20 सितंबर 2023

लम्बी ऐतिहासिक यात्रा पर विराम

18 सितम्बर को भारतीय संसद के लिए एक ऐतिहासिक तिथि के रूप में याद रखा जायेगा. जिस संसद भवन ने अपनी 96 वर्षों की यात्रा में बहुत से ऐतिहासिक निर्णय होते देखे, बहुत से क्रांतिकारी परिवर्तन देखे, अनेक अप्रत्याशित घटनाक्रमों की गवाही दी, उसकी वह यात्रा इस दिन थम गई. 18 जनवरी 1927 से चली आ रही अनथक यात्रा को 18 सितंबर 2023 को विश्राम देकर नए संसद भवन को आने वाले समय के लिए तैयार कर लिया गया है. 


वर्ष 1911 में ब्रिटेन के तत्कालीन राजा जॉर्ज पंचम और महारानी ने भारत आने पर देश की राजधानी कोलकाता से दिल्ली बनाए जाने की घोषणा की. इसके बाद वहाँ संसद भवन, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, राजपथ, इंडिया गेट सहित अन्य हेरिटेज इमारतों को बनाने की जिम्मेदारी दो आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर को दी गई. 1921 में संसद को बनाने का काम शुरू हुआ और 1927 में यह भवन बनकर तैयार हुआ. छह एकड़ में बने इस भवन को शुरुआत में काउंसिल हाउस के नाम से जाना जाता था. 1926 से 1931 तक भारत के वायसराय रहे लॉर्ड इरविन द्वारा इसका उद्घाटन 18 जनवरी 1927 को किया गया. बाद में वर्ष 1956 में इसमें दो फ्लोर और वर्ष 2006 में एक संग्रहालय भी बनाया गया. यह संग्रहालय ढाई सौ सालों की समृद्ध लोकतांत्रिक विरासत को दिखाता है. 




18 सितम्बर से 22 सितम्बर 2023 तक चलने वाले विशेष सत्र के पहले दिन पुरानी संसद भवन की लम्बी यात्रा को याद किया गया. पाँच दिनों तक चलने वाले विशेष सत्र के दूसरे दिन की कार्यवाही के नए भवन में आरम्भ होते ही वो पुराना संसद भवन इतिहास बन जायेगा, जो 96 वर्षों की अवधि में घटित कई घटनाओं का गवाह रहा. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की कार्यप्रणाली जिस संविधान के प्रावधानों द्वारा संचालित होती है, उस संविधान का निर्माण इसी संसद भवन में हुआ था. 26 जनवरी 1950 में जब देश का संविधान लागू हुआ और राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने तो उस ऐतिहासिक पल का साक्षी ये पुराना संसद भवन बना था. देश के संविधान को लागू किये जाने के बाद संसद भवन ने 18 जून 1951 को हुए पहले संवैधानिक संशोधन को भी देखा. इसमें धारा 15, 19, 85, 87, 174, 176, 341, 342, 372 और 376 को संशोधित किया गया. अपनी इस यात्रा में संसद भवन ने कुल 105 संवैधानिक संशोधनों को होते देखा.


संसद भवन ने जहाँ सुखद पलों को अपने में सहेज रखा है वहीं उसके पहलू में दुखद घटनाओं ने भी जगह ले रखी है. 25 जून 1975 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के द्वारा आपातकाल की घोषणा किये जाने का निर्णय हो या फिर 1996 से 1998 की दो वर्षीय अवधि में चार प्रधानमंत्रियों का आना लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है. संवैधानिक व्यवस्था के इस बुरे दौर से गुजरते हुए संसद भवन ने अपनी सुरक्षा, अपनी आन-बान-शान पर हमला होने का दर्द भी सहा है. देश की सुरक्षा व्यवस्था पर उस समय सवाल उठे जबकि संसद भवन को ही आतंकियों ने अपना निशाना बनाया. 13 दिसम्बर 2001 को आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने लोकतंत्र के इस मंदिर पर हमला कर दिया. इस हमले में सुरक्षा कर्मियों और दिल्ली पुलिस के जवानों सहित कुल नौ लोग शहीद हुए. यद्यपि हमले को अंजाम देने आये सभी पाँचों आतंकवादियों को सुरक्षाबलों ने मौके पर ही मार गिराया तथापि इस हमले ने एक गहरा जख्म तो दे ही दिया.


