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03 मार्च 2025

अमर्यादित, अशालीन कूटनीतिक व्यवहार

वर्तमान में दो राष्ट्रों रूस और यूक्रेन के बीच का युद्ध जितनी चर्चा में है, उससे कहीं अधिक चर्चा दो राष्ट्रों अमेरिका और यूक्रेन के राष्ट्रपतियों की मुलाकात की है. व्हाइट हाउस के ओवल हाउस में मीडिया के सामने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प और यूक्रेनी राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की की मुलाकात में शालीनता, मर्यादा, कूटनीति के सभी मानदण्डों का विखंडन देखने को मिला. अत्यंत कठोर और अमर्यादित लहजे में हुई बातचीत को समूचे विश्व ने देखा-सुना. अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प, उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने सख्त अंदाज़ में यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को खरी-खोटी सुनाई वह अप्रत्याशित ही नहीं अशोभनीय भी है. सामान्य शिष्टाचार के रूप में ऐसा आचरण स्वीकार्य नहीं है, इसके साथ-साथ वैश्विक कूटनीति के स्तर पर भी इसे मर्यादित नहीं कह सकते. ट्रम्प के व्यवहार को देखकर लगा जैसे वे अपनी ताकत के बल पर, अपने सहयोग के एहसान के बदले यूक्रेन को युद्ध विराम के लिए एक तरह का दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं. यूक्रेन को युद्ध के समय अमेरिकी मदद का जिक्र करना, मदद बिना यूक्रेन का युद्ध लड़ने में सक्षम न होने का दंभ दिखाना, यूक्रेन पर तीसरे विश्व युद्ध जैसे हालात उत्पन्न करने जैसा आरोप लगाना ट्रम्प का अहंकारी रवैया ही कहा जायेगा. अमेरिका संग खनन समझौते के लिए वाशिंगटन पहुँचे ज़ेलेंस्की पर अशालीन ढंग से ट्रम्प द्वारा अपना फैसला थोपने जैसा कदम उठाया गया.

 



जहाँ तक रूस-यूक्रेन युद्ध की बात है तो पिछले तीन सालों से चले आ रहे इस युद्ध का कोई अंतिम निष्कर्ष न तो निकला है और न ही निकलता दिखाई दे रहा है. इस बातचीत के बाद तो इस दिशा में अवरोध खड़े होने के आसार अधिक नजर आ रहे हैं. चूँकि ट्रम्प अपने चुनाव प्रचार के समय से ही रूस-यूक्रेन युद्ध विराम की बात करते रहे हैं, ऐसे में उनकी हडबडाहट को समझा जा सकता है. इस जल्दबाजी के कारण ही ट्रम्प पूरी मुलाकात में यूक्रेन के प्रति गम्भीर भाव नहीं दिखा सके. तीन वर्ष पूर्व आरम्भ हुए युद्ध के लिए वास्तविक जिम्मेदार कौन है, यह चर्चा का विषय अवश्य हो सकता है. रूस कभी भी इससे प्रसन्न नहीं रहा कि सोवियत संघ के कई देशों ने नाटो की सदस्यता ले ली. 1999 में अन्य यूरोपियन देशों के साथ हुई एक संधि पर रूस ने इस बात के लिए हस्ताक्षर किये थे कि प्रत्येक देश अपनी सुरक्षा के लिये किसी भी संगठन से जुड़ने को स्वतंत्र है. ऐसी संधि स्वीकारने के बाद भी रूस को सुखद प्रतीत नहीं हो रहा था कि यूक्रेन नाटो से जुड़े. ये और बात है कि 2008 में यूक्रेन द्वारा नाटो की सदस्यता माँगे जाने पर नाटो ने सदस्यता तो नहीं दी किन्तु भविष्य के लिए सदस्यता सम्बन्धी विकल्प को खुला रखा.

 

बहरहाल, रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने का एक कारण यूक्रेन द्वारा नाटो की सदस्यता की मंशा रखना था. रूस द्वारा हमला किये जाने के पश्चात् यूक्रेन ने अपने दुश्मन के विरुद्ध हथियार नहीं डाले. ये भले ही अमरीकी मदद के बिना सम्भव नहीं हुआ मगर इसका अर्थ यह तो कतई नहीं कि एक राष्ट्रपति द्वारा दूसरे राष्ट्रपति को अपमानित किया जाये. ट्रम्प इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि अमेरिका की सैन्य सहायता के बिना यूक्रेन द्वारा रूस का प्रतिरोध कर पाना सहज नहीं होगा. ऐसे में युद्ध विराम के लिए ट्रम्प किसी अगुआ की भांति, किसी महाशक्ति की तरह, किसी सर्वमान्य नेता की तरह कूटनीति अपनाते हुए ज़ेलेंस्की को युद्ध विराम के लिए तैयार कर लेते तो उनके प्रयासों का महत्त्व समझ आता. जैसा कि ट्रम्प अपने बड़बोलेपन और अलग तरह की कार्य-शैली के लिए जाने जाते हैं किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्वयं को अहंकारी, अक्खड़ तरीके से प्रस्तुत करते हुए किसी दूसरे राष्ट्राध्यक्ष पर दबाव बनायें. यहाँ ट्रम्प को समझना चाहिए था कि ज़ेलेंस्की ने ट्रम्प से एक तरह का भरोसा चाहा था. अमेरिका के साथ अपने खनिज संसाधनों को बाँटने की स्थिति में यूक्रेन को भी आश्वासन चाहिए था कि रूस पीछे हट जाएगा, यूक्रेन के कब्ज़ाए हुए क्षेत्र वापस कर देगा और भविष्य में यूक्रेन पर आक्रमण नहीं करेगा. देखा जाये तो एक राष्ट्राध्यक्ष के नाते युद्ध विराम के बदले में ऐसी माँग अनुचित तो नहीं थी. ज़ेलेंस्की भी अच्छी तरह से जानते होंगे कि रूस के विरुद्ध युद्ध करते हुए यूक्रेन लगातार अपना ही नुकसान कर रहा है. भले ही यूक्रेन पूरी तरह से परास्त न हो पर वो रूस को अकेले नहीं हरा सकता है. ऐसे में सम्भव है कि ज़ेलेंस्की और यूक्रेन के नागरिक युद्ध-विराम जैसी स्थिति चाहते हों, भले ही इसके लिए अमेरिका अथवा किसी अन्य भरोसेमंद राष्ट्र की पहल का इंतजार कर रहे हों.

