17 फ़रवरी 2009

यौन शिक्षा - चुनौतीपूर्ण किन्तु आवश्यक प्रक्रिया

ये लेख शोध-पत्रिका "कृतिका" में प्रकाशित हुआ है। इससे पहले इस लेख के बारे में आप सबसे जिक्र हो चुका है। लेख तब प्रकाशित नहीं हुआ था। अब प्रकाशित होने के बाद आप सबके सामने है। विषय ऐसा है जो आज की जरूरत है पर हम सब फ़िर भी इस पर राजनीति कर रहे हैं। कृपया पूर्वाग्रह त्याग कर पढ़ें तब किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।

‘यौन शिक्षा’, यदि इसके आगे कुछ भी न कहा जाये तो भी लगता है कि किसी प्रकार का विस्फोट होने वाला है। हमारे समाज में ‘सेक्स’ अथवा ‘यौन’ को एक ऐसे विषय के रूप में सहज स्वीकार्यता प्राप्त है जो पर्दे के पीछे छिपाकर रखने वाला है; कहीं सागर की गहराई में दबाकर रखने वाला विषय है। यह भारतीय समाज के संस्कारित परिवेश का परिणाम है अथवा ‘सेक्स’ को सीमित परिधि में परिभाषित करने का परिणाम है कि समाज में ‘सेक्स’ सभी के जीवन में भीतर तक घुला होने के बाद भी ‘आतंक’ का पर्याय है। यह बात सत्य हो सकती है कि भारतीय, सामाजिक, पारिवारिक परम्पराओं के चलते ‘सेक्स’ ऐसा विषय नहीं रहा है जिस पर खुली बहस अथवा खुली चर्चा की जाती रही हो। ‘सेक्स’ को मूलतः दो विपरीत लिंगी प्राणियों के मध्य होने वाले शारीरिक संसर्ग को समझा गया है (चाहे वे प्राणी मनुष्य हों अथवा पशु-पक्षी) और इस संकुचित परिभाषा ने ‘सेक्स एजूकेशन’ अथवा ‘यौन शिक्षा’ को भी संकुचित दायरे में ला खड़ा कर दिया है।
‘यौन शिक्षा’ अथवा ‘सेक्स एजूकेशन’ के पूर्व ‘सेक्स’ को समझना आवश्यक होगा। ‘सेक्स’ का तात्पर्य आम बोलचाल की भाषा में ‘लिंग’ अथवा शारीरिक संसर्ग से लगाते हैं। ‘सेक्स’ अथवा ‘सेक्स एजूकेशन’ का अर्थ मुख्यतः मनुष्य, पशु-पक्षी (विशेष रूप से स्त्री-पुरुष) के मध्य होने वाली शारीरिक क्रियाओं से लगा कर इसे चुनौतीपूर्ण बना दिया है। एक पल को ‘सेक्स एजूकेशन’ के ऊपर से अपना ध्यान हटाकर मानव जीवन की शुरुआत से उसके अंत तक दृष्टिपात करें तो पता लगेगा कि ‘सेक्स एजूकेशन’ का प्रारम्भ तो उसके जन्म लेने के साथ ही हो जाता है। इसे उम्र के कुछ प्रमुख पड़ावों के साथ आसानी से समझा जा सकता है-
एक-दो वर्ष से लेकर चार-पाँच वर्ष तक की उम्र तक के बच्चे में अपने शरीर, लैंगिक अंगों के प्रति एक जिज्ञासा सी दिखाई देती है। इस अबोध उम्र में बच्चे अपने यौनिक अंगों को छूने, उनके प्रदर्शन करने, एक दूसरे के अंगों के प्रति जिज्ञासू भाव रखने जैसी क्रियाएँ करते हैं। यही वह उम्र होती है जब बच्चों (लड़के, लड़कियों में आपस में) में जिज्ञासा होती है कि वे इस धरती पर कैसे आये? कहाँ से आये? या फिर कोई उनसे छोटा बेबी कहाँ से, कैसे आता है? इस जिज्ञासा की कड़ी में आपने इस उम्र के बच्चों को ‘पापा-मम्मी’, ‘डाक्टर’ का खेल खेलते देखा होगा। परिवारों के लिए यह हास्य एवं सुखद अनुभूति के क्षण होते हैं पर बच्चे इसी खेल-खेल में एक दूसरे के यौनिक अंगों को छूने की, उन्हें देखने की, परीक्षण करने की चेष्टा करते हैं (वे आपस में सहजता से ऐसा करने भी देते हैं) पर इसके पीछे किसी