हत्या तो हत्या है
और जिसने भी की है उसे सजा मिलनी ही चाहिए. यह केवल किसी क्रिया की प्रतिक्रिया
देना मात्र नहीं होता बल्कि एक हँसते-खेलते इन्सान को हमेशा के लिए शांत कर देना
होता है. एक परिवार को ज़िन्दगी भर के लिए न भरने वाला घाव देना होता है. समाज के
बीच खुद हत्यारे के परिवार को भी शर्मिंदगी से जीवन गुजारने की सजा देना होता है.
अभी हाल के चर्चित राजा-सोनम रघुवंशी मामले में इंदौर के इस नवदम्पत्ति जोड़े के
अचानक से गायब हो जाने की खबर के बाद पति राजा का शव मिलना और पत्नी सोनम का गायब
होना शासन-प्रशासन पर,
मेघालय के पर्यटन पर, पर्यटकों की सुरक्षा पर सवालिया निशान
लगा रहा था. राजा की लाश मिलने के सत्रह दिन बाद अचानक से सोनम पुलिस को मिली.
उसकी गिरफ्तारी हुई अथवा उसने आत्मसमर्पण किया, ये बाद की बात है. उसी
के ऊपर अपने पति की हत्या करवाने का शक जताया जा रहा है, हत्या उसी ने की या करवाई इस बारे में अंतिम
सत्य तो बाद में पता चलेगा मगर जिस तरह से लोगों की प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही हैं,
उससे ऐसा लग रहा है जैसे समाज,
परिवार, विवाह संस्था रसातल में पहुँचने ही वाले हैं. मीडिया, सोशल मीडिया में इस तरह से बयानबाजी
हो रही है मानो पति-पत्नी संबंधों में हत्या जैसा ये पहला और आश्चर्यजनक मामला हो.

इस एक घटना के साथ
कुछ महीने पहले हुए नीले ड्रम कांड को, पॉलीथीन में पति के टुकड़े भरने वाले कांड को जोड़ा जा रहा है. पुरुष समाज को, पतियों को एकदम से डर के साये में
देखा जाने लगा है. ऐसा लगने लगा है जैसे कि हर पत्नी हत्यारिन हो और हर पति तलवार-चाकू
की नोंक पर. सोचिएगा एक पल को कि इस घटना से सारा समाज सदमे में क्यों है?
क्या इसलिए कि पत्नियाँ अब पतियों की
हत्या करने-करवाने लगीं? क्या
इसलिए कि महिलाओं ने इस हत्याकारी क्षेत्र में पुरुषों/पतियों के एकाधिकार पर
अतिक्रमण करना शुरू कर दिया? क्या
इसलिए कि पत्नी के रूप में एक महिला का इस तरह का स्वरूप समाज ने इक्कीसवीं सदी
में भी नहीं सोचा था?
कहीं इसलिए तो सदमे जैसी स्थिति नहीं कि एक सेक्स सिम्बल के रूप में, एक उत्पाद के रूप में, विज्ञापन के लिए
नग्न-अर्धनग्न अवस्था में सुलभ रूप में समझ आने वाली आधुनिक महिला अब साजिश रचती, हत्या करती-करवाती नजर आने लगी है? इस छवि में भी आश्चर्य कैसा, सदमा कैसा? टीवी के माध्यम से ऐसी स्त्रियाँ पहले
ही आपके घर में, आपके बेडरूम में, आपके
बच्चों के बीच स्थापित हो चुकी हैं. इन तथाकथित आधुनिक जीवन-शैली जीने वाली
महिलाओं को करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यापार करने के साथ-साथ साजिश रचते भी दिखाया
जाता है. परिवार में विखंडन करवाती इस धारावाहिक स्त्री को बाहर हत्या करते, हत्या की साजिश रचते भी दिखाया जा रहा है. आखिर इस क्रिया की प्रतिक्रिया
तो होनी ही है.
यदि समाज इस कारण
सदमे में है कि एक महिला सामान्य भाव से, बिना किसी घबराहट-भय के एक हत्याकांड में शामिल है तो गौर
करिएगा, ससुराल में एक
बहू-पत्नी की हत्या में पति रूपी पुरुष के साथ सास, जेठानी, ननद जैसी स्त्रियाँ भी शामिल रही हैं. एक महिला को जलाते समय, उसका गला घोंटते समय जब एक महिला के
रूप में उनके हाथ नहीं काँपे तो फिर सोनम के हत्यारी होने की आशंका पर इतनी
हलचल क्यों? वैसे यहाँ याद
रखने वाली एक बात ये भी है कि इसी देश में बरसों तक जन्मी-अजन्मी बेटियों को मौत
की नींद में सुलाने वाले हाथों में ज्यादातर हाथ महिलाओं के ही रहे हैं. हाँ, एक सत्य ये अवश्य है कि पिछले कुछ सालों में
ख़ुद महिलाओं ने ही महिलाओं के पक्ष में बने क़ानूनों का जिस तरह दुरुपयोग किया है,
उससे आज जागरूक, कर्तव्यनिष्ठ, पारिवारिक-सामाजिक दायित्व-बोध को समझने वाली
महिलाओं ने भी ऐसी महिलाओं का खुलकर विरोध करना शुरू कर दिया है.
समाज की बहुतायत
महिलाओं का ऐसी हत्यारी महिलाओं के विरोध में खड़े होने का कारण समाज में व्याप्त
सकारात्मकता का होना है. देखा जाये तो समाज कई-कई मानसिकता वालों से, अनेक प्रकार की मनोदशा वालों से
मिलकर संचालित होता है. समाज में दोनों तरह के स्त्री और पुरुष हैं. हत्यारी
मानसिकता स्त्री और पुरुष दोनों में है, संस्कारी मानसिकता भी दोनों में है. ऐसा नहीं है कि
समाज के सभी स्त्री और पुरुष समाज का भला करते घूम रहे हों, उनमें कोई बुराई न हो और ऐसा भी
नहीं है कि समाज में स्त्री-पुरुष सिर्फ हत्या, साजिश ही
करने में लगे हों. स्व-मानसिक स्थिति के चलते इन्सान अपने क़दमों को उठाता है और
घटना को अंजाम देता है. ये और बात है कि इंटरनेट की, रील की, आधुनिकता की चकाचौंध में रची-बसी दुनिया ने संस्कारों को, संस्कृति को, जीवन-मूल्यों को, परिवार को, समाज को, यहाँ के
व्यवस्थित ताने-बाने को तिलांजलि दे दी है. संबंधों का,
रिश्तों का कोई मोल अब जैसे दिखता ही नहीं है. आधुनिकता के चक्कर में सिर्फ और
सिर्फ विखंडन, ध्वंस, परित्याग आदि ही
देखने को मिल रहा है. ऐसी मानसिकता के बीच भी यदि सामाजिक संरचना की, पारिवारिक ढाँचे की, विवाह संस्था की परवाह करने
वाले लोग हैं, महिलाएँ हैं, पुरुष हैं
तो निश्चित रूप से परिदृश्य अभी पूरी तरह से काला नहीं हुआ है, पूरी तरह से
अंधकारमय नहीं हुआ है. रौशनी की एक सम्भावना अभी भी है. अब इस सम्भावना में रील की
इस आभासी दुनिया में झूमते मम्मी-पापा-बच्चों को तय करना होगा कि वे किस तरह की
मानसिकता के इंसान बनना चाहते हैं. किस तरह की मानसिकता का समाज बनाना चाहते हैं.