 

यहाँ ट्रम्प को यह नहीं भूलना चाहिए था कि वे राजनयिक अधिकारों एवं शिष्टाचार सम्बन्धी वियना समझौते के हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. अहंकार में आकर वे यूक्रेन की सार्वभौमिकता, सम्प्रभुता का अपमान नहीं कर सकते. जेलेंस्की उनके मातहत किसी अधिकारी नहीं बल्कि एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ उपस्थित थे. यह अपमान और प्रदर्शन व्हाइट हाउस की असभ्यता है, संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों का मखौल उड़ाना है. राजनैतिक असहमति के प्रदर्शन का यह तरीका निहायत ही निम्नस्तरीय है. ज़ेलेंस्की का खनिज समझौते पर हस्ताक्षर किये बिना वापस लौट आना, ट्रम्प का एकतरफा ऐलान सा करना कि ज़ेलेंस्की अभी शांति के मूड में नहीं हैं और जब शांति की बात करना चाहें तो हमारे दरवाजे उनके लिए खुले हैं, निश्चित रूप से युद्ध विराम सम्बन्धी स्थिति का बनने के पहले ही बिगड़ना है. ट्रम्प के इस तरह के बर्ताव के बाद यूरोपीय देशों में भी हलचल बढ़ने लगी है; रूस को भी हिम्मत मिली होगी, अब वह और अधिक हमलावर स्थिति में आने की कोशिश करेगा. यह बदलता परिदृश्य अनिश्चितताएँ बढ़ाने का कार्य करेगा.


06 नवंबर 2024

भारतीय सन्दर्भ में डोनाल्ड ट्रंप की जीत

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने जीत हासिल की. उन्होंने अपनी प्रतिद्वन्द्वी कमला हैरिस को पराजित किया. राष्ट्रपति पद की जीत के लिए आवश्यक 270 इलेक्टोरल वोट के आँकड़े को पार करते हुए इस जीत को हासिल किया. इस जीत से उन्होंने अमेरिका में 132 वर्ष पूर्व हुए राष्ट्रपति चुनाव परिणाम की बराबरी कर ली है. दरअसल ट्रंप 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति थे जो 2020 में हुए अगले राष्ट्रपति चुनाव में हार गए थे. इस हार के बाद वे अब 2024 में पुनः विजयी हुए हैं. अमेरिका में ऐसा 132 साल बाद हुआ है जब कोई व्यक्ति दूसरी बार राष्ट्रपति बना हो मगर उसने चुनाव लगातार न जीता हो. डोनाल्ड ट्रंप के पहले ग्रोवर क्लीवलैंड 1884 में और फिर 1892 में राष्ट्रपति बने थे.

 

डोनाल्ड ट्रंप की जीत को लेकर भारत में अलग-अलग कयास लगाए जा रहे थे. उनकी जीत से भारतीय शेयर बाजार पर भी प्रभाव पड़ता दिखा है. इसका एक कारण है कि अमेरिकी चुनाव भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं. भारत का व्यापार अमेरिका के साथ वैश्विक स्तर पर अपना महत्त्व रखता है. भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंधों की दृष्टि से देखा जाये तो दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2021-2022 में 119.42 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हुआ था, जबकि इसके पूर्व 2020-21 में यह 80.51 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था. इस व्यापारिक संबंधों का प्रभाव निश्चित रूप से सकारात्मक ही होगा. ट्रंप के आने का सबसे ज्यादा फायदा उन उद्योगों को होने वाला है जो निर्यात से जुड़े हैं. इसमें चाहे मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियाँ हों या इन कम्पनियों के उत्पादों को बाहर भेजने वाली कोई तीसरी कम्पनी. आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार ऑटोमोबाइल, मशीनरी, टेक्सटाइल और कैमिकल आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें निर्यातकों को बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद है. ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है कि ट्रंप की नीतियाँ अमेरिकी कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं. इस कारण से भी भारत-अमेरिका के बीच पारस्परिक सह-संबंधों में जबरदस्त सुधार देखने को मिल सकते हैं.