प्रकार की ‘सेक्सुअलिटी’, शारीरिक सम्बन्धों वाली बात न होकर सामान्य रूप से अपनी शारीरिक भिन्नता को जानने-समझने का अबोध प्रयास मात्र होता है। इस उम्र में एक प्रकार की लैंगिक विभिन्नता उन्हें आपस में दिखायी देती है; लड़के-लड़कियों को अपने यौनिक अंगों में असमानता; मूत्र त्याग करने की प्रक्रिया में अन्तर; शारीरिक संरचना में विभिन्नता दिखती है जो निश्चय ही उनके ‘लैंगिक बोध’ को जाग्रत करतीं हैं। देखा जाये तो यह उन बच्चों की दृष्टि में यह ‘सेक्सुअल’ नहीं है, शारीरिक संपर्क की परिभाषा में आने वाला ‘सेक्स’ नहीं है।
पाँच वर्ष से दस वर्ष तक की उम्र के बच्चों में अपने लड़के एवं अपने लड़की होने का एहसास उस अवस्था में आ जाता है जहाँ उनकी लैंगिक जिज्ञासा तीव्रता पकड़ती है पर वे एक दूसरे से अपने यौनिक अंगों के प्रदर्शन को छिपाते हैं। लड़के-लड़कियों में एक-दूसरे के प्रति मेलजोल का झिझक भरा भाव होता है। इस समयावधि में ‘सेक्स’ से सम्बन्धित जानकारी, शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित जानकारी के लिए वे समलिंगी मित्र-मण्डली की मदद लेते हैं। इस आधी-अधूरी जानकारी को जो टी0वी0, इण्टरनेट, पत्र-पत्रिकाओं आदि से प्राप्त होती है, के द्वारा वे ‘सेक्स’ से सम्बन्धित शब्दावली, यौनिक अंगों से सम्बन्धित शब्दावली को आत्मसात करना प्रारम्भ कर देते हैं। यह जानकारी उन्हें भ्रमित को करती ही है, अश्लीलता की ओर भी ले जाती है। इस समयावधि में शारीरिक विकास भी तेजी से होता है जो इस उम्र के बच्चों में शारीरिक आकर्षण भी पैदा करता है। लड़का हो या लड़की, इस उम्र तक वह विविध स्त्रोतों से बहुत कुछ जानकारी (अधकचरी ही सही) प्राप्त कर चुके होते हैं और यही जानकारी उनको ‘सेक्स’ के प्रति जिज्ञासा पैदा करती है जिस ‘सेक्स’ को शारीरिक क्रिया से जोड़ा जाता रहा है। हालांकि परिवार में इस उम्र से पूर्व वे बच्चे अपने माता-पिता अथवा घर के किसी अन्य युगल को शारीरिक संसर्ग की मुद्रा में अचानक या चोरी छिपे देख चुके होते हैं जो उनकी जिज्ञासा को और तीव्र बनाकर उसके समाधान को प्रेरित करती है; लड़कियों में शारीरिक परिवर्तनों की तीव्रता लड़कों के शारीरिक परिवर्तनों से अधिक होने के कारण उनमें भी एक प्रकार की जिज्ञासा का भाव पैदा होता है। अभी तक के देखे-सुने किस्सों, जानकारियों के चलते विपरीत लिंगी बच्चों में आपस में शारीरिक आकर्षण देखने को मिलता है।
खेल-खेल में, हँसते-बोलते समय, पढ़ते-लिखते समय, उठते-बैठते समय, भोजन करते या अन्य सामान्य क्रियाओं में वे किसी न किसी रूप में अपने विपरीत लिंगी साथी को छूने का प्रयास करते हैं। इस शारीरिक स्पर्श के पीछे उनका विशेष भाव (जो भले ही उन्हें ज्ञात न हो) अपनी यौनिक जिज्ञासा को शान्त करना होता है और इसमें उनको उस समय तृप्ति अथवा आनन्दिक अनुभूति का एहसास होता है जब वे अपने विपरीत लिंगी साथी के अंग विशेष-गाल, सीना, कंधा, जाँघ आदि- का स्पर्श कर लेते हैं। इस यौनिक अनुभूति के आनन्द के लिए वे विशेषतः बात-बात पर एक दूसरे का हाथ पकड़ते, आपस में ताली मारते भी दिखायी देते हैं।
