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31 जुलाई 2024

प्रेमचन्द से इतर भी है साहित्य

विषयों और विमर्शों का ताना-बाना बुनते हुए समाज निरंतर आगे ही बढ़ता रहता है. साहित्य अत्यंत सूक्ष्मता के साथ किसी भी बहस, विमर्श पर अपनी नजर बनाये रखता है, इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है. समय के साथ हुए अनेक परिवर्तनों को समाज ने स्वीकारा है किन्तु साहित्यिक जगत ने ऐसा करने में बहुत हद तक कंजूसी की है, आज भी करता है. इक्कीसवीं सदी आने के साथ ही वैश्विक रूप से बहुत कुछ बदला है. जीवन-शैली, मूल्यों, विचारों, परिवार, संस्कृति, रिश्तों आदि में न केवल परिवर्तन हुए हैं वरन पुरातन ढाँचों का विखंडन, विध्वंस भी हुआ है. ये और बात है कि प्रत्येक परिवर्तन, विखंडन, विध्वंस के साथ विरोधात्मक स्वरों का उठना होता रहा किन्तु परिवर्तनों को आवश्यकतानुरूप स्वीकारा भी जाता रहा. परिवर्तनों के इन्हीं विध्वंस और नव-निर्माण के क्रम से सामाजिक ताने-बाने का विस्तार होता रहा.

 

साहित्य में परिवर्तनों को स्वीकारने में खुलापन न मिलने को यदि आज की तारीख के सन्दर्भ में देखा जाये तो और भी स्पष्ट होता है. प्रतिवर्ष 31 जुलाई को साहित्य जगत में प्रेमचन्द जयंती का आयोजन देश भर में होता है. इन आयोजनों, कार्यक्रमों में प्रेमचन्द की परम्परा का जिक्र होता है, उनके साहित्य पर चर्चा होती है, उसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला जाता है. इन सबके बीच कई सवाल भी खड़े होते हैं किन्तु उन पर विमर्श की दृष्टि से विचार करने की बजाय एकांगी रूप में विवाद किया जाता है. सवाल यह नहीं कि जिस कालखण्ड में प्रेमचन्द लेखन कर रहे थे, क्या उसी समय में उनके साथ कोई दूसरा लेखक साहित्य सृजन नहीं कर रहा था? सवाल यह भी नहीं कि जिस समय, परिस्थिति को देखते हुए प्रेमचन्द ने कहानियों, उपन्यासों का लेखन किया वे स्थितियाँ आज हैं अथवा नहीं? सवाल यह भी नहीं कि प्रेमचन्द की साहित्यिक परम्परा दक्षिणपंथी हैं, वामपंथी हैं या फिर कलावादी? सवाल यह भी नहीं कि प्रतिवर्ष जिस गम्भीरता से प्रेमचन्द के विचारों को प्रासंगिक मानते हुए मात्र मंचीय परम्पराओं में प्रसारित किया जाता है उनको उतनी ही गम्भीरता से आत्मसात क्यों नहीं किया जाता? सवाल यह भी नहीं कि आज की कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाली पीढ़ी को प्रेमचन्द के उस साहित्य द्वारा क्या सन्देश दिया जा रहा है जो आज से लगभग एक सदी पूर्व लिखा गया था?

 



ऐसे सवाल इसीलिए खड़े होते हैं क्योंकि हिन्दी साहित्य ने विस्तीर्ण रूप से सोचने में, नवोन्मेषी साहित्यकारों को आत्मसात करने में दरियादिली नहीं दिखाई है. ऐसा लगभग प्रत्येक कालखंड में हुआ है जबकि नए रचनाकार को, किसी भी नई रचना को आलोचना के केन्द्र में रखते हुए उस पर स्वीकारात्मक दृष्टि नहीं डाली गई वरन अस्वीकरण भाव रखा गया. यदि प्रेमचन्द के समकालीन लेखकों पर ही समीक्षात्मक रूप से विचार किया जाये तो जयशंकर प्रसाद, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, शिवपूजन सहाय, राहुल सांकृत्यायन, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ आदि ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिनकी गद्य रचनाओं का समग्र रूप में मूल्यांकन नहीं किया गया है. 1936 में प्रेमचन्द के निधन से पूर्व ही जैनेन्द्र, भगवती चरण वर्मा जैसे साहित्यकार अपने उपन्यासों के द्वारा साहित्यिक जगत में चमकने लगे थे. तत्कालीन साहित्यिक परिदृश्य में प्रेमचन्द के समकालीन साहित्यकारों पर विहंगम दृष्टि क्यों नहीं आरोपित की गई, इसके कारण भी तत्कालीन स्थितियों से निर्मित हुए होंगे लेकिन वर्तमान स्थितियों में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रमों से समकालीन साहित्यकारों का, नवोन्मेषी साहित्यकारों का, रचनाओं का गायब रहना निश्चित ही अचंभित करने वाला तो है ही, शोध का विषय भी है.