 



भारतीय निर्यात को महत्वपूर्ण लाभ मिलने की उम्मीद के साथ-साथ ट्रंप द्वारा पूर्व में चीनी उत्पादों पर हाई टैरिफ लगाए जाने का सकारात्मक असर भारतीय व्यापारिक नीति में दिखाई पड़ सकता है. ट्रंप ने चीन से आने वाले सोलर पैनल, वॉशिंग मशीन, स्टील और एल्युमीनियम समेत अनेक उत्पादों पर टैरिफ्स लगाए थे. इससे अमेरिका में उनका निर्यात बहुत मुश्किल हो गया था. वहाँ की कम्पनियाँ इन उत्पादों की माँग की आपूर्ति के लिए दूसरे विकल्पों की ओर देखने लगी थीं. इन विकल्पों में एक नाम भारत का भी शामिल था. ऐसा माना जा रहा है कि वर्तमान जीत के बाद भी ट्रंप का रवैया या नजरिया चीन के प्रति कोई खास बदलने वाला नहीं है. यदि ऐसा रहा तो निश्चित ही माल की आपूर्ति के लिए वहाँ की कम्पनियों को दूसरे देशों को विकल्प के रूप में स्वीकारना होगा. ऐसी स्थिति में भारत की मैन्युफैक्चरिंग क्षमता और अमेरिका के साथ इसके संबंध देश को चीन का विकल्प बनने के लिए प्रबल दावेदार बनाते हैं. इससे अमेरिकी बाजार में ऑटो पार्ट, सौर उपकरण और रासायनिक उत्पाद आदि भारतीय निर्माताओं को स्थान मिल सकता है.

 

निर्यातक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता मिलने की एक उम्मीद के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग और रक्षा क्षेत्र में ट्रंप की नीतियों का लाभ भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में तेजी ला सकता है. अमेरिकी इन क्षेत्रों को मजबूत बनाने के लिए भारतीय रक्षा कम्पनियों के साथ बेहतर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं. भारत-अमेरिका के बीच रक्षा और सैन्य सहयोग पिछले कुछ वर्षों में मजबूत हुआ है. क्वाड समूह के द्वारा इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के प्रभाव को कम करने सम्बन्धी कदम उठाया था. ट्रंप के पिछले कार्यकाल में हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर क्षेत्र में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड समूह के द्वारा सुरक्षा साझेदारी को मजबूत किया गया था.  ऐसी स्थिति में वर्तमान में ट्रंप प्रशासन के नेतृत्व में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग को बेहतर तथा मजबूत बनाये जाने की प्रबल सम्भावना है.

 

इन व्यापारिक, रक्षा सम्बन्धी मामलों के साथ-साथ ऐसा माना जा रहा है कि ट्रंप की जीत से रूस-यूक्रेन युद्ध में शांति आने की सम्भावना है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप लगातार यह कहते नजर आये हैं उनके जीतने का सुखद परिणाम रूस-यूक्रेन युद्ध रुकने के रूप में सामने आएगा. यद्यपि अमेरिका और भारत की नीति एवं वैचारिक रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर अलग-अलग रही है किन्तु जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी कई मंचों पर कहते नजर आये हैं कि ये युद्ध का समय नहीं है, ऐसे में संभव है कि ट्रंप की पहल से यह युद्ध रुक जाये. युद्ध का रुकना भारतीय सन्दर्भों में भी लाभकारी है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ-साथ ट्रंप बांग्लादेश मामले में भी वहाँ हिन्दुओं पर हो रही हिंसा का विरोध करते रहे हैं. ऐसे में जबकि माना जा रहा है कि बांग्लादेश की वर्तमान अंतरिम सरकार में अमेरिका का हस्तक्षेप बना हुआ है. ऐसे में ट्रंप के आने से एक उम्मीद यह भी है कि बांग्लादेश के हालात और वहाँ हिन्दुओं की हालत में सुधार होगा. यदि ऐसा होता है तो यह भी निश्चित रूप से भारत के लिए लाभकारी होगा.

19 अगस्त 2024

युद्ध-काल में मोदी की यूक्रेन यात्रा

रूस-यूक्रेन युद्ध को चलते हुए दो वर्ष से अधिक का समय हो चुका है मगर अभी भी इस युद्ध की अंतिम परिणति दिखाई नहीं दे रही है. दोनों देशों में जिसे जब अवसर मिलता है, वह जबरदस्त हमला करके दूसरे देश को क्षति पहुँचा देता है. युद्ध के चलते रहने की ऐसी स्थिति के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा यूक्रेन का दौरा करना वैश्विक चर्चा का विषय बना हुआ है. इसी माह की 23 तारीख को नरेन्द्र मोदी अपनी पोलैंड यात्रा के तुरंत बाद यूक्रेन दौरा करेंगे. भारत और यूक्रेन के बीच तीस वर्ष पूर्व, 1992 में राजनयिक सम्बन्ध स्थापित होने के बाद पहली बार है जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा यूक्रेन की यात्रा की जा रही है. अपनी इसी महत्ता के साथ-साथ रूस-यूक्रेन युद्ध तेज होने के बीच भारतीय प्रधानमंत्री का यूक्रेन दौरा महत्त्वपूर्ण समझा जा रहा है.