दस वर्ष के ऊपर की अवस्था में आने के बाद शारीरिक परिवर्तन, शारीरिक विकास के साथ-साथ यौनिक विकास, यौनिक परिवर्तन भी होने लगता है। यह परिवर्तन लड़को की अपेक्षा लड़कियों में तीव्रता से एवं स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। लड़कियों में मासिक धर्म की शुरूआत उनमें एक प्रकार की जिज्ञासा तथा एक प्रकार का भय पैदा करती है। यही वह स्थिति होती है जब भारतीय परिवारों में सम्भवतः पहली बार किसी लड़की को अपनी माँ, चाची, भाभी, बड़ी बहिन आदि से ‘सेक्स’ को लेकर किसी प्रकार की जानकारी मिलती है। इस ‘सेक्स एजूकेशन’ में जिज्ञासा की शान्ति, जानकारियों की प्राप्ति कम, भय, डर, सामाजिक लोक-लाज का भूत अधिक होता है। ऐसी ‘यौन शिक्षा’ लड़कियों में अपने यौनिक-शारीरिक विकास के प्रति भय ही जाग्रत करती है, उनकी किसी जिज्ञासा को शान्त नहीं करती है।
लड़कों में यह स्थिति और भी भयावह होती है; परिवार से किसी भी रूप से कोई जानकारी न दिए जाने के परिणामस्वरूप वे सभी अपने मित्रों, पुस्तकों, इंटरनेट आदि पर भटकते रहते हैं और थोड़ी सी सही जानकारी के साथ-साथ बहुत सी भ्रामक जानकारियों का पुलिंदा थामें भटकते रहते हैं। शारीरिक विकास, यौनिक अंगों में परिवर्तन, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, सेक्स सम्बन्धी जानकारी, शारीरिक संसर्ग के प्रति जिज्ञासा अब जिज्ञासा न रह कर प्रश्नों, परेशानियों का जाल बन जाता है। इसमें उलझ कर वे शारीरिक सम्बन्धों, टीनएज़ प्रेगनेन्सी, गर्भपात, यौनजनित रोग, आत्महत्या जैसी स्थितियों का शिकार हो जाते हैं।
इन सारी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो क्या लगता नहीं है कि जिस यौनिक उत्तेजना, यौनिक जिज्ञासा, लैंगिक विभिन्नता, शारीरिक विभिन्नता, शारीरिक-यौनिक विकास, शारीरिक सम्बन्ध, विपरीत लिंगी आकर्षण के प्रति जिज्ञासुभाव बचपन से ही रहा हो उसका समाध्न एक सर्वमान्य तरीके से हो, सकारात्मक तरीके से हो, न कि आधी-अधूरी, अध्कचरी, भ्रामक जानकारी के रूप में हो? यहाँ ‘सेक्स एजूकेशन’ की वकालत करने, उसको लागू करने अथवा देने के पूर्व एक तथ्य विशेष को मन-मश्तिष्क में हमेशा रखना होगा कि यह शिक्षा उम्र के विविध पड़ावों को ध्यान में रखकर अलग-अलग रूप से अलग-अलग तरीके से दी जानी चाहिए। ऐसा नहीं कि जिस ‘यौन शिक्षा’ के स्वरूप को हम छोटे बच्चों को दें वही स्वरूप टीनएजर्स के सामने रख दें।
यहाँ आकर यह तो स्पष्ट होता है कि ‘यौन शिक्षा’ क्यों और कैसी हो। बच्चों की दुनिया पर निगाह डालें तो हमें पता चलेगा कि ज्यादातर बच्चे-लड़के, लड़कियाँ दोनों ही- शारीरिक दुराचार का शिकार होते हैं। हम इसके कारणों का पता लगाये बिना इस अपराध को मिटाना तो दूर इसे कम भी नहीं कर सकते। बड़ी आयु के लोगों द्वारा बच्चों के शारीरिक शोषण की घटनाओं के साथ-साथ अब बच्चों द्वारा ही आपस में शारीरिक दुराचार की घटनायें भी सामने आने लगीं हैं। यहाँ हम बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के द्वारा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, मासिक