आतंकी हमले की टीस लेकर खड़े पुराने संसद भवन ने इसके अलावा बहुत सारे ऐसे ऐतिहासिक पलों को, घटनाक्रमों को घटित होते देखा है, जिनको देश की एकता, अखंडता, गौरव आदि के लिए जाना जा सकता है. किसी समय जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं ने वहाँ के जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया था. पाकिस्तान की तरफ से लगातार कश्मीर को कब्जाने के कुत्सित प्रयासों के चलते और संवैधानिक प्रावधानों के चलते जम्मू-कश्मीर देश का अभिन्न हिस्सा होने के बाद भी अलग-थलग सा दिखाई देता था. वर्तमान केन्द्र सरकार की दृढ इच्छशक्ति का सुफल भी पुराने संसद भवन ने महसूस किया जबकि 5 अगस्त 2019 को केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 पेश किया. इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद से  जम्मू-कश्मीर राज्य से सम्बंधित संविधान का अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी हो गया है. इसी के साथ अब देश में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केन्द्रशासित प्रदेशों की उपस्थिति भी हो गई है.




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 28 मई 2023 को नए संसद परिसर का उद्घाटन करते समय आशा व्यक्त की थी कि नया भवन सशक्तीकरण, सपनों को प्रज्वलित करने और उन्हें वास्तविकता में बदलने का उदगम स्थल बनेगा. ऐसा होना आज समय की माँग है क्योंकि विगत कुछ वर्षों से जिस तरह से पुराने संसद भवन के दोनों सदनों ने हंगामा, शोरगुल, आरोप-प्रत्यारोप, नारेबाजी, सदन सञ्चालन में व्यवधान, असंवैधानिक कृत्यों को होते देखा है उससे न केवल संसद सदस्यों की साख में गिरावट आई है बल्कि संवैधानिक व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लगे हैं. पुराने संसद भवन ने पाँच दिवसीय विशेष सत्र का पहला दिन अपने नाम करके नए संसद भवन को अपने उत्तराधिकारी के रूप में शेष चार दिनों को सौंप दिया है. अब नया संसद भवन देश के विकास की कहानी का साक्षी बनेगा और पुराना संसद भवन अतीत की गाथाओं को सुनाएगा. आशा है आज़ाद भारत में भारतीयों द्वारा बनाये गए इस नए ससंद भवन में हमारा लोकतंत्र अपनी श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा. रिकॉर्ड समय में तैयार हुआ यह भवन न सिर्फ भारतीय मेधा का प्रतीक बना है बल्कि नए भारत की छवि प्रदर्शित करेगा जो अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ों से आबद्ध है और उन पर गर्व करता है. नई संसद में स्थापित चोल शासकों का राजदंड सेंगोल राजशक्ति की न्याय के प्रति समर्पण का प्रतीक बनेगा और लोकतंत्र की इस कर्मभूमि को न्याय का मंदिर बनाएगा. 





 

17 सितंबर 2023

बाबा जी की शिक्षाओं ने रखा विवादों से दूर

साइंस कॉलेज, ग्वालियर में बी.एस-सी. में प्रवेश लेने के लिए जाने का दिन निश्चित हो गया था. जाने के कोई पाँच-छह दिन पहले अचानक से मन में आया कि गाँव जाकर बाबा-अइया से मिल आया जाये. घर पर पिताजी से गाँव जाने की अनुमति लेकर अगले दिन गाँव के लिए निकल पड़े. इससे पहले भी बहुत बार गाँव जाना हुआ था मगर निपट अकेले गाँव जाने का यह पहला मौका था. उस समय फोन, मोबाइल की व्यवस्था आज के जैसी नहीं थी कि अपने आने की जानकारी बाबा तक पहुँचा पाते, सो अचानक से हमें देखकर बाबा और अइया का चौंकना स्वाभाविक था. जमींदार परिवार से होने के बाद भी बाबा जी ने अपने छात्र जीवन में बहुत संघर्ष किया था, खुद को अपने बलबूते स्थापित किया था, सो वे हम भाइयों को आत्मनिर्भर होने के लिए प्रेरित करते रहते थे. बाबा जी को बहुत ख़ुशी हुई कि हम ग्वालियर जाने के पहले उनके पास गाँव आये, वो भी अकेले. 




तीन दिन बड़े ही ख़ुशी से गुजर गए. कहते हैं न कि ब्याज मूलधन से ज्यादा प्यारा होता है, बस कुछ यही स्थिति हमारी भी थी. अइया ने तमाम सारे पकवान, व्यंजन बनाये, बाबा जी से खूब सारी बातें हुईं. जिस दिन हमारा गाँव से उरई आने का तय हुआ, उस दिन चलने से कुछ देर पहले बाबा जी ने कहा कि चलते-चलते जरा पैर की उँगलियाँ चटका दो. बाबा जी जब उरई में हम लोगों के साथ होते तो दिन में कई-कई बार पैर की उँगलियाँ हम भाइयों से चटकवाया करते थे. पैर के पंजे को हलके हाथों से कुछ देर दबाने के बाद उँगलियों के चटकाने का नंबर आता था, उतनी देर में बाबा जी खूब सारी बातें बताया करते, कभी अपनी नौकरी की, कभी अपने बचपन की, कभी अपनी पढ़ाई की. हम लोगों को भी खूब मजा आता था सो दिन में कई-कई बार खुद ही बाबा जी से उँगलियों को चटकाने के लिए पूछ लिया करते थे.


