदि देश की नीतियाँ ऐसे ही काम करती रहीं तो आने वाले कुछ वर्षों में हमारा देश जर्मनी को पीछे छोड़कर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है.

 



जीडीपी के आधार पर वर्ष 2023 के आँकड़ों में विश्व की प्रथम दस अर्थव्यवस्थाओं में देश की अर्थव्यवस्था पाँचवें स्थान पर थी. तब हमारे देश की अर्थव्यवस्था 3.56 ट्रिलियन डॉलर थी. तत्कालीन आँकड़ों के अनुसार भारत से आगे विश्व अर्थव्यवस्थाओं में चार देश अमेरिका (27.72 ट्रिलियन डॉलर), चीन (17.79 ट्रिलियन डॉलर), जर्मनी (4.52 ट्रिलियन डॉलर) और जापान (4.20 ट्रिलियन डॉलर) ही थे. इस वर्ष जारी की गई रिपोर्ट में आईएमएफ का कहना यह भी है कि वर्ष 2025 में भारत की विकास दर 6.2 प्रतिशत और वर्ष 2026 में 6.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अधिक है. इन आँकड़ों का आईएमएफ की तरफ से जारी होने के कारण भी देश के आर्थिक क्षेत्र में तथा सत्ता पक्ष में उत्साह दिखाई दे रहा है.

 

वैश्विक स्तर पर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का प्रभाव न केवल देश की आंतरिक स्थिति पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखाई देगा. ऐसी स्थिति के चलते अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक मंचों जैसे जी-20, विश्व बैंक, आईएमएफ आदि में भारतीय छवि का सकारात्मक स्वरूप नजर आएगा. इसके चलते विदेशी निवेश बढ़ने की भी सम्भावना है. विश्व स्तर की बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ वैसे भी भारतीय बाजार में अपने उत्पादों के लिए ग्राहकों को लगातार तलाशती रही हैं. अब उनको भारत में एक आकर्षक बाजार नजर आ रहा होगा. देखा जाये तो भारत दक्षिण एशिया में लम्बे समय से नेतृत्वकर्ता की भूमिका में रहा है और विगत कुछ वर्षों में उसके क्षेत्र और विश्वास में भी वृद्धि हुई है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेकानेक मंचों पर, महाशक्ति समझे जाने वाले देशों में भारत की सकारात्मक एवं सशक्त छवि बनी है. देश की वर्तमान आर्थिक उपलब्धि के बाद उसके आर्थिक नेतृत्वकर्ता के रूप में भी आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता दिखता है. भारतीय अर्थव्यवस्था के चौथे स्थान पर आने के अपने-अपने सन्दर्भ तलाशे जा रहे हैं. इनको तलाशा भी जाना चाहिए, आखिर आम जनमानस को भी इसके सन्दर्भों से परिचित होने की आवश्यकता है. एक तरफ आर्थिक क्षेत्र में, सत्ता के गलियारों में उत्साह दिख रहा है, दूसरी तरफ आम नागरिक अभी भी शिक्षा, स्वास्थ्य, मँहगाई, बेरोजगारी, गरीबी आदि से जूझ रहा है.

 

देश के चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाने के बाद भी क्या भारतीय समाज की, सामान्य जन-जीवन की, भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविकता से मुँह मोड़ा जा सकता है? अर्थव्यवस्था सम्बन्धी आँकड़ों को सामने लाने का कार्य मुख्य रूप से जीडीपी को आधार बनाकर किया जाता है. जीवन-शैली और आर्थिकी के सन्दर्भ में जीडीपी और जन-जीवन दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं, दोनों के अलग-अलग स्वरूप हैं. जीडीपी से देश की अर्थव्यवस्था का आकार तो मापा जा सकता है किन्तु उसके द्वारा सामान्य जनजीवन के बारे में, आय और संपत्ति के वितरण के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाने के बाद भी प्रति व्यक्ति आय के सन्दर्भ में देश वैश्विक स्तर पर 144वें स्थान पर आता है. यह विडम्बनापूर्ण ही है कि अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भारत से आगे मात्र तीन देश हैं लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में 143 देश हमसे आगे हैं. यदि जापान के सन्दर्भ में ही आँकड़ों को देखें तो भारत में प्रति व्यक्ति आय तीन हजार डॉलर से कम है जबकि जापान की प्रति व्यक्ति आय 34 हजार डॉलर है. जीडीपी के सन्दर्भ में हम भले ही जापान से आगे निकल आये हों किन्तु प्रति व्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, रोजगार, तकनीक आदि जैसे क्षेत्रों में जापान हमसे बहुत आगे है.

 

किसी भी देश के विकास में शिक्षा की गुणवता, नागरिकों का स्वास्थ्य, उनकी जीवन प्रत्याशा, जीवन-शैली, प्रति व्यक्ति आय आदि का बहुत बड़ा योगदान होता है. इनका सकारात्मक रूप और इसका स्तर किसी भी देश के सामाजिक जीवन में नवाचार को दर्शाता है. अपने देश की साक्षरता दर भले ही 75 प्रतिशत से अधिक की है लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल विकास में कमी बनी हुई है. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति अत्यंत जटिल है. इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी सुखद नहीं कही जा सकती है. आय और सम्पत्ति के वितरण में भी व्यापक असमानता दिखाई देती है. देश के संसाधनों की बहुलता मुट्ठी भर लोगों के पास है और अधिसंख्यक नागरिकों के पास अत्यल्प संसाधन हैं. ऐसे में आँकड़ों के सन्दर्भ में, जीडीपी के आधार पर, वैश्विक स्थिति में वृद्धि होने को लेकर भले ही उत्साह दिखा लिया जाये मगर सामाजिक स्थिति के सन्दर्भ में, आम जनमानस के आधार पर आईएमएफ की इस रिपोर्ट पर अत्यधिक उत्साहित होने की, गर्वोन्नत होने की आवश्यकता नहीं है.

 

14 मार्च 2024

आर्थिक सम्पन्नता से होगी वैतरणी पार

लोकसभा चुनावों की सुगंध चारों तरफ फैलने लगी है. इस बार का लोकसभा चुनाव जहाँ एक तरफ विपक्षी गठबंधन के लिए अग्निपरीक्षा जैसा है वहीं भाजपा के लिए खुद को निखारने जैसा है. विगत दस वर्षों के कार्यों को देखने के बाद शायद ही किसी राजनैतिक विश्लेषक को केन्द्र में भाजपानीत सरकार के प्रति संशय हो. इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए प्रतिद्वंद्विता स्वयं से ही है, निखारना भी स्वयं को है, साबित भी स्वयं को करना है. विगत दस वर्षों के कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी द्वारा किये गए कार्यों, उनके द्वारा लिए गए अनेक साहसिक निर्णयों के द्वारा यह निर्धारित हो चुका है कि वे देशहित में किसी भी तरह का साहसिक निर्णय लेने से पीछे नहीं हटते हैं.

 

उनके इन्हीं कार्यों, निर्णयों के आधार पर सहज स्वीकार्यता बनी हुई है कि इस लोकसभा चुनाव में जनादेश प्राप्त करने के बाद वे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी कर लेंगे. देश में अभी तक हुए सत्रह लोकसभा चुनावों में जवाहर लाल नेहरू के अतिरिक्त किसी को भी लगातार तीन बार जनादेश नहीं मिला है. नेहरू जी के नेतृत्व में 1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस विजयी हुई थी. भाजपा द्वारा ‘अबकी बार, चार सौ पार’ का नारा ऐसे ही नहीं दिया जा रहा है. ऐसा अनुमान है कि नरेन्द्र मोदी अपने तमाम कार्यों, निर्णयों के आधार पर कांग्रेस के एक और कीर्तिमान पर अपनी नजर बनाये हुए हैं. अभी तक के लोकसभा चुनावों में वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उसी वर्ष संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने कीर्तिमान रचते हुए ऐतिहासिक 415 सीटों के साथ केन्द्र में सरकार बनायी थी. नरेन्द्र मोदी और भाजपा का पूरा प्रयास रहेगा कि अपने कार्यों के चलते वे इस ऐतिहासिक संख्या को छू सकें.

 



जिस तरह की राजनैतिक हलचल मची हुई है, जिस तरह से विपक्ष के क्रियाकलाप हैं, जिस तरह से उनके द्वारा बयानबाजी की जा रही है, जिस तरह से मतदाताओं का रुख है उसे देखकर इस लोकसभा में भाजपा को जनादेश मिलना मुश्किल नहीं लग रहा है. इसके पीछे नरेन्द्र मोदी के वे तमाम कार्य और निर्णय हैं जो उन्होंने पूरे साहस के साथ पूरे किये हैं. इन कार्यों में चाहे नोटबंदी हो, 370 की समाप्ति हो, तीन तलाक का मामला हो, राममंदिर निर्माण हो, नारी शक्ति वंदन अधिनियम हो, नागरिकता संशोधन अधिनियम हो या फिर समान नागरिक संहिता जैसा मुद्दा हो. असल में इन कार्यों को भाजपा के थिंक टैंक द्वारा, उनके सहयोगियों द्वारा तो खूब प्रचारित-प्रसारित किया गया मगर उन अनेकानेक कार्यों पर विषद चर्चा कभी नहीं की गई जो जनहित से जुड़े रहे, जो आर्थिक नीतियों से जुड़े रहे. उक्त तमाम विषयों को विरोधियों द्वारा बार-बार आलोचनात्मक रूप में उठाते हुए सरकार की आलोचना की गई कि उसके द्वारा गरीबी, स्वास्थ्य, मंहगाई, रोजगार आदि के लिए किसी भी तरह का कार्य नहीं किया गया. इन बिदुओं पर भाजपा के रणनीतिकारों द्वारा भी जनमानस के बीच जाने का प्रयास नहीं किया गया. आम जनता को यह समझाने का प्रयास ही नहीं किया गया कि मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार द्वारा महज जम्मू-कश्मीर, अयोध्या, वाराणसी आदि पर ही कार्य नहीं किया गया बल्कि आयुष्मान योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, बालिका समृद्धि योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया आदि के द्वारा देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर खड़ा करने का कार्य किया है.