धर्म, गर्भधारण, शारीरिक सम्बन्धों की जानकारी देकर उनका भला नहीं कर सकते। इस उम्र के बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के माध्यम से समझाना होगा कि एक लड़के और एक लड़की के शारीरिक अंग क्या हैं? उनमें अन्तर क्या है? हमें बताना होगा कि उनके शरीर में यौनिक अंगों की महत्ता क्या है? इन अंगों का इस उम्र विशेष में कार्य क्या है? इन बातों के अलावा इस उम्र में वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ‘सेक्स एजूकेशन’ के रूप में बच्चों को समझाना होगा कि किसी भी लड़का-लड़की के शरीर के यौनिक अंग उसके व्यक्तिगत अंग होते हैं, जिनका प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिए। शरीर के इन अंगों को न किसी को स्पर्श करने देना चाहिए न किसी दूसरे के यौनिक अंगों को स्पर्श करना चाहिए। किसी के कहने पर भी उसके इन अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए और न ही अपने इन अंगों का स्पर्श करवाना चाहिए यदि कोई ऐसा करता भी है (भले ही प्यार से या कुछ देकर या जबरदस्ती) तो तुरन्त अपने माता-पिता, शिक्षकों अथवा किसी बड़े को इसकी जानकारी देनी चाहिए।
हमारे पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे में अभी भी एक बहुत बड़ी खामी यह है कि यदि कोई बच्चा अपनी यौनजनित जिज्ञासा को शान्त करना चाहता है तो हम या तो उसे अनसुना कर देते हैं या फिर उसे डाँट-डपट कर शान्त करा देते हैं। यदि किसी रूप में उसके सवालों का जवाब देते हैं तो इतनी टालमटोल से कि बच्चा असंतुष्ट ही रहता है। यही असंतुष्टता उसे यौनिक हिंसा, शारीरिक दुराचार का शिकार बनाती है। माता-पिता, शिक्षकों को ‘यौन शिक्षा’ के माध्यम से बच्चों को उनकी जिज्ञासा को सहज रूप से हल करना चाहिए, हाँ, यदि सवाल इस प्रकार के हों जो उसकी उम्र के अनुभव से परे हैं अथवा नितान्त असहज हैं तो उनका उत्तर ‘अभी आपकी उम्र इन सवालों को समझने की नहीं है’ जैसे सुलभ वाक्यों के द्वारा भी दिया जा सकता है। बच्चों के प्रश्नों के उत्तर उनकी सवालों की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। इसी तरह टीनएजर्स की ‘यौन शिक्षा’ का स्वरूप अलग होगा।
‘सेक्स एजूकेशन’ को लेकर मेरा व्यक्तिगत मत है कि इसकी विशेष आवश्यकता टीनएजर्स किशोरावस्था को है। यदि देखा जाये तो यह वह उम्र है जो ‘सेक्स लाइफ’ को आधुनिकतम जिज्ञासा से देखती है; जो आधुनिकतम संक्रमण के दौर से गुजर रही होती है। शारीरिक-यौनिक विकास एवं परिवर्तन, विपरीत लिंगी आकर्षण, शारीरिक सम्बन्धों के प्रति जिज्ञासा उन्हें शारीरिक सम्बन्धों की ओर ले जाती है जो विविध यौनजनित रोगों (एसटीडी) उपहार में देती है। शारीरिक-यौनिक विकास एवं परिवर्तन को समझने की चेष्टा में वे किसी गलत जानकारी, बीमारी का शिकार न हों, एच0आई0वी0/एड्स जैसी बीमारियों के वाहक न बनें इसके लिए इस उम्र के लोगों को ‘सेक्स एजूकेशन’ की आवश्यकता है। ‘यौन शिक्षा’ का पर्याप्त अभाव इस आयु वर्ग के लोगों को यौनिक जानकारी की प्राप्ति अपने मित्रों, ब्लू फिल्मों, पोर्न साइट