इधर इन
दिनों एकाएक कुछ लोगों में प्रसन्नता सी दिखने लगी है और ये प्रसन्नता किसी
राजनैतिक अथवा आर्थिक कारणों से नहीं वरन देश में बाघों की संख्या बढ़ जाने से
उत्पन्न हुई है. विगत वर्षों में बाघों की गिरती संख्या पर चिंता व्यक्त की गई थी,
देश के अनेक जागरूक लोग बाघों को बचाने के लिए, उनकी संख्या बढ़ाने के लिए निकल पड़े
थे. हास्यास्पद तो ये था कि ऐसे-ऐसे क्षेत्रों से लोग जागरूक हो गए थे जहाँ बाघ
नामक कोई भी प्राणी सदियों से पाया नहीं गया; ऐसे लोग सक्रिय हो गए थे बाघों की
संख्या बढ़ाने में जो इंसानों की संख्या कम करने में आगे रहे. बहरहाल ऐसे लोगों की
मेहनत काम आई या फिर प्रकृति की अपनी मेहनत कि इस बार की गणना में बाघों की संख्या
में वृद्धि दिखी. इसमें मीडिया से लेकर सामाजिक तबकों तक, जो बाघ बचाओ अभियान के
अंग बने थे, ख़ुशी की लहर दौड़ी मगर अफ़सोस इस बात का रहा कि कोई भी बेटियों की
संख्या बढ़ाने के प्रति इतना जागरूक नजर नहीं आया.
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ये अपने
आपमें शर्म का विषय हो सकता है कि एक तरफ हम बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए आंदोलित
हैं और दूसरी तरफ बेटियों की गिरती संख्या के लिए महज औपचारिक गोष्ठियाँ करके अपने
कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. ये दुःख प्रकट करने का नहीं, अफ़सोस ज़ाहिर करने का
नहीं, एक-दूसरे को जागरूक करने का नहीं वरन सत्य को स्वीकार करने का अवसर है. बेटियों
की लगातार गिरती संख्या हमारे लिए जिस तरह से चिंता का विषय होना चाहिए था, उस तरह
से नहीं है. हम जनगणना की आंकड़ेबाजी में फँसकर प्रसन्नता महसूस करने में लगे हैं. वर्ष
2011
की जनगणना के आधार पर स्पष्ट किया गया कि देश में प्रति एक हजार
पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं, जो वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्धारित महिलाओं की संख्या 933 से अधिक है. इसी चंद बढ़ोत्तरी की आंकड़ेबाजी में देश की जनता मुग्ध है,
सामाजिक जागरूक लोग प्रसन्न हैं मगर क्या इसी आँकड़े के साथ छिपे छह वर्ष तक की बालिकाओं
की संख्या पर निगाह दौड़ाई गई है? इसी बिंदु पर आकर समूचे आँकड़े की असलियत सामने
आती है. वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर शून्य से छह वर्ष तक
की बालिकाओं की संख्या प्रति एक हजार बालकों पर 919 है, जो
वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर 927 थी.
सोचने की बात है कि इस एक दशक में बालिकाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हुई है तो
फिर महिलाओं की संख्या में वृद्धि कैसे हो गई? इस आंकड़ेबाजी का अपना ही एक शिगूफा
है, जिसे दूसरी तरह से समझने की आवश्यकता है.
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यदि बेटियों
की संख्या के सन्दर्भ में वर्ष 2011 की जनगणना को आधार बनाया जाये तो स्पष्ट
है कि 26 प्रदेशों में छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या 900
से अधिक रही जबकि वर्ष 2001 की जनगणना में ऐसे
प्रदेशों की संख्या 29 थी. इसी तरह से कुल 13 राज्य ही ऐसे रहे जहाँ पर वर्ष 2001 की जनगणना के
आधार पर वर्ष 2011 में छह वर्ष तक की बालिकाओं की संख्या में
वृद्धि हुई है जबकि 22 राज्य ऐसे रहे जहाँ पर वर्ष 2001
के मुकाबले वर्ष 2011 में बालिकाओं की संख्या
में गिरावट दर्ज की गई. आश्चर्य की बात ये रही कि गिरावट दिखाने वाले सभी राज्यों
में वर्ष 2001 में बालिकाओं की संख्या 900 से अधिक थी. ऐसे में स्वयं इसका आकलन किया जा सकता है कि हमारे राज्य किस
मुस्तैदी के साथ बेटियों की संख्या में वृद्धि करने हेतु तत्पर हैं. ये आँकड़े हमें
अब विचलित नहीं करते और शायद कभी भी विचलित नहीं करते थे क्योंकि बेटियों की
संख्या में गिरावट आना कोई प्राकृतिक कारण नहीं वरन मानवजनित है. कन्या भ्रूण
हत्या करना, जन्म के बाद बेटियों से भेदभाव ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण बेटियों
की संख्या में गिरावट आ रही है.
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इसके लिए
जागरूकता तो आवश्यक है ही साथ ही समाज में कानून का भय भी आवश्यक है. आये दिन जिस
तरह से बच्चियों को गर्भ में मारने की घटनाएँ सामने आ रही हैं, बेटियों के साथ
भेदभाव और दुर्व्यवहार की घटनाएँ सामने आ रही हैं उन्हें देखकर लगता है कि लोगों
में कानून का कोई खौफ नहीं रह गया है. अल्ट्रासाउंड सेंटर वाले अथवा चंद
चिकित्सकों द्वारा भले ही इसका दुरूपयोग किया जा रहा हो किन्तु खुद अभिभावक भी बेटियों
को मारने में कहाँ पीछे रह रहे हैं. पूरे देश, प्रदेशों में चंद घटनाएँ ही सामने
आई हैं जहाँ कि कन्या भ्रूण हत्या करने वालों, करवाने वालों को सख्त से सख्त सजा
दी गई हो. बिना सख्ती दिखाए समाज में इस कुकृत्य के खिलाफ भय व्याप्त नहीं किया जा
सकता है. लोगों को जागना होगा, कानून को जागना होगा वर्ना आने वाले समय में हम सब
बाघ तो बचाते रहेंगे किन्तु बेटियों को पूरी तरह से खो देंगे.
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