पैर के पंजे दबाने के समय बाबा जी ने हमेशा की तरह बहुत सी बातें बताईं. उसी में उन्होंने कहा कि अब तुम उच्च शिक्षा के लिए बाहर जा रहे हो. अच्छा लगा कि बाहर जाते समय तुमको अपना गाँव याद रहा, यहाँ आने का मन बनाया. बाबा जी बोले कि हमारी एक बात हमेशा याद रखना कि अपने जीवन को बनाने के लिए ही तुम घर से बाहर जा रहे हो, जीवन को बर्बाद करने के लिए वापस आने की जरूरत नहीं. पहले तो हमारी समझ में नहीं आया कि बाबा जी आखिर किस बात के लिए कह रहे हैं. जब हमने अपनी शंका सामने रखी तो उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए कहा क्योंकि संपत्ति का मोह बहुत बुरा होता है. गाँव के ये मकान, खेत-खलिहान आदि न तुम्हारे पिताजी लेकर आये, न हम लेकर आये, न हमारे बाप-दादा लेकर आये थे. ये पुश्तैनी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अपने आप मिलते रहे हैं. इनके लिए गाँव आकर फौजदारी करने की जरूरत नहीं. तुम्हारे पिताजी, चाचा लोगों को पढ़ा-लिखाकर बाहर इसीलिए निकाला कि अपना जीवन सुधार सकें. तुम लोग भी ऐसा करना. दुर्भाग्य से कभी कोई ऐसा करे कि वो गाँव की संपत्ति पर कब्ज़ा कर ले तो स्वाभिमान के साथ उससे कानूनी लड़ाई लड़ना, खून-खच्चर करने की जरूरत नहीं. अच्छी शिक्षा, ज्ञान की जो संपत्ति तुम लोग बनाओगे उसे कोई नहीं कब्ज़ा सकेगा और उसके बल पर तुम लोग कहीं भी इससे ज्यादा संपत्ति हासिल कर लोगे. चूँकि बाबा जी ने स्वयं लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद गाँव में अपने हिस्से की संपत्ति को हासिल किया था. उन्होंने गाँव में और अपनी पुलिस की नौकरी के दौरान उन्होंने संपत्ति के विवादों, लड़ाई-झगड़ों के दुष्परिणामों को करीब से देखा था, इस कारण वे अपने अनुभवों को हमसे बताते हुए भविष्य के लिए हमें जागरूक कर रहे थे.      


उस दिन तो बहुत सी बातें समझ में भी नहीं आईं मगर उनको दिल-दिमाग में गहरे से बैठा लिया था. समय का चक्र ऐसा घूमा कि उसके बाद बाबा जी से बहुत ज्यादा मिलना नहीं हो सका. जितना भी मिलना हुआ, बाबा जी ने उसमें इस तरह की कोई बात नहीं की. ये घटना जुलाई-अगस्त 1990 की थी और एक साल बीतते-बीतते 1991 की आज की तारीख में बाबा जी हम सबसे बहुत दूर चले गए. बाबा जी के बाद भी गाँव की पैतृक संपत्ति से सम्बंधित किसी भी मामले में हमारा सीधा हस्तक्षेप नहीं रहा किन्तु हमारे पिताजी के वर्ष 2005 में चले जाने के बाद गाँव की इस छिपी हुई वास्तविकता से सामना हुआ. एक-एक इंच जमीन को कब्जाने का लालच देखा, खेतों पर गिद्ध दृष्टि लगाये लोगों को देखा. ये तो बाबा जी की शिक्षाओं का, उनके आशीर्वाद का सुफल कहा जायेगा कि बहुत सी विषम स्थितियों से आराम से निकल आये.


आज बाबा जी हम सबसे दूर हुए 32 वर्ष हो गए हैं, दो दिन बाद हम भी 50 का आँकड़ा छू लेंगे किन्तु अभी भी गाँव की पैतृक संपत्ति को बिना किसी विवाद के, बिना किसी लड़ाई-झगड़े के सुरक्षित रखे हुए हैं. यही कामना करते हैं कि ज़िन्दगी भर बाबा जी की, अइया की शिक्षाओं का पालन कर सकें, उनके दिखाए रास्ते पर चल सकें.


आज बाबा जी की पुण्यतिथि पर उनको सादर नमन. 






