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06 जून 2025

दुनिया का सबसे ऊँचा रेलवे पुल

1315 मीटर लम्बे और एफिल टावर से भी ऊँचे पुल का उद्घाटन 06 जून 2025 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया. जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर बना यह पुल दुनिया का सबसे ऊँचा पुल है. यह उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेल लिंक परियोजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. चिनाब रेल सेतु इस्पात और कंक्रीट का मेहराबदार पुल है जो जम्मू-कश्मीर के जम्मू मंडल के रियासी जिले में बक्कल और कौरी के बीच स्थित है. नदी तल से इस पुल की ऊँचाई 359 मीटर (1178 फीट) है.

 

चिनाब सेतु भूकंपीय क्षेत्र पाँच में स्थित है. यह दो पहाड़ों के बीच बना है, जहाँ तेज हवाओं की वजह से विंड टनल फिनोमेना देखा जाता है. इस चुनौती को ध्यान में रखते हुए पुल को इस तरह से बनाया गया का, इस तरह से इसका डिजाइन तैयार किया गया है कि यह 260 किलोमीटर प्रति घंटा की हवा की गति का भी सामना आसानी से कर सकता है. जिसे इस तरह से बनाया गया है कि यह भूकंप और तेज हवाओं को भी झेल सकता है. 

 





12 जुलाई 2024

जल प्रबंधन का विकल्प नदी जोड़ो परियोजना?

मानसून की उठती-गिरती स्थिति के चलते देश के कई हिस्सों में अलग-अलग तरह की स्थितियाँ हैं. कुछ हिस्सों में बारिश की आवश्यकता महसूस की जा रही है तो कुछ जगहों पर बाढ़ की स्थिति बनी हुई है. जुलाई माह के पहले दो सप्ताह सामान्य से अधिक वर्षा के बाद मानसून कमज़ोर पड़ गया, जो कृषि के लिए सुखद नहीं है. निश्चित है कि सामान्य से कम बारिश से सिंचाई की समस्या हो सकती है, जिसका नकारात्मक प्रभाव फसलों पर, उत्पादन पर पड़ेगा. देश का पारिस्थितिकी-तंत्र इतना विविधता भरा है कि एक तरफ मानसून की कमी से फसलें प्रभावित हुई हैं तो दूसरी तरफ सामान्य से अधिक बारिश के चलते बाढ़ आई हुई है.

 

ऐसे समय में नदी जोड़ो परियोजना स्वतः चर्चाओं में आ जाती है. देश में अपनी तरह की इस अनूठी योजना के द्वारा कुल तीस रिवर-लिंक बनाने की योजना है. इनके सहारे सैंतीस नदियों को एक-दूसरे से जोड़ा जाएगा. योजना को मूर्त रूप देने के लिए लगभग पंद्रह हजार किमी लंबी नई नहरों का निर्माण किया जाना है. स्वतंत्र भारत में 1960 में तत्कालीन ऊर्जा और सिंचाई राज्य मंत्री के. एल. राव ने गंगा और कावेरी नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा. इसी क्रम में 1982 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी की स्थापना की. उस समय ऐसा अनुभव किया जा रहा था कि एजेंसी की स्थापना के बाद नदी जोड़ो परियोजना अपने वास्तविक रूप में सामने आये मगर ऐसा नहीं हो सका. 2002 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद सरकार पुनः सक्रिय हुई. अदालत द्वारा सरकार से 2003 तक नदियों को जोड़ने की योजना को अंतिम रूप देने और 2016 तक इसे क्रियान्वित करने को कहा गया. 2014 में देश की पहली परियोजना के रूप में केन-बेतवा नदी जोड़ने को कैबिनेट की मंजूरी मिली. इसके बाद केंद्र सरकार ने कोसी-मेची नदी को जोड़ने की स्वीकृति प्रदान की.

