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15 मई 2023

कृषि-पदार्थों की विपणन व्यवस्था में हो सुधार

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है. यहाँ के जीवन और अर्थव्यवस्था में कृषि की अहम भूमिका है. देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में कृषि की सशक्त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है. देश की बहुसंख्यक आबादी कृषि पर निर्भर है. माना जाता है कि लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का सराहनीय योगदान होने के साथ-साथ विश्व में भी कृषि के कारण भारत की साख बनी हुई है. ऐसी स्थिति के बाद भी इस क्षेत्र में कतिपय समस्याएँ निरंतर विद्यमान रहती हैं. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण कृषि क्षेत्र समस्याग्रस्त भी बना रहता है.


शहरों के विकास और वहाँ तीव्रतर गति से बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप खाद्य फसलों की आवश्यकता तेजी से महसूस हुई. किसान अब वाणिज्यिक फसलों को महत्व देने लगा. कृषि के बढ़ते वाणिज्यीकरण, बाजारीकरण के कारण लगातार चली आ रही पुरानी विपणन व्यवस्था में सुधार की ओर ध्यान देना आवश्यक है. अच्छी विपणन व्यवस्था एक ओर औद्योगिक विकास के हित में है, साथ ही किसानों के लिए भी लाभप्रद है. उचित विपणन में यह आवश्यक होता है कि कोई उपभोक्ता हो, साथ ही बिक्री सम्बन्धी एक मानक व्यवस्था हो. इसमें कृषि-उपज को बिक्री हेतु एकत्र करना, उसे मण्डियों तक लाना, परिवहन की व्यवस्था करना, उनके गोदाम में रखने की व्यवस्था करना, इसके बाद ही बिक्री की कड़ी आती है.




देखने में आया है कि कृषि-पदार्थों की विपणन व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो पा रही है. विपणन व्यवस्था में कमी के साथ-साथ भारतीय कृषि की दशायें भी इस पर अपना प्रभाव डालती हैं. किसान की गरीबी और पिछड़ेपन के कारण भी विपणन की आदर्श स्थिति निर्मित नहीं हो पाती है. वर्तमान में देश में अनेक प्रकार की विपणन व्यवस्थायें कार्य कर रहीं हैं. ये व्यवस्थायें समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वतः ही निर्मित हो जातीं हैं. आज भी बड़े पैमाने पर गाँव के छोटे किसान परिवहन की समस्या, फसल का मूल्य शीघ्र ही पाने की विवशता, जीवन-निर्वाह के लिए तथा अन्य दूसरे कार्यों के लिए धन की नितांत आवश्यकता के चलते कम दामों में अपनी फसल को गाँवों में ही बेचने को विवश होता है. अनेक किसान अपनी फसल को गाँव में न बेचकर आसपास लगने वाली हाट में बेच देते हैं. इसके पीछे किसान का एक कारण उसी बाजार से अपनी जरूरत का सामान भी क्रय कर लेना होता है. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बड़े किसान जिनके पास फसल का आधिक्य होता है वे इस प्रकार से हाट में अपनी फसल नहीं बेचते हैं. यहाँ वे किसान विपणन के लिए आते हैं जिन्हें नकद धनराशि की आवश्यकता शीघ्र ही होती है. असल में यातायात की कठिनाई के कारण, मंडियों में आढ़तियों और दलालों के कपटपूर्ण व्यवहार के चलते संकोचवश एवं आशंकित होकर भी छोटे किसान बड़ी मंडियों में जाने से घबराते हैं. इस कारण वे गाँव के आसपास के छोटे शहर में बनी मंडी में अपनी फसल को बेच देते हैं. इस प्रकार की मंडियों का संचालन थोक व्यापारियों के हाथों में होता है. इस व्यवस्था में किसान कई बार घाटे का शिकार हो जाता है.

