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04 दिसंबर 2024

प्लास्टिक प्रदूषण रोकने की आवश्यकता

प्लास्टिक प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है जिसके लिए वैश्विक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है. प्लास्टिक संकट को दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने के प्रयास विगत कई वर्षों से लगातार संचालित हैं. प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिए वैश्विक स्तर पर एक संधि की दिशा में बातचीत की प्रक्रिया चल रही है. कई वर्षों से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (यूएनईए) में प्लास्टिक प्रदूषण एक प्रमुख मुद्दा रहा है. 2017 में यूएनईए ने समुद्री कूड़े और माइक्रोप्लास्टिक पर एक विशेषज्ञ समूह की स्थापना की. सितम्बर 2021 में जिनेवा में आयोजित समुद्री कूड़े और प्लास्टिक प्रदूषण पर पहले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के बाद पेरू और रवांडा ने एक मसौदा प्रस्ताव पेश किया. इस मसौदे को साठ से अधिक सदस्य देशों का समर्थन मिला. इसके बाद दिसम्बर 2021 में जापान ने भी एक वैकल्पिक मसौदा प्रस्ताव पेश किया. यूएनईए की अगली वार्ता के आरम्भ होने के पहले दोनों मसौदों को मिला दिया गया.  मार्च 2022 को यूएनईए में भाग लेने वाले 175 देशों ने एक साथ मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय कानून कोअनिवार्य और बाध्यकारी रूप में अपनाए जाने का संकल्प लिया. इसके पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय वार्ता समिति (आईएनसी) का गठन किया गया ताकि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक कानूनी और बाध्यकारी नीति विकसित की जा सके. प्लास्टिक प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संधि पर सहमति बनाने के लिए दक्षिण कोरिया के बुसान में अंतर्राष्ट्रीय वार्ता समिति की वैश्विक बैठक बिना किसी समझौते के समाप्त हो गई. इस बैठक में शामिल 175 देशों के प्रतिनिधि प्लास्टिक उत्पादन और वित्त पर रोक लगाने जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक सहमति बनाने में विफल रहे. 2022 से कार्य कर रही आईएनसी की यह पाँचवीं बैठक थी.

 



सम्पूर्ण विश्व अनेकानेक संकटों से गुजरने के साथ-साथ पर्यावरण संकट के दौर से भी गुजर रहा है. सत्यता यह है कि यह संकट मनुष्य द्वारा ही उत्पन्न किया गया है. पर्यावरण संकट आज मानव समाज के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा हुआ है. इसके मूल में तमाम कारण होते हुए भी सबसे प्रमुख है इन्सान का विकास की अंधी दौड़ में लगे रहना. मनुष्य के उठते लगभग प्रत्येक कदम से आज पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है. इसमें भी सबसे ज्यादा नुकसान उसके द्वारा प्रत्येक छोटे-बड़े कामों के लिए उपयोग में लाई जा रही पॉलीथीन से हो रहा है. पॉलीथीन से पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान होता समझ भी आ रहा हैदिख भी रहा है. इसमें पाली एथीलीन के होने के कारण उससे बनने वाली एथिलीन गैस पर्यावरण क्षति का बहुत बड़ा स्त्रोत है. पॉलीथीन में पालीयूरोथेन नामक रसायन के अतिरिक्त पालीविनायल क्लोराइड (पीवीसी) भी पाया जाता है. इन रसायनों की उपस्थिति के कारण पॉलीथीन हो या कोई भी प्लास्टिक उसको नष्ट करना संभव नहीं होता है. जमीन में गाड़नेजलानेपानी में बहाने अथवा किसी अन्य तरीके से नष्ट करने से भी इसको न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही इसमें शामिल रसायन के दुष्प्रभाव को मिटाया जा सकता है. यदि इसे जलाया जाये तो इसमें शामिल रसायन के तत्व वायुमंडल में धुँए के रूप में मिलकर उसे प्रदूषित करते हैं. पॉलीथीन को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस धुँए के रूप में वायुमंडल से मिलकर ओजोन परत को नष्ट करती है. इसके साथ-साथ पॉलीथीन को जमीन में दबा देना भी कारगर अथवा उचित उपाय नहीं है क्योंकि यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है इससे मृदा तो प्रदूषित होती ही है साथ ही ये भूमिगत जल को भी प्रदूषित करती है. इसके साथ-साथ जानवरों द्वारा पॉलीथीन को खा लेने के कारण ये उनकी मृत्यु का कारक बनती है. 

 

सबकुछ जानते-समझते हुए भी आज बहुतायत में पॉलीथीन का उपयोग किया जा रहा है. यद्यपि केन्द्रीय सरकार ने रिसाइक्लडप्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स के अन्तर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा उनके विनिर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था किन्तु ऐसे प्रतिबन्ध वर्तमान में सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गए हैं. इसका मूल कारण पॉलीथीन बैग की मोटाई की जांच करने की तकनीक की अपर्याप्तता है. ऐसे में पॉलीथीन के दुष्प्रभाव को रोकने का सर्वाधिक सुगम उपाय उसके पूर्ण प्रतिबन्ध का ही बचता है. पॉलीथीन के द्वारा उत्पन्न वर्तमान समस्या और भावी संकट को देखते हुए नागरिकों को स्वयं में जागरूक होना पड़ेगा. कोई भी सरकार नियम बना सकती हैअभियान का सञ्चालन कर सकती है किन्तु उसे सफलता के द्वार तक ले जाने का काम आम नागरिक का ही होता है.

 

इसके लिए उनके द्वारा दैनिक उपयोग में प्रयोग के लिए कागजकपड़े और जूट के थैलों का उपयोग किया जाना चाहिए. नागरिकों को स्वयं भी जागरूक होकर दूसरों को भी पॉलीथीन के उपयोग करने से रोकना होगा. हालाँकि अभी भी कुछ सामानोंदूध की थैलीपैकिंग वाले सामानों आदि के लिए सरकार ने पॉलीथीन के प्रयोग की छूट दे रखी हैइसके लिए नागरिकों को सजग रहने की आवश्यकता है. उन्हें ऐसे उत्पादों के उपयोग के बाद पॉलीथीन को अन्यत्रखुला फेंकने के स्थान पर किसी रिसाइकिल स्टोर पर अथवा निश्चित स्थान पर जमा करवाना चाहिए. ये बात हम सबको स्मरण रखनी होगी कि सरकारी स्तर पर पॉलीथीन पर लगाया गया प्रतिबन्ध कोई राजनैतिक कदम नहीं वरन हम नागरिकों केहमारी भावी पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए उठाया गया कदम है. इसको कारगर उसी स्थिति में किया जा सकेगाजबकि हम खुद जागरूकसजगसकारात्मक रूप से इस पहल में अपने प्रयासों को जोड़ देंगे.

 

 


08 मई 2023

पर्यावरण असंतुलन सुधारना हम सबकी जिम्मेवारी

विगत कुछ समय से मौसम असामान्य रूप से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. जिस समय भीषण गर्मी से जनसामान्य जूझ रहा होता था, उस समय उसे बारिश का सामना करना पड़ रहा है. ऐसा इसी वर्ष नहीं देखने को मिला है कि मौसम में असामान्य परिवर्तन हुआ है, पिछले कई सालों से मौसम में अप्रत्याशित रूप बदलाव देखने को मिलने लगे हैं. सामान्य से अधिक गर्मी पड़ना, कभी बारिश का असामान्य होना तो कभी सर्दी के गिने-चुने दिनों तक बना रहना. इसके लिए भले ही जनसामान्य में हँसी-मजाक के अवसर खोज लिए जाएँ मगर ये चिंता का विषय है. निश्चित समयानुक्रम में उस मौसम का प्रभाव न होना चिंताजनक भी है, नुकसानदायक भी है. इससे न केवल पर्यावरण को बल्कि जीव-जंतुओं को भी नुकसान उठाना पड़ता है. मौसम में होने वाले इस अप्रत्याशित बदलाव का कारण पर्यावरण असंतुलन ही है. 