आदि से करवाती है जो भ्रम की स्थिति पैदा करती है। इन स्त्रोतों से जानकारियाँ भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने के साथ-साथ शारीरिक उत्तेजना भी पैदा करती है जो अवांछित सम्बन्धों, बाल शारीरिक शोषण, अप्राकृतिक सम्बन्धों आदि का कारक बनती है। अपनी शारीरिक-यौनिक इच्छापूर्ति मात्र के लिए के लिए किया गया शारीरिक-संसर्ग टीनएज प्रेगनेन्सी, गर्भपातों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ युवाओं में एस0टी0डी0, एच0आई0वी0/एड्स जैसी बीमारियों को तीव्रता से फैलाता है। एक सर्वे के अनुसार दिल्ली अकेले में एस0टी0डी0 क्लीनिक में प्रतिदिन आने वाले मरीजों की संख्या का लगभग 57 प्रतिषत 15-22 वर्ष की आयु वर्ग के लड़के-लड़कियाँ हैं। ‘यौन शिक्षा’ का अभाव इस संख्या को और भी अधिक बढ़ायेगा।
‘यौन शिक्षा’ को देने के पीछे यह मन्तव्य कदापि नहीं होना चाहिए कि युवा वर्ग सुरक्षित शारीरिक सम्बन्ध बनाये, जैसा कि लगभग एक दशक पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री का कहना था कि मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसके साथ सोता है बस वे आपस में ‘कण्डोम’ का प्रयोग करते हों। इस प्रकार की कथित आधुनिक सोच ने ही भारतीय समाज को विचलित किया है, ‘यौन शिक्षा’ के मायने भी बदले हैं। ‘यौन शिक्षा’ के सकारात्मक एवं विस्तारपरक पहलू पर गौर करें तो उसका फलक उद्देश्यपरक एवं आशापूर्ण दिखायी पड़ेगा।
‘यौन शिक्षा’ के द्वारा सरकार, समाज, शिक्षकों, माता-पिता का उद्देश्य होना चाहिए कि वे एक स्वस्थ शारीरिक विकास वाले बच्चों, युवाओं का निर्माण करें। ‘यौन शिक्षा’ के एक छोटे भाग यौनिक अंगों की जानकारी, गर्भधारण की प्रक्रिया, प्रसव प्रक्रिया, गर्भपात आदि से अलग हट कर ‘यौन शिक्षा’ के द्वारा समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की स्वीकार्यता, उसकी संस्कारिकता, उसके पीछे छिपे मूल्यों, शारीरिक विकास के विविध चरणों, शरीर के अंगों की स्वच्छता, अनैतिक सम्बन्धों से उपजती शारीरिक बीमारियाँ, यौनजनित बीमारियों के दुष्परिणाम, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों (माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहिन, मित्रों आदि) की आन्तरिकता एवं मर्यादा की जानकारी, उनके मध्य सम्बन्धों की मूल्यता, वैवाहिक जीवन की जिम्मेवारियाँ, इनके शारीरिक एवं आत्मिक सम्बन्धों की आवश्यकता, आपसी सम्बन्ध और उनमें आदर का भाव आदि-आदि अनेक ऐसे बिन्दु हो सकते हैं जो ‘यौन शिक्षा’ के रूप में समझाये जा सकते हैं। इन मूल्यों, सम्बन्धों, आन्तरिकता, पारिवारिकता, सामाजिकता, शारीरिकता आदि को समझने के बाद यौनजनित बीमारियों, एच0आई0वी0/एड्स आदि भले ही समाप्त न हो सकें पर इनके रोगियों की संख्या में बढ़ते युवाओं की संख्या में अवश्य ही भारी गिरावट आयेगी।