 

ऐसा नहीं है कि रूस-यूक्रेन युद्ध-काल में मोदी और जेलेंस्की की यह पहली मुलाकात है. इससे पहले भी इन दोनों नेताओं की तीन बार मुलाकात हो चुकी है. यूक्रेन दौरे पर नरेन्द्र मोदी और जेलेंस्की की होने वाली मुलाकात उनकी चौथी मुलाकात होगी. पहली बार इन दोनों नेताओं की मुलाकात 2021 में ग्लासगो में हुई थी. इसके बाद मई 2023 को जी7 शिखर सम्मलेन के दौरान दोनों नेताओं का हिरोशिमा में मिलना हुआ था. तीसरी मुलाकात जून 2024 को इटली में हुए जी7 शिखर सम्मलेन में हुई थी, यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीसरे कार्यकाल की पहली विदेश यात्रा की थी. इस चौथी को इस कारण से और भी महत्त्वपूर्ण समझा जा रहा है क्योंकि इन दोनों नेताओं के मध्य यह पहली आधिकारिक मुलाकात होगी. इससे पहले दोनों नेताओं की मुलाकात किसी दूसरे देश में किसी अन्य मंच पर ही होती रही है. प्रधानमंत्री मोदी इस बार जेलेंस्की के आमंत्रण पर यूक्रेन जा रहे हैं. 

 



प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रूस-यूक्रेन युद्ध के समय में अभी हाल ही में रूस की यात्रा की गई थी. युद्ध-काल में रूस की अपनी पहली यात्रा में रूसी राष्ट्रपति पुतिन और नरेन्द्र मोदी का गले मिलना पश्चिमी मीडिया के गले नहीं उतरा था. मीडिया के द्वारा इसकी आलोचना करने के साथ-साथ स्वयं यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की द्वारा भी इस पर आपत्ति की गई थी. इस पर उन्होंने कहा था कि आज रूस के मिसाइल हमले में 37 लोग मारे गए, इसमें तीन बच्चे भी शामिल थे. रूस ने यूक्रेन में बच्चों के सबसे बड़े अस्पताल पर हमला किया. एक ऐसे दिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता का दुनिया के सबसे ख़ूनी अपराधी से मॉस्को में गले लगाना शांति स्थापित करने की कोशिशों के लिए बड़ी निराशा की बात है. ऐसे में जहाँ मोदी की रूस यात्रा के दौरान जेलेंस्की को आपत्ति हुई थी, माना जा रहा है कि मोदी की यूक्रेन यात्रा से रूस को आपत्ति, असहजता हो सकती है.

 

यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य ये है कि भारत के रूस और यूक्रेन से अपने-अपने स्तर से अलग-अलग सम्बन्ध हैं. जहाँ तक रूस-यूक्रेन के इस युद्ध का सवाल है तो भारत द्वारा कूटनीतिज्ञ भूमिका अपनाते हुए लगातार यही प्रयास किया गया है कि यह युद्ध समाप्त हो. उसके द्वारा किसी एक देश का न तो समर्थन किया गया है और न ही विरोध. भारत के रूस और यूक्रेन दोनों से मजबूत और स्वतंत्र सम्बन्ध होने का ही परिणाम है कि भारत ने यूक्रेन पर रूसी हमले की न तो निंदा की और न ही संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव का समर्थन किया. इसी तरह से भारत द्वारा युद्ध-काल में यूक्रेन को लगातार मानवीय सहायता उपलब्ध करवाई जाती रही है. यूक्रेन और रूस के साथ भारत के राजनयिक सम्बन्ध होने के साथ-साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी बने हुए हैं, जो इस युद्ध के दौरान भी लगातार स्थापित रहे. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2021-22 में 386 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया. इसके साथ ही दोनों देशों के मध्य कृषि उत्पाद, धातुकर्म उत्पाद, प्लास्टिक, पॉलिमर, फार्मास्यूटिकल्स, मशीनरी, रसायन, खाद्य उत्पाद आदि का आयात-निर्यात पूर्व की भांति होता रहा.

 

मोदी और जेलेंस्की की यह मुलाकात कृषि, बुनियादी ढाँचे, स्वास्थ्य, शिक्षा, रक्षा आदि सहित अनेक बिन्दुओं पर केन्द्रित रहेगी. इसके अलावा इस मुलाकात से रूस-यूक्रेन युद्ध के सन्दर्भ में कोई सकारात्मक बिन्दु सामने आने की अपेक्षा की जा रही है क्योंकि भारत हमेशा से युद्ध के बजाय आपसी बातचीत के द्वारा रूस और यूक्रेन के मध्य विवाद के समाधान तक पहुँचने की बात करता रहा है.स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि यह युद्ध का समय नहीं है. युद्ध के मैदान में समाधान नहीं ढूंढे जा सकते. युद्ध और वैश्विक अराजकता के इस दौर में पिछले महीने भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा के बाद अब यूक्रेन की यात्रा से सकारात्मक सन्दर्भ तलाशने की आवश्यकता है.  