 

12 सितंबर 2023

हिन्दी शब्दों का अप्रचलित होते जाना सुखद नहीं

हिन्दी से सम्बन्धित दिवस, सप्ताह आदि का आयोजन शुरू होते ही सभी जगह हिन्दी की बात होने लगती है. हिन्दी को लेकर हिन्दी भाषियों और अहिन्दी भाषियों के द्वारा हिन्दी विकास के लिए अपने स्तर पर चर्चा आरम्भ हो जाती है. आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के विकास, उसकी उन्नति, राष्ट्रभाषा बनने की राह में आते अवरोध, वैश्विक भाषा बनने की राह, हिन्दी उपन्यास को बुकर मिलने, हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषाई मान्यता मिलने आदि पर चर्चा न करके कुछ ऐसे बिन्दुओं पर चर्चा करते हैं, जिन पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है. आज बहुत से हिन्दी शब्द सामान्य प्रयोग से बाहर होते जा रहे हैं या कहें कि बाहर किये जा रहे हैं. इनकी जगह पर अंग्रेजी शब्दों को सहजता से इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसी स्थिति के लगातार स्वीकार्यता मिलने से बहुत सारे हिन्दी शब्दों का विलोपन देखना पड़ सकता है. 




देखा जाये तो शब्दों की अपनी ही निराली दुनिया है. इस शाब्दिक दुनिया में ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं हैं मगर वे बहुतायत में बोले जाते हैं, आपसी वार्तालाप में प्रयोग किये जाते हैं. ऐसे शब्दों के अर्थ व्यक्तियों की बातचीत के सन्दर्भ में स्वतः निर्धारित हो जाते हैं. ग्रामीण अंचल में सहज रूप से बोलचाल में आने वाला शब्द ‘ठलुआ’ राजनीति में उस समय खूब चर्चा में रहा जबकि एक राजनैतिक महाशय ने इसे चर्चा के केन्द्र में ला दिया था. शब्दों के ऐसे प्रयोग के साथ-साथ शब्द-संकुचन, शब्द-विस्तार जैसी अवधारणा सहज देखने को मिलती है. हमारे आसपास बहुत से शब्द ऐसे हैं जो अपने मूल अर्थ से अधिक विस्तार पा गए. ‘डालडा’‘टुल्लू’‘ऑटो’‘तेल’ आदि ऐसे ही शब्द हैं जिनका अपना विशेष सन्दर्भ है किन्तु आज ये व्यापकता के साथ प्रयुक्त किये जा रहे हैं. वनस्पति घी के एक ब्रांड के रूप में सामने आये डालडा को आज ब्रांड नहीं वरन उत्पाद के रूप में देखा जाता है. इसी तरह तेल शब्द का अभिप्राय उस उत्पाद से है जो तिल से निकलता है. आज इसका विस्तार होकर अनेक तरह के पदार्थों के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा. शब्दों की इसी व्यापकता के सन्दर्भ में आज एक शब्द ‘निर्भया’ भी चर्चा में है. दिल्ली में दिल दहलाने वाली घटना के बाद निर्भया शब्द चलन में आया और आज इसे अन्य दूसरी घटनाओं के साथ भी जुड़ा हुआ पाते हैं. बिना उसका मर्म जाने, बिना शब्दों का मूल भाव जाने उसे व्यापक सन्दर्भों में प्रयुक्त किया जाना भाषाई विसंगति ही है. 


शब्द-विस्तार की तरह शब्द-संकुचन की स्थिति भी देखने में आती है. इसके उदाहरण के रूप में ‘कमल’ को लिया जा सकता है. कमल के विविध पर्यायों के अलग-अलग सन्दर्भ, अलग-अलग अर्थ हैं वो चाहे ‘सरोज’ हो, ‘पंकज’ हो या फिर ‘नीरज’ आदि हो. इसके बाद भी किसी भी स्थान विशेष पर खिले हुए कमल-पुष्प को सिर्फ कमल से ही पुकारा जाता है. दरअसल शब्द-संकुचन अथवा शब्द-विस्तार की स्थिति व्यक्ति की उस मानसिकता के कारण उपजती है जहाँ वो किसी भी शब्द अथवा स्थिति के मूल में जाना पसंद नहीं करता. किसी शब्द के मूल अर्थ की जानकारी लेने का प्रयास नहीं करता है, वहाँ भी ऐसी स्थिति देखने को मिलती है. इनके अलावा भाषाई स्तर पर शब्दों के विलुप्त होने की स्थिति भी अब आम हो चली है.


शब्दों का विलुप्त होना उनके चलन में न रहने के कारणशब्द विशेष के कार्यों, वस्तुओं आदि के चलन में न रहने के कारणउनसे गँवईपन का बोध होने के चलते उनको किनारे किये जाने के कारण से होता है. बहुत सारे ऐसे शब्द हमारे बीच से इस कारण गायब हुए क्योंकि उनसे सम्बंधित सेवाओं का, वस्तुओं का प्रचलन ही समाज में नहीं हो रहा है. इनमें ‘भिश्ती’, ‘मसक’, ‘ठठेरा’, ‘सिल-बट्टा’, ‘मूसल’ आदि शब्दों को लिया जा सकता है. किसी समय ग्रामीण अंचलों में धड़ल्ले से बोले जाने वाला ‘फटफटिया’ शब्द ‘मोटरसाईकिल’ से होता हुआ ‘बाइक’ पर आकर रुक गया. इसी तरह से सामान्य बोलचाल में हिन्दी शब्दों की उपलब्धता के बाद भी अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी बहुत से शब्द या तो चलन से बाहर हो गए हैं या फिर उसी राह पर हैं. घर में काम आने वाली ‘तश्तरी’ अब ‘प्लेट’ में बदल चुकी है. ‘प्याले’ भी ‘कप’ में बदल गए हैं. ‘फीवर’, ‘वीकनेस’, ‘डॉगी’, ‘केयर’, ‘टेस्टी’, ‘वीसी’, ‘रजिस्ट्रार’, ‘एडमीशन’, ‘लिस्ट’ आदि सहित ऐसे अनेक शब्द हैं जो बहुत तेजी से आम बोलचाल में शामिल होकर मूल हिन्दी शब्दों ‘बुखार’, ‘कमजोरी’, ‘कुत्ता’, ‘स्वादिष्ट’, ‘कुलपति’, ‘कुलसचिव’, ‘प्रवेश’, ‘सूची’ आदि को चलन से बाहर करने में लगे हैं.


भाषाई स्तर पर ये स्थिति चिंताजनक हैहोनी भी चाहिए क्योंकि ऐसे अनेक मूल हिन्दी शब्द अपने अस्तित्व में होने के बाद भी धीरे-धीरे चलन से बाहर होते जा रहे हैं. अपने अस्तित्व में होने के बाद भी शिक्षा क्षेत्र से ‘भौतिकी’, ‘रसायन विज्ञान’ आदि जैसे कुछ शब्द अब चलन से बाहर ही हैं. इनकी जगह पर सहजता से ‘फिजिक्स’,’ केमिस्ट्री’ का प्रयोग होने लगा है. कई बार लगता है कि जब इन्सान ने अपने रिश्तोंसंबंधोंपरिवार तक को विलुप्त होने की स्थिति में पहुँचा दिया है तो फिर शब्दों की बिसात ही क्या है. तकनीकी के बढ़ते जा रहे प्रभाव के चलते एक अबोल स्थिति इंसानों के मध्य पनपती जा रही है. सूचना तकनीकी क्रांति ने बातचीत को भी लगभग समाप्त कर दिया है. संदेशों का आदान-प्रदान करके कर्तव्यों की इतिश्री की जाने लगी है. ऐसी अबोल स्थिति में जबकि संवाद विलुप्त हैंबातचीत में ही शब्द विलुप्त हैं तो फिर भाषाई विलुप्तता से घबराहट किसलिए? 






 

09 सितंबर 2023

जिम्मेवारियों संग काम करने की स्वतंत्रता की ख़ुशी

देश इस समय जी-20 की अध्यक्षता करते हुए दो दिवसीय शिखर सम्मलेन के आयोजन में व्यस्त है. विश्व भर की महाशक्तियाँ, शक्तियाँ, उनके प्रमुख व्यक्तित्व इस समय देश में हैं. आयोजन की तैयारियाँ, तमाम प्रबन्ध, साज-सज्जा, व्यवस्थाएँ आदि दिव्यता-भव्यता से भरपूर नजर आ रही हैं. इस आयोजन से जुड़े जितने भी लोग दिखाई दे रहे हैं, चाहे वे बहुत बड़ी जिम्मेवारी के साथ हो अथवा बहुत छोटे से काम का निर्वहन कर रहे हैं, सबके चेहरे पर एक अलग सी ख़ुशी देखने को मिल रही है. जी-20 शिखर सम्मलेन की तैयारियों, व्यवस्थाओं से जुड़े लोगों की ख़ुशी-मिश्रित सक्रियता को देखकर दिल-दिमाग बहुत पीछे चला गया या कहें कि खो गया. वर्ष 2004 में और वर्ष 2008 में हुए दो सेमीनार इस अवसर पर बहुत गहराई के साथ याद आये. वर्ष 2004 में आयोजन था नेशनल सेमीनार का, जिसे रक्षा अध्ययन विभाग, डी.वी. कॉलेज, उरई द्वारा आयोजित किया गया था. दूसरा सेमीनार जो वर्ष 2008 में आयोजित हुआ. यह पूरी तरह व्यक्तिगत संसाधनों पर आधारित था, जिसे हमारे द्वारा कुछ साथियों के सहयोग से गठित पी-एच.डी. होल्डर्स एसोशिएशन द्वारा आयोजित करवाया गया था. इन दोनों सेमीनार की चर्चा होगी मगर अभी वर्ष 2004 में आयोजित हुए सेमीनार के बारे में. 