प्रकृति के तीन प्रमुख तत्त्व जल, जंगल और जमीन माने जाते हैं. इसे मानने-समझने के बाद भी मानवीय लालच का हाल ये है कि लगातार इन तीनों तत्त्वों का भयंकर तरीके से दोहन किया जा रहा है. इसी का दुष्परिणाम यह है कि प्राकृतिक संतुलन डगमगा गया है और लगातार मानवीय सभ्यता को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है. पर्यावरणीय असंतुलन के कारण जहाँ जनसामान्य को अनेकानेक प्रकार की बीमारियों से जूझना पड़ रहा है वहीं जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ भी लुप्त हो रही हैं. इस प्राकृतिक असंतुलन के चलते प्रदूषण भी पर्याप्त रूप से अपना भयानक असर दिखा रहा है. प्रकृति में जितने भी तरह के जीव-जंतु, वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे पाए जाते हैं, सबका अपना ही महत्त्व है. इनका व्यवस्थित क्रम ही न केवल इनका स्वयं का विकास करता है बल्कि प्राकृतिक संतुलन को भी स्थापित करता है. किसी भी प्रकार का पर्यावरण हो, उसके लिए एक निश्चित ढाँचा मान्य है. इसमें जैविक और अजैविक पदार्थों का अपना निश्चित अनुपात पर्यावरण को सकारात्मकता प्रदान करता है. इन्हीं घटकों में किसी भी तरह के परिवर्तन से, उनके अनुपात में विचलन से उत्पन्न होने वाली स्थिति को पर्यावरणीय प्रदूषण कहते हैं. प्राकृतिक असंतुलन का एक कारण यह प्रदूषण भी है. इसके द्वारा हवा, पानी, मिट्टी, वायुमंडल आदि नकारात्मक ढंग से प्रभावित होते हैं.




पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं. एक बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती उपभोक्ता पृवृत्ति. बढ़ती जनसंख्या के चलते मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक ढंग से प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है. इसके चलते वह बिना सोचे-समझे दोहन करने में लगा है. बढ़ते औद्योगीकरण और पेड़ों की कटाई के कारण उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन ने पर्यावरण में जहरीली गैसों को बढ़ा दिया है. उनको अवशोषित करने वाले पेड़ों को काटा गया मगर उनके स्थान पर किसी भी तरह से भरपाई नहीं की गई है. इसी तरह सुख-सुविधाओं के चलते, उपभोक्तावादी प्रकृति के चलते मानव द्वारा अत्याधुनिक उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है. इससे उत्सर्जित होने वाली गैसों के कारण भी पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न हुआ है. ओजोन परत में छेद का होना हो, ग्रीन गैसों का मामला हो, तापीय प्रदूषण आदिके द्वारा मानवीय सभ्यता को ही संकट का सामना करना पड़ रहा है. हमारी ही कारगुजारियों के कारण वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन आदि का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मानवीय सभ्यता को इन्हीं खतरनाक गैसों के साये में रहकर अपना जीवन गुजारना पड़ रहा है. किसी समय जीवन देने वाली हवा में अब इन प्रदूषित तत्वों की उपस्थिति बढ़ गई है. इसके चलते इंसानों को साँस की बीमारियों के साथ-साथ टीबी, कैंसर, त्वचा रोग आदि जैसी कई असाध्य बीमारियों से दोचार होना पड़ रहा है. उद्योग हों या फिर घरेलू अपशिष्ट, सभी के द्वारा पैदा गंदगी, मल-मूत्र, हानिकारक तत्त्व आदि स्वच्छ जल स्रोतों में मिलते जा रहे हैं. औद्योगिक अम्लीय कचरा के द्वारा नदियों का पानी भी जहरीला होता जा रहा है. इससे बदतर स्थिति तो यह होती जा रही है कि बहते जल के साथ-साथ भूमिगत जल भी अब संक्रमित होने लगा है. इससे भी निकट भविष्य में पेयजल की गंभीर समस्या उत्पन्न होने वाली है.


दुनिया में पर्यावरण को लेकर तमाम तरह की योजनायें चल रही हैं, अनेक तरह के कार्यक्रम बने हुए हैं मगर धरातल पर कोई भी स्पष्ट रूप से क्रियान्वित होता नहीं दिख रहा है. पर्यावरण सुरक्षा, जागरूकता के नाम पर एक तरह की खाना-पूर्ति कर ली जाती है.  ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती के गरम होने की चिंता हो, ओजोन परत में होने वाले छेद को लेकर वैश्विक वार्ता हो, धरती से अनेक वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की प्रजातियों के लुप्त होने की बातें हों सभी तरह की समस्याओं पर मानव समाज सिर्फ और सिर्फ सरकार की तरफ देखने लगता है, उसे ही एकमात्र जिम्मेवार बताने लगता है. वर्तमान स्थिति इस तरह की है कि अब सिर्फ सरकारी प्रयासों मात्र से काम नहीं चलने वाला. हम सभी को पर्यावरण संरक्षण के लिए सजग होना पड़ेगा. ये हम सभी को समझना होगा कि प्रकृति के साथ हम सभी किसी न किसी रूप में छेड़छाड़ कर रहे हैं. अतः उसका खामियाजा हमें ही भुगतना होगा और उससे बचने का रास्ता भी हमें ही निकालना होगा.


पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें स्वयं सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं. सरकार द्वारा पॉलीथीन पर पाबंदी लगाने के लिए समय-समय पर कदम उठाए गए लेकिन हम अपनी तरफ से इस ओर सजगता नहीं दिखा सके हैं. आज भी हम सभी अपनी सुविधा को प्राथमिक मानते हुए पॉलीथीन का उपयोग कर रहे हैं और पर्यावरण संकट में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं. हम सभी को मिलकर प्रकृति संरक्षण के लिए कुछ करना होगा. कोशिश की जाये कि हमारे दैनिक उपभोग में ऐसे पदार्थों का कम से कम इस्तेमाल हो जिनके द्वारा किसी भी रूप में प्रकृति को, पर्यावरण को नुकसान होता हो. उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन बिताना मजबूरी हो सकती है मगर प्राकृतिक स्त्रोतों का दोहन उसी रूप में किया जाये, जिससे कि प्रकृति को संकट न हो. ऊर्जा के लिए रासायनिक पदार्थों, पेट्रोलियम आदि के उपभोग से ज्यादा सौर-ऊर्जा पर निर्भरता को बढ़ाना होगा. पेड़-पौधों की कटाई रोकने के साथ-साथ हम सभी को खाली पड़ी जगहों पर अधिक से अधिक पौधारोपण करने की आदत डालनी होगी. अच्छा हो कि हम अन्य किसी पर दोषारोपण करने के स्थान पर स्वयं जागें और प्रकृति संरक्षण में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने का संकल्प लें.

 






 

09 जुलाई 2022

पर्यावरण के लिए घातक है ई-कचरा

पर्यावरण के प्रति सामाजिक रूप से सभी चिंतित दिखाई देते हैं. बचपन से पर्यावरण की एक रटी-रटाई परिभाषा ‘परि+आवरण’ के साथ आगे बढ़ते रहने के कारण जल, वायु, ध्वनि, मृदा प्रदूषणों पर सबकी चिंता देखने को मिलती है मगर अपना विकराल रूप धारण कर चुके इलेक्ट्रॉनिक कचरे की तरफ अभी समाज बहुत गम्भीर नहीं दिखता है. आज भी बहुत बड़े जनमानस की तरफ से समझने की कोशिश न हो रही कि इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट भी भयानक तरीके से पर्यावरण के लिए, मानव के लिए खतरा बन गया है. 


इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट को सामान्य बोलचाल में ई-कचरा के रूप में जाना जाता है. इस शब्द का प्रयोग चलन से बाहर हो चुके पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिये किया जाता है. ई-कचरा सूचना प्रौद्योगिकी और संचार उपकरण तथा उपभोक्ता इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स के रूप में निकलता है. इसमें मूलतः सेलफोन, स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, कम्प्यूटर से सम्बंधित उपकरण, माइक्रोवेव, रिमोट कंट्रोल, बिजली के तार, स्मार्ट लाइट, स्मार्टवॉच आदि शामिल हैं.


सामाजिक रूप से यह बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि समाज का जिस तेजी से डिजिटाइजेशन हो रहा है, उसी तेजी से ई-कचरा उत्पन्न हो रहा है. आधुनिक तकनीक और मानव जीवन शैली में आने वाले बदलाव के कारण ऐसे उपकरणों का उपयोग दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है जो विषैले, हानिकारक पदार्थों के जनक बनते हैं. ट्यूबलाइट, सीएफएल जैसी रोज़मर्रा वाली वस्तुओं में पारे जैसे कई प्रकार के विषैले पदार्थ पाए जाते हैं, जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं.