 

आज जैसे ही पाठ्यक्रम परिवर्तन की चर्चा होती है, साहित्यकारों के नामों में बदलाव की बात होती है तो भूचाल सा आ जाता है, ऐसा एकाधिक बार हो चुका है. सोचने वाली बात है कि इक्कीसवीं सदी में जबकि सोचने, समझने, काम करने, रहन-सहन आदि का तरीका बदल चुका है; परिस्थितियों में परिवर्तन आ चुका है; तकनीकी में परिवर्तन आ चुका है; सामाजिक ढाँचे में बदलाव देखने को मिल रहे हैं; जीवन-मूल्यों में बदलाव आया है तब भी साहित्य के नाम पर लगभग विलुप्त हो चुकी स्थितियों को थोपने जैसा कार्य किया जा रहा है. हिन्दी साहित्य पाठ्यक्रमों में प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा स्तर तक या कहें कि शोध के स्तर तक प्रेमचन्द उपस्थित हैं. साहित्य महज पठन-पाठन का नहीं बल्कि खुद को समाज के सापेक्ष समझने-समझाने वाला माध्यम है. एक पल को विचार कीजिये कि वैश्विक मानकों से सम्बन्ध रखने वाली पीढ़ी किस तरह अतीत के उन मानकों के साथ समन्वय बनाएगी जो अब अस्तित्व में ही नहीं हैं? आज के वैश्वीकरण दौर में आज़ादी के पहले की मूल्य व्यवस्था से किस तरह तारतम्य जोड़ सकेगी? सुपरसोनिक गति का अनुभव करने वाली पीढ़ी बैलगाड़ी की गति को कैसे समझेगी?

 

विद्यार्थी वर्ग में साहित्यिक उदासीनता का एक कारण यह भी है. पाठ्यक्रमों में आज भी वह साहित्य आरोपित है जिसकी काल-सापेक्षता से वर्तमान पीढ़ी स्वयं को जोड़ नहीं पा रही है. ऐसा नहीं है कि प्रेमचन्द को वर्तमान परिदृश्य में खारिज कर दिया जाये. इसे भी पारिवारिक संरचना के रूप में समझने की आवश्यकता है. समय के साथ परिवार में प्राचीन मूल्यों का सम्मान करते हुए नवीन अवधाराणाओं को स्वीकार लिया जाता है; बुजुर्गों के अनुभवों से लाभान्वित होते हुए नव-विचारों को उन्मुक्त आकाश उपलब्ध कराया जाता है उसी प्रकार प्रेमचन्द की साहित्यिक छाँव में नवोन्मेषी साहित्य को, साहित्यकारों को भी पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर मिलना चाहिए.

 


06 अप्रैल 2023

लोकप्रियता को स्वीकारना ही होगा

अधिकतर देखने में आता है कि किसी भी शैक्षणिक संस्थान में, बोर्ड में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में जैसे ही किसी तरह का बदलाव होता है, वैसे ही न केवल लेखक-संसार में बल्कि आलोचक वर्ग में भी उथल-पुथल मच जाती है. अभी तक बदलाव का मुख्य विरोध किसी साहित्यकार के नाम को हटाने, जोड़ने से संदर्भित हुआ करता था. यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि समाज में किसी भी तरह के बदलाव का उसने सदैव विरोध किया है. साहित्य जगत में बदलाव का विरोध कुछ दिनों से बना हुआ है. खबर आई कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में अब परास्नातक के विद्यार्थी हिन्दी साहित्य में वे चुनिन्दा उपन्यास पढ़ सकेंगे, जिनको लुगदी साहित्य कहकर साहित्य की मुख्यधारा से बाहर रखा गया है. इस खबर के आते ही हिन्दी साहित्य जगत में जैसे कोहराम मच गया. लगातार एक बहस सी मची हुई है. मीडिया, सोशल मीडिया पर अपने-अपने तरह के बयान लगातार आ-जा रहे हैं. यहाँ लोगों का विरोध एक तो इस बात के लिए है कि सस्ते साहित्यकार कहे जाने वाले या फिर लुगदी साहित्य कहे जाने वाले उपन्यास, उपन्यासकारों के लिए स्थापित, नामचीन साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है. विरोध इसका भी है कि लुगदी साहित्य के नाम से समाज में चल रहे उपन्यासों के द्वारा किस तरह का जीवन-दर्शन, जीवन-मूल्य विद्यार्थियों के बीच पहुँचाने का प्रयास विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है.