एडमिरल राजा मेनन 


एक दिन हमारे मोबाइल पर अभय अंकल का फोन आया, तुरंत विभाग में आकर मिलो. अभय अंकल माने डॉ. अभय करन सक्सेना, जो रक्षा अध्ययन विभाग, डी.वी. कॉलेज, उरई के अध्यक्ष थे और हमें अपने बेटे समान मानते थे. महीना कायदे से याद नहीं, जून का अंतिम सप्ताह था या जुलाई का पहला, समझ नहीं आया कि ऐसा कौन सा काम आ गया जिसके लिए अभय अंकल ने हमें फोन किया? बिना किसी सवाल-जवाब के (इतनी तो हिम्मत ही नहीं होती थी) जी अंकल, के जवाब के बाद तुरंत विभाग में उपस्थित हुए. पहुँचते ही अंकल ने एक पत्र हमारे सामने रखते हुए कहा कि तुमको बधाई हो, विभाग को एक सेमीनार मिला है यूजीसी की तरफ से, इसमें तुम क्या सहयोग कर सकते हो? अंकल आप आदेश करें, जिस भी काम का, हो जायेगा. हमारे इतना कहते ही अंकल ने कहा कि सारा काम वैसे भी तुमको देखना है मगर प्राथमिकता में तुमको स्मारिका का सम्पादन करना है. एडिटर रहेंगे निगम साहब मगर पूरा काम तुमको ही करना है.


विंग कमांडर डॉ. एम.एल. बाला 

हमारी असहमति का सवाल ही नहीं उठता था. इसके बाद एक आदेश पारित हुआ अभय अंकल, निगम साहब, शर्मा जी और हमारे मित्र डी.के. सिंह की तरफ से कि हमें रोज विभाग में आना होगा. उस समय निपट सरकारी रोजगार से रहित व्यक्ति थे, सो रोज हाजिरी लगाना भी संभव था. खैर, बाकी बातें फिर कभी क्योंकि अभी करना शुरू की तो ये पोस्ट कई-कई खण्डों में लगानी पड़ेगी. और बातें करने के पहले बस इतना बताते चलें कि स्मारिका के अंतिम रूप तक आने तक किसी के द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया. हमारे काम की स्वतंत्रता की स्थिति ये थी कि हमने अभय अंकल के वैचारिक तक पर अपनी एडिटिंग कर दी थी. हमें साठ पेज की स्मारिका तैयार करने के लिए कहा गया था. उसका अंतिम प्रिंट निकालने के पहले एक कॉपी अभय अंकल को, निगम अंकल, शर्मा अंकल को दिखाई. उनका आशीर्वाद मिला और स्मारिका अपने मूल रूप में आ गई. (इस पर भी लिखेंगे किसी दिन. स्मारिका की कई-कई कहानी हैं और मजेदार भी. यहाँ सीखा कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भी कैसे अनुशासन में रहकर काम किया जा सकता है, लिया जा सकता है.) 


बांये से - कैप्टन एस.के. जौहरी, डॉ. आर. एच. स्वरूप, लेफ्टिनेट जर्नल तेज पॉल 


होते-करते आखिरकार सेमीनार का दिन आ ही गया. 29-31 अक्टूबर 2004 में होने वाले इस सेमीनार की सारी तैयारियाँ, व्यवस्थाएँ बहुत से लोगों के द्वारा संपन्न होनी थीं मगर उनका निर्देशन कुछ हाथों में ही था. ये हमारा सौभाग्य था कि बहुत सी गम्भीर जिम्मेवारियाँ, व्यवस्थाएँ हमारे सिर पर थीं. भारतीय सेना से जुड़े वे सम्मानित व्यक्ति जो सेवानिवृत्त हो चुके थे या फिर उस समय सेवा में थे, उनके आवागमन का, रुकने का, खाने-पीने का, सेमीनार स्थल तक आने-जाने का जिम्मा हमारे कन्धों पर था. काम की गंभीरता अन्दर ही अन्दर डराती भी थी मगर अभय अंकल का विश्वास इस कदर था कि सारा डर गायब हो जाता. कुछ लोगों को लाने की जिम्मेवारी हमने स्वयं ली. अभय अंकल की कार बराबर हमारे पास रहती थी, सो आवागमन के काम में भी कोई अड़चन नहीं आई.