ऐसा अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 488 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर 2020 के अनुसार दुनिया भर में वर्ष 2019 53.6 मिलियन मीट्रिक टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ. संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में एशिया में ई-कचरे की सर्वाधिक मात्रा लगभग 24.9 मीट्रिक टन उत्पन्न हुई. रिपोर्ट के अनुसार कुल ई-कचरे में स्क्रीन और मॉनिटर 6.7 मीट्रिक टन, लैंप 4.7 मीट्रिक टन, आईटी और दूरसंचार उपकरण 0.9 मीट्रिक टन शामिल हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत ने 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न किया जो 2017-18 के 7 लाख टन से काफी अधिक है. इसके विपरीत 2017-18 से ई-कचरा निपटान क्षमता 7.82 लाख टन से नहीं बढ़ाई गई है. एक रिपोर्ट कहती है कि ई-कचरा उत्पादक देशों अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद भारत का स्थान है.


ई-कचरे में मरकरी, कैडमियम और क्रोमियम जैसे कई विषैले तत्त्व शामिल होते हैं. इनके निस्तारण के असुरक्षित तौर-तरीकों से मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. इससे अनेक तरह की बीमारियाँ होने की आशंका रहती है. भूमि में दबाने से ई-कचरा मिट्टी और भूजल को दूषित करता है. जब मिट्टी भारी धातुओं से दूषित हो जाती है तो उस क्षेत्र की फसलें विषाक्त हो जाती हैं, जो अनेक बीमारियों का कारण बन सकती हैं. भविष्य में कृषियोग्य भूमि को भी अनुपजाऊ हो सकती है. मिट्टी के दूषित होने के बाद ई-कचरे में शामिल पारा, लिथियम, लेड, बेरियम आदि भूजल तक पहुँचती हैं. धीरे-धीरे तालाबों, नालों, नदियों, झीलों आदि का पानी अम्लीय और विषाक्त हो जाता है. यह स्थिति मानवों, जानवरों, पौधों आदि के लिए घातक हो सकती है. ई-कचरा में शामिल विषाक्त पदार्थों का नकारात्मक प्रभाव मस्तिष्क, हृदय, यकृत, गुर्दे आदि पर बहुत तेजी से दिखाई देता है. इसके साथ-साथ मनुष्य के तंत्रिका तंत्र और प्रजनन प्रणाली को भी यह प्रभावित कर सकता है.


ई-कचरा के निपटान की अपनी स्थितियाँ, अपनी चुनौतियाँ हैं. इस कारण सबसे ज्यादा जोर इसके पुनर्नवीनीकरण पर दिया जा रहा है. पुनर्नवीनीकरण के द्वारा प्लास्टिक, धातु, काँच आदि को अलग-अलग करके उसको पुनरुपयोग योग्य बनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर 2020 रिपोर्ट में कहा गया है कि अब वैश्विक स्तर पर उन देशों की संख्या 61 से बढ़कर 78 हो गई है जिन्होंने ई-कचरे से संबंधित कोई नीति, कानून या विनियमन अपनाया है. इसमें भारत भी शामिल है किन्तु इसके बाद भी भारत में ई-अपशिष्ट के प्रबंधन से सम्बंधित अनेक चुनौतियाँ हैं. सबसे बड़ी चुनौती जन भागीदारी का बहुत कम होना है. इसके पीछे उपभोक्ताओं की एक तरह की अनिच्छा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की रीसाइक्लिंग के लिये बनी रहती है. इसके अलावा हाल के वर्षों में एक और चुनौती इस रूप में सामने आई है कि देश में बहुत से घरों में ई-कचरे का निस्तारण बड़े पैमाने पर होने लगा है. यह स्थिति तब है जबकि भारत में ई-कचरे के प्रबंधन के लिये वर्ष 2011 से कानून लागू है जो यह अनिवार्य करता है कि अधिकृत विघटनकर्त्ता और पुनर्चक्रणकर्त्ता द्वारा ही ई-कचरा एकत्र किया जाए. इसके लिये वर्ष 2017 में ई-कचरा (प्रबंधन) नियम 2016 अधिनियमित किया गया है.


उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारत में ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण करने वाली कुल 312 अधिकृत कंपनियाँ हैं जो प्रतिवर्ष लगभग 800 किलो टन ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण कर सकती हैं. हालाँकि अभी भी भारत में औपचारिक क्षेत्र की पुनर्चक्रण क्षमता का सही उपयोग संभव नहीं हो पाया है क्योंकि ई-कचरे का बहुत बड़ा भाग अभी भी अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा नियंत्रित किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि देश का लगभग नब्बे प्रतिशत ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक क्षेत्र में किया जाता है.


तकनीक, आधुनिक जीवनशैली, आवश्यकता आदि की आड़ लेकर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग भले ही अंधाधुंध तरीके से किया जाने लगा हो मगर यह स्वीकारना होगा ई-कचरा भविष्य के लिए खतरा बनता जा रहा है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, गैजेट्स का जीवन बहुत लम्बा नहीं होता है और बहुतायत समाज का इन्हीं पर निर्भर होते जाना खतरे का सूचक है. आज की युवा पीढ़ी के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुविधा के लिए कम, पैशन के लिए ज्यादा उपयोग किया जा रहा है. ऐसे में उनके द्वारा उपकरणों को जल्दी-जल्दी बदल दिया जाता है. नवीन तकनीक के कारण भी बहुतेरे उपकरण आउटडेटेड हो जाते हैं. यह भी ई-कचरा की मात्रा को बढ़ाने का काम कर रहा है.


पर्यावरण की, मानव, जीवों की सुरक्षा की खातिर लोगों को केवल हवा, पानी, भूमि, पेड़-पौधों को बचाने के बारे में ही सजग नहीं होना है बल्कि ई-कचरा के प्रति भी सावधान होने की आवश्यकता है. बेहतर हो कि जीवनशैली को संयमित, नियंत्रित किया जाये. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का अत्यावश्यक होने पर ही उपयोग किया जाये. उनके निस्तारण के लिए औपचारिक क्षेत्र की सहायता ली जाये. संभव है कि मानव समाज कुछ हद तक आने वाले खतरे को टाल सके.

 

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04 जून 2022

पर्यावरण के लिए घातक है ई-कचरा

पर्यावरण के प्रति सामाजिक रूप से सभी चिंतित दिखाई देते हैं. बचपन से पर्यावरण की एक रटी-रटाई परिभाषा ‘परि+आवरण’ के साथ आगे बढ़ते रहने के कारण जल, वायु, ध्वनि, मृदा प्रदूषणों पर सबकी चिंता देखने को मिलती है मगर अपना विकराल रूप धारण कर चुके इलेक्ट्रॉनिक कचरे की तरफ अभी समाज बहुत गम्भीर नहीं दिखता है. आज भी बहुत बड़े जनमानस की तरफ से समझने की कोशिश न हो रही कि इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट भी भयानक तरीके से पर्यावरण के लिए, मानव के लिए खतरा बन गया है.


इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट को सामान्य बोलचाल में ई-कचरा के रूप में जाना जाता है. इस शब्द का प्रयोग चलन से बाहर हो चुके पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिये किया जाता है. ई-कचरा सूचना प्रौद्योगिकी और संचार उपकरण तथा उपभोक्ता इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स के रूप में निकलता है. इसमें मूलतः सेलफोन, स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, कम्प्यूटर से सम्बंधित उपकरण, माइक्रोवेव, रिमोट कंट्रोल, बिजली के तार, स्मार्ट लाइट, स्मार्टवॉच आदि शामिल हैं.


सामाजिक रूप से यह बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि समाज का जिस तेजी से डिजिटाइजेशन हो रहा है, उसी तेजी से ई-कचरा उत्पन्न हो रहा है. आधुनिक तकनीक और मानव जीवन शैली में आने वाले बदलाव के कारण ऐसे उपकरणों का उपयोग दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है जो विषैले, हानिकारक पदार्थों के जनक बनते हैं. ट्यूबलाइट, सीएफएल जैसी रोज़मर्रा वाली वस्तुओं में पारे जैसे कई प्रकार के विषैले पदार्थ पाए जाते हैं, जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं.