यहाँ बहुतों को अभी इसका भान ही नहीं है कि विश्वविद्यालय ने इन उपन्यासकारों को लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में पाठ्यक्रम में जोड़ा है, किसी भी साहित्यकार को हटाया नहीं है. स्थापित साहित्यकारों ने, साहित्य-जगत ने भले ही इन उपन्यासकारों को, उनके लेखन को मान्यता न दी हो मगर इसमें कोई दोराय नहीं कि इन उपन्यासकारों के उपन्यासों ने लोकप्रियता के आयामों को छुआ है. साठ और सत्तर के दशक में गुलशन नन्दा इस दुनिया के बेताज़ बादशाह रहे. ऐसा कहा जाता है कि वेद प्रकाश शर्मा के बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की पहले ही दिन पंद्रह लाख प्रतियाँ बिक गयी थीं. सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक-एक उपन्यास के एक-एक संस्करण में तीस हजार से अधिक प्रतियों का प्रकाशन हुआ करता है. इस तरह की लोकप्रियता अपने देश में किसी भी हिन्दी उपन्यास अथवा हिन्दी उपन्यासकार के सन्दर्भ में देखने को नहीं मिलती है.




जहाँ तक बात लुगदी उपन्यासों के द्वारा विद्यार्थियों में जीवन-मूल्यों, संस्कारों की है तो ऐसा नहीं है कि इस श्रेणी के सभी उपन्यासों में सेक्स का तड़का रहता हो. किसी समय में अपने दो मित्रों-राही मासूम रज़ा और इब्ने सईद की बात को चुनौती की तरह लेते हुए इब्ने सफ़ी ने साफ़-सुथरे जासूसी उपन्यासों की लम्बी कतार लगा दी थी, जिनमें अश्लीलता बिलकुल नहीं हुआ करती थी. जासूसी उपन्यास लेखन के मामले में जैसी लोकप्रियता इब्ने सफ़ी को प्राप्त हुई वैसी किसी को नसीब न हुई. एकबारगी इन उपन्यासों की, उपन्यासकारों की लोकप्रियता को साहित्य का मानक न माना जाये मगर इस बहस के बहाने एक विमर्श और भी शुरू किया जाना चाहिए कि क्या वाकई साहित्य के द्वारा मूल्यों की स्थापना संभव है? जिन साहित्यकारों को, उनके साहित्य को समाज ने मान्यता दे रखी है, क्या उनकी सभी कृतियों में, उपन्यासों में उत्कृष्टता का भाव समाहित है? साहित्य जगत में आधुनिक काल से लेकर वर्तमान तक स्थापित माने गए तमाम साहित्यकारों की कृतियों से क्या समाज ने मूल्य स्थापना के लिए, संस्कार ग्रहण करने के लिए, जीवन को सहज बनाने के लिए वाकई सकारात्मक, सार्थक कदम उठाये हैं?


यहाँ विचार किया जाना आवश्यक हो जाता है कि किसी पाठ्यक्रम में साहित्य जगत के समस्त साहित्यकारों को शामिल नहीं किया जा सकता है. ऐसे में जिनको शामिल नहीं किया जा सका है, क्या वे साहित्यकार उच्च कोटि के नहीं? क्या उनकी रचनाएँ स्तरीय नहीं? इसके अलावा जिन साहित्यकारों को शामिल किया जाता है क्या उनकी सभी कृतियों को, रचनाओं को पाठ्यक्रम में स्थान मिलता है? इसका क्या अर्थ निकाला जाये कि जिन रचनाओं को, कृतियों को पाठ्यक्रम में स्थान नहीं मिला है, वे स्तरीय नहीं हैं? या उनके द्वारा किसी तरह के मूल्यों, संस्कारों की स्थापना करने में मदद नहीं मिलेगी? इसी तरह यदि शिक्षा जगत में साहित्य की उपस्थिति का ही आकलन किया जाये, उसके द्वारा मूल्य स्थापना की बात को स्वीकारा जाये तो क्या साहित्य के विद्यार्थियों के अतिरिक्त अन्य संकाय के विद्यार्थी मूल्य स्थापना के योग्य नहीं समझे जाते? क्यों नहीं इंजीनियरिंग, चिकित्सा, वाणिज्य, प्रबंधन आदि पाठ्यक्रमों में साहित्य को पढ़ाया जाता?