 

2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से अद्यतन भारतीय राजनीति को दो-दो दशकों के तुलनात्मक रूप में देखा जाने लगा है. इसमें पहला मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाला 2004-2014 का संप्रग कार्यकाल और दूसरा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाला 2014-2024 का राजग कार्यकाल है. यहाँ इन दो-दो दशकों के एक-एक पक्ष को विश्लेषित कर पाना संभव नहीं है मगर कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को अवश्य ही दर्शाया जा सकता है. जब भी किसी सरकार के कार्यों का आकलन किया जाता है तो मंहगाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना आदि पर विशेष नजर रखी जाती है. तुलनात्मक रूप में देखें तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने प्रति व्यक्ति वार्षिक आय, रसोई गैस कनेक्शन, आवास, शौचालय, शिक्षा, विदेशी मुद्रा भंडार, आधारभूत संरचना, मातृत्व सेवाओं आदि में जबरदस्त उपलब्धि प्राप्त की है. उज्ज्वला योजना, सस्ते आवास योजना, शौचालय निर्माण के द्वारा मोदी सरकार ने जन-जन में, गरीब तबके में अपनी पैठ बनाई है. 2004 में रसोई गैस कनेक्शन की संख्या 14.5 करोड़ थी जो 2023 में 31.4 करोड़ हो गई. स्वच्छता के प्रति गम्भीर मोदी सरकार ने शौचालय के निर्माण में सकारात्मकता दिखाई. अपने दोनों कार्यकाल में 11.5 करोड़ शौचालयों का निर्माण करके मोदी सरकार ने महिलाओं, बहू-बेटियों को खुले में शौच जाने की शर्मिंदगी, मुसीबत से छुटकारा दिलवाया. आश्चर्य की बात है कि संप्रग सरकार के दो दशकों में महज 1.8 करोड़ शौचालयों का ही निर्माण करवाया जा सका था. महिलाओं के प्रति संवेदनशील मोदी सरकार ने मातृत्व लाभार्थियों के प्रति विशेष जागरूकता दिखाई है. उनके कार्यकाल में ऐसे लाभार्थियों की संख्या 9.9 लाख के मुकाबले 559 लाख तक पहुँची.

 

भाजपा, मोदी विरोधियों द्वारा आये दिन मँहगाई, आर्थिक स्तर आदि को लेकर हमलावर रुख अपनाया जाता है. बयानबाजियों के लिए किसी भी स्तर तक जाकर जनमानस को बरगलाया जा सकता है किन्तु यदि तथ्यों की, आँकड़ों की बात की जाये तो कुछ अलग ही परिदृश्य नजर आता है. संप्रग सरकार के अंतिम दिनों में विदेशी मुद्रा कोष की स्थिति अत्यंत ही दयनीय बनी हुई थी. मँहगाई की औसत दर भी अपने चरम पर थी. मोदी सरकार द्वारा इन क्षेत्रों में विशेष प्रयास किये गए. दूसरे देशों से लगातार संपर्क, खाड़ी देशों से दोस्ताना सम्बन्ध आदि के चलते समय के साथ आर्थिक स्थिति में सुधार आया. विदेशी मुद्रा इस जनवरी में 617 अरब डॉलर था और मंहगाई की औसत दर वर्ष 2023 में 5.1 प्रतिशत रही. इस तरह के आर्थिक माहौल के चलते ही अनेक विदेशी कम्पनियों ने भारत का रुख किया. निवेश की जबरदस्त स्थिति के चलते ही देश ने पहली बार भारतीय वस्तुओं के निर्यात को 400 अरब डॉलर के पार किया. इस तरह की आर्थिक स्थिति के कारण ही आज भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. 2023 में देश की जीडीपी 3.7 लाख करोड़ हो गई है और इसके 2024 में 4.1 लाख करोड़ रहने का अनुमान है.

 

वर्तमान में नरेन्द्र मोदी के कार्यों-निर्णयों ने उनके कद को अत्यंत विराट स्वरूप दे दिया है. मुद्दा चाहे राष्ट्रीय महत्त्व का हो या फिर क्षेत्रीय महत्त्व का प्रत्येक स्तर पर मोदी सरकार की सहभागिता दिखाई देती है. जहाँ उनके द्वारा सामाजिक क्षेत्र में सक्रियता दिखाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, पोषण, आवास आदि की समस्या को दूर करते हुए 24.8 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने का कार्य किया गया वहीं विदेशी मुद्रा भंडार, टैक्स संरचना, नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता, बिजनेस रैंकिंग आदि में बहुआयामी परिवर्तन  करके देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाई है. आज जिस तरह से देश का आर्थिक, सामाजिक ढाँचा सुधारात्मक मोड में है, लोगों की क्रय-क्षमता बढ़ी है, ग्रामीण अंचलों तक बिजली ने अपनी पहुँच बनाई है, मूलभूत सुविधाओं ने महिलाओं की जीवन-शैली को सहज बनाया है उससे जनमानस में नरेन्द्र मोदी के प्रति, सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा है. निश्चित ही यही विश्वास भाजपा को, नरेन्द्र मोदी को इस लोकसभा चुनावी वैतरणी सफलतापूर्वक, सहजतापूर्वक पार करवा देगा. 





 

01 मार्च 2024

डिजिटलाइजेशन के बढ़ते कदम

वर्ष 2016 में जब देश में नोटबंदी या विमुद्रीकरण जैसी आर्थिक प्रक्रिया को लागू किया गया था, उस समय देश के समस्त क्षेत्रों में इस बात को लेकर एक तरह का प्रश्न उभरा था कि सरकार द्वारा इसके सापेक्ष जिस तरह से डिजिटलाइजेशन की पैरवी की जा रही है, वह कितनी सफल रहेगी. यदि उन दिनों की स्थिति का आज आकलन किया जाये तो डिजिटलाइजेशन की सफलता से ज्यादा उसकी स्वीकार्यता को लेकर संशय बना हुआ था. देश के बहुतायत ग्रामीण अंचलों में इंटरनेट की अनुपस्थिति, इंटरनेट होने की स्थिति में उसकी गति का कम होना, डिजिटलाइजेशन के प्रति जनमानस के विश्वास को लेकर भी एक तरह का संशय बना हुआ था. समय के साथ देश की स्थिति में परिवर्तन होता रहा, राजनैतिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव के साथ-साथ आर्थिक बदलाव के दौर को भी देश ने देखा और अर्थव्यवस्था को गति देने में डिजिटल मुद्रा ने अपना प्रभाव दिखाया. सुखद यह है कि देश की आर्थिक गतिविधियों को डिजिटलाइजेशन ने, डिजिटल मुद्रा ने, डिजिटल लेनदेन ने सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.

 



विमुद्रीकरण के पश्चात् डिजिटल अर्थव्यवस्था की गति सकारात्मक रूप से बढ़ी है. डिजिटलाइजेशन के कारण देश के विभिन्न वर्गों को, विभिन्न क्षेत्रों को, युवाओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर भी मिला. देश में डिजिटल सिस्टम का विकास के पीछे अनेक तत्त्व प्रभावी भूमिका में रहे हैं. इसके लिए सर्वप्रथम सरकार द्वारा ही डिजिटलाइजेशन के लिए लगातार प्रयास करना रहा है. इंटरनेट को बढ़ावा देना, सुदूर क्षेत्रों में इसकी पहुँच बनाना, विद्यार्थियों, युवाओं तक स्मार्टफोन का पहुँचाना भी महत्त्वपूर्ण कदम रहा है. इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार देश में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 2025 तक 900 मिलियन तक पहुँचने की उम्मीद है. इसके साथ-साथ डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे प्रयासों से भी डिजिटल प्रौद्योगिकी बढ़ावा मिला. देश में डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने के लिए यूपीआई, यूएसएसडी, भीम आधार, भीम यूपीआई, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, इंटरनेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, आईएमपीएस, एनईएफटी, आरटीजीएस आदि को सरकारी स्तर पर लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है. इसका एक सकारात्मक प्रभाव यह देखने को मिला है कि न केवल बड़े-छोटे दुकानदार इसका प्रयोग कर रहे हैं बल्कि रेहड़ी वाले, दिहाड़ी रूप में अपना व्यापार करने वाले, ऑटो रिक्शा आदि जैसी सेवाएँ देने वाले भी डिजिटल लेनदेन के द्वारा अपना काम चला रहे हैं.