हमने भी पढ़ा अपना रिसर्च पेपर 


तीन दिवसीय उस सेमीनार की तमाम व्यवस्थाओं को पूरा करने में, अतिथियों की समस्याओं का समाधान करने में, भारतीय सेना के अधिकारियों संग कुछ समय बिता लेने में, अन्य प्रतिभाग करने वाले महानुभावों, शोधार्थियों के लिए अनुकूलन की स्थिति निर्मित करने में किसी भी तरह से परेशानी का अनुभव नहीं हो रहा था. छोटी से छोटी बात हो या कोई बड़ी बात सबमें अभय अंकल और बाकी लोगों द्वारा हमारी राय ली जाना हमें खुद में विशिष्ट बना रहा था. उस समय तो अपने आपमें गर्व महसूस हो रहा था, चेहरे पर ख़ुशी झलक जाती थी, आज उस समय को, उस आयोजन को याद कर रहे तो चेहरे पर अनायास ही मुस्कान उभर आई. समझ सकते हैं कि जो लोग जी-20 के महान, गर्वित करने वाले आयोजन में सहभागी हैं, साझीदार हैं, जिम्मेवार हैं वे किस कदर ख़ुशी का, गर्व का अनुभव कर रहे होंगे.

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(इस पोस्ट को लिखते समय उस सेमीनार के चार विशेष स्तंभों अभय अंकल, राजेंद्र कुमार निगम अंकल, अरविन्द कुमार शर्मा अंकल और दुर्गेश कुमार सिंह जी में से अभय अंकल और निगम अंकल अब हमारे बीच नहीं हैं. उनको इस पोस्ट के द्वारा पुनः स्मरण करते हुए सादर नमन.) 






 

05 सितंबर 2023

साम्प्रदायिक राजनीति का बढ़ता चलन

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन के सनातन उन्मूलन सम्बन्धी बयान को महज मानसिकता समझ कर दरकिनार नहीं किया जा सकता है. असल में धर्म और राजनीति का आपस में जिस तरह से घालमेल कर दिया गया है, उसके बाद से ऐसे बयान आश्चर्य नहीं. इसके पहले भी अनेकानेक बार इस तरह के बयान सामने आये जहाँ कि राजनीति को धर्म के द्वारा चमकाने का काम किया गया. आज भले ही प्रत्येक राजनैतिक दल अपने हित साधने हेतु धर्म का सहारा लेते दिख रहे हों किन्तु यह कार्य स्वतंत्रता के पहले से होता आया है. अंग्रेजों ने धर्म का सहारा लेकर ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को प्रभावित किया था. उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धर्म के नाम पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच अनेक दंगे हुए और अंततः सन 1947 में देश को धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया गया.


साम्प्रदायिकता की इस आग ने देश को आज तक अपने कब्जे में ले रखा है. यह विचारणीय है कि ऐसा तब हो रहा है जबकि वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को अंकित कर भारत को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया. प्रस्तावना में इसके बाद स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि ‘हम, भारत के लोगभारत को एक संप्रभु समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और इसके सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का गंभीरता से संकल्प लेते हैं.’ यहाँ धर्मनिरपेक्ष का सीधा सा अर्थ है कि सरकार और धार्मिक समूहों के बीच सम्बन्ध संविधान और कानून के अनुसार निर्धारित हैं. यह राज्य और धर्म की शक्ति को अलग करता है.




धर्म और राजनीति का समाज पर गहरा प्रभाव रहता है. इनके द्वारा राष्ट्र के, मानव के विकास को नयी दिशा प्राप्त होती है. ऐसे में धर्म और राजनीति को समझने की आवश्यकता है. शास्त्रसम्मत विचार से जिसे धारण किया जा सके वह धर्म है. यह वो क्रिया है जो मानव को जीने का रास्ता दिखाती है. यदि विस्तीर्ण रूप में देखें तो हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि धर्म नहीं बल्कि सम्प्रदाय हैं. इसी तरह योजनाबद्ध नीति एवं कार्यक्रमों का सञ्चालन करना ही राजनीति है. जनता के सामाजिक, मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्तर आदि को विकास की राह पर ले जाना ही इसका लक्ष्य होता है. धर्म में राजनीति को शामिल नहीं किया जा सकता किन्तु राजनीति बिना धार्मिकता के साथ नहीं हो सकती है. बिना धर्म के राजनीति मूल उद्देश्य से भटक जायेगी, मानव-कल्याण की भावना से परे हो जाएगी. मानव-कल्याणयुक्त धर्म से की गयी राजनीति ही धर्मनिरपेक्षता को प्रतिपादित करती है.