ऐसा अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 488 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर 2020 के अनुसार दुनिया भर में वर्ष 2019 53.6 मिलियन मीट्रिक टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ. संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में एशिया में ई-कचरे की सर्वाधिक मात्रा लगभग 24.9 मीट्रिक टन उत्पन्न हुई. रिपोर्ट के अनुसार कुल ई-कचरे में स्क्रीन और मॉनिटर 6.7 मीट्रिक टन, लैंप 4.7 मीट्रिक टन, आईटी और दूरसंचार उपकरण 0.9 मीट्रिक टन शामिल हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत ने 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न किया जो 2017-18 के 7 लाख टन से काफी अधिक है. इसके विपरीत 2017-18 से ई-कचरा निपटान क्षमता 7.82 लाख टन से नहीं बढ़ाई गई है. एक रिपोर्ट कहती है कि ई-कचरा उत्पादक देशों अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद भारत का स्थान है.


ई-कचरे में मरकरी, कैडमियम और क्रोमियम जैसे कई विषैले तत्त्व शामिल होते हैं. इनके निस्तारण के असुरक्षित तौर-तरीकों से मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. इससे अनेक तरह की बीमारियाँ होने की आशंका रहती है. भूमि में दबाने से ई-कचरा मिट्टी और भूजल को दूषित करता है. जब मिट्टी भारी धातुओं से दूषित हो जाती है तो उस क्षेत्र की फसलें विषाक्त हो जाती हैं, जो अनेक बीमारियों का कारण बन सकती हैं. भविष्य में कृषियोग्य भूमि को भी अनुपजाऊ हो सकती है. मिट्टी के दूषित होने के बाद ई-कचरे में शामिल पारा, लिथियम, लेड, बेरियम आदि भूजल तक पहुँचती हैं. धीरे-धीरे तालाबों, नालों, नदियों, झीलों आदि का पानी अम्लीय और विषाक्त हो जाता है. यह स्थिति मानवों, जानवरों, पौधों आदि के लिए घातक हो सकती है. ई-कचरा में शामिल विषाक्त पदार्थों का नकारात्मक प्रभाव मस्तिष्क, हृदय, यकृत, गुर्दे आदि पर बहुत तेजी से दिखाई देता है. इसके साथ-साथ मनुष्य के तंत्रिका तंत्र और प्रजनन प्रणाली को भी यह प्रभावित कर सकता है.


ई-कचरा के निपटान की अपनी स्थितियाँ, अपनी चुनौतियाँ हैं. इस कारण सबसे ज्यादा जोर इसके पुनर्नवीनीकरण पर दिया जा रहा है. पुनर्नवीनीकरण के द्वारा प्लास्टिक, धातु, काँच आदि को अलग-अलग करके उसको पुनरुपयोग योग्य बनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर 2020 रिपोर्ट में कहा गया है कि अब वैश्विक स्तर पर उन देशों की संख्या 61 से बढ़कर 78 हो गई है जिन्होंने ई-कचरे से संबंधित कोई नीति, कानून या विनियमन अपनाया है. इसमें भारत भी शामिल है किन्तु इसके बाद भी भारत में ई-अपशिष्ट के प्रबंधन से सम्बंधित अनेक चुनौतियाँ हैं. सबसे बड़ी चुनौती जन भागीदारी का बहुत कम होना है. इसके पीछे उपभोक्ताओं की एक तरह की अनिच्छा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की रीसाइक्लिंग के लिये बनी रहती है. इसके अलावा हाल के वर्षों में एक और चुनौती इस रूप में सामने आई है कि देश में बहुत से घरों में ई-कचरे का निस्तारण बड़े पैमाने पर होने लगा है. यह स्थिति तब है जबकि भारत में ई-कचरे के प्रबंधन के लिये वर्ष 2011 से कानून लागू है जो यह अनिवार्य करता है कि अधिकृत विघटनकर्त्ता और पुनर्चक्रणकर्त्ता द्वारा ही ई-कचरा एकत्र किया जाए. इसके लिये वर्ष 2017 में ई-कचरा (प्रबंधन) नियम 2016 अधिनियमित किया गया है.


उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारत में ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण करने वाली कुल 312 अधिकृत कंपनियाँ हैं जो प्रतिवर्ष लगभग 800 किलो टन ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण कर सकती हैं. हालाँकि अभी भी भारत में औपचारिक क्षेत्र की पुनर्चक्रण क्षमता का सही उपयोग संभव नहीं हो पाया है क्योंकि ई-कचरे का बहुत बड़ा भाग अभी भी अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा नियंत्रित किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि देश का लगभग नब्बे प्रतिशत ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक क्षेत्र में किया जाता है.


तकनीक, आधुनिक जीवनशैली, आवश्यकता आदि की आड़ लेकर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग भले ही अंधाधुंध तरीके से किया जाने लगा हो मगर यह स्वीकारना होगा ई-कचरा भविष्य के लिए खतरा बनता जा रहा है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, गैजेट्स का जीवन बहुत लम्बा नहीं होता है और बहुतायत समाज का इन्हीं पर निर्भर होते जाना खतरे का सूचक है. आज की युवा पीढ़ी के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुविधा के लिए कम, पैशन के लिए ज्यादा उपयोग किया जा रहा है. ऐसे में उनके द्वारा उपकरणों को जल्दी-जल्दी बदल दिया जाता है. नवीन तकनीक के कारण भी बहुतेरे उपकरण आउटडेटेड हो जाते हैं. यह भी ई-कचरा की मात्रा को बढ़ाने का काम कर रहा है.


पर्यावरण की, मानव, जीवों की सुरक्षा की खातिर लोगों को केवल हवा, पानी, भूमि, पेड़-पौधों को बचाने के बारे में ही सजग नहीं होना है बल्कि ई-कचरा के प्रति भी सावधान होने की आवश्यकता है. बेहतर हो कि जीवनशैली को संयमित, नियंत्रित किया जाये. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का अत्यावश्यक होने पर ही उपयोग किया जाये. उनके निस्तारण के लिए औपचारिक क्षेत्र की सहायता ली जाये. संभव है कि मानव समाज कुछ हद तक आने वाले खतरे को टाल सके.  

 

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23 मार्च 2022

पॉलीथीन पर नियंत्रण आवश्यक

सम्पूर्ण विश्व अनेकानेक संकटों से गुजरने के साथ-साथ पर्यावरण संकट के दौर से भी गुजर रहा है. सत्यता यह है कि यह संकट मनुष्य द्वारा ही उत्पन्न किया गया है. इन्सान इस संकट के लिए किसी शक्तिपरमात्माप्राकृतिक कारकों को दोषी नहीं ठहरा सकता है. पर्यावरण संकट आज मानव समाज के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा हुआ है. इसके मूल में तमाम कारण होते हुए भी सबसे प्रमुख है इन्सान का विकास की अंधी दौड़ में लगे रहना. इस दौड़ ने मनुष्य को पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने दायित्वों से विमुख कर दिया है. आदिमानव से महामानव बनने की अदम्य लालसा में इस बात की परवाह किये बिना कि उसकी संतति प्रकृति से क्या पाएगीउसने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया है.


ओजोन परत में छेद होनाग्लेशियरों का पिघलनाअम्लीय वर्षा का होनाबेमौसम की बरसात का होनाबर्फ़बारी की घटनाएँ आदि इस असंतुलन का दुष्परिणाम हैं. कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँवाहनों से निकलती कार्बन मोनो आक्साइड तथा अन्य जहरीली गैसेंबिजली ताप घर से निकलती सल्फर डाई आक्साइडधूम्रपान से निकलता विषैला धुआँतथा अन्य रूप में वातावरण में मिलती निकोटिनटार, अमोनियाबेंजापाईरिनआर्सेनिकफीनोल, मार्श आदि जहरीली गैसें व्यक्तियोंजंतुओंवनस्पतियों आदि को व्यापक रूप से नुकसान पहुँचा रही हैं. मनुष्य के उठते लगभग प्रत्येक कदम से आज पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है. इसमें भी सबसे ज्यादा नुकसान उसके द्वारा प्रत्येक छोटे-बड़े कामों के लिए उपयोग में लाई जा रही पॉलीथीन से हो रहा है.