 

देश में मात्र डिजिटल लेनदेन ने ही यहाँ के डिजिटल सिस्टम को मजबूत अथवा प्रभावी नहीं बनाया है बल्कि सरकार द्वारा डिजिटल क्षेत्र में किये गए सुधारों ने भी यहाँ के डिजिटल तंत्र को सशक्त बनाया है. इसी सशक्त डिजिटल तंत्र की सफलता के कारण ही गत वर्ष अमेरिका और भारत के साथ महत्त्वपूर्ण समझौते हुए थे. इनमें एआई, सेमीकंडक्टर, हाई-परफोर्मेंस कम्प्यूटिंग सहित अनेक क्षेत्र सम्मिलित हैं. यह देश की डिजिटल क्षमताओं का ही प्रभाव है कि अमेरिका की प्रसिद्ध चिप निर्माता कंपनी द्वारा गुजरात में लगभग तीन अरब डॉलर की लागत से चिप असेम्बिलंग, टेस्टिंग, पैकेजिंग आदि का प्लांट लगाया जा रहा है. इसके साथ-साथ भारत की अध्यक्षता में संपन्न जी-20 शिखर सम्मलेन के दौरान सम्पूर्ण विश्व ने डिजिटल इंडिया की क्षमता को, विश्वसनीयता को, प्रतिभा को नजदीक से न केवल महसूस किया बल्कि उसकी सराहना भी की. सरकार के डिजिटलाइजेशन के प्रति गंभीर होने का भाव इसी से समझ आता है कि उसके द्वारा लगातार इस क्षेत्र में सक्रियता के साथ काम किया जा रहा है. गत वर्ष पीएलआई स्कीम-दो को मंजूरी देकर सरकार ने देश में ही कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, टैबलेट आदि के विनिर्माण को प्रोत्साहित किया है.

 

देश में इन उत्पादों के विनिर्माण से निश्चित ही एक तरफ कीमतों में कमी देखने को मिलेगी, दूसरी तरफ डिजिटलाइजेशन के प्रति भी गतिविधियों में तेजी दिखाई पड़ेगी. डिजिटल लेनदेन से जहाँ एक तरफ नकद लेनदेन की निर्भरता कम हुई है वहीं दूसरी तरफ नकली करेंसी से भी बचना हो सका है. इसके बाद भी अभी भी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा नकद लेनदेन पर निर्भर है. सरकार का निरन्तर प्रयास यही है कि देश के नागरिक डिजिटल लेनदेन का अधिक से अधिक उपयोग करें. इसके लिए सरकार को कुछ और कदम भी इस तरफ उठाने की आवश्यकता है. व्यापारियों, नागरिकों को डिजिटल भुगतान के तरीकों को अपनाने के लिए उनको प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है. ऑनलाइन भुगतान करने पर व्यापारियों, नागरिकों को कुछ छूट, लाभ दिए जा सकते हैं. व्यापारियों को पॉइंट-ऑफ-सेल टर्मिनल खरीदने के लिए सब्सिडी प्रदान की जा सकती है. अपना बहुतायत भुगतान डिजिटल माध्यम से करने वाले नागरिकों को भी किसी न किसी रूप में लाभान्वित किया जाये. फिलहाल तो देश में डिजिटल लेनदेन अपनी गति से निरंतर आगे बढ़ रहा है. निकट भविष्य में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या और ई-कॉमर्स बाजार में वृद्धि के चलते देश में डिजिटलाइजेशन का भविष्य उज्ज्वल समझ आता है. 





 

22 फ़रवरी 2023

हिंडनबर्ग रिपोर्ट और अडानी ग्रुप

जनवरी में हिंडनबर्ग रिसर्च ने अडानी ग्रुप पर एक रिपोर्ट सार्वजानिक की थी. इस रिपोर्ट ने पूरी दुनिया में हलचल मचा दी. उस दिन से आज तक संसद से लेकर सड़क तक इसी रिपोर्ट की चर्चा हो रही है. रिपोर्ट आने के बाद से अडानी के शेयरों में काफी गिरावट आई और इस ग्रुप की मार्केट वैल्यू भी गिर गई. इसके साथ ही निवेशकों को भी नुकसान सहना पड़ रहा है. हिंडनबर्ग एक अमेरिकन इन्वेस्टमेंट कंपनी है जो फोरेंसिक वित्तीय अनुसंधान का काम करती है. हिंडनबर्ग रिसर्च की वेबसाइट के अनुसार यह कंपनी किसी भी अन्य कंपनी के निवेश, इक्विटी, क्रेडिट और डेरिवेटिव पर शोध करती है. इसके साथ-साथ कंपनी शेयर मार्केट की बारीकियों का विश्लेषण करके, कई सूत्रों की मदद से किसी कंपनी में हो रही धोखाधड़ी को सबसे सामने लेकर आती है. 


हिंडनबर्ग रिसर्च की स्थापना सन 2017 में नाथन एंडरसन ने की थी. इंटरनेशनल बिजनेस में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद एंडरसन ने एक डाटा कंपनी में रिसर्च सिस्टम्स का काम शुरू किया. इसी वर्ष एंडरसन द्वारा अपनी शॉर्ट-सेलिंग कंपनी को शुरू किया गया. हिंडनबर्ग रिसर्च नाम से शुरू इस कंपनी का मुख्य कार्य अकाउंटिंग में अनियमितताओं को देखना, अहम पदों पर अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति, अघोषित लेन-देन, किसी तरह की ग़ैर-क़ानूनी, अनैतिक व्यापार या वित्तीय रिपोर्टिंग को तैयार करना रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2020 के बाद से हिंडनबर्ग द्वारा तीस कंपनियों की रिसर्च रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है. यह कोई संयोग नहीं कि उसकी रिसर्च रिपोर्ट आने के बाद से सम्बंधित कंपनी के शेयर औसतन पंद्रह प्रतिशत तक गिए गए. शेयरों का गिरना मात्र इतने तक ही नहीं रहा. आने वाले छह महीने में उन कंपनियों के शेयरों में औसतन पच्चीस प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई, जिनकी रिपोर्ट को हिंडनबर्ग द्वारा प्रस्तुत किया गया.




यदि इस कंपनी के मूल में जाकर देखा जाये तो यह एक तरह की शॉर्ट सेलर है. शॉर्ट सेलर से तात्पर्य ऐसे शेयर निवेशक से है जो शेयरों की खरीद और बिक्री तब करता है जब शेयरों के दामों के भविष्य में गिरने की संभावना होती है. ऐसी स्थिति में कई बार शॉर्ट सेलर अपने पास शेयर न होते हुए भी इन्हें बेचता है. ऐसा वह शेयर खरीदने के बजे उनको उधार लेकर बेचता है. यह एक तरह का जुआ कहा जा सकता है. यदि शेयरों की गिरावट का और उनके बढ़ने का अंदाजा सही निकला तो शॉर्ट सेलर को लाभ ही लाभ होता है. हिंडनबर्ग पर इसी तरह का शेयर कारोबार करने का आरोप लगता रहा है. कहा जाता रहा है कि हिंडनबर्ग द्वारा अपनी रिसर्च रिपोर्ट सम्बंधित कंपनी के शेयर खरीदने के लिए ही सार्वजनिक की जाती है. हिंडनबर्ग उस कंपनी के शेयर गिराकर इसी तरह से लाभ लेती है.


हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में अडानी ग्रुप पर कुछ सवाल उठाए हैं. इस रिपोर्ट में सवाल उठाया गया है कि गौतम अडानी के छोटे भाई राजेश अडानी को ग्रुप का प्रबंध निदेशक क्यों बनाया गया है जबकि उनके ऊपर कस्टम टैक्स चोरी, फर्जी इंपोर्ट डॉक्यूमेंटेशन और अवैध कोयला आयात करने का आरोप है. इसके अलावा और भी कई सवाल हैं, जिनके बारे में अडानी ग्रुप द्वारा किसी भी तरह का स्पष्ट जवाब नहीं दिया गया है. हिंडनबर्ग द्वारा रिपोर्ट सार्वजनिक किये जाने के बाद से अडानी ग्रुप को भारी गिरावट देखनी पड़ी है. मात्र दो दिनों उसका 4.1 लाख करोड़ का मार्केट कैप साफ हो गया. इस ग्रुप के शेयरों में लगभग बीस प्रतिशत तक की गिरावट देखने को मिली.


हिंडनबर्ग के द्वारा सार्वजनिक की गई रिपोर्ट से अडानी ग्रुप पर सकारात्मक या नकरातमक क्या परिणाम पड़ेगा ये एक अलग बात है मगर उस रिपोर्ट से भारत सरकार की बहुत सी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. लगभग बीस हजार करोड़ रुपये की धारावी पुनर्विकास परियोजना के द्वारा साढ़े छह लाख झुग्गीवासियों के पुनर्वास का काम अगले सात साल में पूरा करना अडानी ग्रुप की मुख्य योजना है. इसके अलावा अगले एक दशक में सौ अरब डॉलर का निवेश करने की घोषणा, जिसमें से सत्तर प्रतिशत ग्रीन एनर्जी पर खर्च करने का वादा, अडानी डिफ़ेंस एंड एयरोस्पेस के द्वारा ड्रोन सहित अपने रक्षा उत्पादों का निर्यात भी उनकी परियोजनाओं में शामिल है. भारतीय वायु सेना के विमानों की समय-समय पर देख-रेख का काम भी अडानी ग्रुप की कंपनी द्वारा किया जाता है. इन परियोजनाओं के साथ-साथ अन्य कई योजनायें ऐसी हैं जिनके बीच में रुकने पर अथवा उनकी गति में अवरोध आने पर देश के विकास में भी प्रभाव देखने को मिल सकता है.