इसी बिन्दु के सापेक्ष इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि आज जिस तरह से हर हाथ में इंटरनेट सुविधा से संपन्न स्मार्ट फोन है, आज जिस तरह से इंटरनेट के विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म पर अश्लील दृश्य, अश्लील भाषा शैली, गालियाँ नितांत अगोपन रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं तब मात्र साहित्य के द्वारा नैतिकता, संस्कार, सभ्यता, आदर्श की बातें करना कहाँ तक उचित है. यह हमेशा से कहा जाता रहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है. क्या आज का समाज प्रेमचन्द की नैतिकता को, आदर्शों को स्वाभाविक रूप में अपने जीवन में उतारता है? लुगदी साहित्य कहकर जिन उपन्यासों को अभी तक समाज की मुख्यधारा से बाहर रखा गया क्या उनके सापेक्ष इस पर विचार किया गया कि जो उपन्यास उत्कृष्ट साहित्य के रूप में स्वीकारे गए हैं, वे संस्कार, सभ्यता, शालीनता का पाठ पढ़ा रहे हैं? यदि साहित्य ही संस्कारों को, आदर्शों को, शालीनता को समाज में स्थापित करने की क्षमता रखता तो आज आज़ादी के अमृत्काल में समाज में अनेकानेक बुराइयाँ परिलक्षित न हो रही होतीं.


निःसंदेह जो साहित्य उत्कृष्ट है, अनुकरणीय है, विचारपरक है उसका अनुगमन किया जाना चाहिए. इसके बाद भी समाज की दिशा और उसकी मानसिकता को पहचानते हुए भी आधुनिकता को स्वीकारना ही होगा. आज की पीढ़ी को अपने अतीत के साथ-साथ वर्तमान से भी परिचित होने का अधिकार है. इसी बहाने आज की पीढ़ी में आलोचनात्मक दृष्टि का उद्भव होगा. उनके भीतर कल्पनाशीलता, फैंटेसी, वास्तविकता, संस्कार, शालीनता, अश्लीलता, लेखन, विषय, शोध आदि की व्यापक समझ पैदा हो सकेगी. ध्यान रखना होगा कि आज के दौर में किसी भी विषय को, वो चाहे नितांत गलत हो, पूर्णतः सही हो एकदम से नकारा नहीं जा सकता है. यदि किसी भी कृति में पठनीयता है, कल्पनाशीलता है, दृश्यता है, स्वीकारता है तो उसका आकलन करने के लिए एक बार उसे भी मुख्यधारा में आने का अवसर देना होगा. एक बार दिया जाने वाला अवसर पत्थर की लकीर नहीं है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता किन्तु पूर्वाग्रहयुक्त कोई भी निर्णय भ्रम और संशय के ही द्वार खोलता है. 






 

03 अप्रैल 2023

मौलिकता, रोचकता के आधार पर एक अवसर देना सही है

एक खबर प्रकाशित हुई कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी लोकप्रिय साहित्य के अंतर्गत गुलशन नंदा, वेदप्रकाश, सुरेन्द्र मोहन के उपन्यास पढ़ सकेंगे. इनमें इब्ने सफी की जासूसी दुनिया, गुलशन नंदा के नीलकंठ, वेदप्रकाश शर्मा के वर्दी वाला गुंडा को स्थान दिया गया है. इस खबर के आते ही साहित्य जगत में शालीनता की खेती करने वाले बहुतेरे छुपे रुस्तमों के पेट में मरोड़ उठना शुरू हो गई. इस मरोड़ उठने का एक कारण तो ये भी है कि अभी तक हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है कि तर्ज़ पर ऐसे लेखकों ने गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे लेखकों-उपन्यासकारों की कृतियों को लुगदी साहित्य का नाम देकर चलन से बाहर कर रखा था. बावजूद इसके इन लेखकों की, इनके उपन्यासों की माँग जबरदस्त रूप से रहती है. इनके पाठकों की संख्या लाखों में है.




छटपटाहट से भरे ऐसे तमाम लेखकों ने इस निर्णय का विरोध किया. सामग्री, साहित्यकार, शालीनता आदि का वास्ता देकर इनको कूड़े का बताना शुरू कर दिया गया. संभव है कि लुगदी साहित्य कहे जाने वाले इन उपन्यासों में अश्लीलता जबरन ठूंसी जाती रही हो मगर सभी उपन्यासों में ऐसा होता है ऐसा नहीं है. इन्हीं में से बहुतेरे उपन्यास ऐसे हैं जिन पर हिन्दी फिल्म बनी हैं और बहुत लोकप्रिय भी रही हैं. जहाँ तक सामग्री की, शालीनता की बात है तो ऐसा लगता है कि इन विरोधी स्वर उचारते लेखकों ने, पाठकों ने उन लेखकों को नहीं पढ़ा है जो स्वयंभू रूप में साहित्य में सबसे ऊपर होने का दावा करते हैं मगर उनकी रचनाओं में रति-क्रिया का वर्णन किसी अश्लील साहित्य से कम नहीं. जिन विरोधी आवाजों ने मित्रो मरजानी, दिल्ली, चाक, पीली छतरी वाली लड़की आदि को पढ़ लिया होगा वे कहना भूल जाएँगे कि शालीनता क्या होती है.