सामान्य रूप से पर्यावरण का पारिभाषिक सन्दर्भ संस्कृत के परि उपसर्ग में आवरण शब्द को सम्बद्ध करने से लगाया जाता है अर्थात ऐसी चीजों का समुच्चय जो किसी व्यक्तिजीवधारीवनस्पति आदि को चारों तरफ से आवृत्त किये हो. पर्यावरण के सामान्य अर्थ से इतर यदि इसका सन्दर्भ निकालने का प्रयास किया जाये तो ज्ञात होता है वर्तमान में जो कुछ भी ज्ञात-अज्ञात हम अपने आसपास देख-महसूस कर रहे हैंवो सभी पर्यावरण है. हमारे आसपासहमारे लिए जीवन की एक सम्पूर्ण व्यवस्था का निर्माण करता हैउसे हम पर्यावरण कहते हैं. जलधरतीआकाशवायु आदि सभी के साथ वर्तमान में उसका व्यवहार दोस्ताना नहीं रह गया है वरन इनका अधिक से अधिक उपभोग करने की मानसिकता के साथ मनुष्य काम कर रहा है.




पॉलीथीन से पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान होता समझ भी आ रहा हैदिख भी रहा है. इसमें पाली एथीलीन के होने के कारण उससे बनने वाली एथिलीन गैस पर्यावरण क्षति का बहुत बड़ा स्त्रोत है. पॉलीथीन में पालीयूरोथेन नामक रसायन के अतिरिक्त पालीविनायल क्लोराइड (पीवीसी) भी पाया जाता है. इन रसायनों की उपस्थिति के कारण पॉलीथीन हो या कोई भी प्लास्टिक उसको नष्ट करना संभव नहीं होता है. जमीन में गाड़नेजलानेपानी में बहाने अथवा किसी अन्य तरीके से नष्ट करने से भी इसको न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही इसमें शामिल रसायन के दुष्प्रभाव को मिटाया जा सकता है. यदि इसे जलाया जाये तो इसमें शामिल रसायन के तत्व वायुमंडल में धुंए के रूप में मिलकर उसे प्रदूषित करते हैं. यदि इसको जमीन में दबा दिया जाये तो भीतर की गर्मीमृदा-तत्त्वों से संक्रिया करके ये रसायन जहरीली गैस पैदा करते हैंइससे भूमि के अन्दर विस्फोट की आशंका पैदा हो जाती है. पॉलीथीन को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस धुंए के रूप में वायुमंडल से मिलकर ओजोन परत को नष्ट करती है. इसके साथ-साथ पॉलीथीन को जमीन में गाड़ देना भी कारगर अथवा उचित उपाय नहीं है क्योंकि यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है इससे मृदा तो प्रदूषित होती ही है साथ ही ये भूमिगत जल को भी प्रदूषित करती है. इसके साथ-साथ जानवरों द्वारा पॉलीथीन को खा लेने के कारण ये उनकी मृत्यु का कारक बनती है. 


सबकुछ जानते-समझते हुए भी आज बहुतायत में पॉलीथीन का उपयोग किया जा रहा है. यद्यपि केन्द्रीय सरकार ने रिसाइक्लडप्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स के अन्तर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा उनके विनिर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था किन्तु ऐसे प्रतिबन्ध वर्तमान में सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गए हैं. इसका मूल कारण पॉलीथीन बैग की मोटाई की जांच करने की तकनीक की अपर्याप्तता है. ऐसे में पॉलीथीन के दुष्प्रभाव को रोकने का सर्वाधिक सुगम उपाय उसके पूर्ण प्रतिबन्ध का ही बचता है. पॉलीथीन के द्वारा उत्पन्न वर्तमान समस्या और भावी संकट को देखते हुए नागरिकों को स्वयं में जागरूक होना पड़ेगा. कोई भी सरकार नियम बना सकती हैअभियान का सञ्चालन कर सकती है किन्तु उसे सफलता के द्वार तक ले जाने का काम आम नागरिक का ही होता है.


इसके लिए उनके द्वारा दैनिक उपयोग में प्रयोग के लिए कागजकपड़े और जूट के थैलों का उपयोग किया जाना चाहिए. नागरिकों को स्वयं भी जागरूक होकर दूसरों को भी पॉलीथीन के उपयोग करने से रोकना होगा. हालाँकि अभी भी कुछ सामानोंदूध की थैलीपैकिंग वाले सामानों आदि के लिए सरकार ने पॉलीथीन के प्रयोग की छूट दे रखी हैइसके लिए नागरिकों को सजग रहने की आवश्यकता है. उन्हें ऐसे उत्पादों के उपयोग के बाद पॉलीथीन को अन्यत्रखुला फेंकने के स्थान पर किसी रिसाइकिल स्टोर पर अथवा निश्चित स्थान पर जमा करवाना चाहिए. ये बात हम सबको स्मरण रखनी होगी कि सरकारी स्तर पर पॉलीथीन पर लगाया गया प्रतिबन्ध कोई राजनैतिक कदम नहीं वरन हम नागरिकों केहमारी भावी पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए उठाया गया कदम है. इसको कारगर उसी स्थिति में किया जा सकेगाजबकि हम खुद जागरूकसजगसकारात्मक रूप से इस पहल में अपने प्रयासों को जोड़ देंगे.

 

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04 जून 2020

समाजोपयोगी हो सकती है यह व्यवस्था

अनलॉक के दौरान बाजार में भीड़ अब अपने पुराने रूप में आती दिख रही है. उरई में शाम पाँच बजे तक बाजार खोलने की अनुमति है. जैसा कि ऊपर से आदेश हैं, उसके अनुसार रात नौ बजे तक नागरिकों के आवागमन पर प्रतिबन्ध नहीं है. एक आवश्यक काम से शाम को सात बजे के बाद निकलना हुआ. उस समय बाजार पूरी तरह से बंद हो चुका था. इक्का-दुक्का दवाओं की दुकानें खुली हुईं थीं. दुकानें बंद करने के नियम का पालन था अथवा प्रशासन का भय कि छोटी-छोटी सी दुकानें भी बंद थीं. ठिलिया वाले भी नहीं दिखाई दे रहे थे. चाय-पान की गुमटियाँ भी बंद मिलीं. सुनसान रास्तों पर चंद वाहनों की लाइट थी, सड़क के खम्बों पर जगमगाती रौशनी थी और शांत सा माहौल. लगा नहीं कि उरई के उसी बाजार में हम चले जा रहे हैं, जहाँ रात को नौ-दस बजे तक बस शोर-शराबा बना रहता था. दुकानों का बंद होना होते-होते भी देर रात कर ली जाया करती थी. गाड़ियों का शोर, हॉर्न का अनावश्यक बजना, तेज रफ़्तार से लोगों को डरातीं बाइक्स तब उरई की सड़कों की पहचान बनी थीं.


अब जो स्थिति दिखाई दे रही है वह किसी छोटे से कसबे से देर रात निकलने का एहसास करवा रही थी. एहसास ऐसा भी हो रहा था जैसा कि भोर में टहलने के लिए निकलते समय हुआ करता था. हलकी-हलकी ठंडी हवा, खम्बों, घरों, दुकानों से झांकती रौशनी और इक्का-दुक्का वाहनों के इंजन की आवाज़. न लोगों की भागदौड़, न अंधाधुंध रफ़्तार, न धक्का-मुक्की, न शोर, न धुआँ, न प्रदूषण बस एक चरम शांति, एक मधुर सा एहसास. लगा कि ऐसा नियम हमेशा के लिए बना दिया जाना चाहिए. किसी भी शहर को सुबह आठ-नौ बजे से शाम छह-सात बजे तक के लिए ही खोलना चाहिए. इससे न केवल कई तरह का प्रदूषण दूर होगा बल्कि समाज में फैली बहुत सी अराजकता अपने आप समाप्त हो जाएगी.