यदि अडानी ग्रुप के व्यवसाय को देखा जाये तो इसकी कंपनियों को भारतीय स्टेट बैंक सहित देश की अनेक बैंकों ने 81,200 करोड़ रुपये का ऋण अडानी ग्रुप को दे रखा है. भारतीय रिजर्व बैंक को भारतीय स्टेट बैंक ने बताया है कि उसके द्वारा अडानी ग्रुप को 23000 करोड़ रुपये का ऋण दिया गया है. इसी तरह से पंजाब नेशनल बैंक द्वारा 7000 करोड़ का ऋण दिया गया है. हिंडनबर्ग की रिसर्च रिपोर्ट आने के बाद से जहाँ एक तरफ निवेशकों में घबराहट का माहौल बना वहीं शेयर बाजार में भी गिरावट देखने को मिली. इस हड़बड़ी के बीच भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन की ओर से कहा गया कि अडानी ग्रुप को दिए गए ऋण को लेकर लोगों को डरने की जरूरत नहीं है. अडानी ग्रुप में उनका निवेश सुरक्षित है.


अडानी ग्रुप द्वारा बाद में हिंडनबर्ग रिपोर्ट के जवाब में कहा कि यह सुनियोजित हमला है जिसके द्वारा अमेरिकी कम्पनियों को मदद की जा रही है. यहाँ भले ही हिंडनबर्ग को एक शॉर्ट सेलर के रूप में देखा जाता हो, भले ही अनेक विशेषज्ञों द्वारा कहा जा रहा हो कि उसकी रिपोर्ट अन्य दूसरी कम्पनियों को लाभ देने के लिए सार्वजनिक की गई है फिर भी भारत सरकार को, भारतीय रिजर्व बैंक को इस पर गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता है. आखिर देश की बैंकों का बहुत सारा धन अडानी ग्रुप में लगा है, बहुत सारे निवेशकों का धन इस ग्रुप की कम्पनियों के शेयरों में लगा है. हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट सही है अथवा गलत इस पर बन रहे असमंजस भरे माहौल को दूर करना सरकार और अन्य सुरक्षा एजेंसियों की जिम्मेवारी है. 






 

30 जनवरी 2023

पाकिस्तान के आर्थिक संकट पर भारत को सजग रहने की आवश्यकता

भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान वर्तमान में अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है. वहाँ की आर्थिक स्थिति एकदम खस्ताहाल हो चुकी है. बढ़ते कर्ज, बढ़ती मँहगाई, घटता विदेशी मुद्रा भंडार, घटती जीडीपी आदि के चलते पिछले एक साल में पाकिस्तान की हालत बदतर हुई है. रोजमर्रा की वस्तुओं के दामों में जबरदस्त वृद्धि देखने को मिल रही है. लोगों के लिए आटा-दाल की व्यवस्था करना भी दुष्कर हो रहा है. दूध, प्याज, नमक आदि जैसे जरूरी सामान भी इतने मँहगे हो गए हैं कि लोगों के लिए इनको खरीदना कठिन हो रहा है.


पाकिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार में 6.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर की गिरावट आई है, जो फरवरी 2014 के बाद सबसे निचले स्तर पर है. इसमें मात्र 4.3 अरब डॉलर बचे हैं जबकि वाणिज्यिक बैंकों के पास 5.8 अरब डॉलर हैं. इस प्रकार पाकिस्तान के पास कुल 10.1 अरब डॉलर ही हैं, जो आयात बिल के भुगतान हेतु पर्याप्त नहीं हैं. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि उसके पास केवल तीन सप्ताह के भुगतान हेतु ही विदेशी मुद्रा शेष है. इस कमी के चलते पाकिस्तान खाना पकाने के तेल जैसे जरूरी सामानों का आयात भी नहीं कर पा रहा है. विदेशी मुद्रा की कमी के कारण भुगतान न होने से बंदरगाहों पर बहुत सारा आवश्यक सामान अटका पड़ा है.


पाकिस्तान की आंतरिक दशाएँ भी उसके बिगड़ते हालात के लिए उत्तरदायी हैं. वहाँ की राजनैतिक स्थितियाँ किसी से छिपी नहीं हैं, रही सही कसर वर्ष 2022 में आई भीषण बाढ़ ने पूरी कर दी. वर्ष 2022 में जून से अक्टूबर के बीच एक तिहाई पाकिस्तान बाढ़ की चपेट में था. इससे करीब साढ़े तीन करोड़ लोग प्रभावित हुए थे. अभी भी 80 लाख लोग विस्थापित स्थिति में हैं, 1700 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, 22 लाख से ज्यादा घर तबाह हो गए हैं, स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा गई हैं, इसके साथ-साथ दूसरी बुनियादी सेवाएँ भी ध्वस्त हो गई हैं.




आर्थिक स्थितियों की नकारात्मकता का असर केवल पाकिस्तान पर ही नहीं हो रहा है बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसका असर भारत पर भी पड़ रहा है. आर्थिक तंगहाली का, मुद्रा अवमूल्यन का, बढ़ती मँहगाई का असर पाकिस्तान की तमाम कम्पनियों पर तो पड़ा ही है, उसके साथ-साथ वे कम्पनियाँ भी नकारात्मकता का शिकार हुई हैं जो भारत से सम्बंधित हैं. बहुतायत कम्पनियाँ घाटे में चल रही है. जिंदल और टाटा पर भी इसका सर्वाधिक प्रभाव देखने को मिल रहा है. पीटीआई के अनुसार जिंदल ग्रुप का पाकिस्तान में अच्छा खासा व्यापार है. यह ग्रुप स्टील इंडस्ट्री के अलावा एनर्जी सेक्टर में भी सक्रिय है. यदि पाकिस्तान की आर्थिक गतिविधि के कारण वहाँ के व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर संकट आता है तो इस कंपनी पर भी वैसा ही असर पड़ेगा. इसी तरह पाकिस्तान के आर्थिक विकास में टाटा ग्रुप टेक्सटाइल मिल्स लिमिटेड का बहुत ज्यादा योगदान है. वहाँ की नकारात्मकता का असर इस कम्पनी पर भी देखने को मिल सकता है.


पाकिस्तान में भारतीय कम्पनियों पर होने वाले नकारात्मक प्रभाव के अलावा वहाँ के आर्थिक संकट का असर भारत से पाकिस्तान भेजे जाने वाले सामानों पर भी हो रहा है. ट्रेडिंग इकोनॉमिक्स की रिपोर्ट के अनुसार कर्ज में डूबे पाकिस्तान ने साल 2021 में भारत से लगभग 503 मिलियन डॉलर का आयात किया था. इस दौरान भारत से फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट्स, ऑर्गेनिक केमिकल्स, चीनी, कॉफी-चाय, एल्युमिनियम, प्लास्टिक के सामान पाकिस्तान भेजे गए. यदि इस वर्ष के आँकड़े देखें तो पाकिस्तान में करीब 8 मिलियन डॉलर की कॉफी-चाय, लगभग 190 मिलियन डॉलर के फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट्स, 141 मिलियन डॉलर के ऑर्गेनिक केमिकल्स, 119 मिलियन डॉलर की चीनी सहित अनेक दूसरे सामान भेजे गए. पाकिस्तान की बिगडती आर्थिक दशा से इन सामानों से जुड़ी भारतीय कम्पनियों का कारोबार भी प्रभावित होगा और इनको वित्तीय घाटा उठाना पड़ सकता है. शत्रु संपत्ति विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 577 ऐसी कम्पनियाँ हैं जिनमें पाकिस्तानियों का धन लगा है. इसमें से 266 कम्पनियाँ इंडियन स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं, वहीं 318 कम्पनी सूचीबद्ध नहीं हैं. ऐसा अनुमान है कि भारत की इन कम्पनियों में पाकिस्तानी नागरिकों के लगभग 400 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी है. इनमें बिरला, टाटा, फार्मा कंपनी सिप्ला, विप्रो, डालमिया समेत कई प्रमुख व्यापारिक प्रतिष्ठान शामिल हैं. ऐसे में अगर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दीवालिया होने की स्थिति में पहुँचती है तो इन कम्पनियों पर भी उसका सीधा असर देखने को मिल सकता है. 


भारत को पाकिस्तान के आर्थिक संकट को लेकर सावधान होने की आवश्यकता है. एशियाई देशों में बांग्लादेश, श्रीलंका के बाद पाकिस्तान तीसरा देश है जहाँ आर्थिक संकट देखने को मिल रहा है. मँहगाई का असर भारत में भी देखने को मिल रहा है किन्तु यहाँ स्थिति नियंत्रण में है. इसके बाद भी पडोसी देश होने के नाते, एशियाई क्षेत्र में सक्षम देश होने के नाते भारत को एक जिम्मेवार देश के रूप में भी देखा जाता है. ऐसे में उसी तरफ से सहायता की उम्मीद भी रहेगी. इस सहायता की उम्मीद के बीच भारत को अपनी स्थिति को मजबूत बनाये रखना होगा. संभव है कि आर्थिक रूप से कमजोर पाकिस्तान में चीन की घुसपैठ बढ़े. नेपाल की सरकार को प्रो-चीन माना ही जा रहा है, ऐसे में पाकिस्तान को सहायता की आड़ में भारत के लिए चीन और नेपाल चुनौती खड़ी कर सकते हैं. पाकिस्तान को मदद के नाम पर चीन भारत के खिलाफ रणनीति बना सकता है. अपने व्यापारिक और सामरिक लाभ के लिए वह पाकिस्तानी क्षेत्र का उपयोग भी कर सकता है. भारत के एक और पड़ोसी देश अफगानिस्तान में इस समय नागरिक अधिकार हनन करने वाली सरकार है. यदि पाकिस्तान को उसकी तरफ से मदद मिलती है तो संभव है कि सीमा पार से संचालित आतंकवाद भारत के लिए मुसीबत बन जाए.