रही बात लोकप्रियता के नाम की तो क्या ये आवश्यक है कि प्रत्येक कालखंड में सदियों पुराने, दशकों पुराने लेखकों को ही पढ़ते रहा जाए? क्या तकनीक के इस दौर में शालीनता पर वैसा ही पर्दा पड़ा हुआ है जैसा कि आज से कोई दो-तीन दशक पहले पड़ा हुआ था? फिल्मों, धारावाहिकों में सत्यता, वास्तविकता के नाम पर जिस तरह से अश्लीलता, गालियों का आना हुआ है वह ये बताने को पर्याप्त है कि अब किसी से कुछ भी गोपन नहीं है. विश्वविद्यालय के परास्नातक के विद्यार्थी किशोरावस्था के नहीं हैं. संभवतः उनमें सही-गलत को समझने का नजरिया होगा. आज हर हाथ में स्मार्ट फोन, इंटरनेट ने अश्लीलता को, पोर्नोग्राफी को सर्वसुलभ बना दिया है. ऐसे में इस साहित्य के द्वारा अश्लीलता का फैलना सिवाय गाल बजाने के कुछ और नहीं लगता है. कम से कम इन उपन्यासों की मौलिकता, रोचकता देखकर एक बार इनको अवसर दिया जाना उचित है. 





 

09 जनवरी 2023

वृन्दावनलाल वर्मा जी को याद करते हुए

आज, 09 जनवरी को सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. वृन्दावनलाल वर्मा जी की जन्मतिथि है.

हिन्दी साहित्य में उनका अपना एक विशेष स्थान है. ऐसा इसलिए क्योंकि जिस समय उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द एक युग की भांति छाए हुए थे, उस समय ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन का जोखिम वृन्दावनलाल वर्मा जी ने उठाया. उन्होंने अपने उपन्यासों के द्वारा न केवल ऐतिहासिकता को चित्रित किया बल्कि बुन्देलखण्ड की संस्कृति को भी बखूबी उभारा है.


ये हमारा सौभाग्य है कि हिन्दी साहित्य में वाचस्पति उपाधि (पीएच.डी.) आपके ही उपन्यासों पर शोध कार्य करने पर प्राप्त हुई.

शोध शीर्षक 'डॉ. वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त सौन्दर्य का अनुशीलन' के द्वारा वृन्दावनलाल वर्मा जी के ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासों में अभिव्यक्त सौन्दर्य का अनुशीलन करने का प्रयास किया था.  

वृन्दावनलाल वर्मा जी को सादर नमन. 







 

27 मई 2022

हिन्दी साहित्यकार गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार

आज सुबह-सुबह ही खबर सुनाई दी कि हिन्दी लेखिका गीतांजलि श्री को अन्तर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार (साहित्य के क्षेत्र में सबसे प्रतिष्ठित) से सम्मानित किया गया है. गीतांजलि श्री हिन्दी की पहली लेखिका हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार उनके उपन्यास रेत समाधि के अंग्रेज़ी अनुवाद टोम्ब ऑफ़ सैंड के लिए दिया गया. इसका अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक डेज़ी रॉकवाल ने किया है. यह पहला मौक़ा है जब कोई हिन्दी कृति बुकर के लिए पहले लॉन्गलिस्टेड फिर शॉर्टलिस्टेड होकर बुकर से सम्मानित हुई हो. वास्तव में यह पल हिन्दी भाषी पाठकों, लेखकों के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं के लिए गौरवशाली है. साहित्य के क्षेत्र का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार माने जाने के कारण एक सर्वमान्य धारणा यही बनी हुई थी कि यह पुरस्कार सिर्फ विदेशी भाषाओं को ही प्रदान किया जाता है. गीतांजलि के रूप में हिन्दी कृति को यह सम्मान मिलने से यह धारणा भी दूर हुई है. संभव है कि इस पल से प्रभावित होकर हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक, साहित्यकार उत्कृष्ट लेखन की तरफ अग्रसर हों.