जब जल्दी बाजार बंद होगा तो ज़ाहिर सी बात है कि दुकानदारों को जल्द ही अपने घर पहुँचने का समय मिला करेगा. इससे देर रात पहुँचने के कारण अस्त-व्यस्त होने वाली उनकी दिनचर्या भी नियंत्रित हो सकेगी. बहुत से व्यापारिक परिवारों के बच्चों में इसकी समस्या देखने को मिलती है कि वे अपने पिता, भाई अथवा अन्य पुरुष परिजनों से समय से नहीं मिल पाते हैं. कई बार व्यापारिक अवसरों पर बच्चों को भी अपने परिजनों की सहायता के लिए दुकान पर जाना पड़ जाता है. इस तरह की स्थितियों पर बहुत हद तक लगाम लग सकती है.

इसके साथ-साथ जल्दी दुकान बंद होने के कारण लूट-पाट, छीना-झपटी जैसी घटनाओं पर भी अंकुश लगने की सम्भावना है. लगभग सभी दुकानदार, व्यापारी रात को अपनी-अपनी दुकान बंद करने के बाद बहुत सारा धन, दिन भर की आय अपने साथ लेकर ही घर जाते हैं. कई-कई दुकानदार देर तक दुकान खोले रहते हैं. ऐसे में अँधेरे में अकेले जाने वाले दुकानदारों पर, देर तक खुली दुकानों पर अराजक तत्त्वों का हमला भी हो जाया करता है. उनके साथ लूटपाट हो जाती है. जल्दी बाजार बंद होने से इस पर भी नियंत्रण लग सकता है.

इसी तरह यदि बाजार जल्द बंद होगा तो देर रात तक जलने वाली लाइट को भी रोका जा सकता है. इससे विद्युत ऊर्जा की खपत पर नियंत्रण होने से ऊर्जा की बचत की जा सकती है. लाइट चले जाने की स्थिति में जेनरेटर चलने की स्थिति में होने वाले प्रदूषण को भी रोका जा सकता है.

इनके अलावा बहुत से बिंदु ऐसे हैं जो समाजोपयोगी सिद्ध हो सकते हैं. इस तरह के निर्णय को लागू करने के लिए सरकार से ज्यादा सहयोग नागरिकों का, व्यापारियों का चाहिए है. इसके लिए बहुत से ऐसे व्यावसायिक कार्यों का हवाला दिया जा सकता है जो रात को ही संचालित होते हैं. यदि वाकई ऐसा होता है तो ऐसे व्यापारिक कृत्यों को कुछ निश्चित शर्तों के साथ रात में निश्चित अवधि तक के लिए खोलने की अनुमति दी जा सकती है. देखा जाये तो अभी भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. बाजार को शाम पाँच बजे बंद करने का नियम है मगर शराब की दुकानों को रात नौ बजे तक खोलने की अनुमति मिली है. वर्तमान की भयावहता और उसके सन्दर्भ में लगाई गई बंदी के बाद प्रकृति में आये सकारात्मक बदलाव को देखते हुए भविष्य की मजबूत इमारत के लिए ऐसे निर्णयों का पालन किया जाना अनिवार्य होना चाहिए. नागरिकों और व्यापारियों को भी इसके लिए अपनी सहमति देनी चाहिए.  

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07 जून 2019

पर्यावरण संरक्षण हेतु छोटे-छोटे कदमों की आवश्यकता


वर्तमान दौर में पर्यावरण असंतुलन की सबसे बड़ी समस्या ग्लोबल वॉर्मिंग है. इस कारण से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, जिससे मानव जीवन के कदम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसे में अगर हमने पर्यावरण को बचाने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा. पर्यावरण संरक्षण के लिए हम सभी के बहुत छोटे-छोटे प्रयास भी बहुत बड़े साबित हो सकते हैं. इसके लिए हम सभी निम्न कदम अपना सकते हैं - 

(1) नागरिकों को पौधारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाये. भले ही कम पौधे लगाये जाएँ किन्तु उनकी विधिवत देखभाल की जाये. अपने पारिवारिक सदस्यों के जन्मदिन या किसी भी यादगार क्षण पर पौधे लगाकर उन यादों को चिरस्थायी बनाया जाये.
(2) मकान बनाते समय पेड़-पौधारोपण के लिए अतिरिक्त जगह छोड़ी जा सकती है. जहाँ वर्तमान में जगह नहीं है वहां अपने आंगन में थोड़ी सी जगह में गमलों के द्वारा हरियाली की जा सकती है. यही तापमान कम करेगी.
(3) पॉलिथीन से प्रदूषण फैलता है अत: पॉलिथीन का उपयोग न करते हुए रद्दी-पेपर से बनी थैलियों और कपड़े से बनी थैली और बैग्स का उपयोग ज्यादा से ज्यादा करना चाहिए.
(4) पर्यावरण जागरूकता हेतु जल-संरक्षण भी आवश्यक है. इसके लिए हम सभी को कम से कम पानी का उपयोग करना चाहिए. शॉवर की जगह बाल्टी में पानी लेकर नहाएं. आंगन या फर्श सीधे पानी से धोने की बजाए झाडू लगाकर बाद में पोंछा लगा सकते हैं.
(5) घर में नल को टपकने न दें. प्लम्बर बुलाकर तुरंत ठीक करवाएं. इसके साथ-साथ सार्वजनिक जगहों में बहते नल को बंद करके पानी बचाया जा सकता है.
(6) घर के कचरे को बाहर खुले में फेंकने से बचा जाये. इसके साथ-साथ गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग जगहों पर एकत्रित किया जाना चाहिए.
(7) जल-संरक्षण के साथ-साथ बिजली की बजट करके भी पर्यावरण जागरूकता लाई जा सकती है. ऑफिस हो या घर बिजली का किफायती उपयोग करें. कमरे से बाहर निकलते समय बिजली से चलने वाले सभी उपकरण बंद कर दें.
(8) एसी, फ्रिज खरीदते समय ध्यान रखें कि ऐसे उपकरण पर्यावरण को नुकसान न पहुँचायें. विद्युत उपकरणों का समय-समय से रखरखाव करें.
(9) इसके साथ-साथ घर-घर जाकर लोगों को पर्यावरण बचाने के प्रति जागरूक किया जा सकता है. जिससे लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने से प्रकृति की रक्षा करने में मदद मिलेगी.
(10) इसी तरह नई पीढ़ी को प्रकृति, पर्यावरण, पानी व पेड़-पौधों का महत्व समझाएं. उनको इसके प्रति संवेदनशील बनायें. पृथ्वी हरी भरी होगी तो पर्यावरण स्वस्थ होगा, पानी की प्रचुरता से जीवन सही अर्थों में समृद्ध व सुखद होगा.

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पर्यावरण संरक्षण हेतु आवश्यक नहीं कि सिर्फ एक दिन विशेष पर ही जागरूक हुआ जाये. रोज ही छोटे-छोटे कदमों से, सामान्य से उपायों के द्वारा पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है.  आइये हम सब एकसाथ आगे बढ़ें. 

08 नवंबर 2018

पटाखों के साथ इन्सान के अनैतिक कृत्यों पर प्रतिबन्ध लगे


न्यायालय के आदेश के बाद पटाखों पर प्रतिबन्ध बना सा रहा. एकाधिक जगहों पर ही आदेश की अवमानना की खबरें आईं. ऐसे मामलों में लोगों को गिरफ्तार भी किया गया. मात्र एक दिन के महज दो घंटों की आतिशबाजी ने न केवल दिल्ली की वरन समूचे देश की स्थिति ख़राब कर दी, ऐसा बताया जा रहा है. देश के अनेक हिस्सों को गैस चैंबर बना दिया गया, ऐसा गलघोंटू माहौल लोगों को दिखाई देने लगा. ये सही हो सकता है कि अपनी ख़ुशी दिखाने का, पर्व त्यौहार मनाने का तरीका सिर्फ पटाखे फोड़ना नहीं हो सकता है. कुछ जानकारों के हिसाब से पटाखों का धुँआ सर्वाधिक नुकसानदेह है. यह सही भी हो सकता है क्योंकि आज इन्सान ने स्वार्थ में जब खाने-पीने के सामानों तक को नकली चीजों से बनाना शुरू कर दिया है, उसमें भी केमिकल मिलाना शुरू कर दिया है तो पटाखों में रंग, आवाज़ आदि के लिए वह कुछ भी कर सकता है. पटाखों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए या नहीं, किसी ख़ुशी के अवसर पर पटाखे फोड़कर खुशियाँ मनाई जानी चाहिए या नहीं ये चर्चा का विषय हो सकता है. इस पर चर्चा भी होनी चाहिए क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति या एक परिवार की ख़ुशी से संदर्भित नहीं है वरन इसका दुष्प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर देखने को मिल रहा है.