धर्म और राजनीति के इस विवेचन के मूल में छिपा है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता है. वह सभी धर्मों का सम्मान करते हुए उनको एकसमान दृष्टि से देखता है. यह किसी भी शासन की राज्य की प्रमुखता में शामिल है कि वह किसी धर्म विशेष के विकास हेतु कार्य नहीं करेगा और न ही किसी तरह के धार्मिक हस्तक्षेप हेतु स्वयं को अग्रणी भूमिका में लायेगा. धर्मनिरपेक्षता का यही वास्तविक स्वरूप है. इसके बाद भी न केवल राजनैतिक व्यक्तित्व, राजनैतिक दल धर्म के द्वारा अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने में लगे हैं बल्कि राज्य भी इसी तरह की गतिविधियों में लिप्त होने लगे हैं. ऐसी गतिविधियाँ चुनावों के समय स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं. पूर्व में हुए चुनावों में शाही इमाम द्वारा एक दल विशेष को मतदान करने की अपील राजनैतिक मंच से की गई तो एक प्रतिष्ठित पत्रिका के पत्रकार ने टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ‘समाजवाद और गणतंत्र की बात करने वाले लोग अगर इमाम के नाम से वोट पाना चाहेंगे तो हो सकता है कि कुछ लोग शंकराचार्य के नाम पर वोट माँगने लगें. फिर क्या, इस देश को शंकराचार्य और इमाम के बीच चुनाव करना होगा.’ यह सामान्य टिप्पणी नहीं है. आज बहुत तेजी के साथ यही हो रहा है. अब धार्मिक संगठनों से जुड़े लोग खुलकर राजनैतिक दलों के लिए, राजनेताओं के लिए वोट माँगते हैं.


धर्म किसी भी व्यक्ति के आंतरिक विश्वास का विषय होता है. इसके माध्यम से व्यक्ति न केवल स्वयं को सुरक्षित समझता है बल्कि सकारात्मक रूप से प्रभावित भी मानता है. इतिहास में भी किसी समय शासन का आधार धर्म हुआ करता था. तब धर्म के आधार पर व्यक्तियों के, जनता के क्रियाकलापों को संचालित किया जाता था, नियंत्रित किया जाता था. वर्तमान में संवैधानिक रूप से ऐसा न होने के बाद भी राजनैतिक दलों द्वारा संवैधानिक अनुच्छेदों का कथित रूप से फायदा उठाकर धर्म के द्वारा राजनीति को चमकाया जा रहा है. संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, अनुच्छेद 26 के द्वारा धार्मिक संस्थानों की स्थापना का अधिकार मिला है, अनुच्छेद 29 और 30 नागरिकों, विशेष रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं. इन संवैधानिक अधिकारों को राजनैतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करते रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर धार्मिक कृत्यों को समर्थन देना, शैक्षणिक संस्थानों की आड़ में मजहबी शिक्षा प्रदान करना, अल्पसंख्यकों के नाम पर दबाव समूह के रूप में राजनीति करना इन्हीं अनुच्छेदों की आड़ लेकर किया जाने लगता है. समय-समय पर अलग राज्य की माँग, धार्मिक स्थलों का उपयोग राजनीतिक कार्यों के लिए करने जैसे कदम उठाये जाते रहते हैं. पंजाब, जम्मू-कश्मीर, दक्षिण भारत के राज्य इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. यहाँ धर्म के नाम पर ही अलगाव की स्थिति एक पल में ही हिंसक रूप धारण कर लेती है. इसी अलगाववाद का लाभ उठाकर राजनैतिक दलों द्वारा मतदान को प्रभावित कर लिया जाता है. धार्मिकता के आधार पर प्रत्याशियों का चयन, धर्म के आधार पर मतदान, उसी आधार पर मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व के द्वारा नागरिकों की धार्मिक भावनाओं से खेला जाता है.


देखा जाये तो ये राजनैतिक दल राजनीति में धर्म का समावेश नहीं कर रहे हैं बल्कि धर्म में राजनीति का घालमेल करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं. इसका खामियाजा समाज को, नागरिकों को भुगतना पड़ता है. जरा सी बात को हिन्दू, मुस्लिम अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय से संदर्भित करके नागरिकों की भावनाओं को भड़का दिया जाता है. ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जबकि देश इस कारण से हिंसा की आग में जला. देश में वर्तमान दौर में अनेक धार्मिक, मजहबी प्रवृत्तियाँ राजनीति पर प्रभावी रूप से हावी हैं. इनका अराजक राजनैतिक रूप भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव से देश की धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को खतरा है. इस समस्या का समाधान देश के लिए आवश्यक है और इसे हम सभी नागरिकों को, राजनैतिक दलों को मिलकर ही निकालना होगा. इसके लिए सर्वोपरि एक काम हो और वो है राजनीति से धार्मिक उन्माद का समाप्त होना.