शराब की
बिक्री करने के लिए सरकारी विभाग और शराब की बिक्री (अवैध) रोकने के लिए भी सरकारी
विभाग और इन दोनों के बीच शराब पीने वाले मस्ताने. किसी समय में शराब की दुकान के
आसपास नज़र आ जाना भी लज्जाजनक समझा जाता था, अब युवाओं का अत्यंत सहजता से शराब की
दुकानों के आसपास न सिर्फ टहलना दिख रहा है बल्कि दुकानों में बैठकर, दुकानों के
आसपास, सड़क, पार्क आदि में खुलेआम टहलते हुए बीयर पीते, जाम छलकाते देखा जा सकता
है. ये चिंता का विषय होना चाहिए कि युवा-वर्ग बहुत तेजी से शराब, बीयर, सिगरेट
आदि के नशे की गिरफ्त में आ रहा है उससे भी ज्यादा चिंता का विषय ये भी होना चाहिए
कि इनमें बहुसंख्यक नाबालिग हैं. इसके अलावा देखा जाये तो नाबालिगों का नशे के
साथ-साथ पब,
रेव पार्टियों में उन्मुक्त रूप में शामिल होना; सेक्स, रेप मामलों में संलिप्त होना; आपराधिक गतिविधियों में इनका सामने आना संभवतः नब्बे के दशक में शुरू हुए
उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण (Liberalisation,
Privatisation, Globalisation = LPG) का पूर्ण विस्फोटक रूप है. ये
बात शायद उन लोगों को पसंद न आयें जो उस दौर में भी इस एलपीजी का समर्थन कर रहे थे
और आज भी उसी के भक्त बने बैठे हैं. इस सन्दर्भ में तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य
मंत्री का बयान आज भी याद आता है, जो उन्होंने ९५-९६ में
युवाओं को संदर्भित करते हुए दिया था, कि कौन किसके साथ सोता
है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, बस
वो कंडोम का इस्तेमाल करते हों. समझा जा सकता है कि जिस एलपीजी को देश के आर्थिक
विकास के लिए अनिवार्य समझा गया था उसे कहीं न कहीं दूसरे रूप में युवाओं के सामने
पेश किया जा रहा था.
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युवा शक्ति
ऐसी शक्ति है जिसे समूचा विश्व मुट्ठी में बंद दिखता है; एक क्लिक पर समूची दुनिया उन्हें अपने सामने खड़ी दिखाई पड़ती है, ऐसे में वैश्विक स्तर पर वे अपने को किसी से भी कमतर नहीं समझते हैं.
एलपीजी ने वैश्विक संस्कृतियों के घालमेल को जन्म दिया है, ये हम सभी का भ्रम है
कि इससे संस्कृतियों के आदान-प्रदान का अवसर मिला है. देश का युवा अपनी पावन
संस्कृति को भुला कर वैश्विक आधुनिक संस्कृति को अपनाने के लिए आतुर दिख रहा है.
इन युवाओं की स्वच्छंद सोच पर उनके अभिभावकों का नियंत्रण, समाज
का नियंत्रण आज एलपीजी के समर्थक लोगों को दकियानूसी लगता है, गुलाम मानसिकता का दिखाई देता है. जल्द से जल्द अपने आपको सफलता के मुकाम
पर ले जाने, आधुनिकता के नाम पर कुछ भी करने को स्वतंत्रता
मान लेने की मानसिकता ने युवाओं को एक प्रकार की अंधी दौड़ में शामिल करवा दिया है.
इस दौड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैकेज, वैश्वीकरण की
रंगीन मानसिकता, धुंए के छल्ले, शराब
के छलकते जाम, बाँहों में विपरीतलिंगी साथी का साथ, सड़क पर बेतहाशा दौड़ते वाहनों, धन का अंधाधुंध
दुरुपयोग आदि युवाओं के कदम भटकाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं.
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इस विस्फोटक दौर में समाज कहाँ जाएगा, युवा कहाँ जाकर स्वयं को नियंत्रित करेगा, आर्थिक
गिरावट के दौर में सांस्कृतिक पतन को कौन संभालेगा, मूल्यों
के विखंडित होते अनियंत्रित रूप में युवाओं का आपराधिक चेहरा कैसे नियंत्रित किया
जायेगा, केंद्र सरकार-राज्य सरकारें, राजनैतिक
दल, राजनीतिज्ञ कब अपनी-अपनी भूमिका का सही निर्वहन करके देश
को घोटालों-भ्रष्टाचार से मुक्त करने के साथ-साथ युवाओं में भी सकारात्मकता का विकास
करेंगे....इन तमाम सारे सवालों के साथ-साथ अनगिनत अनुत्तरित प्रश्न और अव्यवस्थित
स्थितियाँ अपना मुँह खोले खड़ी हैं. जब तक इन विपरीत स्थितियों को सकारात्मक नहीं
बनाया जायेगा तबतक हम अपने देश के युवाओं को इस आधुनिकता के मोहपाश में बंधे देखते
रहेंगे. यही मोहपाश उनको धीरे से आपराधिक प्रवृत्ति की तरफ कब ले जाता है, न उन्हें मालूम पड़ता है, न ही उनके अभिभावकों को,
न ही समाज को. काश! हम सभी अब तो जागने की कोशिश करते.
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