 

नदी जोड़ो परियोजना के पाँच प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किये गए हैं. इन लक्ष्यों में व्यापक जल डेटाबेस को सार्वजनिक करना तथा जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करना; जल संरक्षण, संवर्द्धन और परिरक्षण हेतु नागरिक और सरकारी कार्रवाई को बढ़ावा देना; अधिक जल दोहन वाले क्षेत्रों सहित कमज़ोर क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना; जल उपयोग कुशलता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना और बेसिन स्तर तथा समेकित जल संसाधन प्रबंधन को बढ़ावा देना शामिल है. नदियों को आपस में जोड़ने से उन क्षेत्रों से अतिरिक्त पानी को स्थानांतरित किया जा सकता है जो बहुत अधिक वर्षा वाले हैं और बाढ़ की स्थिति से जूझते रहते हैं. इनके जल को स्थानांतरित किये जाने से उन क्षेत्रों के सूखे की स्थिति से निपटा जा सकता है, जहाँ वर्षा जल कम रहता है. इससे देश के कई हिस्सों में जल संकट को दूर करने में भी सहायता मिलेगी.

 

लाभ के इन अनेक पहलुओं के बीच आशंकाएँ भी व्यक्त की जा रही हैं. इन आशंकाओं में राज्यों के बीच जल बँटवारा एक बहुत बड़ी बाधा है. विस्थापन, पुनर्वास, जलमग्न, वन्य जीवों, वनस्पतियों के नकारात्मक रूप से प्रभावित होने जैसी अनेक समस्याएँ भी हैं. संभव है कि इस तरह की परियोजना पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बदल दे. आशंकाओं में सबसे पहली चुनौती विस्थापन और पुनर्वास तो है ही क्रियान्वयन के लिये अत्यधिक धन की आवश्यकता भी बहुत बड़ी चुनौती है. नई नहरों और बाँधों के निर्माण, लोगों के विस्थापन-पुनर्वास के चलते इस परियोजना पर लगभग 5.6 लाख करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है. लागत और जनशक्ति के आधार पर भी इस परियोजना पर सवाल उठाए जाते हैं.

 

सम्भव है कि यह विचार भ्रामक हो कि नदी जोड़ो परियोजना अथवा रिवर-लिंकिंग देश को बाढ़ की समस्या से निपटने अथवा जल की कमी को दूर करने का समाधान देगी. बावजूद इसके इस परियोजना पर अब कदम बढ़ाने की आवश्यकता है. ऐसी चुनौतियों के बीच इस परियोजना को एकसाथ सम्पूर्ण देश में क्रियान्वित न करके पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इसको क्रियान्वित किया जाना चाहिए. जिस क्षेत्र में कम लागत आने की सम्भावना हो उस क्षेत्र में भी इस परियोजना पर कार्य किया जाना चाहिए. दो-तीन परियोजनाओं को पायलट प्रोजेक्ट के आधार पर क्रियान्वित करके उनका परीक्षण और विश्लेषण किया जाना चाहिए कि ये परियोजनाएँ बाढ़-नियंत्रण, सूखा-नियंत्रण आदि का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम हैं अथवा नहीं? केन-बेतवा और कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना को इस सन्दर्भ में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में अपनाया जा सकता है.

 

ऐसी आशंकाओं के बीच नदियों के जोड़ने के लाभ अधिक दिखाई देते हैं. देश के धरातल पर प्रतिवर्ष उपलब्ध लगभग 690 बिलियन क्यूबिक मीटर जल का मात्र पैंसठ प्रतिशत जल ही उपयोग में आ पाता है, शेष जल बहकर समुद्र में चला जाता है. चूँकि देश में मानसून सदैव ही अनियमित अथवा परिवर्तनशील रहता है, ऐसे में जल प्रबंधन योजनाओं पर विचार किये जाने की आवश्यकता है. स्पष्ट है कि नदियों को आपस में जोड़ना नदी-जल का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने का एक तरीका है. इसके प्रति सभी को गंभीरता से सहयोगी बनने की आवश्यकता है.


17 जुलाई 2023

नदी जोड़ो परियोजना की गंभीर आवश्यकता

दिल्ली सहित कई राज्यों में नदियों के बढ़ते जलस्तर ने तबाही मचा रखी है. जलप्रवाह अनियंत्रित रूप में बाढ़ की शक्ल में दिखाई दे रहा है. ऐसा दृश्य कोई इसी बार का नहीं है बल्कि प्रत्येक मानसून मौसम में ऐसी स्थिति कहीं न कहीं दिखाई पड़ती है जबकि नदियों में जलस्तर बढ़ा हुआ होता है. यही स्थिति ग्रीष्म ऋतु में उलट हो जाती है. भीषण गर्मी में इन्हीं उफनती नदियों का जलस्तर अत्यल्प होता है. ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना पर स्वतः ही ध्यान चला जाता है. देश में अपनी तरह की इस अनूठी योजना के द्वारा देश भर में कुल तीस रिवर-लिंक बनाने की योजना है. इन लिंक के सहारे सैंतीस नदियों को एक-दूसरे से जोड़ा जाएगा. इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए लगभग पंद्रह हजार किमी लंबी नई नहरों का निर्माण भी किया जाना है. 




