13 अगस्त 2018

कृत्रिमता में वास्तविक आनंद तलाशता इंसान

जंगल काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर देने वाला इन्सान अब सुकून पाने के लिए जंगलों की तरफ ही दौड़ रहा है. नगरों की आपाधापी भरे जीवन में कुछ पल सुकून के पाने के लिए वह जंगलों की तरफ जा रहा है. इसके लिए वह जंगलों में अपने सुख-सुविधा के इंतजाम भी करने में लगा हुआ है. इसके लिए उसने कहीं रेस्टोरेंट बना रखे हैं, कहीं होटल बना दिए हैं, कहीं कुछ और इंतजाम के द्वारा आपाधापी को भुलाने की कोशिश करने में लगा है. इसी तरह देखने में आ रहा है कि ग्राम्य जीवन को लगभग समाप्त कर चुका व्यक्ति अपने शहरी जीवन में ग्रामीण जीवन का पुट देने का काम कर रहा है. शहरों में बन रहे आवासों में आधुनिकता का शौक़ीन इन्सान ग्राम्य जीवन की झलकियों को लगाकर अपने शौक को पूरा करने में लगा है. कहीं वह अपने मकानों के नाम में हट का इस्तेमाल कर रहा है. कहीं वह लालटेन, झोपड़ी जैसी डिजायन के द्वारा शहरों में ग्रामीण जीवन को साकार करने की कोशिश कर रहा है. वैसे यह शौक कम है और उसी को पाने की ललक ज्यादा है जो उसे अब प्राप्त नहीं है.


यह किसी से भी छिपा नहीं है और न ही किसी के द्वारा झुठलाया जा सकता है कि इन्सान के लिए प्राकृतिक वातावरण सदैव से ही लाभदायक रहा है. वनों, जंगलों, प्राकृतिक वनस्पतियों, पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों आदि ने न केवल वातावरण को संतुलित रखा है वरन इंसानों को भी लाभान्वित किया है. प्रकृति की तरफ से समय-समय पर मिलते लाभ की अंधाधुंध और असीमित लालसा ने इन्सान को प्रकृति के प्रति क्रूर बना दिया. उसके द्वारा प्राकृतिक सम्पदा का दोहन ही नहीं किया गया बल्कि उसे क्रूरतम तरीके से नष्ट भी किया गया. अब जबकि इंसानी जीवन पर सभी तरफ से खतरा दिखाई देने लगा है, उसके जीवन में प्राकृतिक सम्पदा की कमी बराबर होने लगी है, प्राकृतिक नजारों के लिए उसे इधर से उधर भटकना पड़ रहा है तब इन्सान ने कृत्रिम रूप से इनकी उपलब्धता बनानी शुरू कर दी है. यह अपने आपमें हास्यास्पद ही है कि पहले प्रकृति को नष्ट करने के बाद इन्सान अब उसकी प्रतिकृति से प्राकृतिक आनंद लेने की कोशिश कर रहा है.


यह अपने आपमें सत्य है कि वास्तविकता जैसा आनंद कभी भी आभासी में, उसके प्रतिरूप में मिल नहीं सकता है. यही कारण है कि आज इन्सान ने तकनीक के द्वारा, संपत्ति के द्वारा, संसाधनों के द्वारा भले ही अपने घरों में, अपने आसपास, मैदानों में, पार्कों में, रेस्टोरेंट में, होटल में कृत्रिम जंगल बना लिए हों, आभासी झोपड़ियों का निर्माण कर लिया हो, नकली झरने, नदियाँ बहानी शुरू कर दी हों मगर उनसे वह आनंद की अनुभूति नहीं कर पा रहा है. यही कारण है कि वह प्रकृति का वास्तविक आनंद लेने के लिए अब वास्तविक जंगलों की तरफ, वास्तविक पहाड़ों की तरफ, वास्तविक झरनों-नदियों की तरफ भागने लगा है. उसे अब शायद समझ आ रहा होगा कि उसने द्वारा अंधाधुंध लालच में उठाये गए विनाशक कदमों का खामियाजा न केवल उसे बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ी को भी उठाना पड़ रहा है. अपनी आगे वाली, आने वाली पीढ़ी की खातिर यदि आज का इन्सान अपने विनाशक कदमों पर अंकुश लगा ले तो संभव है कि आने वाला समय कुछ हद तक प्राकृतिक हो जाये.  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें