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22 जनवरी 2015

बेटियों की संख्या नहीं बढ़ा पाए



इधर इन दिनों एकाएक कुछ लोगों में प्रसन्नता सी दिखने लगी है और ये प्रसन्नता किसी राजनैतिक अथवा आर्थिक कारणों से नहीं वरन देश में बाघों की संख्या बढ़ जाने से उत्पन्न हुई है. विगत वर्षों में बाघों की गिरती संख्या पर चिंता व्यक्त की गई थी, देश के अनेक जागरूक लोग बाघों को बचाने के लिए, उनकी संख्या बढ़ाने के लिए निकल पड़े थे. हास्यास्पद तो ये था कि ऐसे-ऐसे क्षेत्रों से लोग जागरूक हो गए थे जहाँ बाघ नामक कोई भी प्राणी सदियों से पाया नहीं गया; ऐसे लोग सक्रिय हो गए थे बाघों की संख्या बढ़ाने में जो इंसानों की संख्या कम करने में आगे रहे. बहरहाल ऐसे लोगों की मेहनत काम आई या फिर प्रकृति की अपनी मेहनत कि इस बार की गणना में बाघों की संख्या में वृद्धि दिखी. इसमें मीडिया से लेकर सामाजिक तबकों तक, जो बाघ बचाओ अभियान के अंग बने थे, ख़ुशी की लहर दौड़ी मगर अफ़सोस इस बात का रहा कि कोई भी बेटियों की संख्या बढ़ाने के प्रति इतना जागरूक नजर नहीं आया.
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ये अपने आपमें शर्म का विषय हो सकता है कि एक तरफ हम बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए आंदोलित हैं और दूसरी तरफ बेटियों की गिरती संख्या के लिए महज औपचारिक गोष्ठियाँ करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. ये दुःख प्रकट करने का नहीं, अफ़सोस ज़ाहिर करने का नहीं, एक-दूसरे को जागरूक करने का नहीं वरन सत्य को स्वीकार करने का अवसर है. बेटियों की लगातार गिरती संख्या हमारे लिए जिस तरह से चिंता का विषय होना चाहिए था, उस तरह से नहीं है. हम जनगणना की आंकड़ेबाजी में फँसकर प्रसन्नता महसूस करने में लगे हैं. वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर स्पष्ट किया गया कि देश में प्रति एक हजार पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं, जो वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्धारित महिलाओं की संख्या 933 से अधिक है. इसी चंद बढ़ोत्तरी की आंकड़ेबाजी में देश की जनता मुग्ध है, सामाजिक जागरूक लोग प्रसन्न हैं मगर क्या इसी आँकड़े के साथ छिपे छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या पर निगाह दौड़ाई गई है? इसी बिंदु पर आकर समूचे आँकड़े की असलियत सामने आती है. वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर शून्य से छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या प्रति एक हजार बालकों पर 919 है, जो वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर 927 थी. सोचने की बात है कि इस एक दशक में बालिकाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हुई है तो फिर महिलाओं की संख्या में वृद्धि कैसे हो गई? इस आंकड़ेबाजी का अपना ही एक शिगूफा है, जिसे दूसरी तरह से समझने की आवश्यकता है.
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यदि बेटियों की संख्या के सन्दर्भ में वर्ष 2011 की जनगणना को आधार बनाया जाये तो स्पष्ट है कि 26 प्रदेशों में छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या 900 से अधिक रही जबकि वर्ष 2001 की जनगणना में ऐसे प्रदेशों की संख्या 29 थी. इसी तरह से कुल 13 राज्य ही ऐसे रहे जहाँ पर वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2011 में छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है जबकि 22 राज्य ऐसे रहे जहाँ पर वर्ष 2001 के मुकाबले वर्ष 2011 में बालिकाओं की संख्या में गिरावट दर्ज की गई. आश्चर्य की बात ये रही कि गिरावट दिखाने वाले सभी राज्यों में वर्ष 2001 में बालिकाओं की संख्या 900 से अधिक थी. ऐसे में स्वयं इसका आकलन किया जा सकता है कि हमारे राज्य किस मुस्तैदी के साथ बेटियों की संख्या में वृद्धि करने हेतु तत्पर हैं. ये आँकड़े हमें अब विचलित नहीं करते और शायद कभी भी विचलित नहीं करते थे क्योंकि बेटियों की संख्या में गिरावट आना कोई प्राकृतिक कारण नहीं वरन मानवजनित है. कन्या भ्रूण हत्या करना, जन्म के बाद बेटियों से भेदभाव ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण बेटियों की संख्या में गिरावट आ रही है.
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इसके लिए जागरूकता तो आवश्यक है ही साथ ही समाज में कानून का भय भी आवश्यक है. आये दिन जिस तरह से बच्चियों को गर्भ में मारने की घटनाएँ सामने आ रही हैं, बेटियों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार की घटनाएँ सामने आ रही हैं उन्हें देखकर लगता है कि लोगों में कानून का कोई खौफ नहीं रह गया है. अल्ट्रासाउंड सेंटर वाले अथवा चंद चिकित्सकों द्वारा भले ही इसका दुरूपयोग किया जा रहा हो किन्तु खुद अभिभावक भी बेटियों को मारने में कहाँ पीछे रह रहे हैं. पूरे देश, प्रदेशों में चंद घटनाएँ ही सामने आई हैं जहाँ कि कन्या भ्रूण हत्या करने वालों, करवाने वालों को सख्त से सख्त सजा दी गई हो. बिना सख्ती दिखाए समाज में इस कुकृत्य के खिलाफ भय व्याप्त नहीं किया जा सकता है. लोगों को जागना होगा, कानून को जागना होगा वर्ना आने वाले समय में हम सब बाघ तो बचाते रहेंगे किन्तु बेटियों को पूरी तरह से खो देंगे.

14 जुलाई 2014

बलात्कार के मूल में है मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन




दिनों-दिन बढ़ती बलात्कार की घटनाएँ समाज में आ रहे मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन का दुष्परिणाम हैं। रिश्तों को हाशिये पर लगाकर यौन-कुंठित व्यक्तियों द्वारा अपनी ही बेटी, बहिन, भतीजी एवं अन्य निकटवर्ती रिश्तों से शारीरिक दुष्कर्म किया जा रहा है। यौन-कुंठा का इतना वीभत्स रूप शायद की कभी देखने को मिला हो। आज स्त्री, बच्चियाँ, वृद्धा कहीं भी सुरक्षित नहीं दिखती हैं। देश की राजधानी हो या प्रदेशों की राजधानी, महानगर हो या छोटा क़स्बा, उच्च शिक्षित महिला हो या फिर गरीब महिला, सामान्य स्वस्थ स्त्री हो या मानसिक विक्षिप्त, बालिका हो या वृद्धा महिला सुरक्षित नहीं दिखती है।
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दिल्ली हादसे के बाद बलात्कारियों को फाँसी देने की मांग उठी। क़ानून का पुनर्मूल्यांकन कर दोषियों के लिए सख्त से सख्त सजा का प्रावधान किया गया। इसके बाद भी बलात्कार न तो रुके न ही कम हुए बल्कि उनमें वीभत्सता दिखने लगी। यहाँ समस्या के समाधान की आवश्यकता है न कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप करने की। ये जानना आवश्यक है कि क्या पुरुष प्रधान सोच ही बलात्कार के लिए उत्तरदायी है? क्या पितृसत्तात्मक परिवार की अवधारणा के कारण ही समाज में बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं? ये समाज का दुर्भाग्य है कि स्त्री पुरुष के संबंधों को दो अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया जाने लगा है जहाँ पुरुष को भोगवादी व्यवस्था का पक्षधर तथा स्त्री को उपभोग सम्बन्धी वस्तु सिद्ध किया जा रहा है। स्त्री पुरुष के अपने-अपने समाज बनाने के कारण भी हिंसात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है। अपराधी इसी अलगाववादी मानसिकता का लाभ उठाकर निर्द्वन्द्व भाव से अपराध पर अपराध किये जाता है।
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आज जरूरत स्त्री पुरुष के आपसी विभेद की नहीं वरन इस जघन्य अपराध को नियंत्रित करने की है। उपभोक्तावादी संस्कृति के चलन ने भारतीय बाज़ारों को विज्ञापनों और उत्पादों की चकाचौंध से दिग्भ्रमित सा कर दिया है। किसी भी उत्पाद का विज्ञापन हो, पुरुषों के उपभोग की वस्तु हो, बच्चों की आवश्यकता सम्बन्धी हो या फिर महिलाओं की जरूरत, नारीदेह दर्शन बिना किसी भी तरह का विज्ञापन पूरा नहीं होता है। इसके साथ-साथ इन विज्ञापनों के प्रस्तुतीकरण का प्रभाव भी मन-मष्तिष्क पर अहम् रूप से पड़ रहा है। अधोवस्त्रों के विज्ञापन हों, सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापन हों, गर्भनिरोधकों के विज्ञापन हों, पेयपदार्थों के विज्ञापन हों, बॉडी स्प्रे को बेचना हो उनका प्रस्तुतीकरण अश्लीलता से भरपूर दिखाता है। केबिल संस्कृति के चलते आज अश्लीलता घर-घर में परोसी जा रही है वहीं मोबाइल के चलते हर हाथ में अश्लीलता सुशोभित हुई है। मोबाइल पर इंटरनेट की सुलभता के चलते अब हर हाथ अपने साथ यौन संबंधों की सहज-सरल प्रस्तुति, नारीदेह के कामुक चित्रण, पोर्न साइट्स की अश्लीलता लिए घूमता है। इससे कामुक प्रवृत्ति के व्यक्ति को नारीदेह अत्यंत सुलभ और सहज लगने लगती है, उसे जीवन की एकमात्र आवश्यकता सेक्स लगने लगती है। नारीदेह के बिना, सेक्स के बगैर उसे अपना जीवन अधूरा सा लगने लगता है ऐसी स्थिति में वह अपनी यौनेच्छा को शांत करने का जरिया खोजने लगता है। किसी भी रूप में शारीरिकता की लालसा, यौनेच्छा संतुष्टि की कामना बलात्कार जैसे अपराध को जन्म देती है। बलात्कार के मूल में स्त्री के प्रति विद्वेष, व्यक्तिगत रंजिश का होना अपवादस्वरूप कहीं-कहीं हो सकता है अन्यथा की स्थिति में इसके मूल में यौन-कुंठा ही है। महिलाओं के साथ शारीरिक संबंधों की पूर्ति में कठिनाई अथवा बाधा उत्पन्न होने पर बलात्कार का विकृत रूप गैंग-रेप में अथवा मासूम बच्चियों अथवा परिवार की बच्चियों के शोषण के रूप में सामने आ रहा है। दरअसल अभिभावकों द्वारा पर्याप्त यौन शिक्षा तथा आपसी वार्तालाप का अभाव भी बच्चियों में असुरक्षा की भावना पैदा कर रहा है। ऐसी स्थिति में किसी भी परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति द्वारा छेड़छाड़ अथवा यौन हिंसा को ये बच्चियाँ छिपा जाती हैं, यही ख़ामोशी अपराधी के हौसले को बढ़ाती है और वह अपने कुकृत्यों को अंजाम देता रहता है।
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बलात्कार रोकने अथवा कम करने का उपाय कानूनी दृष्टि से ज्यादा सामाजिक और सांस्कृतिक है। नारीदेह की कामुक छवियों के सामने आने पर रोक लगे। देश भर में पोर्न साइट्स पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध लगाया जाए। यौन शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल करने के साथ-साथ बच्चियों को शारीरिक सुरक्षा सम्बन्धी प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से विद्यालयों में दिया जाना चाहिए। वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देकर यौन-कुंठित व्यक्तियों की यौनेच्छा शमन की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि लड़कियों के पहनने-ओढ़ने को लेकर बंदिशें लगाई जाएँ तो लड़कों को भी महिलाओं की इज्जत करनी सिखाई जानी चाहिए। बलात्कार के मूल में यदि नारीदेह की कामुक छवि का प्रदर्शन है तो संस्कृति से विमुख होना भी एक अन्य कारण हो सकता है। भारतीय संस्कृति के गौरवमयी आँचल की छाँव को त्यागकर मांसलता, अश्लीलता की चकाचौंध भरी धूप को स्वीकारने से रिश्तों की गर्माहट, भावनाओं की पवित्रता को सुखाने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त होने वाला नहीं और इसका खामियाजा हमारी बेटियों को उठाना पड़ रहा है।
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03 मार्च 2010

आइये, मिल कर बचाओ-बचाओ खेलते हैं

आजकल बचाओ-बचाओ की आवाज रोज ही सुनाई दे रही है। कभी बाघों को बचाने की आवाज, कभी पेपर बचाने की आवाज, कभी गैस बचाने की आवाज, कभी पर्यावरण को बचाने की आवाज, कभी पानी बचाओ की आवाज, कभी बेटी बचाओ की आवाज.......................। हर तरह से बचाने का काम चल भी रहा है। लेख लिखे जा रहे हैं, मैसेज किये जा रहे हैं, ब्लाग लिखने के शौकीन हैं तो पोस्ट दे मारिये, कुछ नहीं कर सकते तो गोष्ठी का आयोजन कर डालिये और दे डालिये बढ़िया सी बचाओ घुट्टी।

इधर कुछ न कुछ बचाओ के बाद याद आया कि देश बचाओ की गुंजाइश है अभी। अब जब गुंजाइश है तो क्यों न इसी पर काम कर लिया जाये। फिर ख्याल आया कि इस बचाओ के खेल में मिलेगा क्या?



जो बाघ बचाने निकले वे भले ही बाघ बचा पायें या नहीं पर अपने आपको सबके सामने तो ला सके हैं। कुछ हैं जो कह रहे हैं मोबाइल का इस्तेमाल अधिक से अधिक करें और पेपर बचाओ; कुछ का कहना है कि पानी बचाओ। इस बचाओ में हमारे एक मित्र ने व्यंग्य किया कि यदि पेपर और पानी दोनों बचाने की मुहिम शुरू कर दी गई तो सबेरे-सबेरे बड़ी दिक्कत हो जायेगी।

यह व्यंग्य सबेरे के इस्तेमाल पर कागज, पानी पर नहीं वरन् हमारी व्यवस्था पर है। हम पहले तो अधिक से अधिक दोहन करते हैं और फिर उसके बचाने की आवाज लगाने शुरू कर देते हैं। अब देखो हमने पृथ्वी को तो नष्ट कर ही डाला अब किसे नष्ट करें तो मंगल और चाँद की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये। अब बेचारे दोनो मनुष्यों की मार मरेंगे और बाद में कई दशकों के बाद हम आवाज लगायेंगे मंगल बचाओ, चन्द्रमा बचाओ।

हाँ जी बात हो रही थी बाघ बचाने की, चलिए हम तैयार हैं। ‘‘भाइयो, बहिनो..........अरे! नहीं, भाई, बहिन तो शिकार करते ही नहीं फिर? हाँ, प्रिय शिकारियो, देश में बाघों की संख्या मात्र 1411 रह गई है। अब आप लोग बाघों का शिकार करना बन्द कर दो। आप लोग ऐसा करोगे तो बाघ किसी दिन समाप्त हो जायेंगे और हमारे बच्चे चिड़ियाघर में, सर्कस में किसे देखेंगे?’’