‘यौन शिक्षा’ को लागू करने, इसको देने के विरोध में जो लोग भी तर्क-वितर्क करते नजर आते हैं उनको भी सामाजिक-पारिवारिक-शारीरिक कसौटी पर कसना होगा। यह कहना कि ‘यौन शिक्षा’ तमाम सारी समस्याओं का हल है, अभी जल्दबाजी होगी पर यह कहना कि ‘यौन शिक्षा’ से विद्यालय, समाज एक खुली प्रयोगशाला बन जायेगा, एक प्रकार की ‘ड्रामेबाजी’ है। आज बिना इस शिक्षा के क्या समाज, विद्यालय और तो और परिवार भी क्या शारीरिक सम्बन्धों को पूर्ण करने की प्रयोगशाला नहीं बन गये हैं? जो कहते हैं कि पशु-पक्षियों को कौन सी ‘यौन शिक्षा’ दी जाती है पर वे सभी शारीरिक सम्बन्ध सहजता से बना लेते हैं, अपनी प्रजाति वृद्धि करते हैं, वे लोग अभी ‘यौन शिक्षा’ को मात्र शारीरिक सम्बन्धों की तृप्ति को समझने का एक माध्यम मान रहे हैं। ‘यौन शिक्षा’ का तात्पर्य अथवा उद्देश्य केवल स्त्री-पुरुष के यौनिक अंगों की जानकारी देना, यौनांगों के चित्र दिखाना, शारीरिक सम्बन्ध की क्रिया समझाना, गर्भधारण-प्रसव की प्रक्रिया समझाना मात्र नहीं है। समाज में शारीरिक सम्बन्धों को पवित्रता प्राप्त है जो सिर्फ पति-पत्नी के मध्य ही स्वीकार्य हैं और उनका उद्देश्य शारीरिक सुख-संतुष्टि के अतिरिक्त संतानोत्पत्ति कर समाज को नई पीढ़ी प्रदान करना भी है।
कहीं न कहीं ‘यौन शिक्षा’ की कमी ने पश्चिमी खुले सम्बन्धों को भारतीय समाज में पर्दे के पीछे छिपी स्वीकार्यता दी और पति-पत्नी के विश्वासपरक, पवित्र रिश्ते से कहीं अलग शारीरिक संतुष्टि की राह अपनायी। परिणामतः टीनएज प्रेगनेन्सी, बिन ब्याही माँएँ, यौनपनित बीमारी से ग्रसित युवा वर्ग, बलात्कार, बाल शारीरिक शोषण, गर्भपात, कूड़े के ढ़ेर पर मिलते नवजात शिशु, आत्महत्याएँ आदि जैसी शर्मसार करने वाली घटनाओं से हम नित्य ही दो-चार होते हैं। अन्त निष्कर्षतः एक वाक्य से कि मेरी दृष्टि में ‘यौन शिक्षा’ के स्वरूप, उद्देश्य, शैली के अभाव ने ही परिवार नियोजन के प्रमुख हथियार ‘कण्डोम’ को अनैतिक सम्बन्धों के, यौनजनित रोगों के, समय-असमय शारीरिक सुख प्राप्ति के, यौनाचार के सुरक्षा कवच के रूप में सहज स्वीकार्य बना दिया है। अच्छा हो कि ‘कण्डोम, बिन्दास बोल’, ‘आज का फ्लेवर क्या है?’, ‘कन्ट्रासेप्टिव पिल्स’ जैसे विज्ञापनों से शिक्षा लेते; महानगरों के सुलभ शौचालयों एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगी ‘कण्डोम मशीनों’ पर भटकते; पोर्न साइट, नग्न चित्रों में शारीरिक-यौनिक जिज्ञासा को शान्त करते बच्चों, युवाओं को सकारात्मक, उद्देश्यपरक, संस्कारपरक, मूल्यपरक ‘यौन शिक्षा’ से उस वर्जित विषय की जानकारी दी जाये जो मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बाद भी किसी न किसी रूप में प्रतिबंधित है।

1 टिप्पणी:

  1. हम यहाँ कक्षा पाँचवी से ही यौन शिक्षा शुरु करते हैं। एक होमरूम टीचर होने की वजह से मैंने भी ऐसी कक्षा ली है। हमारे यहाँ एक पाठ्यक्रम है जिसे कि हमें पूरा करना होता है। और ये कोई शर्म की बात नहीं। बच्चों को सही तरीक़े से समझाना और इस तरह की शिक्षा ज़रूरी क्यों है ये बताना ज़रूरी है। हाँ कक्षा आठवीं में लड़्कों और लड़कियों को अलग कक्षाओं में ऐसी शिक्षा दी जाती है हमारे स्कूल में, जो कि ज़्यादा कारगर साबित हुई है।

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