इस सुखद समाचार के साथ-साथ सोशल मीडिया पर बहुत सी ऐसी बातें भी सुनाई-दिखाई दीं, जिनको देखकर दुःख हुआ. हिन्दी भाषा के उपन्यास के लिए मिले इस सम्मान को बहुत से लोग पचा नहीं पा रहे हैं. ऐसे में उनके लिए बजाय गर्व करने के वे रचनाकार की, कृति की, अनुवाद की कमियाँ निकालने-बनाने में लगे हैं. यह सच हो सकता है कि बहुधा देखने में आता है कि एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की आलोचना करता है, आलोचना भी बुराई करने के स्तर तक, दोषारोपण करने की हद तक मगर आज का दिन ख़ुशी मनाने का दिन होना चाहिए था. साहित्यकार को लेकर, कृति को लेकर, उसके अनुवाद को लेकर आलोचना, समीक्षा होनी चाहिए और ऐसा आगे भी किया जा सकता है. आज इस एक पल के लिए सोचना चाहिए था कि ख़ुशी गीतांजलि के लिए न मनाई जाये, ख़ुशी उनके उपन्यास रेत समाधि के लिए न हो, उनके अनुवाद टोम्ब ऑफ सैंड के लिए भले ही प्रसन्नता व्यक्त न की जाये, भले ही अनुवादक डेज़ी रॉकवाल को इसका श्रेय न दिया जाये मगर कम से साहित्य के लिए, हिन्दी भाषा के लिए, भारतीय भाषाओं के लिए तो ख़ुशी प्रदर्शित की ही जा सकती थी.


खैर, जिसका जैसा स्वभाव, वो वैसा ही करेगा. गीतांजलि श्री को बधाई के साथ-साथ सभी हिन्दी भाषी पाठकों, साहित्यकारों, समस्त भारतीय भाषाओं के पाठकों, साहित्यकारों को भी बधाई-शुभकामना.




09 जनवरी 2022

सिर्फ ऐतिहासिक उपन्यासकार ही नहीं थे वृन्दावन लाल वर्मा जी

आज प्रसिद्द उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा जी का जन्मदिन है. उनका जन्म आज ही के दिन १८८९ उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के मऊरानीपुर को हुआ था. वृन्दावन जी को मुख्य रूप से ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में जाना जाता है. बहुत से कम लोगों को ये जानकारी है कि उन्होंने सामाजिक उपन्यास भी कम नहीं लिखे हैं. ऐसा होना निश्चित रूप से उनकी लेखकीय प्रतिभा का पूरा सम्मान नहीं है. उनको ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में स्वीकारने का मुख्य कारण उनके दो प्रमुख उपन्यास ‘गढ़ कुंडार और ‘मृगनयनी भी हैं. आम लोगों ने उनको इसी कारण से विशुद्ध ऐतिहासिक लेखक या कहें कि उपन्यासकार के रूप में जाना है.




इस पोस्ट का उद्देश्य वृन्दावन लाल वर्मा जी के बारे में यही जानकारी देनी है कि वे मात्र ऐतिहासिक लेखक नहीं हैं, न ही वे विशुद्ध उपन्यासकार हैं बल्कि उन्होंने उपन्यास के अलावा अन्य कृतियों की भी रचना की है, ऐतिहासिक कृतियों के अलावा सामाजिक कृतियाँ भी साहित्य जगत को दी हैं. जब ये उन्नीस साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(१९०८) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति ऊदल’(१९०९) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था. सन १९२० ई० तक छोटी-छोटी कहानियाँ लिखते रहे. इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि गद्य रचनायें लिखी हैं साथ ही कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं. उनकी रचनाओं को यहाँ सामान्य परिचय के रूप में यहाँ आप सबकी जानकारी के लिए दिया जा रहा है.


ऐतिहासिक उपन्यास

  • गढ़ कुंडार (1930 ई.)
  • टूटे काँटे (1945 ई.)
  • झाँसी की रानी (1946 ई.)
  • महारानी दुर्गावती
  • मुसाहिबजू (1946 ई.)
  • कचनार (1947 ई.)
  • मृगनयनी (1950 ई.)
  • माधवजी सिंधिया (1950 ई.)
  • रामगढ़ की रानी (1950 ई.)
  • भुवनविक्रम (1957 ई.)
  • ललितादित्य
  • अहिल्याबाई
  • देवगढ़ की मुस्कान


सामाजिक उपन्यास

  • प्रत्यागत (1927 ई.)
  • संगम (1928 ई.)
  • प्रेम की भेट (1928 ई.)
  • कुंडलीचक्र (1932 ई.)
  • कभी न कभी (1945 ई.)
  • अचल मेरा कोई (1948 ई.)
  • सोना (1952 ई.)
  • अमरबेल (1953 ई.)
  • सोती आग
  • डूबता शंखनाद
  • लगन
  • उदय किरण
  • अमर-ज्योति
  • कीचड़ और कमल
  • आहत