ऐसे में सवाल उठता है कि क्या महज पटाखे फोड़ना ही समाज को परेशानी में खड़ा कर रहा है? सवाल यह भी है कि पटाखे फोड़ने के अलावा बाकी सारे कृत्य क्या पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं? क्या वे लोग जो पटाखों को हानिकारक धुंए का कारक बता रहे हैं वे अपने कार्यों पर ध्यान देंगे? आज न सही सौ प्रतिशत मगर लगभग सौ प्रतिशत के बराबर लोग अपनी कारों का इस्तेमाल बिना एयरकंडिशनर के नहीं कर रहे हैं. बिना एसी की न उनकी कारें चल पा रही हैं न उनके घर-कार्यालय इस्तेमाल योग्य रह पा रहे हैं. क्या ऐसे कार्यों से पर्यावरण संरक्षण हो रहा है? सोच कर देखिये घर, कार्यालय, मॉल, दुकानें आदि जो एसी के द्वारा ठंडक फेंक रहीं हैं वे पर्यावरण के लिए कितनी हितकर हैं? रोजमर्रा के कामों में ही एक बार आदमी खुद का निरीक्षण कर ले कि वह पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचा रहा है. कृषि योग्य भूमि का बिकना, उनकी जगह पर बहुमंजिली इमारत का बनना, मॉल का निर्माण उनमें जल की निर्बाध आपूर्ति के लिए धरती की गोद से सारा पानी सोखने को लगाई गईं मशीनें क्या पर्यावरण हित में हैं? भव्य, आलीशान मकानों, इमारतों को सजाने के लिए काटे जाते जंगल पर्यावरण हित की बात तो नहीं ही करते हैं. पॉलीथीन पर प्रतिबन्ध के बाद भी रोज सडकों पर, मैदानों पर मिलते बड़े-बड़े ढेर बताते हैं कि इन्सान पॉलीथीन का उपयोग न करने को लेकर कितना सजग हुआ है.

ये कृत्य दिखाई देने के बाद भी किसी को नहीं दिखाई दे रहे हैं. यदि प्रदूषण फ़ैलाने वाला कोई कृत्य दिखाई दिया तो वह है बस पटाखों का फोड़ना. इसके प्रतिबन्ध से सारी समस्या का हल निकल आएगा, ये सोचना और विचार करना शुतुरमुर्ग की तरह मुँह जमीन में घुसा लेना है. यदि वाकई पर्यावरण का संरक्षण करना है, समाज से प्रदूषण को दूर भगाना है तो सिर्फ पटाखों पर ही नहीं बल्कि इन्सान को अपने अनैतिक क्रियाकलापों पर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है.

05 जून 2018

पर्यावरण के लिए संकट है पॉलीथीन


सम्पूर्ण विश्व अनेकानेक संकटों से गुजरने के साथ-साथ पर्यावरण संकट के दौर से भी गुजर रहा है. सत्यता यह है कि यह संकट मनुष्य द्वारा ही उत्पन्न किया गया है. इन्सान इस संकट के लिए किसी शक्ति, परमात्मा, प्राकृतिक कारकों को दोषी नहीं ठहरा सकता है. पर्यावरण संकट आज मानव समाज के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा हुआ है. इसके मूल में तमाम कारण होते हुए भी सबसे प्रमुख है इन्सान का विकास की अंधी दौड़ में लगे रहना. इस दौड़ ने मनुष्य को पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने दायित्वों से विमुख कर दिया है. आदिमानव से महामानव बनने की अदम्य लालसा में इस बात की परवाह किये बिना कि उसकी संतति प्रकृति से क्या पाएगी, उसने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया है. ओजोन परत में छेद होना, ग्लेशियरों का पिघलना, अम्लीय वर्षा का होना, बेमौसम की बरसात का होना, बर्फ़बारी की घटनाएँ आदि इस असंतुलन का दुष्परिणाम हैं. कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ, वाहनों से निकलती कार्बन मोनो आक्साइड तथा अन्य जहरीली गैसें, बिजली ताप घर से निकलती सल्फर डाई आक्साइड, धूम्रपान से निकलता विषैला धुआँ, तथा अन्य रूप में वातावरण में मिलती निकोटिन, टार अमोनिया, बेंजापाईरिन, आर्सेनिक, फीनोल मार्श आदि जहरीली गैसें व्यक्तियों, जंतुओं, वनस्पतियों आदि को व्यापक रूप से नुकसान पहुँचा रही हैं. मनुष्य के उठते लगभग प्रत्येक कदम से आज पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है. इसमें भी सबसे ज्यादा नुकसान उसके द्वारा प्रत्येक छोटे-बड़े कामों के लिए उपयोग में लाई जा रही पॉलीथीन से हो रहा है.


पॉलीथीन से पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान होता समझ भी आ रहा है, दिख भी रहा है. इसमें पाली एथीलीन के होने के कारण उससे बनने वाली एथिलीन गैस पर्यावरण क्षति का बहुत बड़ा स्त्रोत है. पॉलीथीन में पालीयूरोथेन नामक रसायन के अतिरिक्त पालीविनायल क्लोराइड (पीवीसी) भी पाया जाता है. इन रसायनों की उपस्थिति के कारण पॉलीथीन हो या कोई भी प्लास्टिक उसको नष्ट करना संभव नहीं होता है. जमीन में गाड़ने, जलाने, पानी में बहाने अथवा किसी अन्य तरीके से नष्ट करने से भी इसको न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही इसमें शामिल रसायन के दुष्प्रभाव को मिटाया जा सकता है. यदि इसे जलाया जाये तो इसमें शामिल रसायन के तत्व वायुमंडल में धुंए के रूप में मिलकर उसे प्रदूषित करते हैं. यदि इसको जमीन में दबा दिया जाये तो भीतर की गर्मी, मृदा-तत्त्वों से संक्रिया करके ये रसायन जहरीली गैस पैदा करते हैं, इससे भूमि के अन्दर विस्फोट की आशंका पैदा हो जाती है. पॉलीथीन को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस धुंए के रूप में वायुमंडल से मिलकर ओजोन परत को नष्ट करती है. इसके साथ-साथ पॉलीथीन को जमीन में गाड़ देना भी कारगर अथवा उचित उपाय नहीं है क्योंकि यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है इससे मृदा तो प्रदूषित होती ही है साथ ही ये भूमिगत जल को भी प्रदूषित करती है. इसके साथ-साथ जानवरों द्वारा पॉलीथीन को खा लेने के कारण ये उनकी मृत्यु का कारक बनती है. 

सबकुछ जानते-समझते हुए भी आज बहुतायत में पॉलीथीन का उपयोग किया जा रहा है. यद्यपि केन्द्रीय सरकार ने रिसाइक्लड, प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स के अन्तर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा उनके विनिर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था किन्तु ऐसे प्रतिबन्ध वर्तमान में सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गए हैं. इसका मूल कारण पॉलीथीन बैग की मोटाई की जांच करने की तकनीक की अपर्याप्तता है. ऐसे में पॉलीथीन के दुष्प्रभाव को रोकने का सर्वाधिक सुगम उपाय उसके पूर्ण प्रतिबन्ध का ही बचता है. पॉलीथीन के द्वारा उत्पन्न वर्तमान समस्या और भावी संकट को देखते हुए नागरिकों को स्वयं में जागरूक होना पड़ेगा. कोई भी सरकार नियम बना सकती है, अभियान का सञ्चालन कर सकती है किन्तु उसे सफलता के द्वार तक ले जाने का काम आम नागरिक का ही होता है. इसके लिए उनके द्वारा दैनिक उपयोग में प्रयोग के लिए कागज, कपड़े और जूट के थैलों का उपयोग किया जाना चाहिए. नागरिकों को स्वयं भी जागरूक होकर दूसरों को भी पॉलीथीन के उपयोग करने से रोकना होगा. हालाँकि अभी भी कुछ सामानों, दूध की थैली, पैकिंग वाले सामानों आदि के लिए सरकार ने पॉलीथीन के प्रयोग की छूट दे रखी है, इसके लिए नागरिकों को सजग रहने की आवश्यकता है. उन्हें ऐसे उत्पादों के उपयोग के बाद पॉलीथीन को अन्यत्र, खुला फेंकने के स्थान पर किसी रिसाइकिल स्टोर पर अथवा निश्चित स्थान पर जमा करवाना चाहिए. ये बात हम सबको स्मरण रखनी होगी कि सरकारी स्तर पर पॉलीथीन पर लगाया गया प्रतिबन्ध कोई राजनैतिक कदम नहीं वरन हम नागरिकों के, हमारी भावी पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए उठाया गया कदम है. इसको कारगर उसी स्थिति में किया जा सकेगा, जबकि हम खुद जागरूक, सजग, सकारात्मक रूप से इस पहल में अपने प्रयासों को जोड़ देंगे.