 


13 फ़रवरी 2024

बदलते भारत की कूटनीतिक विजय

भारतीय नौसेना के सात पूर्व अधिकारियों ने दिल्ली हवाई अड्डे को जब भारत माता की जय के नारों से गुंजायमान कर दिया, तब वह क्षण भारत के लिए वैश्विक कूटनीति और विदेश नीति में विजय का क्षण था. ये वही पूर्व सैनिक थे जिनको क़तर की अदालत द्वारा मौत की सजा सुनाई गई थी. इन पूर्व नौसैनिक अधिकारियों की मौत की सजा को भारत के कूटनीतिक हस्तक्षेप के बाद कतर ने माफ कर दिया था. मौत की सजा माफ़ होने के बाद भी भारत ने प्रयासों में कमी न रखी. आखिरकार इन पूर्व नौसैनिकों को कतर ने रिहा कर दिया. इस मामले में भारत सरकार की कूटनीति की सराहना करनी होगी क्योंकि कुछ दिन पहले लोकसभा में एक सदस्य ने सरकार को कतर में बंद सैनिकों को वापस लाने की चुनौती दी थी. भारत सरकार द्वारा बिना किसी शोर-शराबे और प्रतिक्रिया के सकारात्मक रणनीति पर कार्य करते हुए अपने नागरिकों को रिहा करवा लिया गया.

 



जेल से रिहा हुए ये पूर्व नौसैनिक दहरा ग्लोबल टेक्नोलॉजीज एंड कंसल्टिंग सर्विसेज में काम करते थे. दोहा स्थित यह निजी फर्म कतर के सशस्त्र बलों और सुरक्षा एजेंसियों को प्रशिक्षण और अन्य सेवाएँ प्रदान करती है. यद्यपि क़तर सरकार द्वारा आरोपों का स्पष्ट रूप से खुलासा नहीं किया गया तथापि ऐसा समझा जा रहा कि इनको कतर के पनडुब्बी प्रोग्राम के सम्बन्ध में इजरायल के लिए जासूसी करने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था. भारत सरकार ने आरोपों को लेकर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उसने अपने नागरिकों के साथ उचित व्यवहार की करने पर जोर दिया था. इस रिहाई को मोदी सरकार की बदलती और प्रभावी विदेश-नीति का प्रतीक भी कहा जा रहा है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पश्चिम एशिया और खाड़ी देशों के साथ सम्बन्ध सुधारने पर विशेष बल दिया गया. पहले की सरकारों में इस तरफ कम ध्यान दिया जाता रहा. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अपना स्पष्ट रुख रखा था कि पश्चिम एशिया और अरब देशों से संबंधों के मामले में नया अध्याय जोड़ा जा रहा है. भारत सरकार के द्वारा नए भारत सम्बोधन को लगातार सच भी किया जा रहा है. इसके लिए बिना किसी पूर्वाग्रह के केन्द्र सरकार द्वारा अपनाई जा रही कूटनीति और विदेशनीति को देखना होगा. इन क्षेत्रों में भारत को लगातार सफलता मिल रही है. अफगानिस्तान, यूक्रेन से भारतीय नागरिकों को भारत ने निकाला. यूक्रेन-संकट के दौरान पुतिन ने भारतीय विद्यार्थियों को सेफ पैसेज देते हुए उनको निकलने में मदद की.

 

पूर्व नौसैनिकों की सजा का मामला सिर्फ विदेश नीति तक ही सीमित नहीं रहा. दिसम्बर में दुबई में हुए पर्यावरण सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कतर के राष्ट्रप्रमुख शेख तमीम बिन हमाद की मुलाकात को सकारात्मक संदेश के रूप में देखा गया. इस मुलाकात के बाद भारतीय नागरिकों की रिहाई का समाचार आना अपने आपमें एक सुखद सन्देश है. यह एक प्रकार से क़तर के स्वभाव का भी परिचायक है. विदेशी मामलों के जानकार मानते हैं कि कतर एक ऐसा देश है जो हमेशा मध्यस्थता करके दो देशों के विवादों को सुलझाने में सहायक की भूमिका हेतु जाना जाता है. अभी हाल में इजराइल और हमास के बीच भी कतर ने सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करते हुए मध्यस्थता निभाई. भारत की बढती वैश्विक छवि से क़तर अनजान नहीं है. ऐसे में भारतीय कूटनीति, विदेश नीति और दोनों देशों के मध्य के राजनयिक, व्यापारिक सम्बन्धों के चलते कतर को भारतीय कैदियों को राहत देनी पड़ी.

 

इस पूरे घटनाक्रम में वर्ष 2014 की संधि और अभी हाल ही में भारत और क़तर के मध्य हुए गैस सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण समझौते को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. 2014 की संधि में दोनों देशों के मध्य यह स्वीकार किया गया था कि अगर किसी कारण से दोनों देशों के नागरिकों को सजा मिलती है तो वे अपने देश में सजा काट सकते हैं. ऐसे में एक सम्भावना इन पूर्व सैनिकों के भारत में सजा काटने की भी बन रही थी मगर भारत सरकार ने इस मामले को कूटनीतिक नजरिए से उठाते हुए अमेरिका और तुर्किए से भी चर्चा की थी. इन दोनों देशों के रिश्ते कतर और उसके राष्ट्राध्यक्ष से बेहतर हैं. जिसके चलते इन नागरिकों की रिहाई सम्बन्धी निर्णय आना सहज हुआ. भारतीय कूटनीति के साथ-साथ क़तर के साथ हुए गैस सम्बन्धी समझौते को भी इस मामले में प्रभावकारी माना जा रहा है. इसी फरवरी में हुए इस समझौते के अनुसार भारत अगले बीस वर्षों  तक क़तर से लिक्विफाइड नैचुरल गैस (एलएनजी) खरीदेगा. एलएनजी आयात करने वाली भारत की सबसे बड़ी कंपनी पेट्रोनेट एलएनजी लिमिटेड ने कतर की सरकारी कंपनी कतर एनर्जी के साथ ये समझौता किया है. इसके अनुसार कतर प्रतिवर्ष 7.5 मिलियन टन गैस भारत को निर्यात करेगा.

