मानसून की
उठती-गिरती स्थिति के चलते देश के कई हिस्सों में अलग-अलग तरह की स्थितियाँ हैं.
कुछ हिस्सों में बारिश की आवश्यकता महसूस की जा रही है तो कुछ जगहों पर बाढ़ की
स्थिति बनी हुई है. जुलाई माह के पहले दो सप्ताह सामान्य से अधिक वर्षा के बाद मानसून
कमज़ोर पड़ गया, जो कृषि के लिए
सुखद नहीं है. निश्चित है कि सामान्य से कम बारिश से सिंचाई की समस्या हो सकती है, जिसका नकारात्मक प्रभाव फसलों पर,
उत्पादन पर पड़ेगा. देश का पारिस्थितिकी-तंत्र इतना विविधता भरा है कि एक तरफ मानसून
की कमी से फसलें प्रभावित हुई हैं तो दूसरी तरफ सामान्य से अधिक बारिश के चलते
बाढ़ आई हुई है.
ऐसे समय में नदी
जोड़ो परियोजना स्वतः चर्चाओं में आ जाती है. देश में अपनी तरह की इस अनूठी योजना के
द्वारा कुल तीस रिवर-लिंक बनाने की योजना है. इनके सहारे सैंतीस नदियों को एक-दूसरे
से जोड़ा जाएगा. योजना को मूर्त रूप देने के लिए लगभग पंद्रह हजार किमी लंबी नई नहरों
का निर्माण किया जाना है. स्वतंत्र भारत में 1960 में तत्कालीन ऊर्जा और सिंचाई राज्य मंत्री के. एल.
राव ने गंगा और कावेरी नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा. इसी क्रम में 1982 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय
जल विकास एजेंसी की स्थापना की. उस समय ऐसा अनुभव किया जा रहा था कि एजेंसी की स्थापना
के बाद नदी जोड़ो परियोजना अपने वास्तविक रूप में सामने आये मगर ऐसा नहीं हो सका. 2002 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने
के बाद सरकार पुनः सक्रिय हुई. अदालत द्वारा सरकार से 2003 तक नदियों को जोड़ने की योजना को अंतिम रूप देने और
2016 तक इसे क्रियान्वित करने को
कहा गया. 2014 में देश की पहली
परियोजना के रूप में केन-बेतवा नदी जोड़ने को कैबिनेट की मंजूरी मिली. इसके बाद केंद्र
सरकार ने कोसी-मेची नदी को जोड़ने की स्वीकृति प्रदान की.
नदी जोड़ो परियोजना
के पाँच प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किये गए हैं. इन लक्ष्यों में व्यापक जल डेटाबेस को
सार्वजनिक करना तथा जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करना;
जल संरक्षण, संवर्द्धन और परिरक्षण हेतु नागरिक और सरकारी कार्रवाई
को बढ़ावा देना; अधिक जल दोहन वाले
क्षेत्रों सहित कमज़ोर क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना; जल उपयोग कुशलता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना और बेसिन
स्तर तथा समेकित जल संसाधन प्रबंधन को बढ़ावा देना शामिल है. नदियों को आपस में जोड़ने
से उन क्षेत्रों से अतिरिक्त पानी को स्थानांतरित किया जा सकता है जो बहुत अधिक वर्षा
वाले हैं और बाढ़ की स्थिति से जूझते रहते हैं. इनके जल को स्थानांतरित किये जाने से
उन क्षेत्रों के सूखे की स्थिति से निपटा जा सकता है, जहाँ वर्षा जल कम रहता है. इससे देश के कई हिस्सों में
जल संकट को दूर करने में भी सहायता मिलेगी.
लाभ के इन अनेक पहलुओं
के बीच आशंकाएँ भी व्यक्त की जा रही हैं. इन आशंकाओं में राज्यों के बीच जल बँटवारा
एक बहुत बड़ी बाधा है. विस्थापन, पुनर्वास, जलमग्न, वन्य जीवों, वनस्पतियों के नकारात्मक रूप से प्रभावित होने जैसी अनेक
समस्याएँ भी हैं. संभव है कि इस तरह की परियोजना पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बदल दे.
आशंकाओं में सबसे पहली चुनौती विस्थापन और पुनर्वास तो है ही क्रियान्वयन के लिये अत्यधिक
धन की आवश्यकता भी बहुत बड़ी चुनौती है. नई नहरों और बाँधों के निर्माण, लोगों के विस्थापन-पुनर्वास
के चलते इस परियोजना पर लगभग 5.6 लाख करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है. लागत और
जनशक्ति के आधार पर भी इस परियोजना पर सवाल उठाए जाते हैं.
सम्भव है कि यह विचार
भ्रामक हो कि नदी जोड़ो परियोजना अथवा रिवर-लिंकिंग देश को बाढ़ की समस्या से निपटने
अथवा जल की कमी को दूर करने का समाधान देगी. बावजूद इसके इस परियोजना पर अब कदम
बढ़ाने की आवश्यकता है. ऐसी चुनौतियों के बीच इस परियोजना को एकसाथ सम्पूर्ण देश
में क्रियान्वित न करके पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इसको क्रियान्वित किया जाना
चाहिए. जिस क्षेत्र में कम लागत आने की सम्भावना हो उस क्षेत्र में भी इस परियोजना
पर कार्य किया जाना चाहिए. दो-तीन परियोजनाओं को पायलट प्रोजेक्ट के आधार पर
क्रियान्वित करके उनका परीक्षण और विश्लेषण किया जाना चाहिए कि ये परियोजनाएँ बाढ़-नियंत्रण,
सूखा-नियंत्रण आदि का समाधान प्रस्तुत
करने में सक्षम हैं अथवा नहीं? केन-बेतवा और कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना को इस सन्दर्भ में पायलट
प्रोजेक्ट के रूप में अपनाया जा सकता है.
ऐसी आशंकाओं के बीच
नदियों के जोड़ने के लाभ अधिक दिखाई देते हैं. देश के धरातल पर प्रतिवर्ष उपलब्ध लगभग
690 बिलियन क्यूबिक मीटर जल का
मात्र पैंसठ प्रतिशत जल ही उपयोग में आ पाता है, शेष जल बहकर समुद्र में चला जाता है. चूँकि देश में मानसून
सदैव ही अनियमित अथवा परिवर्तनशील रहता है, ऐसे में जल प्रबंधन योजनाओं पर विचार किये
जाने की आवश्यकता है. स्पष्ट है कि नदियों को आपस में जोड़ना नदी-जल का अधिकतम उपयोग
सुनिश्चित करने का एक तरीका है. इसके प्रति सभी को गंभीरता से सहयोगी बनने की आवश्यकता
है.
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