इतने से काम चलेगा या और कहें? आँकड़े भी दें? कहाँ-कहाँ बाघ बचे हैं, ये भी देना है? किस-किस क्षेत्र में अधिक शिकार होता है, ये भी दें? ऐसा है कि हम पहली बार बाघों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं, इस कारण यह पता नहीं है कि कैसे बचायेंगे, तभी आप लोगों से पूछ रहे हैं।


अब किसे बचाना है? पेड़ को, चलो बचायें.........फिर भाषणबाजी करनी है? इसके लिए कुर्सी को त्यागना होगा, जिस मेज पर कम्प्यूटर रखा है उसे हटाना होगा, जिस पलंग पर सोते हैं उसे हटाना होगा। चलो आपका कहा मानकर सब कुछ लोहे का बनवा लेते हैं तो कल को आप ही कहोगे कि लोहा बचाओ।

पेपर कैसे बचाया जाये ये भी तो बताते जाओ? पुस्तकें बन्द करवा दो क्योंकि पढ़ाई-लिखाई का कोई महत्व तो रह नहीं गया है। कम्प्यूटर पर पढ़ाई कराओ और सीडी, पेन ड्राइव पर प्रश्न-पत्र हल करवा दो। वैसे भी आज की व्यवस्था में गरीब को तो पढ़ पाना नहीं है और अमीर के बच्चे वे चाहे कम्प्यूटर पर पढ़ें या फिर कागज पर, उनके लिए तो बात बराबर ही है।

और क्या बचा?????????? अरे! बेटी की बात तो रह ही गई? उफ! ये क्या कह बैठे? ये भी कोई विषय है बचाने लायक? क्या करोगे बचाकर? किसको लाभ है बेटी के बचाने से? दूसरी बात करो, किसी और को बचाने की चर्चा करो। जिसे बेटी की जरूरत होगी वा किसी न किसी तरह बचा ही लेगा, हम क्यों अपना दिमाग खर्च करें? अब देखो हमें पानी की जरूरत होती है तो हम बचा लेते हैं कि नहीं। बढ़ती मंहगाई में हमने पैसे, गैस, सब्जी, राशन बचाकर दिखाया कि नहीं और तो और आप देखो हम सरकार की नजर में धूल झोंक कर इनकम टैक्स तक बचा लेते हैं।

इनको बचाने की जरूरत थी हमें, सा बचा लिया। इसी तरह जिसे बेटी की जरूरत होगी वो बचा ही लेगा, आप बिलावजह परेशान हो रहे हैं।

चलिए अभी बचाने लायक इतना ही दिखा। आपको कुछ और दिखे बचाने लायक तो बताइयेगा सिवाय बेटी और देश बचाने के। तब तक हम भी कुछ नया विषय देखते हैं, मुद्दा देखते हैं जिसको बचाने की आवाज लगा कर अपनी राजनीति को, अपनी प्रचार कम्पनी को चमकाया जा सकता हो। तब तक बचाओ....बचाओ...बचाओ।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

21 फ़रवरी 2010

बेटियों-बहुओं की ह्त्या करने वाले बाघ बचाने में लगे हैं !!!

देश की जनता में एकदम से बाघों को बचाने की होड़ शुरू हो गई है। लिख-लिख कर कागज काले कर डाले (वैसे अब कागज काले करने की जरूरत नहीं ब्लाग जो है) टी-शर्ट पहन डाली और भी जो तमाशा हो सकता था किया। सवाल ये उठता है कि बाघों की ये संख्या एकाएक तो कम नहीं हो गई? 1411 तक आने में बहुत समय लगा होगा किन्तु अब तक किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।



अब जबकि टी0वी0 पर विज्ञापन दिखाया गया और देश में कई स्थानों पर मुख्य-मुख्य लोगों की दिलचरूपी इस ओर दिखी तो हमें भी लगा कि बाघों को बचाया जाये।

सवाल फिर एक कि बाघों को बचायें कैसे? हमारा वश चले तो बाघों को पाल लें और रोज उनके द्वारा बच्चे पैदा करवाने का विकल्प वैज्ञानिकों और पशु-वैज्ञानिकों को तलाशने को कहें। रोज बच्चे पैदा होगे और बच जायेंगे बाघ।