02 मई 2018

प्रदूषण की गिरफ्त में आते शहर


विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जिनेवा में विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की एक सूची जारी की. इस सूची में वैश्विक रूप से पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश के कानपुर है. दुखद ये है कि शुरू के दस शहरों में से नौ सहित कुल बीस शहरों में देश के चौदह शहर प्रदूषित पाए गए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी की गई सूची में देश के तैंतीस शहर प्रदूषित पाए गए हैं. इन शहरों के प्रदूषण सम्बन्धी आँकड़ों को इन शहरों की जहरीली वायु गुणवत्ता के आधार पर एकत्र कर जारी जारी किया गया है. WHO द्वारा जारी रिपोर्ट में पार्टिकुलेट मैटर यानि पीएम 10 और पीएम 2.5 के स्तर को शामिल किया गया है. पार्टिकुलेट मैटर यानि पीएम वायु प्रदूषण का बड़ा स्रोत माना जाता है. इसमें सल्फेट, नाइट्रेट और काले कार्बन जैसे घरों, उद्योग, कृषि और परिवहन से निकलने वाले प्रदूषक शामिल रहते हैं. इस रिपोर्ट में वर्ष 2016 को आधार बनाया गया है.


WHO ने यह रिपोर्ट पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 के आधार पर बनाई है. पीएम 2.5 हवा में फैले अति-सूक्ष्म खतरनाक कण हैं. जो सूक्ष्म कण 2.5 माइक्रोग्राम से छोटे होते हैं उनको पर्टिकुलेट मैटर 2.5 या पीएम 2.5 कहा जाता है. किसी भी स्थान पर पीएम 2.5 कणों के स्तर के आधार पर वायु प्रदूषण या कहें कि प्रदूषण का आकलन किया जाता है. इसके लिए इन कणों की उपस्थिति की गणना प्रति क्यूबिक मीटर हवा में माइक्रोग्राम इकाई में की जाती है. लंबे समय तक पीएम 2.5 के संपर्क में रहने से फेफड़े के कैंसर, हृदय से जुड़ी अन्य बीमारियों के होने का खतरा रहता है.

पीएम 2.5 की तरह ही पीएम 10 के आधार पर प्रदूषण का आकलन किया जाता है. इन कणों की उपस्थिति की गणना भी हवा में प्रति क्यूबिक मीटर पर की जाती है. पीएम 10 का सामान्‍य लेवल 100 माइक्रोग्राम प्रति क्‍यूबिक मीटर (MGCM) होना चाहिए. विडम्बना ये है कि देश की राजधानी दिल्ली में यह कुछ जगहों पर 1600 तक भी पहुंच चुका है. पीएम 2.5 का सामान्‍य लेवल 60 एमजीसीएम माना गया है लेकिन यह दिल्ली में 300 से 500 तक पहुंच जाता है.


WHO ने वैसे तो किसी भी स्तर को सुरक्षित स्तर के रूप में मान्यता नहीं दी है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि किसी भी स्तर पर पीएम 2.5 खतरनाक होता है. इसके बाद भी पीएम 2.5 को लेकर एक मानक बनाया गया है. डब्ल्यूएचओ के ऐसे ही मानक के अनुसार पीएम 2.5 का स्तर एक साल में औसतन प्रति क्यूबिक मीटर 10-12 माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए. इसे एक दिन में 25 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के नीचे होना चाहिए, हालंकि भारतीय परिस्थितियों में सुरक्षा का स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक माना गया है. डब्लयूएचओ की वर्तमान जारी सूची में प्रदूषण का आधार पीएम 2.5 को ही बनाया गया है. यदि भारतीय संदर्भो में पीएम 2.5 के सुरक्षा स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर को ही माना जाये तो सूची के प्रदूषित शहरों में उन्नीस शहर ऐसे हैं जिनका स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक है. यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती है.

WHO द्वारा जारी सूची में भारत के प्रदूषित शहरों की स्थिति
S.No.
World Rank
City/Town
ug/m3

S.No.
World Rank
City/Town
ug/m3
1
1
Kanpur
173

18
95
Chandrapur
64
2
2
Faridabad
172

19
96
Mumbai
64
3
3
Varanasi
151

20
154
Panchkula
55
4
4
Gaya
149

21
175
Chennai
52
5
5
Patna
144

22
192
Pune
49
6
6
Delhi
143

23
224
Bangalore
47
7
7
Lucknow
138

24
241
Hyderabad
46
8
9
Agra
131

25
283
Navi Mumbai
41
9
10
Muzaffarpur
120

26
292
Udaipur
41
10
11
Srinagar
113

27
296
Gauhati
40
11
12
Gurgaon
113

28
308
Solapur
39
12
15
Jaipur
105

29
309
Jabalpur
38
13
17
Patiala
101

30
348
Trivendrum
35
14
18
Jodhpur
98

31
352
Vizag
34
15
33
Nagpur
84

32
375
Tezpur
33
16
56
Kolkata
74

33
496
Aizwal
27
17
88
Ahmedabad
65







WHO द्वारा जारी सूची में कुछ प्रमुख देशों के प्रदूषित शहरों की संख्या
देश
शहर
अमेरिका
559
चीन
314
इटली
188
जर्मनी
164
कनाडा
158
स्पेन
137
फ़्रांस
122
यूके
64
ऑस्ट्रेलिया
30
जापान
15

देश की ये स्थिति भले ही कुछ शहरों की दिखाई दे रही हो किन्तु सत्य तो ये है कि बहुसंख्यक शहरों में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है. पीएम 2.5 से बचने के लिए गैस मास्क पहनने की जरूरत नहीं. सूती कपड़े से बने मास्क को पहन कर भी ऐसे पार्टिकल को शरीर में जाने से रोका जा सकता है.

अपने आसपास की हवा में अधिक नमी हो तो वहां जाने से बचना चाहिए. कोशिश की जानी चाहिए कि अपने आसपास हवा में नमी अधिक न होने पाए. पीएम 2.5 से बचने से ज्यादा उपयुक्त है कि इसकी उत्पत्ति होने से रोकने का उपाय करना चाहिए. जिन क्रियाओं से से यह उत्पन्न होता है उन्हें कम से कम करना चाहिए या फिर नहीं करना चाहिए. कार के बेकार समान को जलाने से बचना चाहिए, कूड़े को कम से कम, अत्यावश्यक होने पर ही जलाया जाना चाहिए.

देश में एक तरफ स्वच्छ भारत अभियान चलाया जा रहा है, दूसरी तरफ देश का शहर ही वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक प्रदूषित शहर के रूप में सामने आया है. यह स्थिति सरकार से ज्यादा नागरिकों के लिए चिंताजनक है, शर्मनाक है. राजनीति के चक्कर में घिरकर बहुत से लोगों द्वारा स्वच्छ भारत अभियान का विरोध भी किया जा रहा है. स्वार्थ में घिरकर अपने आसपास के वातावरण की चिंता किये बिना अपनी जीवनशैली को संचालित किये जाते हैं. अपने लाभ के लिए पर्यावरण का विनाश करने में लगे हुए हैं. प्राकृतिक संसाधनों को मिटाने में लगे हैं. यदि हम सभी ने सजग होकर अभी से सकारात्मक कदमों को उठाना शुरू नहीं किया तो भविष्य में प्रदूषण हमारे घर-घर में पैर पसार चुका होगा. हमारी भावी पीढ़ी प्रदूषित हवा-पानी-मिट्टी में तमाम बीमारियों के साए में पलने होने को विवश होगी.

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सारणी में दिए गए आँकड़े WHO की वेबसाइट http://www.who.int/ से लिए गए हैं.