निश्चित ही पाकिस्तान का आर्थिक संकट हाल फ़िलहाल समाप्त होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में भारत को उसकी दशा पर और उसके कदमों पर सजग निगाह रखने की आवश्यकता है. पाकिस्तान को मदद के नाम पर भारत विरोधी मानसिकता वाले देशों द्वारा यदि वहाँ अपने कदम जमा लिए गए तो निकट भविष्य में यह भारत के लिए कष्टकारी हो सकता है.

 





 

26 दिसंबर 2022

रुपये के अंतरराष्ट्रीयकरण से बढ़ेगी आर्थिक शक्ति

पिछले दिनों भारतीय आर्थिक क्षेत्र में दो उल्लेखनीय घटनाओं का उद्भव हुआ. एक तो केंद्र सरकार द्वारा व्‍यापार नीति के तहत निर्यात संवर्धन योजनाओं के लिए अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार निकायों को भारतीय रुपए में लेन-देन की अनुमति देना रहा है. दूसरी घटना भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा डिजिटल रुपये की पेशकश के लिए पहली पायलट परियोजना दिसम्बर माह में मुंबई, नई दिल्ली, बेंगलुरु और भुवनेश्वर में शुरू करना रही. इन दो घटनाओं से भारतीय अर्थव्यवस्था में सकारात्मक सुधार आने की सम्भावना देखी जा रही है. अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार में रुपये का लेन-देन होने से जहाँ भारतीय रुपये को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलेगी वहीं डिजिटल रुपये के आने से लेन-देन सहज हो सकेगा. एक अनुमान के अनुसार विदेशी व्यापार भुगतान में औसतन छह प्रतिशत तक शुल्क लगता है. डिजिटल मुद्रा आने से, भारतीय रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण होने से इस शुल्क में कमी आएगी. 


अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार निकायों को भारतीय रुपए में लेन-देन की अनुमति देने का उद्देश्य घरेलू मुद्रा में व्यापार को सुगम बनाना और बढ़ावा देना है. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि भारतीय रुपये के अंतरराष्‍ट्रीयकरण करने की रुचि में वृद्धि को देखते हुए रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के निपटाने को मंजूरी देने का फैसला लिया गया है. इससे आयात और निर्यात के बारे में इनवॉयस तैयार करने, भुगतान और निपटान भारतीय रुपए में किया जा सकेगा. वर्तमान में आयात के मामले में भारतीय कंपनी को विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है. मुख्य रूप से यह डॉलर में होता है किन्तु कभी-कभी यह पाउंड, यूरो या येन में भी हो सकता है. निर्यात के मामले में भी भारतीय कंपनी को विदेशी मुद्रा में भुगतान किया जाता है. बाद में कंपनी उस विदेशी मुद्रा को रुपये में बदल देती है क्योंकि उसे अपनी आवश्यकताओं के लिए रुपये की आवश्यकता होती है.




भारतीय रुपये को अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मान्यता दिलवाने के साथ-साथ डॉलर की अघोषित सत्ता को, उस पर बनी निर्भरता को भी समाप्त करना इसका उद्देश्य हो सकता है. यदि बीते माह को दृष्टिगत रखते हुए बाजार की स्थिति देखें तो कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट, डॉलर की कमजोरी और निरंतर विदेशी फंड प्रवाह के बीच डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट देखने को मिल रही थी. इसके अलावा रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा रूस के विदेशी मुद्रा भंडार पर जिस तरह से पाबन्दी लगाई है, उसके बाद वैश्विक व्यापार जगत में अनेक देशों ने उसकी मंशा को भाँप लिया है. बहुतायत देशों को लगने लगा है कि इस तरह के कदम के बाद बहुत ज्यादा समय तक वैश्विक स्तर पर व्यापार के लिए डॉलर पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है. भारत तो बहुत पहले से डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती स्थिति की समस्या से जूझ रहा है. इसी कारण से भारतीय रिजर्व बैंक भी डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए रुपये में विदेशी कारोबार को बढ़ावा देना चाहता है. बैंक ने जुलाई को एक सर्कुलर जारी करके कहा था कि उसने आईएनआर में चालान, भुगतान और निर्यात/आयात के निपटान के लिए एक अतिरिक्त व्यवस्था करने का फैसला किया है. रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय ने बैंकों और कारोबारियों के संगठनों के प्रतिनिधियों से रुपये में आयात-निर्यात लेनदेन को बढ़ावा देने को कहा था. डिजिटल मुद्रा के आने के बाद रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार करना सुगम हो सकता है.


भारतीय रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण होने से निकट भविष्य में डॉलर की तरह पूरी तरह से रुपये में कारोबार करना संभव हो जाएगा. इसके लिए किसी भी देश के साथ व्यापार लेनदेन का निपटान करने के लिए भारत में बैंक व्यापार के लिए भागीदार देश के कॉरेस्पॉन्डेंट बैंक/बैंकों के वोस्ट्रो खाते खोलेंगे. भारतीय आयातक इन खातों में अपने आयात के लिए भारतीय रुपये में भुगतान कर सकते हैं. आयात से होने वाली इन आय का उपयोग भारतीय निर्यातकों को भारतीय रुपये में भुगतान करने के लिए किया जा सकता है. भारतीय रिजर्व बैंक से रुपये में अंतरराष्ट्रीय कारोबार किये जाने की अनुमति मिलने के बाद नई दिल्ली में विशेष ‘वोस्ट्रो खाते’ खोले गए, जिससे विदेश में रुपये में कारोबार संभव हो सकेगा. रूस के दो सबसे बड़े बैंक स्बरबैंक और वीटीबी बैंक ऐसे पहले बैंक हैं जिन्हें रुपये में कारोबार करने की मंजूरी मिली है. वर्तमान में रूस के नौ बैंकों ने रुपये में कारोबार करने के लिए विशेष वोस्ट्रो खाते खोल दिए हैं. वोस्ट्रो खाता एक ऐसा खाता है जो एक कॉरेस्पॉन्डेंट बैंक दूसरे बैंक की ओर से रखता है.


यदि वैश्विक बाजार का आकलन करें तो ज्ञात होता है कि डॉलर का वैश्विक विदेशी मुद्रा कारोबार में लगभग 88% हिस्सा है. यूरो, जापानी येन और पाउंड स्टर्लिंग का स्थान डॉलर के बाद ही आता है. भारतीय रुपए की हिस्सेदारी लगभग दो प्रतिशत के आसपास है. चूँकि डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में मान्यता मिली हुई है, ऐसे में विशेषाधिकारों की सीमा-रेखा में होने वाले भुगतान संतुलन संकट से वह अमेरिका को एक तरह की मौद्रिक सुरक्षा देता है. रुपये के अंतरराष्ट्रीय कारोबार का हिस्सा बनने से विदेशी लेन-देन में रुपए का उपयोग भारतीय व्यापार के लिये मुद्रा जोखिम को कम करेगा. डॉलर पर निर्भरता कम होने से मुद्रा की अस्थिरता जैसे संकट का सामना भी कम करना पड़ेगा. ऐसा होने से व्यापारिक सुरक्षा बनी रहेगी. एक तरफ जहाँ व्यापार की लागतों पर नियंत्रण रहेगा, वहीं व्यापार का बेहतर विकास भी संभव हो सकेगा.


इसके साथ ही सरकार की एक निश्चित सीमा तक विदेशी मुद्रा भंडार रखने की अनिवार्यता में भी बहुत हद तक कमी आएगी. वर्तमान में मुख्य रूप से डॉलर में अंतरराष्ट्रीय कारोबार होने के कारण विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में डॉलर को जमा करके रखना होता है. यदि भारतीय रुपये को अंतरराष्ट्रीय कारोबार के लिए बहुसंख्यक देशों द्वारा मान्यता मिल जाती है तो डॉलर पर बनी निर्भरता कम होने से विदेशी मुद्रा भंडार जमा रखने की स्थिति से मुक्ति मिलेगी. विदेशी मुद्रा पर निर्भरता को कम होने से भारतीय व्यापार बाहरी जोखिमों से बच सकेगा. मुद्रा जोखिम के कम होने से पूंजी प्रवाह के उत्क्रमण को काफी हद तक कम किया जा सकेगा. इससे भारतीय व्यापार की सौदेबाज़ी की शक्ति भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने, उसके वैश्विक कद और सम्मान को बढ़ाने में सहायक होगी.