कितना हास्यास्पद और विद्रूपता से भरा लगता है कि जिस देश में अभी भी कन्या भ्रूण हत्या हो रहीं हों, लगभग रोज ही देश के किसी न किसी कोने में कन्या बचाओ अभियान चलाया जा रहा हो वहाँ हम बाघों को बचाने में इंसान से संवेदनशीलता की आशा लगाये हैं।



एक आँकड़ा बताता है कि देश में स्त्री-पुरुष की संख्या में प्रति हजार लगभग 70 का अन्तर आ चुका है। जिसने भी मूक चीख फिल्म देखी हो (यह एक चिकित्सक द्वारा बनाई गई फिल्म है जिसमें गर्भपात करते समय का दृश्य है, इसमें भ्रूण की हृदय गति बहुत बढ़ गई है। वह अपना छोटा सा मुँह खोल रहा है, उसको दर्द का एहसास हो रहा है आदि-आदि) वह संवेदनशील है तो किसी भी स्थिति में गर्भपात की सलाह नहीं देगा।

ऐसी स्थिति में जबकि हम सभी को पता है कि भ्रूण में जान है, हम उसकी भी हत्या कर देते हैं। इसके अलावा थोड़े से शारीरिक सुख के लिए जिस्मानी सम्बन्ध तो बना लिये जाते हैं बाद में हमारे कूड़े के ढेर बच्चे की कब्रगाह बनते हैं। कभी इन नवजात बच्चों को कुत्ते खाते दिखते हैं तो कभी कौवे नोंचते दिखते हैं। इसके बाद भी शारीरिक सुख के लिए अवैध यौन सम्बन्धों के बनने-बनाने में कोई कमी नहीं आई है।

कितनी बेटियों को मौत की नींद सुला देने के बाद, कितनी बेटियों के साथ भेदभाव करने के बाद, कितनी मन्नतों के बाद एक बेटे का जन्म होता है और उसी बेटे के सुख में हम ग्रहण की तरह लग जाते हैं। उसकी शादी के बाद चन्द सिक्कों की कमी के कारण किसी दूसरे घर की बेटी को, जतन से माँगे और पाले गये अपने बेटे की पत्नी को जला देने, मार डालने तक में नहीं हिचकते हैं।

ये उदाहरण हमारी संवेदनशीलता (?????) को दर्शाते हैं। इसके बाद भी हम बिना शर्म संवेदित हैं जानवरों को बचाने के लिए। हो सकता है कि हमारी इस पोस्ट के बाद हमें पशु विरोधी समझा जाये किन्तु हमारे साथ ऐसा नहीं है। हम भी जानवरों के प्रति, पर्यावरण के प्रति उतना ही चिन्तित रहते हैं जितना आज आप सभी बाघों के प्रति हो रहे हैं।

चलिए यदि जानवरों की बात की जा रही है तो सिर्फ बाघ ही क्यों? क्या अब आपको आसमान में उड़ती चालें दिखती हैं? समाज की गंदगी साफ करने वाले गिद्ध आपने अंतिम बार कब देखे? कोयल की कू-कू आपने कब से नहीं सुनी। नीलकंठ के दर्शन के शुभ संकेत आपको कब से नसीब नहीं हुए? बागों में नाचते मोर देखे हैं पिछले एक-दो वर्ष में? (अरे! बाग ही नहीं तो मोर कहाँ नाचेंगे) बत्तख का तैरना आपके बच्चों ने कहाँ देखा है? इन्हें बचाने का जिम्मा क्या हमारा नहीं है या फिर इनके लिए भी एक टी0वी0 विज्ञापन की आवश्यकता है?

अपने दिमाग की बत्ती जलाइये। एक विज्ञापन में ब्रह्म वाक्य है ‘अपनी अकल लड़ाओ, दिखावे पर मत जाओ’ आप भी उसी का अनुसरण करो।

बाघ बचेंगे उनके जागने से जो बाघों को मारने में लगे हैं, उनको जगाओ। हम तो अभी बेटियों को, बहुओं को मारने में लगे हैं जब इनसे ही फुर्सत पायें तो बाघों को बचाने की ओर ध्यान दें!!!!!


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चित्र गूगल छवियों से साभार