03 अप्रैल 2023

मौलिकता, रोचकता के आधार पर एक अवसर देना सही है

एक खबर प्रकाशित हुई कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी लोकप्रिय साहित्य के अंतर्गत गुलशन नंदा, वेदप्रकाश, सुरेन्द्र मोहन के उपन्यास पढ़ सकेंगे. इनमें इब्ने सफी की जासूसी दुनिया, गुलशन नंदा के नीलकंठ, वेदप्रकाश शर्मा के वर्दी वाला गुंडा को स्थान दिया गया है. इस खबर के आते ही साहित्य जगत में शालीनता की खेती करने वाले बहुतेरे छुपे रुस्तमों के पेट में मरोड़ उठना शुरू हो गई. इस मरोड़ उठने का एक कारण तो ये भी है कि अभी तक हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है कि तर्ज़ पर ऐसे लेखकों ने गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे लेखकों-उपन्यासकारों की कृतियों को लुगदी साहित्य का नाम देकर चलन से बाहर कर रखा था. बावजूद इसके इन लेखकों की, इनके उपन्यासों की माँग जबरदस्त रूप से रहती है. इनके पाठकों की संख्या लाखों में है.




छटपटाहट से भरे ऐसे तमाम लेखकों ने इस निर्णय का विरोध किया. सामग्री, साहित्यकार, शालीनता आदि का वास्ता देकर इनको कूड़े का बताना शुरू कर दिया गया. संभव है कि लुगदी साहित्य कहे जाने वाले इन उपन्यासों में अश्लीलता जबरन ठूंसी जाती रही हो मगर सभी उपन्यासों में ऐसा होता है ऐसा नहीं है. इन्हीं में से बहुतेरे उपन्यास ऐसे हैं जिन पर हिन्दी फिल्म बनी हैं और बहुत लोकप्रिय भी रही हैं. जहाँ तक सामग्री की, शालीनता की बात है तो ऐसा लगता है कि इन विरोधी स्वर उचारते लेखकों ने, पाठकों ने उन लेखकों को नहीं पढ़ा है जो स्वयंभू रूप में साहित्य में सबसे ऊपर होने का दावा करते हैं मगर उनकी रचनाओं में रति-क्रिया का वर्णन किसी अश्लील साहित्य से कम नहीं. जिन विरोधी आवाजों ने मित्रो मरजानी, दिल्ली, चाक, पीली छतरी वाली लड़की आदि को पढ़ लिया होगा वे कहना भूल जाएँगे कि शालीनता क्या होती है.


रही बात लोकप्रियता के नाम की तो क्या ये आवश्यक है कि प्रत्येक कालखंड में सदियों पुराने, दशकों पुराने लेखकों को ही पढ़ते रहा जाए? क्या तकनीक के इस दौर में शालीनता पर वैसा ही पर्दा पड़ा हुआ है जैसा कि आज से कोई दो-तीन दशक पहले पड़ा हुआ था? फिल्मों, धारावाहिकों में सत्यता, वास्तविकता के नाम पर जिस तरह से अश्लीलता, गालियों का आना हुआ है वह ये बताने को पर्याप्त है कि अब किसी से कुछ भी गोपन नहीं है. विश्वविद्यालय के परास्नातक के विद्यार्थी किशोरावस्था के नहीं हैं. संभवतः उनमें सही-गलत को समझने का नजरिया होगा. आज हर हाथ में स्मार्ट फोन, इंटरनेट ने अश्लीलता को, पोर्नोग्राफी को सर्वसुलभ बना दिया है. ऐसे में इस साहित्य के द्वारा अश्लीलता का फैलना सिवाय गाल बजाने के कुछ और नहीं लगता है. कम से कम इन उपन्यासों की मौलिकता, रोचकता देखकर एक बार इनको अवसर दिया जाना उचित है. 





 

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