 

कूटनीति हो, विदेश नीति हो या फिर क़तर के साथ हमारे दोस्ताना सम्बन्ध कुल मिलाकर भारतीय नागरिक रिहा होकर स्वदेश लौट आये हैं. विश्व राजनीति बहुत ही जटिल और संवेदनशील हो चुकी है. भारत ने दक्षिण एशिया से ऊपर उठकर वैश्विक राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. विदेश के संकटग्रस्त देशों से भारतीय नागरिकों की वापसी रही हो, कोरोनाकल में भारत द्वारा मदद देना रहा हो, तालिबान और पश्चिमी देशों के मध्य बातचीत होना रहा हो, सभी में भारतीय कूटनीति, विदेश नीति महत्त्वपूर्ण भूमिका में नजर आई है. विगत वर्षों में भारतीय विदेश नीति नित नए आयाम गढ़ती नजर आ रही है. यह वैश्विक परिदृश्य में भारतीय छवि की बढ़ती स्वीकार्यता का सूचक है. 






 

01 मई 2019

मोदी की कूटनीतिक वैश्विक सोच को दर्शाती है ये विजय


इस बार विचार किया था कि अपने संसदीय क्षेत्र के निर्वाचन होने तक राजनैतिक पोस्ट लिखने से बचा जायेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में सभी लोग, उसमें हम भी शामिल हैं, पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. सभी का किसी न किसी दल, विचारधारा के प्रति एक तरह का पूर्वाग्रह बना हुआ है. इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो खुद को निरपेक्ष मानते, बताते हैं. कहने को ऐसे लोग खुद को भले ही निरपेक्ष कहते हों, भले ही वे किसी दल के समर्थक न होते हों मगर विरोधी अवश्य होते हैं. ऐसे लोगों का विरोध सिर्फ और सिर्फ भाजपा से होता है. भाजपा के विरोध में वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, किसी के साथ भी जा सकते हैं. ऐसा इस चुनाव में होते दिख भी रहा है. टुकड़े गैंग का सदस्य खड़ा हुआ है तो भाजपा विरोधी तत्त्व उसके समर्थन में उपस्थित हो गए. देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दम मारने वाले भी ऐसे गैंग का सहारा अपने वरिष्ठ सदस्य के प्रचार के लिए ले रहे हैं. ऐसे लोगों के लिए आतंकवादियों को मारने के सबूत चाहिए होते हैं. ऐसे लोगों के लिए एक आतंकी के पक्ष में अदालत खुलवाने की कोशिश होती है. ऐसे लोगों द्वारा ही हिन्दू आतंकवाद की कहानी गढ़ी जाती है. 


फ़िलहाल, कहने को बहुत कुछ है मगर लिखना इसलिए नहीं क्योंकि आज की पोस्ट का सन्दर्भ उससे कतई नहीं है. आज, एक मई को दो घटनाएँ अपने आपमें अभूतपूर्व कही जा सकती हैं, वे घटित हुईं. इनमें एक घटना आतंकी मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित करने सम्बन्धी रही. चीन की तरफ से विगत कई मौकों पर वीटो लगाकर ऐसा करने में अड़ंगा लगाया जाता रहा मगर इस बार उसके द्वारा ऐसा नहीं किया गया. पिछले लम्बे समय से संयुक्त राष्ट्र की तरफ से उसे वैश्विक आतंकी घोषित करवाने सम्बन्धी भारत के कूटनीतिक प्रयासों को उस समय सफलता मिली जबकि चीन ने अपना वीटो पावर हटा कर इसका समर्थन कर दिया. इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संसद, पठानकोट और पुलवामा जैसे हमलों को अंजाम देने वाले आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया गया है. यह भारत की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है. इस जीत के कुछ दिनों पूर्व पाकिस्तान से हमारे जांबाज अभिनंदन का सुरक्षित वापस आना भी एक कूटनीतिक सफलता थी. दोनों मामलों में विश्व समुदाय ने भारत का खुलकर साथ दिया और उसी का परिणाम रहा कि पाकिस्तान और चीन दवाब में आये. इस घटना पर वर्तमान केंद्र सरकार को जिस तरह से उसके अन्य राजनैतिक साथी दलों की तरफ से बधाई, शुभकामनायें मिलनी चाहए थीं वे नहीं मिली हैं.