 

18 दिसंबर 2022

भारतीय अर्थव्यवस्था में डिजिटल मुद्रा की आहट

छह वर्ष पूर्व नोटबंदी की घोषणा के समय से मुद्रा के डिजिटल संस्करण पर देशव्यापी चर्चा होने लगी थी. उस घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा डिजिटल लेन-देन करने पर विशेष जोर दिया गया था. डिजिटल भुगतान व्यवस्था को लेकर उस समय आशंका भी व्यक्त की गई थी, जो तत्कालीन स्थितियों में गलत भी नहीं कही जा सकती है. समय गुजरने के साथ आज स्थिति यह है कि खोमचे वाले, ठेले वाले, रेहढ़ी वाले भी डिजिटल माध्यम से लेन-देन कर रहे हैं. नोटबंदी के काफी पहले से बाजार में क्रिप्टोकरेंसी का दबदबा दिखाई दे रहा था. इसे असुरक्षित भी माना जाता है. ऐसे में सरकार के सामने एक तरह का अप्रत्यक्ष दवाब था कि ऐसी डिजिटल मुद्रा का सञ्चालन किया जाये जो सुरक्षित हो और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हो. ऐसे में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा डिजिटल रुपये की पेशकश के लिए पहली पायलट परियोजना दिसम्बर माह में मुंबई, नई दिल्ली, बेंगलुरु और भुवनेश्वर में शुरू की गई है. आर्थिक क्षेत्र में इसे एक बड़ा कदम कहा जायेगा.


डिजिटल मुद्रा का लेन-देन चार बैंकों- भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, यस बैंक और आईडीएफसी फर्स्ट बैंक- की ओर से उपलब्ध एप्स, मोबाइल फोन और डिवाइस में बने डिजिटल वॉलेट के द्वारा किया जा सकेगा. इसे आसानी से मोबाइल फोन से एकदूसरे को भेजा जा सकेगा और और हर तरह के सामान खरीदे जा सकेंगे. इस डिजिटल मुद्रा को पूरी तरह से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा संचालित, नियंत्रित किया जायेगा.




देश की डिजिटल मुद्रा को सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी अर्थात सीबीडीसी के नाम से जाना जायेगा. यह एक डिजिटल टोकन के रूप में जारी होगा और एक लीगल टेंडर होगा अर्थात इसे कानूनी मुद्रा माना जाएगा. जिस मूल्य पर वर्तमान में नकद मुद्रा (नोट) और सिक्के जारी होते हैं, डिजिटल मुद्रा को भी उसी मूल्य पर जारी किया जायेगा. यदि आसान शब्दों में कहें तो डिजिटल मुद्रा या फिर सीबीडीसी नकद रुपये का इलेक्ट्रॉनिक रूप है. जिस तरह से नकद मुद्रा के द्वारा लेन-देन किया जाता है, उसी तरह से डिजिटल करेंसी के माध्यम से लेन-देन किया जा सकेगा.


देश में डिजिटल मुद्रा आने के बहुत पहले से लोग यूपीआई के माध्यम से भुगतान कर रहे हैं. ऐसे में प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि डिजिटल करेंसी और यूपीआई के माध्यम से भुगतान में क्या अंतर है? यहाँ एक बात का ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि यूपीआई के माध्यम से जो भुगतान किया जाता है वह सीधे बैंक खाते से बैंक खाते को ट्रांसफर होता है. तमाम सारे यूपीआई एप्स को अलग-अलग बैंक नियंत्रित करते हैं. उन पर रिजर्व बैंक की निगरानी नहीं होती है जबकि डिजिटल मुद्रा का लेन-देन सीधे रिजर्व बैंक की निगरानी में होगा. इसके अलावा यूपीआई से होने वाले लेन-देन में एक व्यक्ति बैंक को निर्देशित करता है कि उसके खाते में जमा राशि से वास्तविक रुपये का भुगतान किया जाये. इस प्रक्रिया को पूरा होने में कई बार कुछ मिनट से लेकर दो दिन तक लग जाते हैं. स्पष्ट है कि भुगतान तत्काल न होकर एक प्रक्रिया के अंतर्गत होता है, जो समय ले सकता है. इसके उलट डिजिटल मुद्रा में भुगतान करते ही सामने वाले को उसकी रकम मिल जाती है. वर्तमान में होने वाला डिजिटल लेन-देन किसी बैंक के खाते में जमा रुपये का ट्रांसफर होता है जबकि सीबीडीसी को नकद मुद्रा की जगह उपयोग में लाया जाएगा.


डिजिटल मुद्रा के चलन में आने से सरकार उस खर्च को बचा सकेगी जो नकद मुद्रा छापने में आता है. सरकार इसकी निगरानी कर सकेगी, जो किसी भी रूप में नकद मुद्रा पर नहीं है. इसके अलावा रिजर्व बैंक के हाथों में नियंत्रण होने से बाजार में उसकी तरलता को भी नियंत्रित किया जा सकेगा. इसके आने के बाद बहुत हद तक भ्रष्टाचार, नकली मुद्रा, काले धन की समस्या पर भी अंकुश लग सकेगा. नागरिक अपने धन को जमा करने और निकालने की परेशानियों से भी बच सकेंगे क्योंकि डिजिटल मुद्रा का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक रूप से किया जाएगा. नकदी से ज्यादा सुरक्षित होने के कारण लोग धन की सुरक्षा को लेकर भी चिंता-मुक्त हो सकेंगे.


डिजिटल मुद्रा एक तरह से बहुत पहले से चलन में रही बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी वाली अवधारणा है. यह उसी तरह से कार्य भी करेगी, बस मूल अंतर ये होगा कि क्रिप्टोकरेंसी का नियंत्रण निजी हाथों से होता है, इससे इसकी मॉनिटरिंग नहीं हो पाती. इसमें गुमनाम रहकर भी लेन-देन हो जाते हैं, जिससे गैरकानूनी गतिविधियों में क्रिप्टोकरेंसी का इस्तेमाल होने की आशंका रहती है. इसके उलट डिजिटल मुद्रा का सञ्चालन, नियंत्रण रिजर्व बैंक के द्वारा किया जा रहा है. इससे डिजिटल रुपये की निगरानी हो सकेगी और किसके पास कितने रुपये हैं, इसकी जानकारी भी रिजर्व बैंक को होगी. सरकारी नियंत्रण में होने के कारण हमारे देश का एक रुपये का सिक्का और डिजिटल रुपया एकसमान ताकत रखता है. इसके साथ ही एक बड़ा अंतर यह भी है कि डिजिटल रुपये को क्रिप्टोकरेंसी की तरह खरीदा या बेचा नहीं जा सकेगा बल्कि यह नकद के विकल्प के रूप में काम करेगा.


वर्तमान युग तकनीक का है, जहाँ कदम-कदम पर खुद को भी तथा लगभग सभी क्षेत्रों को अपडेट होते रहने की आवश्यकता है. ऐसे दौर में जबकि अर्थव्यवस्था वैश्विक समुदाय के साथ गति पकड़ने की स्थिति में है, तब इस क्षेत्र में भी व्यापक सुधार अपेक्षित हैं. इन्हीं सुधारों के लिए उठाये जाने वाले तमाम क़दमों में से एक कदम डिजिटल मुद्रा का भी है. आज जबकि डिजिटल भुगतान को लगभग सभी जगह होते देखा जा रहा है, तब सरकारी नियंत्रण से संचालित डिजिटल मुद्रा निश्चित ही भारतीय अर्थव्यवस्था में अपेक्षित सुधार लाएगी.  





 

09 दिसंबर 2022

रेपो रेट और भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के फैसलों की घोषणा की गई. इस समिति ने इस बार भी मँहगाई को नियंत्रित करने के लिए रेपो रेट को बढ़ाने का फैसला किया है. मौद्रिक नीति समिति ने अपनी बैठक में तरलता समायोजन सुविधा अर्थात लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी (एलएएफ) के अन्तर्गत रेपो रेट को 35 आधार अंक या 0.35 प्रतिशत बढ़ाने का निर्णय लिया. समिति के छह सदस्यों में से पाँच सदस्यों ने रेपो रेट बढ़ाने के फैसले का समर्थन किया. इस बढ़ोतरी को मिला कर देखा जाये तो पिछले सात महीनों में भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से ब्याज दरों में पाँचवीं बार वृद्धि की गई है. बैंक ने इससे पूर्व मई में 0.40 प्रतिशत जून, अगस्त और सितंबर में 0.50 प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी. इस वृद्धि के बाद अब रिजर्व बैंक की रेपो रेट 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 6.25 प्रतिशत हो गई है.


रेपो रेट को बढ़ाने का निर्णय अचानक से नहीं लिया गया. जब सितम्बर माह में चौथी बार रेपो रेट में बढ़ोत्तरी की गई थी, उसी समय रिजर्व बैंक गवर्नर ने संकेत दिए थे कि यदि मँहगाई पर नियंत्रण न लगा तो आने वाले समय में रेपो रेट को बढ़ाया जा सकता है. इस बार तीन दिनों तक मौद्रिक नीति समिति की बैठक चलने के बाद रेपो रेट को बढ़ाने का फैसला किया गया. इस बढ़ोत्तरी की घोषणा करते हुए रिजर्व बैंक गवर्नर ने कहा कि अगले चार महीनों में मँहगाई दर चार प्रतिशत से ऊपर बने रहने की संभावना है. उन्होंने यह भी कहा है कि देश में ग्रामीण माँग में सुधार दिख रहा है. कंज्यूमर कॉन्फिडेंस में भी सुधार हुआ है. गवर्नर के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 में जीडीपी ग्रोथ 6.8 प्रतिशत रह सकता है.