नाटक

  • धीरे-धीरे
  • राखी की लाज
  • सगुन
  • जहाँदारशाह
  • फूलों की बोली
  • बाँस की फाँस
  • काश्मीर का काँटा
  • हंसमयूर
  • रानी लक्ष्मीबाई
  • बीरबल
  • खिलौने की खोज
  • पूर्व की ओर
  • कनेर
  • पीले हाथ
  • नीलकण्ठ
  • केवट
  • ललित विक्रम
  • निस्तार
  • मंगलसूत्र
  • लो भाई पंचों लो
  • देखादेखी


कहानी संग्रह

  • दबे पाँब
  • मेढ़क का ब्याह
  • अम्बपुर के अमर वीर
  • ऐतिहासिक कहानियाँ
  • अँगूठी का दान
  • शरणागत
  • कलाकार का दण्ड
  • तोषी


निबन्ध

  • हृदय की हिलोर 

 

09 जनवरी 2021

ऐतिहासिकता को जीवंत स्वरूप प्रदान करने वाले साहित्यकार

हिन्दी उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट कहलाने वाले वृन्दावनलाल वर्मा की आज 131वीं जयंती है. आज ही 9 जनवरी सन 1889 को उनका जन्म झाँसी जिले के मऊरानीपुर में हुआ था. उनका बचपन अपने चाचा के पास ललितपुर में बीता. चाचा के साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचि के होने के कारण उनकी भी रुचि पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाओं के प्रति बचपन से ही थी. लेखन प्रवृत्ति बचपन से ही होने के कारण उन्होंने नौंवीं कक्षा में ही तीन छोटे-छोटे नाटक लिखकर इण्डियन प्रेस प्रयाग को भेजे. जहाँ से उनको पुरस्कार स्वरूप 50 रुपये भी प्राप्त हुए. प्रारम्भिक शिक्षा भिन्न-भिन्न स्थानों पर संपन्न करने के बाद उन्होंने बी.ए. और क़ानून की परीक्षा पास की. इसके बाद वे झाँसी में वकालत करने लगे.


पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों के प्रति रुचि होने के चलते और लेखन के द्वारा भारतीय इतिहास की सत्यता सबके सामने लाने की उनकी प्रतिज्ञा ने मात्र बीस साल की अल्पायु में सन 1909 में उनसे सेनापति ऊदल नाटक लिखवा लिया. इसके राष्ट्रवादी तेवरों से बौखलाकर अंग्रेज़ सरकार ने इस नाटक पर पाबंदी लगा कर इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं. बचपन में भारतीय समृद्ध इतिहास के प्रति नकारात्मक भाव देखकर वृन्दावन लाल वर्मा देश का वास्तविक इतिहास सबके सामने लाने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.  उनकी प्रतिज्ञा अपने आपसे थी, इसी कारण वे इतिहास की सत्यता सामने लाने के लिए लगातार प्रयत्नशील बने रहे. इसी के चलते उन्होंने ऐतिहासिक विषयों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया. इसके साथ-साथ ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की प्रेरणा उनको प्रसिद्द ऐतिहासिक उपन्यासकार वाल्टर स्काट से मिली. गढ़कुंडार जैसे विस्तृत उपन्यास की कथा-वस्तु के बारे में उनका स्वयं का कहना है कि एक शिकार कार्यक्रम के दौरान रात भर उस किले की छवि देखते-देखते ही उन्होंने उसकी एतिहासिकता की कथा को स्वरूप प्रदान कर दिया था. 


उनका ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की तरफ प्रवृत्त होना उस समय बहुत ही साहसिक कदम कहा जायेगा क्योंकि उस दौर में प्रेमचंद उपन्यास सम्राट के रूप में अपनी सशक्त उपस्थिति हिन्दी साहित्य में बनाये हुए थे. ऐसे दौर में इतिहास जैसे विषय पर लेखन करना और उसे जनसामान्य के बीच सहज मान्यता प्रदान करवाना सरल नहीं था. वृन्दावन लाल वर्मा जी की सरल और रोचक लेखन-शैली का ही कमाल कहा जायेगा कि उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास ने उन्हें पर्याप्त ख्याति प्रदान करवा दी. उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास गढ़कुंडार को जबरदस्त प्रसिद्धि मिली. इसके बाद तो वृन्दावन लाल वर्मा ने विराटा की पद्मिनी, कचनार, झाँसी की रानी, माधवजी सिंधिया, मुसाहिबजू, भुवन विक्रम, अहिल्याबाई, टूटे कांटे, मृगनयनी आदि सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास लिखे. उनके उपन्यासों में इतिहास जीवन्त होकर बोलता है. इसके साथ-साथ उन्होंने सामाजिक उपन्यास, नाटक, कहानियाँ भी लिखीं. उनकी आत्मकथा अपनी कहानी भी सुविख्यात है.