इस घटना के अलावा आज की एक घटना वाराणसी से बीएसएफ के बर्खास्त जवान का नामांकन पत्र का खारिज होना है. यह सामान्य अर्थों में बहुत बड़ी घटना समझ न आ रही हो मगर इसके सन्दर्भ बहुत गहरे हैं. संदर्भित व्यक्ति बीएसएफ से बर्खास्त जवान है, जिसका विगत महीनों में एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, जिसमें उसके द्वारा सेना में भोजन सम्बन्धी समस्या को उठाया गया था. फिलहाल, मुद्दा यहाँ यह नहीं वरन यह है कि उस व्यक्ति के द्वारा पहले निर्दलीय नामांकन किया गया, बाद में उसे गठबंधन ने अपना प्रत्याशी बनाया. दोनों नामांकन पत्रों में जानकारियों में अंतर होने के साथ-साथ जो सबसे बड़ी बात है वह उसका बर्खास्त होना. क्या कोई बर्खास्त जवान चुनाव लड़ सकता है? वाराणसी से किसी बर्खास्त जवान का चुनाव क्षेत्र में उतारना, वो भी मोदी के खिलाफ एक सोची-समझी योजना थी. यदि वाकई वह जवान अथवा बीएसएफ के बहुत सारे जवान सेना के सम्मान में ही मैदान में उतर रहे थे तो उनको उस व्यक्ति के खिलाफ चुनाव में उतरना चाहिए था, जिसने खुलेआम सेना को रेपिस्ट कहा था. मगर ऐसा नहीं हुआ, न ऐसा होने जा रहा है क्योंकि इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ भाजपा का विरोध, मोदी का विरोध है.

फिलहाल तो भाजपा विरोधी और मोदी विरोधी संज्ञाशून्य जैसी स्थिति में होंगे. वे किसी भी रूप में रहें, खुश रहें क्योंकि अभी सम्पूर्ण देश वर्तमान केंद्र सरकार की वैश्विक कूटनीतिक विजय की ख़ुशी मना रहा है. मोदी जी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर यात्राओं का यह सुफल निकला है.



28 सितंबर 2016

पाकिस्तान पर कूटनीतिक सफलता

पाकिस्तान समर्थित आतंकियों के हमले के बाद देशभर में पाकिस्तान से युद्ध करके समाधान निकालने की आवाज़ उठने लगी है. यहाँ मूल रूप से जो प्रतिध्वनि हो रही है वो पाकिस्तान विरोध की है. इस प्रतिध्वनि में कुछ ध्वनियाँ ऐसी भी सुनाई दे रही हैं जो इस विषम परिस्थिति में भी पाकिस्तान-प्रेम का राग आलाप रही हैं. हालाँकि पाकिस्तान को युद्ध के द्वारा सबक सिखाने के शोर के बीच हाल-फ़िलहाल ऐसी आवाजें बहुत खुलकर सुनाई नहीं दे रही हैं किन्तु कहीं न कहीं इन आवाजों के पीछे का मकसद युद्ध रोकना नहीं, युद्ध न होने देना नहीं है वरन पाकिस्तान के प्रति, इस्लामिक ताकतों के प्रति अपना प्रेम ज़ाहिर करना ही है. ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान से युद्ध किये जाने की आवाजें इसी सरकार में उठी हैं, इससे पहले भी ऐसा होता रहा है. पूर्व की सरकार के समय भी आतंकी हमला होने की दशा में युद्ध ही एकमात्र विकल्प के नारे लगते रहे हैं. वर्तमान में केंद्र में सत्तासीन भाजपा के विभिन्न नेताओं और सहयोगी दलों के नेताओं की तरफ से भी तत्कालीन विपक्षी दल के रूप में पाकिस्तान को युद्ध के द्वारा सबक सिखाये जाने की माँग उठती रही थी. युद्ध किसी समस्या का अंतिम समाधान नहीं हो सकता है, ये बात सभी को स्पष्ट रूप से ज्ञात है किन्तु जब समस्या अनावश्यक रूप से कष्टकारी हो जाये तो फिर कठोर कदम उठाये जाने की जरूरत महसूस होती है.


वर्तमान में जबकि केंद्र में भाजपा सरकार है जो विगत वर्षों में खुलकर पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की खुलकर खिलाफत करती रही है, उससे देश के नागरिकों को या कहें कि पाकिस्तान-विरोधियों को आशा बंधी थी कि किसी भी आतंकी घटना पर पाकिस्तान को युद्ध के द्वारा सबक सिखा दिया जायेगा. उड़ी की आतंकी घटना के इतने दिन बाद भी पाकिस्तान से युद्ध न छेड़े जाने के कारण ये समर्थक निराश से लग रहे हैं. दो वर्ष पूर्व जो लोग नरेन्द्र मोदी के गुणगान करते नहीं थकते थे उनमें से बहुतेरे लोग उनको भला-बुरा कहने लगे हैं. ऐसे बिन्दु पर आकर कुछ बातों को समझने की आवश्यकता होती है. विगत एक दशक की देश की राजनीतिक स्थिति पर विचार किया जाये तो साफ़-साफ़ समझ आता है कि पिछले दो वर्षों में ही भारत की हनक को वैश्विक रूप में पुनः महसूस किया गया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लगातार वैदेशिक यात्राओं के द्वारा ही अनेक देशों से देश के संबंधों, रिश्तों का नवीनीकरण सा हुआ है. देश की बढ़ती साख के साथ-साथ पड़ोसी देशों से बनते मधुर संबंधों को चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान हजम नहीं कर पा रहा है. उसके लिए न स्वीकारने योग्य स्थिति के बीच नरेन्द्र मोदी द्वारा लालकिले से बलूचिस्तान का मामला उठाया जाना भी फाँस बन गया है. पाकिस्तान जहाँ एक तरफ कश्मीर में अपनी हरकतों से उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किये हुए था, बलूचिस्तान का मुद्दा उठते ही वैसी ही हड्डी उसके गले में अटक गई है. इसके अतिरिक्त विदेशों से लगातार भारत को मिलता समर्थन, निवेश, मेक इन इंडिया की सफलता आदि ने भी पाकिस्तान को बेचैन किया है. इसी बैचेनी को दूर करने के लिए उसकी तरफ से ऐसे कदम लगातार उठाये जा रहे हैं कि देश बौखलाकर उस पर हमला कर दे.

