10 मई 2023

ऐसे संयोग भी बिरले ही होते हैं - 2300वीं पोस्ट

शिक्षा किसी के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इस शिक्षा के द्वारा व्यक्ति न केवल संस्कारित बनता है बल्कि अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण को लेकर भी सजग होता है. पता नहीं ये सबके साथ होता है या नहीं मगर हमारे साथ हमारे उन सभी शिक्षण संस्थानों के साथ आत्मिक लगाव रहा है जहाँ से हमने शिक्षा प्राप्त की है. प्राथमिक शिक्षा के लिए संस्थान रहा हो या या फिर उच्च शिक्षा का संस्थान, न उस संस्थान को, न वहाँ के शिक्षकों को हमने विस्मृत किया है.


इसी क्रम में अपनी उच्च शिक्षा से जुड़े एक शिक्षण संस्थान दयानंद वैदिक महाविद्यालय, उरई का जिक्र करना आज अत्यावाशय्क हो गया है. वैसे इस पोस्ट को हमने 08 मार्च को लिखा था मगर जब बात ख़ास थी तो पोस्ट भी ख़ास होनी चाहिए थी, यही सोचकर इसे रोक रखा था. चलिए, अब दोनों बातें एक-एक करके आपको बताते चलें. पहली बात चूँकि हमारे कॉलेज से जुडी है, इसलिए पहले उसे बताते हैं. विगत दो दशकों से अधिक समय से अध्यापन कार्य से जुड़े होने के बाद भी इस साल पहली बार अवसर मिला कि हमें कहीं बाह्य परीक्षक के रूप में मौखिकी परीक्षा लेने जाना था. इसे संयोग ही कहा जायेगा कि विगत वर्षों में कई बार ऐसे अवसर आने के बाद भी हम इनकार करते रहे. शायद दस्तावेज के रूप में दयानंद वैदिक महाविद्यालय, उरई का नाम ही जुड़ना था.




इस महाविद्यालय के प्राध्यापक नीरज, जो हमारे मित्र भी हैं, का फोन आने पर पहले हमने उनको इनकार कर दिया, वो भी इस रूप में कि मित्र की मौज ले ली जाए. असलियत ये थी कि दयानंद वैदिक महाविद्यालय के नाम से हमें इनकार करना ही नहीं था. अब आते हैं इस नाम के आकर्षण के पीछे की कहानी पर. असल में जहाँ ये महाविद्यालय स्थित हैं, वहाँ हमारा निवास स्थान है. और निवास स्थान भी कोई आज का नहीं दशकों पुराना है. उस दौर का है जबकि हम इस महाविद्यालय के प्रांगण का उपयोग अध्यापन के लिए नहीं बल्कि अपने खेलकूद के लिए किया करते थे. उन दिनों का स्मरण आप लोग भी साथ में कीजिये, जबकि हम सन 1985 में रामनगर स्थित अपने मकान में आये और उसके बगल में डीवी कॉलेज को देखा. ये भी एक संयोग था कि तत्कालीन प्राध्यापकों के बच्चे हमउम्र होने के कारण या तो हमारे सहपाठी थे या फिर खेल के मैदान के मित्र थे. इसी कारण से कॉलेज कभी अनजाना सा नहीं लगा. खेलकूद के लिए मैदान का उपयोग करने के साथ-साथ वहाँ की शैक्षिणक सुविधाओं का लाभ लिया गया.


अब जबकि नीरज का फोन आया तो मन में एक लालच था अपने महाविद्यालय में बाह्य परीक्षक के रूप में जाने का. अपना महाविद्यालय इसलिए क्योंकि यहाँ बचपन में खेले तो हैं ही, कालांतर में यहाँ अध्ययन भी किया और उसके बाद अध्यापन कार्य भी किया. ये संयोग एकमात्र हमारे साथ नहीं जुड़ा होगा मगर हमारे लिए तो वाकई बिरला संयोग कहा जायेगा. इस महाविद्यालय में न केवल हमारा बचपन खेलकूद में बीता बल्कि अपनी स्नातक की पढ़ाई के बाद यहीं हमने परास्नातक में प्रवेश लिया था. सन 1995 में अर्थशास्त्र विषय से परास्नातक होने के बाद उसी साल जुलाई से महाविद्यालय में अध्यापन कार्य आरम्भ कर दिया था. अर्थशास्त्र विषय से अध्यापन के साथ-साथ वर्ष 1998 से यहीं हिन्दी विषय में अध्यापन कार्य करने का अवसर भी मिला. अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ यहीं से हमें अपनी दोनों पी-एच.डी. करने का अवसर भी मिला.




ऐसे सुखद संयोग को हम किसी भी रूप में अपने हाथ से गँवाना नहीं चाह रहे थे. नीरज से कुछ मिनट के हँसी-मजाक के बाद बाह्य परीक्षक के लिए हाँ कर दी. 08 तारीख को पोस्ट लिखने के दौरान पोस्ट की संख्या देखी तो लगा कि इसे एक-दो दिन के लिए टाल दिया जाये तो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण घटना के साथ-साथ पोस्ट भी विशेष हो जाएगी. असल में हमारे इस ब्लॉग की ये 2300वीं पोस्ट है. विगत 15 वर्षों से नियमित रूप से ब्लॉग-लेखन का ये सुफल आज दिख रहा है. एकसाथ दो-दो बातों को आप सबके बीच बाँटना बहुत ही अच्छा लग रहा है. बड़ों के आशीर्वाद, छोटों के स्नेह और साथियों के सहयोग का सुखद परिणाम है कि आज हम इस दोहरी ख़ुशी को आप सबके बीच साझा कर रहे हैं. आप सभी लोग अपना स्नेह बनाये रखियेगा. 



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इस ब्लॉग की 2300वीं पोस्ट है ये.



 

2 टिप्‍पणियां:

  1. लेखनी में और निखार आता रहे और अपनी कला से समाज के साथ साथ स्वयं को भी जीवंत बनाए रखें |

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