देश में नदियों को जोड़ने सम्बन्धी इस परियोजना का आरम्भ भले ही देर से हुआ हो मगर इसका विचार सबसे पहले उन्नीसवीं सदी में आया था. सन 1858 में मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्य अभियंता आर्थर कॉटन द्वारा पहली बार नदियों को आपस में जोड़ने सम्बन्धी विचार रखा गया था. इस विचार के पीछे उद्देश्य था कि ईस्ट इंडिया कंपनी को बंदरगाहों की सुविधा प्राप्त हो सके साथ ही साथ दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में बार-बार आने वाले सूखे से भी निपटा जा सके. कालांतर में स्वतंत्र भारत में सन 1960 में तत्कालीन ऊर्जा और सिंचाई राज्य मंत्री के.एल राव ने इस प्रस्ताव पर विचार किया और गंगा और कावेरी नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा. इसी क्रम में सन 1982 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी की स्थापना की. उस समय ऐसा अनुभव किया जा रहा था कि एक एजेंसी की स्थापना के बाद शायद नदी जोड़ो परियोजना अपने वास्तविक रूप में सामने आये मगर ऐसा नहीं हो सका. सन 2002 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद सरकार पुनः सक्रिय हुई. अदालत द्वारा सरकार से सन 2003 तक नदियों को जोड़ने की योजना को अंतिम रूप देने और सन 2016 तक इसे क्रियान्वित करने को कहा गया. इसी के चलते सन 2014 में देश की पहली परियोजना के रूप में केन-बेतवा नदी जोड़ने को कैबिनेट की मंजूरी मिली. इसके बाद केंद्र सरकार द्वारा कोसी- मेची नदी को जोड़ने की स्वीकृति प्रदान की. केन-बेतवा योजना के बाद इसे नदियों को जोड़ने का देश का दूसरा सबसे बड़ा प्रोजेक्ट बताया जा रहा है.


राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना को दो चरणों में लागू किया जाना है. इसमें एक चरण में हिमालयी क्षेत्र की नदियों के विकास किया जाना प्रस्तावित है. इसके लिए कुल चौदह लिंक चुने गए हैं. गंगा, यमुना, कोसी, सतलज जैसी नदियाँ इस चरण का हिस्सा होंगी. इसी तरह से दूसरे चरण में प्रायद्वीप क्षेत्र की नदियों को शामिल किया गया है. इसमें दक्षिण भारत की नदियों को जोड़ने के लिए कुल सोलह लिंक बनाने की योजना है. इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा आदि को जोड़ा जाना है. नदियों को आपस में जोड़ने का मुख्य उद्देश्य देश में सभी नदियों में एक समान जलस्तर बनाने का प्रयास है. इससे देश के अनेक भागों में सूखे की समस्या से, कई राज्यों में बाढ़ की समस्या से निपटना आसान हो सकता है. इस तरह की स्थिति से दो-चार होती नदियों के आपस में जुड़ने से एक तो इनके जलस्तर में संतुलन बना रहेगा, दूसरे बाढ़, सूखा जैसी आपदाओं में कमी आने की सम्भावना रहेगी.