यहाँ आकर केंद्र सरकार की कूटनीति को समझने और उसकी तारीफ करने की आवश्यकता है. भारत सरकार ने, सेना ने धैर्य न खोते हुए गंभीरता से काम लिया. संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के लगाये गए आरोपों का खुलकर जवाब देना अपने आपमें भले ही सफलता न समझा जाये किन्तु जिस तरह से विगत दो-तीन दिनों में ही पाकिस्तान और चीन के सुर बदले हैं वे सफलता का द्योतक अवश्य कहे जा सकते हैं. भारत द्वारा कठोर कार्यवाही किये जाने सम्बन्धी बयान देने और सिन्धु जल संधि पर पुनर्विचार किये जाने के बाद से ही पाकिस्तान की तरफ से कश्मीरियों के पक्ष में बयान जारी किया गया. चीन ने भी ऐसे किसी बयान से इंकार किया जो युद्ध की दशा में पाकिस्तान का समर्थन करता हो. स्पष्ट है कि युद्ध का विकल्प न आज सही है और न ही पिछली सरकार में उचित था. ये बात समूचे विश्व को पता है कि पाकिस्तान भी परमाणु हथियार संपन्न देश है और किसी भी असामान्य स्थिति में यदि उसके द्वारा इसका उपयोग कर लिया गया तो समूचे देश के लिए ही नहीं वरन दक्षिण एशिया के लिए खतरा पैदा हो जायेगा. इसके अलावा युद्ध की स्थिति में आज गृहयुद्ध जैसी स्थिति भले न बने किन्तु देश के अन्दर उथल-पुथल अवश्य मच जाएगी. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि कंधार विमान अपहरण मामले में जिस आतंकी को छोड़ने के लिए सभी दलों की सहमति थी, उसके लिए सिर्फ भाजपा को ही दोषी बताया जाता है. गैर-भाजपाई नेता द्वारा पाकिस्तान चैनल पर बैठकर देश के प्रधानमंत्री को हटाये जाने की बात की जाती है. देश के भीतर धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता के नाम पर माहौल बिगाड़ने की कोशिश की जाती हैं. ऐसे में संभव है कि देश की सेना युद्ध के समय अन्दर-बाहर युद्ध लड़ना पड़े.


केंद्र सरकार, कूटनीतिज्ञ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, सेना के उच्च पदाधिकारी ऐसी विषम स्थिति को भली भांति समझ रहे हैं, हम सबसे बेहतर समझते होंगे. ऐसे में जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान को सभी देशों द्वारा नकार सा दिया गया है. जल समझौते पर पुनर्विचार किया जाने लगा है. पाकिस्तान को देश की तरफ से मिले ‘मोस्ट फेवरिट नेशन’ का दर्ज़ा छीने जाने पर विचार किया जा रहा है. बलूचिस्तान के साथ-साथ सिंध प्रान्त की माँग भी उभर आई है. वहाँ पाकिस्तानी सरकार द्वारा किये जा रहे जबरिया प्रयासों की बात भी सामने आ गई है. ये हालात युद्ध नहीं तो युद्ध जैसे ही हैं. इनके बीच राफेल विमानों का सौदा हो जाना भी बहुत बड़ी सफलता है. ज़ाहिर सी बात है कि पाकिस्तान बिना युद्ध छिड़े बचाव की मुद्रा में है. यदि ऐसा नहीं होता तो उसके राजदूत द्वारा ऐसा बयान कतई नहीं आता कि ‘जंग किसी मामले का हल नहीं. जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपने भविष्य का फैसला करने के लिए बेहतर मौका मिलना चाहिए. अगर उन्हें लगता है कि वे भारत के साथ ज्यादा खुश हैं तो वे वहीं रहें, पाकिस्तान को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है.’ ये कहीं न कहीं भारत की कूटनीति की जीत है और आज इसी तरह के युद्ध की आवश्यकता है. युद्ध के उन्मादियों को समझना होगा कि पिछली सरकार द्वारा पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद पर ऐसे कठोर कदम भी नहीं उठाये गए थे. अब जबकि बिना युद्ध किये पाकिस्तान एक कदम पीछे है तो कोशिश यही होनी चाहिए कि वो कदम आगे न बढ़े. युद्ध पाकिस्तान का नाश तो करेगा ही, भारत को भी नुकसान पहुँचायेगा.