08 मई 2023

पर्यावरण असंतुलन सुधारना हम सबकी जिम्मेवारी

विगत कुछ समय से मौसम असामान्य रूप से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. जिस समय भीषण गर्मी से जनसामान्य जूझ रहा होता था, उस समय उसे बारिश का सामना करना पड़ रहा है. ऐसा इसी वर्ष नहीं देखने को मिला है कि मौसम में असामान्य परिवर्तन हुआ है, पिछले कई सालों से मौसम में अप्रत्याशित रूप बदलाव देखने को मिलने लगे हैं. सामान्य से अधिक गर्मी पड़ना, कभी बारिश का असामान्य होना तो कभी सर्दी के गिने-चुने दिनों तक बना रहना. इसके लिए भले ही जनसामान्य में हँसी-मजाक के अवसर खोज लिए जाएँ मगर ये चिंता का विषय है. निश्चित समयानुक्रम में उस मौसम का प्रभाव न होना चिंताजनक भी है, नुकसानदायक भी है. इससे न केवल पर्यावरण को बल्कि जीव-जंतुओं को भी नुकसान उठाना पड़ता है. मौसम में होने वाले इस अप्रत्याशित बदलाव का कारण पर्यावरण असंतुलन ही है. 


प्रकृति के तीन प्रमुख तत्त्व जल, जंगल और जमीन माने जाते हैं. इसे मानने-समझने के बाद भी मानवीय लालच का हाल ये है कि लगातार इन तीनों तत्त्वों का भयंकर तरीके से दोहन किया जा रहा है. इसी का दुष्परिणाम यह है कि प्राकृतिक संतुलन डगमगा गया है और लगातार मानवीय सभ्यता को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है. पर्यावरणीय असंतुलन के कारण जहाँ जनसामान्य को अनेकानेक प्रकार की बीमारियों से जूझना पड़ रहा है वहीं जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ भी लुप्त हो रही हैं. इस प्राकृतिक असंतुलन के चलते प्रदूषण भी पर्याप्त रूप से अपना भयानक असर दिखा रहा है. प्रकृति में जितने भी तरह के जीव-जंतु, वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे पाए जाते हैं, सबका अपना ही महत्त्व है. इनका व्यवस्थित क्रम ही न केवल इनका स्वयं का विकास करता है बल्कि प्राकृतिक संतुलन को भी स्थापित करता है. किसी भी प्रकार का पर्यावरण हो, उसके लिए एक निश्चित ढाँचा मान्य है. इसमें जैविक और अजैविक पदार्थों का अपना निश्चित अनुपात पर्यावरण को सकारात्मकता प्रदान करता है. इन्हीं घटकों में किसी भी तरह के परिवर्तन से, उनके अनुपात में विचलन से उत्पन्न होने वाली स्थिति को पर्यावरणीय प्रदूषण कहते हैं. प्राकृतिक असंतुलन का एक कारण यह प्रदूषण भी है. इसके द्वारा हवा, पानी, मिट्टी, वायुमंडल आदि नकारात्मक ढंग से प्रभावित होते हैं.




पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं. एक बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती उपभोक्ता पृवृत्ति. बढ़ती जनसंख्या के चलते मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक ढंग से प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है. इसके चलते वह बिना सोचे-समझे दोहन करने में लगा है. बढ़ते औद्योगीकरण और पेड़ों की कटाई के कारण उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन ने पर्यावरण में जहरीली गैसों को बढ़ा दिया है. उनको अवशोषित करने वाले पेड़ों को काटा गया मगर उनके स्थान पर किसी भी तरह से भरपाई नहीं की गई है. इसी तरह सुख-सुविधाओं के चलते, उपभोक्तावादी प्रकृति के चलते मानव द्वारा अत्याधुनिक उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है. इससे उत्सर्जित होने वाली गैसों के कारण भी पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न हुआ है. ओजोन परत में छेद का होना हो, ग्रीन गैसों का मामला हो, तापीय प्रदूषण आदिके द्वारा मानवीय सभ्यता को ही संकट का सामना करना पड़ रहा है. हमारी ही कारगुजारियों के कारण वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन आदि का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मानवीय सभ्यता को इन्हीं खतरनाक गैसों के साये में रहकर अपना जीवन गुजारना पड़ रहा है. किसी समय जीवन देने वाली हवा में अब इन प्रदूषित तत्वों की उपस्थिति बढ़ गई है. इसके चलते इंसानों को साँस की बीमारियों के साथ-साथ टीबी, कैंसर, त्वचा रोग आदि जैसी कई असाध्य बीमारियों से दोचार होना पड़ रहा है. उद्योग हों या फिर घरेलू अपशिष्ट, सभी के द्वारा पैदा गंदगी, मल-मूत्र, हानिकारक तत्त्व आदि स्वच्छ जल स्रोतों में मिलते जा रहे हैं. औद्योगिक अम्लीय कचरा के द्वारा नदियों का पानी भी जहरीला होता जा रहा है. इससे बदतर स्थिति तो यह होती जा रही है कि बहते जल के साथ-साथ भूमिगत जल भी अब संक्रमित होने लगा है. इससे भी निकट भविष्य में पेयजल की गंभीर समस्या उत्पन्न होने वाली है.


दुनिया में पर्यावरण को लेकर तमाम तरह की योजनायें चल रही हैं, अनेक तरह के कार्यक्रम बने हुए हैं मगर धरातल पर कोई भी स्पष्ट रूप से क्रियान्वित होता नहीं दिख रहा है. पर्यावरण सुरक्षा, जागरूकता के नाम पर एक तरह की खाना-पूर्ति कर ली जाती है.  ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती के गरम होने की चिंता हो, ओजोन परत में होने वाले छेद को लेकर वैश्विक वार्ता हो, धरती से अनेक वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की प्रजातियों के लुप्त होने की बातें हों सभी तरह की समस्याओं पर मानव समाज सिर्फ और सिर्फ सरकार की तरफ देखने लगता है, उसे ही एकमात्र जिम्मेवार बताने लगता है. वर्तमान स्थिति इस तरह की है कि अब सिर्फ सरकारी प्रयासों मात्र से काम नहीं चलने वाला. हम सभी को पर्यावरण संरक्षण के लिए सजग होना पड़ेगा. ये हम सभी को समझना होगा कि प्रकृति के साथ हम सभी किसी न किसी रूप में छेड़छाड़ कर रहे हैं. अतः उसका खामियाजा हमें ही भुगतना होगा और उससे बचने का रास्ता भी हमें ही निकालना होगा.


पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें स्वयं सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं. सरकार द्वारा पॉलीथीन पर पाबंदी लगाने के लिए समय-समय पर कदम उठाए गए लेकिन हम अपनी तरफ से इस ओर सजगता नहीं दिखा सके हैं. आज भी हम सभी अपनी सुविधा को प्राथमिक मानते हुए पॉलीथीन का उपयोग कर रहे हैं और पर्यावरण संकट में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं. हम सभी को मिलकर प्रकृति संरक्षण के लिए कुछ करना होगा. कोशिश की जाये कि हमारे दैनिक उपभोग में ऐसे पदार्थों का कम से कम इस्तेमाल हो जिनके द्वारा किसी भी रूप में प्रकृति को, पर्यावरण को नुकसान होता हो. उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन बिताना मजबूरी हो सकती है मगर प्राकृतिक स्त्रोतों का दोहन उसी रूप में किया जाये, जिससे कि प्रकृति को संकट न हो. ऊर्जा के लिए रासायनिक पदार्थों, पेट्रोलियम आदि के उपभोग से ज्यादा सौर-ऊर्जा पर निर्भरता को बढ़ाना होगा. पेड़-पौधों की कटाई रोकने के साथ-साथ हम सभी को खाली पड़ी जगहों पर अधिक से अधिक पौधारोपण करने की आदत डालनी होगी. अच्छा हो कि हम अन्य किसी पर दोषारोपण करने के स्थान पर स्वयं जागें और प्रकृति संरक्षण में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने का संकल्प लें.

 






 

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