नदी जोड़ो परियोजना के पाँच प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किये गए हैं. इन लक्ष्यों में व्यापक जल डेटाबेस को सार्वजनिक करना तथा जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करना; जल संरक्षण, संवर्द्धन और परिरक्षण हेतु नागरिक और सरकारी कार्रवाई को बढ़ावा देना; अधिक जल दोहन वाले क्षेत्रों सहित कमज़ोर क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना; जल उपयोग कुशलता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना और बेसिन स्तर तथा समेकित जल संसाधन प्रबंधन को बढ़ावा देना शामिल है. यदि इन लक्ष्यों की तरफ गंभीरता से ध्यान दिया जाये और उनको व्यावहारिक रूप से अमल में लाया जाये तो इस परियोजना के अनेकानेक लाभ भी हैं. नदियों को आपस में जोड़ने से उन क्षेत्रों से अतिरिक्त पानी को स्थानांतरित किया जा सकता है जो बहुत अधिक वर्षा वाले हैं और बाढ़ की स्थिति से जूझते रहते हैं. इनके जल को स्थानांतरित किये जाने से उन क्षेत्रों के सूखे की स्थिति से निपटा जा सकता है, जहाँ वर्षा जल कम रहता है. इससे देश के कई हिस्सों में जल संकट को दूर करने में भी सहायता मिलेगी. इसके साथ-साथ जलविद्युत उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी संभव है. ऐसा अनुमान है कि इस परियोजना के द्वारा लगभग 34000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है. नदियों में जलस्तर के संतुलन से जल प्रदूषण नियंत्रण, नौवहन, सिंचाई , मत्स्य पालन, वन्यजीव संरक्षण आदि में भी सहायता मिलेगी. सिंचाई के साधन के बढ़ने की सम्भावना है. इससे अनियमित बारिश से कृषि उत्पादन की समस्या को दूर किया जा सकेगा. इनके अलावा यह परियोजना व्यापारिक, वाणिज्यिक रूप में भी सहायक हो सकती है. नदियों के आपस में जुड़ जाने से अंतर्देशीय जलमार्ग परिवहन प्रणाली को विकसित किया जा सकता है.


लाभ के इन अनेक पहलुओं के बीच अनेक तरह की आशंकाएँ भी व्यक्त की जा रही हैं. इन आशंकाओं के बीच राज्यों के बीच जल बँटवारा एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में उपस्थित है. विस्थापन की, पुनर्वास की, जलमग्न की, वन्य जीवों, वनस्पतियों के नकारात्मक रूप से प्रभावित होने जैसी अनेक समस्याएँ भी सामने आने की आशंका है. संभव है कि इस तरह की परियोजना पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बदल दे. ऐसी आशंकाओं के बीच नदियों के जोड़ने के लाभ अधिक दिखाई देते हैं. देश के धरातल पर प्रतिवर्ष उपलब्ध लगभग 690 बिलियन क्यूबिक मीटर जल का मात्र पैंसठ प्रतिशत जल ही उपयोग में आ पाता है, शेष जल बहकर समुद्र में चला जाता है. स्पष्ट है कि नदियों को आपस में जोड़ना नदी-जल का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने का एक तरीका है. इसके प्रति सभी को गंभीरता से सहयोगी बनने की आवश्यकता है.

 






 

13 अगस्त 2018

कृत्रिमता में वास्तविक आनंद तलाशता इंसान

जंगल काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर देने वाला इन्सान अब सुकून पाने के लिए जंगलों की तरफ ही दौड़ रहा है. नगरों की आपाधापी भरे जीवन में कुछ पल सुकून के पाने के लिए वह जंगलों की तरफ जा रहा है. इसके लिए वह जंगलों में अपने सुख-सुविधा के इंतजाम भी करने में लगा हुआ है. इसके लिए उसने कहीं रेस्टोरेंट बना रखे हैं, कहीं होटल बना दिए हैं, कहीं कुछ और इंतजाम के द्वारा आपाधापी को भुलाने की कोशिश करने में लगा है. इसी तरह देखने में आ रहा है कि ग्राम्य जीवन को लगभग समाप्त कर चुका व्यक्ति अपने शहरी जीवन में ग्रामीण जीवन का पुट देने का काम कर रहा है. शहरों में बन रहे आवासों में आधुनिकता का शौक़ीन इन्सान ग्राम्य जीवन की झलकियों को लगाकर अपने शौक को पूरा करने में लगा है. कहीं वह अपने मकानों के नाम में हट का इस्तेमाल कर रहा है. कहीं वह लालटेन, झोपड़ी जैसी डिजायन के द्वारा शहरों में ग्रामीण जीवन को साकार करने की कोशिश कर रहा है. वैसे यह शौक कम है और उसी को पाने की ललक ज्यादा है जो उसे अब प्राप्त नहीं है.