भारतीय अर्थव्यवस्था में रेपो रेट शब्द अब आम होता जा रहा है. सात महीनों में पाँच बार इसमें वृद्धि से आम आदमी भले ही इस शब्द से परिचित हो गया हो मगर वह इसकी कार्य-प्रणाली से, इसके वास्तविक सन्दर्भों से अपरिचित ही है. सामान्यजन के लिए अक्सर यह समझना कठिन हो जाता है कि रेपो रेट के बढ़ने या घटने से आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ता है. रेपो रेट के द्वारा किस तरह से मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है. भारतीय रिजर्व बैंक एक विशिष्ट दर पर वाणिज्यिक बैंकों को धन उधार देता है. इसी के आधार पर बैंकों द्वारा उपभोक्ताओं को ब्याज दर का निर्धारण किया जाता है. यदि आसान शब्दों में कहें तो रेपो रेट का मतलब है रिजर्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज की दर. बैंकों द्वारा अपने उपभोक्ताओं को देने के लिए, अन्य वित्तीय कार्यों के निष्पादन हेतु भारतीय रिजर्व बैंक से एक तरह का ऋण लिया जाता है. रिजर्व बैंक एक निश्चित रेट पर या कहें कि दर पर अन्य बैंकों को ऋण उपलब्ध कराती है. उसी को रेपो रेट कहा जाता है. बाद में बैंक इसी रेट पर अपने ग्राहकों को ऋण प्रदान करते हैं. रेपो रेट अधिक होने से ग्राहकों को अधिक ब्याज दर पर ऋण मिलता है जबकि रेपो रेट कम होने पर बैंक अपने ऋण पर ग्राहकों से कम ब्याज दर वसूल करते हैं. रेपो रेट का निर्धारण मौद्रिक नीति समिति की दो मासिक बैठक में किया जाता है.


यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय रिजर्व बैंक सभी वाणिज्यिक बैंकों को ऋण नहीं देता है. उसके द्वारा सबसे पहले वाणिज्यिक बैंकों की प्रतिभूतियों और बांडों का सत्यापन किया जाता है. इसके पश्चात् ही रिजर्व बैंक द्वारा ऋण देने की प्रक्रिया शुरू की जाती है. जब तक वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उधार ली गई राशि का भुगतान नहीं किया जाता है, तब तक ये प्रतिभूतियाँ अथवा बांड रिजर्व बैंक के पास बंधक रहते हैं. किसी कारण से यदि वाणिज्यिक बैंक ऋण को नहीं चुका पाता है तो रिजर्व बैंक को उन प्रतिभूतियों को बेचने का अधिकार होता है.


देखा जाये तो रेपो रेट देश के आर्थिक विकास के लिए एक आवश्यक उपकरण होता है. देश की मुद्रास्फीति पर भी यह महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है. इसके माध्यम से अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति और तरलता को भी नियंत्रित करने में सहायता मिलती है. रेपो रेट अधिक होने की स्थिति में बैंकों के लिए रिजर्व बैंक से उधार लेने की लागत मँहगी हो जाती है. ऐसी स्थिति अर्थव्यवस्था में निवेश और मुद्रा आपूर्ति को धीमा कर देती है. परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना सहज हो जाता है. ऐसे कदम से मँहगाई को भी नियंत्रित करने में मदद मिलती है. यही कारण है कि विगत सात माह में रिजर्व बैंक द्वारा पाँच बार रेपो रेट को बढ़ाया गया है.


रेपो रेट समग्र अर्थव्यवस्था पर कई तरह के प्रभावों का कारण बन सकता है चाहे वह बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव हो, औसत नागरिक पर प्रभाव हो या भारतीय अर्थव्यवस्था अन्य बिन्दुओं पर प्रभाव हो. किसी भी तरह की मौद्रिक नीतियों में परिवर्तन से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाला महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बैंकिंग का होता है. यह बैंकों के लिए एक बड़ी राहत की खबर होती है जब रिजर्व बैंक रेपो रेट को कम करने का फैसला करता है. रेपो रेट कम होने के कारण वाणिज्यिक बैंक रिजर्व बैंक से कम दर पर उधार ले सकते हैं. इसके ठीक उलट स्थिति रेपो रेट बढ़ने पर होती है. रेपो रेट के बढ़ने या फिर घटने का सीधा प्रभाव उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ता है. इसके द्वारा गृह ऋणव्यवसाय ऋण और अन्य ऋण दर परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता है. ऐसा होने से मुद्रा प्रवाह में स्थिरता या कमी आती है. इसके द्वारा बहुत हद तक मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है.


रिजर्व बैंक द्वारा बढ़ाये जाने वाले रेपो रेट से मँहगे बैंक ऋण उधारकर्ता को ऋण लेने से हतोत्साहित करते हैं. यह बाजार में धन की आपूर्ति को कम करता है और इस प्रकार प्रणाली में तरलता को स्थिर करता है. यह भले ही खपत, विस्तार और उत्पादन में कम पैसे की आपूर्ति के साथ एक गिरावट है किन्तु इसके द्वारा रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति की दर को नियंत्रण में रखने के लिए आर्थिक विकास और बढ़ती मुद्रास्फीति के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करता है. बाजार में तरलता में कमी आने पर, मुद्रा की गति कम रहने पर, नकदी का प्रवाह कम रहने के कारण लोगों की क्रय शक्ति पर भी प्रभाव पड़ता है. इसके द्वारा भी मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है. संभव है कि प्रथम दृष्टया रेपो रेट के बढ़ने से ब्याज दरों में बढ़ना अर्थव्यवस्था के लिए, आम आदमी के लिए अहितकर लगे किन्तु दीर्घकालिक स्थिति से निपटने के लिए यह सर्वाधिक अनुकूल कदम कहा जाता है. 





 

31 अगस्त 2022

मँहगाई को भी पचा लेंगे

आजकल सुबह आँख खुलने से लेकर देर आँख बंद होने तक चारों तरफ हाय-हाय सुनाई देती है. आपको भी सुनाई देती होगी ये हाय-हाय? अब आपको लगेगा कि आखिर ये हाय-हाय है क्या, किसकी? ये जो है हाय! ये एक तरह की आह है, जो एकमात्र हमारी नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो बाजार के कुअवसरों से दो-चार हो रहा है. बाजार के कुअवसर ऐसे हैं कि न कहते बनता है और न ही सुनते. बताने का तो कोई अर्थ ही नहीं. इधर कोरोना के कारण ध्वस्त जैसी हो चुकी अर्थव्यवस्था का नाम ले-लेकर आये दिन बाजार का नजारा ही बदल दिया जाता है. आपको नहीं लगता कि बाजार का नजारा बदलता रहता है.

 

बाजार का नजारा अलग है और इस नजारे के बीच सामानों के दामों का आसमान पर चढ़े होना सबको दिखाई दे रहा है. सबको दिखाई देने वाला ये नजारा बस उनको नहीं दिखाई दे रहा, जिनको असल में दिखना चाहिए था. इधर सामानों के मूल्य दो-चार दिन ही स्थिर जैसे दिखाई देते हैं, वैसे ही कोई न कोई टैक्स उसके ऊपर लादकर उसके मूल्य में गति भर दी जाती है. यदि कोई टैक्स दिखाई नहीं पड़ता है तो जीएसटी है न. अब तो इसे एक-एक सामान पर छाँट-छाँट कर लगाया जा रहा है. ऐसा करने के पीछे मंशा मँहगाई लाना नहीं बल्कि वस्तुओं के मूल्यों को गति प्रदान करनी है. अरे! जब मूल्य में गति होगी तो अर्थव्यवस्था को स्वतः ही गति मिल सकेगी.

 



ऐसा नहीं है कि ऊपरी स्तर से मँहगाई कम करने के प्रयास नहीं किये गए. प्रयास किये गए मगर कहाँ और कैसे किये गए ये दिखाई नहीं दिए. आपने फिर वही बात कर दी. अरे आपको जीएसटी दिखती है, नहीं ना? बस ऐसे ही प्रयास हैं जो दिख नहीं रहे हैं. और हाँ, कोरोना के कारण देश भर में बाँटी जा रही रेवड़ियों की व्यवस्था भी उन्हीं के द्वारा की जानी है जो इन रेवड़ियों का स्वाद नहीं चख रहे हैं. अब तो आपको गर्व होना चाहिए मँहगे होते जा रहे सामानों को, वस्तुओं को खरीदने का. आखिर आप ही तो हैं जिन्होंने लॉकडाउन के बाद बहती धार से अर्थव्यवस्था को धार दी थी, अब आसमान की तरफ उड़ान भरती कीमतों के सहयोगी बनकर अर्थव्यवस्था को तो गति दे ही रहे हैं, रेवड़ियों को भी स्वाद-युक्त बना रहे हैं.