भारतीय ऐतिहासिकता को साहित्यिक जगत में जीवंत स्वरूप में प्रदान करने वाले साहित्यकार वृन्दावन लाल वर्मा सन 23 फ़रवरी 1969 में हमसे विदा हो गए. उनकी मृत्यु के 28 साल बाद 9 जनवरी सन 1997 को भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया.

आज उनके जन्मदिन पर उनकी पुण्य स्मृतियों को नमन...


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वंदेमातरम्



09 जनवरी 2019

इतिहास का सच दर्शाने वाले कलमकार को नमन

आज, 9 जनवरी हिन्दी उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट के रूप में प्रसिद्द वृन्दावनलाल वर्मा की का जन्मदिन है. वाल्टर स्कॉट मूलतः शिकारी साहित्य के उपन्यासकार माने गए हैं. इसके साथ-साथ उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे. उनसे प्रेरणा पाकर और अपने बचपन में भारतीय इतिहास के प्रति गलत धारणा देखकर वृन्दावन लाल वर्मा जी के मन में देश का सही साहित्य, इतिहास लिखने का संकल्प जगा. उसी के कारण उन्होंने प्रेमचंद जैसे साहित्यकार के काल में ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की दिशा में कदम बढ़ाया.


वृन्दावन लाल वर्मा जी का जन्म झाँसी जिले के मऊरानीपुर में 9 जनवरी 1889 को हुआ था. अपने चाचा के पास ललितपुर में रहकर उन्होंने साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ. जब वे कक्षा नौ में पढ़ते थे तभी इन्होंने तीन छोटे-छोटे नाटक लिखकर इण्डियन प्रेस, प्रयाग को भेजे. इन नाटकों के लिए उनको पुरस्कारस्वरूप 50 रुपये प्राप्त हुए थे. मात्र बीस वर्ष की उम्र में उन्होंने सेनापति ऊदल नाटक लिखा था. इस नाटक में निहित राष्ट्रवादी तेवरों से बौखलाकर अंग्रेज़ सरकार ने इस नाटक पर पाबंदी लगा दी थी और इसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गईं. 

उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में गढ़कुंडार, विराटा की पद्मिनी, कचनार, झाँसी की रानी, माधवजी सिंधिया, मुसाहिबजू, भुवन विक्रम , अहिल्याबाई, टूटे कांटे, मृगनयनी आदि प्रसिद्ध हैं. गढ़कुंडार उपन्यास के बहुत से अंश तो उन्होंने एक रात शिकार के दौरान उस किले को देखते-देखते ही तैयार कर लिए थे. उनके उपन्यासों में इतिहास जीवन्त होकर बोलता है. उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यासों के अलावा संगम, लगन, प्रत्यागत, अचल मेरा कोई, सोना, प्रेम की भेंट, अमरवेल सरीखे सामाजिक उपन्यास भी लिखे. इन उपन्यासों में उन्होंने समाज की वास्तविक कहानियों को आधार बनाया था. इनके द्वारा लिखित उपन्यास संगम और लगन पर हिन्दी फिल्में भी बनी हैं जो कई भाषाओं में अनुदित हुयी हैं. उनकी आत्मकथा अपनी कहानी भी सुविख्यात है.

भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया. हिन्दी साहित्य में परास्नातक उपाधि उत्तीर्ण करने के  पश्चात् पी-एच०डी० उपाधि के लिए गुरुजनों (डॉ० ब्रजेश अंकल, डॉ० दुर्गा प्रसाद खरे) द्वारा आदेशित किया गया. चूँकि बुन्देलखण्ड क्षेत्र के किसी साहित्यकार पर शोध-कार्य करने की अभिलाषा थी. अपने मन की बात जब अपने गुरुजन के समक्ष रखी तो अगले ही पल उन्होंने वृन्दावन लाल वर्मा जी के साहित्य पर कार्य करने को प्रेरित किया. इसके बाद वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त सौन्दर्य का अनुशीलन नामक शोध विषय के रूप में अपना शोध-कार्य डॉ० दुर्गा प्रसाद खरे जी के निर्देशन में आरम्भ किया. इसी शोध-कार्य के सुफल रूप में विद्या वाचस्पति (Ph.D.) उपाधि बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी से प्राप्त हुई. 

आज उनकी जयंती पर उनको सादर नमन.