यह किसी से भी छिपा नहीं है और न ही किसी के द्वारा झुठलाया जा सकता है कि इन्सान के लिए प्राकृतिक वातावरण सदैव से ही लाभदायक रहा है. वनों, जंगलों, प्राकृतिक वनस्पतियों, पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों आदि ने न केवल वातावरण को संतुलित रखा है वरन इंसानों को भी लाभान्वित किया है. प्रकृति की तरफ से समय-समय पर मिलते लाभ की अंधाधुंध और असीमित लालसा ने इन्सान को प्रकृति के प्रति क्रूर बना दिया. उसके द्वारा प्राकृतिक सम्पदा का दोहन ही नहीं किया गया बल्कि उसे क्रूरतम तरीके से नष्ट भी किया गया. अब जबकि इंसानी जीवन पर सभी तरफ से खतरा दिखाई देने लगा है, उसके जीवन में प्राकृतिक सम्पदा की कमी बराबर होने लगी है, प्राकृतिक नजारों के लिए उसे इधर से उधर भटकना पड़ रहा है तब इन्सान ने कृत्रिम रूप से इनकी उपलब्धता बनानी शुरू कर दी है. यह अपने आपमें हास्यास्पद ही है कि पहले प्रकृति को नष्ट करने के बाद इन्सान अब उसकी प्रतिकृति से प्राकृतिक आनंद लेने की कोशिश कर रहा है.


यह अपने आपमें सत्य है कि वास्तविकता जैसा आनंद कभी भी आभासी में, उसके प्रतिरूप में मिल नहीं सकता है. यही कारण है कि आज इन्सान ने तकनीक के द्वारा, संपत्ति के द्वारा, संसाधनों के द्वारा भले ही अपने घरों में, अपने आसपास, मैदानों में, पार्कों में, रेस्टोरेंट में, होटल में कृत्रिम जंगल बना लिए हों, आभासी झोपड़ियों का निर्माण कर लिया हो, नकली झरने, नदियाँ बहानी शुरू कर दी हों मगर उनसे वह आनंद की अनुभूति नहीं कर पा रहा है. यही कारण है कि वह प्रकृति का वास्तविक आनंद लेने के लिए अब वास्तविक जंगलों की तरफ, वास्तविक पहाड़ों की तरफ, वास्तविक झरनों-नदियों की तरफ भागने लगा है. उसे अब शायद समझ आ रहा होगा कि उसने द्वारा अंधाधुंध लालच में उठाये गए विनाशक कदमों का खामियाजा न केवल उसे बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ी को भी उठाना पड़ रहा है. अपनी आगे वाली, आने वाली पीढ़ी की खातिर यदि आज का इन्सान अपने विनाशक कदमों पर अंकुश लगा ले तो संभव है कि आने वाला समय कुछ हद तक प्राकृतिक हो जाये.  

29 जून 2018

क्या वाकई यहाँ सरस्वती नदी विलुप्त हो रही है?


मजे की बात ये है कि उक्त वीडियो में आप सरस्वती नदी को लुप्त होते हुऐ देख सकते हैं.

हम सभी ने पवित्र नदियों  गँगा,  यमुना और सरस्वती के बारे मे सुना ही है मगर देखा केवल गँगा, यमुना को है. इस वीडियो में दिख रही नदी को सरस्वती बताया जा रहा है. इस स्थान पर आकर सरस्वती नदी गुप्तगामिनि हो जाती है. ये जगह उत्तराखंड मे बद्रीनाथ से आगे भीमपुर के माणा गाँव के पास है. कहते हैं कि यहीं पर व्यास जी ने महाभारत की रचना की थी. उसके लेखन में गणेश जी सहयोगी बने थे और सरस्वती नदी के बहाव के शोर मे गणेश जी व्यास जी को नहीं सुन पा रहे थे. इसलिये व्यास जी ने उसे श्राप दिया और वो धरती के अंदर लुप्त हो गई. 

वीडियो में भी कुछ ऐसा ही दिखाया गया है. असलियत क्या है, ये तो वीडियो बनाने वाला जाने या फिर वैज्ञानिक. इसके बाद भी जो कुछ वीडियो में दिख रहा है वह किसी आश्चर्य से कम नहीं. 

देखिये आप भी.