 

बढ़ते जा रहे दामों के कारण स्थिति ये बनी है कि बेचारे सामान दुकान में ग्राहकों के इंतजार में सजे-सजे सूख रहे हैं. वस्तुओं ने जीएसटी का आभूषण पहन कर खुद की कीमत बढ़ा ली है, अब वे अपनी बढ़ी कीमत से कोई समझौता करने को तैयार नहीं. इस मंहगाई के दौर में सामानों से पटे बाजार और दामों के ऊपर आसमान में जा बसने पर ऐसा लग रहा है जैसे किसी गठबन्धन सरकार के घटक तत्वों में कहा-सुनी हो गई हो. सामान बेचारे अपने आपको बिकवाना चाहते हैं पर कीमत है कि उनका साथ न देकर उन्हें अनबिका कर दे रही है. उस पर भी उन कीमतों ने विपक्षी जीएसटी से हाथ मिला लिया है. अब ऐसी हालत में सबसे ज्यादा मुश्किल में बेचारा उपभोक्ता है, ग्राहक है. इसमें भी वो ग्राहक ज्यादा कष्ट का अनुभव कर रहा है जो मँहगी, लक्जरी ज़िन्दगी को बस फिल्मों में देखता आया है.

 

ऐसे ही लक्जरी उपभोक्ताओं की तरह के हमारे सरकारी महानुभाव हैं. अब वे बाजार तो घूमते नहीं हैं कि उनको कीमतों का अंदाजा हो. अब चूँकि वे बाजार घूमने-टहलने से रूबरू तो होते नहीं हैं, इस कारण उनके पास किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तो होती नहीं है. अब बताइये आप, जब जानकारी नहीं तो बेचारे कीमतों को कम करने का कैसे सोच पाते? इस महानुभावों का तो हाल ये है कि एक आदेश दिया तो इनको भोजन उपलब्ध. गाड़ी में तेल डलवाने का पैसा तो देना नहीं है, रसोई के लिए गैस का इंतजाम भी नहीं करना है और न ही लाइन में खड़े होकर किसी वस्तु के लिए मारा-मारी करनी है. अब इतने कुअवसर खोने के बाद वे बेचारे कैसे जान सकते हैं कि कीमतों में वृद्धि हो रही है.


ये दोष तो उस बेचारे आम आदमी का है जो दिन-रात खटते हुए बाजार को निहारा करता है. वही बाजार के कुअवसरों से दो-चार होता है. वही लगातार मँहगाई की मार खा-खाकर पिलपिला हो जाता है. इस पिलपिलेपन का कोई इलाज भी नहीं है. यह किसी जमाने में चुटकुले की तरह प्रयोग होता था किन्तु आज सत्य है कि अब आदमी झोले में रुपये लेकर जाता है और जेब में सामान लेकर लौटता है.


ऊपर बैठे महानुभाव भी भली-भांति समझते हैं कि आम आदमी की ऐसी ग्राह्य क्षमता है कि वह मँहगाई को भी आसानी से ग्राह्य कर जायेगा. ऐसे में परेशानी कैसी? देश की जनता तो पिसती ही रही है, चाहे वह नेताओं के आपसी गठबन्धन को लेकर पिसे अथवा सामानों और दामों के आपसी समन्वय को लेकर. सत्ता के लिए किसी का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, टूट सकता है ठीक उसी तरह मंहगाई का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, दामों और सामानों का गठबन्धन टूट भी सकता है. इस छोटी सी और भारतीय राजनीति की सार्वभौम सत्यता को ध्यान में रखते हुए सरकार की नादान कोशिशों को क्षमा किया जा सकता है. 




 

03 जून 2020

चीनी उत्पाद विरोध के बाद की संभावनाएँ

चीनी उत्पादों के खिलाफ भारत में एक आन्दोलन सा खड़ा होता दिखने लगा है. अगर यह आंदोलन चीन के विरुद्ध सफल हो जाता है तो भारत को इसके अनेक दीर्घकालिक लाभ होंगे.


इसमें पहला लाभ तो चीन को भारत से होने वाले राजस्व में जबरदस्त कमी आएगी. यह कमी लगभग 5 लाख करोड़ रुपये तक के होने का अनुमान है. ऐसा माना जाता है कि इस राजस्व का उपयोग चीन कहीं न कहीं भारत के खिलाफ सीमाओं पर करता है. यदि वाकई इस राजस्व में कमी आती है तो यह धन देश में ही उपयोग में लाया जा सकता है.

इसके अलावा अनेक हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर तथा दूसरे अन्य उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को भारतीय बाजार में अपना अस्तित्व खोजना पड़ेगा. ऐसा उनको अपनी हिस्सेदारी में भारतीय भाग के खोने के डर के कारण करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में वे कम्पनियाँ अपनी उत्पादन कंपनियों, कार्यालयों आदि को भारत में लगाने पर विचार करने पर विचार कर सकती हैं.

यह भी संभव है कि भारतीय स्टार्टअप और उद्योगों के लिए चीनी उत्पादों और सेवाओं के रूप में एक विकल्प भी मिल सके. यदि ऐसा होता है तो भारत में विकसित चीनी विकल्पों के लिए भी एक नया रास्ता मिलने की सम्भावना है.

ऐसी स्थिति में कच्चे माल के स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं के लिए योजनाबद्ध रूप से श्रमिक, मजदूर भी उपलब्ध होने की सम्भावनाएं होंगी. इसके साथ-साथ अपने सामान के बेचने हेतु उनको बाजार का विकसित स्वरूप मिल सकेगा. इसमें रोजगार की अपार संभावनाएं भी विकसित हो सकेंगी.


यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि कोरोना संकट और चीन विरोधी भावनाएं भारत के लिए एक बड़ा वरदान बन सकती हैं. ऐसा तभी संभव है जबकि हम एक साथ ऐसा माहौल बनायें और सद्भाव के साथ काम करें. सरकार के प्रति फैलाये जा रहे विरोधी विचारों के बीच भले ऐसा संभव न दिखता हो मगर हम सभी को नफरत को नजरअंदाज करते हुए मेक इन इंडिया को एक वास्तविकता बनाना होगा. 

हालाँकि यह एक संभावना है और यदि इस पर देशव्यापी दृष्टि के साथ कार्य किया जाये तो इसे वास्तविकता में बदलना मुश्किल नहीं होगा. ऐसे में प्रधानमंत्री जी के आत्मनिर्भर भारत के विचार को सार्थक करना कठिन न होगा. 

(मयूरेश गोयल)

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

16 अप्रैल 2018

विपणन व्यवस्था सुधारे बिना कृषि विकास संभव नहीं


किसी भी सरकार द्वारा अब कृषि के बजाय औद्योगीकरण की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है. कारोबारियों को तमाम तरह के लाभ देने के साथ-साथ व्यवसाय से सम्बंधित अनेक कार्यक्रम भी समय-समय पर सरकारी स्तर पर किये जाते हैं. इसके बाद भी अनेक तरह के व्यवसाय के बीच, विभिन्न तरह के कारोबार विकसित होने के बाद भी, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि को नकारा नहीं जा सकता है. आज मानसून की अनियमितता के चलते अथवा मौसम के लगातार बनते-बिगड़ते स्वभाव के बाद भी भले ही कृषि का चक्र अनियमित दिखता हो किन्तु इसके बाद भी देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में इसकी सशक्त भूमिका है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. कृषि का सराहनीय योगदान न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था में बना हुआ है वरन सम्पूर्ण विश्व में भी भारतीय कृषि की अपनी ही साख बनी हुई है. चाय, चावल, मूँगफली तथा तम्बाकू ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके उत्पादन के चलते वैश्विक स्तर पर भारत का पहले तीन देशों में कोई न कोई स्थान बना रहता है. इसके बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. देखा जाये तो ऐसी समस्या देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों के चलते है. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है. इन समस्याओं के अतिरिक्त कृषि पदार्थों के विपणन की व्यवस्था मुख्य रूप से कृषि को पिछड़ा बना रही है. देश का बहुसंख्यक किसान कृषि फसल के उचित विपणन न होने के कारण कृषि कार्य में उन्मुक्त रूप से संलिप्त नहीं हो पाता है. 


हमारे देश में कृषि विपणन व्यवस्था में वर्तमान में कई प्रकार के दोष देखने को मिलते हैं. इन दोषों के कारण किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, इससे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. विपणन व्यवस्था में ऐसे दोष के रूप में संग्रहण को देखा जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज उन्नत तकनीक के बाद भी फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. नष्ट हो जाती फसल, जानवरों द्वारा ख़राब कर दी गई फसल के कारण किसान फसलों के संग्रहण को लेकर सदैव चिंतित रहता है और इसी से बचने के लिए वह काफी कम दामों में अपनी फसल का विक्रय कर देता है. संग्रहण के साथ-साथ परिवहन साधनों की अनुपलब्धता अथवा उनका संपन्न न होना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जा सकती है. ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते हैं. फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं. ऐसी कमियों के चलते ग्रामीण इलाकों में मध्यस्थों की, दलालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इससे किसान को कभी-कभी अपनी उपज का लगभग 50 प्रतिशत तक ही दाम मिल पाता है. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं.

दरअसल हमारे देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये गए, उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.


इस तरह की विषम परिस्थितयों के बीच किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल के सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो. सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे. इसके साथ-साथ सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. इस तरह के कुछ उपायों को सकारात्मक रूप से लागू करके सरकारों द्वारा कृषि फसल को बचाया जा सकता है, कृषि उत्पाद का उचित मूल्य कृषकों को प्रदान करवाया जा सकता है, कृषकों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.