 

कृषि उत्पादों का सही मूल्य दिलवाने और किसानों का कपटपूर्ण व्यवहार से बचाने के लिए सहकारी विपणन पर जोर दिया जाता है. सहकारी विपणन समितियाँ थोड़े-थोड़े विपणन आधिक्य को एकत्र कर बेचतीं हैं. इसमें सामूहिक रूप से फसल को इकट्ठा कर मण्डी में बेचा जाता है. इससे सौदा करने की शक्ति बढ़ती है, किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्त होता है और वे अपने उत्पादन की बेहतर कीमत प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं. इससे किसानों में उत्पादन करने के प्रति भी एक उत्साह का संचार होता है. वर्तमान में हमारे देश में सहकारी विपणन व्यवस्था के साथ-साथ अन्य विपणन व्यवस्थायें भी काम कर रहीं हैं. इनके चलते कृषि विपणन व्यवस्था में कई प्रकार के दोष देखने में आते हैं. इन दोषों के कारण किसानों को एक तो उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, दूसरे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. गाँव आधारित विपणन व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष संग्रहण का होता है. फसल के संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. इस प्रकार के संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने से, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष कहा जा सकता है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इससे किसान को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं. किसानों को ऋण चुकाने के लिए, आगामी फसल के लिए माल लेने के लिए, जीविकोपार्जन के लिए धन की आवश्यकता के कारण उचित विपणन व्यवस्था प्राप्त नहीं हो पाती है. मूल्य की सही जानकारी न लगना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जायेगी.


यदि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो, सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए. इसके लिए सरकार सहकारी मंडियों को तो बढ़ावा देने के साथ-साथ श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी, दूरदर्शन और अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाई जाए. नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. 






 

03 फ़रवरी 2023

लाभदायक है मोटा अनाज

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट में मोटा अनाज के सम्बन्ध में कहा गया, ‘मोटे अनाज को लेकर श्रीअन्न योजना की शुरुआत की जाएगी. भारत में मोटा अनाज खाने की परम्परा रही है, यह इंसान को सेहतमंद रखता है. भारत यही परम्परा अब दुनिया तक पहुँचाना चाहता है. मोटे अनाज को श्रीअन्न नाम दिया गया है.’ श्रीअन्न योजना के अंतर्गत भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद को एक उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में विकसित किया जाएगा, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के मोटे अनाज को स्थापित करेगा. ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, चीना, कोदो, कुटकी और कुट्टू मोटे अनाज की आठ फसलें हैं. प्रधानमंत्री द्वारा देश की हर थाली में इसकी उपस्थिति के लिए वर्ष 2018 में खास अभियान चलाया गया. इसे लेकर भारत की तरफ से संयुक्त राष्ट्र संघ में एक प्रस्ताव रखा गया. इस प्रस्ताव पर 72 देशों के समर्थन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित किया. संयुक्त राष्ट्र संघ और भारत की इस भागेदारी का उद्देश्य मोटे अनाज को पुनः मुख्यधारा में लाना है.


पिछले वर्ष दिसम्बर माह में इटली की राजधानी रोम में अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023 के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विशेष सन्देश भेजा, ‘भारत मोटे अनाज की खेती को प्रोत्साहित करेगा. देश में पोषक तत्वों से भरपूर ऐसे अनाजों के सेवन के लिए लोगों में जागरूकता लाने के लिए खास अभियान भी चलाया जाएगा.’ उनके भेजे गए सन्देश को अमल में भी लाया गया. उसी माह संसद परिसर में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने दोपहर का भोज आयोजित किया. इसमें देश के उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसदों और अन्य नेताओं ने मोटे अनाज का स्वाद लिया. सरकार की पहल पर ही संसद की कैंटीन में मोटे अनाज से बने व्यंजनों की शुरुआत हुई. यहाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों के प्रसिद्ध मोटे अनाज से बने व्यंजन को खाने की सूची में शामिल किया गया है. इतना ही नहीं, इस साल भारत में आयोजित होने वाले जी-20 कार्यक्रम में मोटे अनाज से बने पकवानों को विदेशी मेहमानों और वैश्विक नेताओं के सामने पेश किया जाएगा.




मोटा अनाज को पोषक तत्वों का भंडार माना जाता है. बीटा-कैरोटीन, नाइयासिन, विटामिन-बी6, फोलिक एसिड, पोटेशियम, मैग्नीशियम, जस्ता आदि से भरपूर इन अनाजों को सुपरफूड भी कहा जाता है. गेहूं और धान की फसलों के मुकाबले इसमें सॉल्युबल फाइबर, कैल्शियम और आयरन की मात्रा अधिक होती है. इसके सेवन से अनेक तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है. आज बहुसंख्यक इंसान संक्रामक बीमारियों की चपेट में है. इस कारण लोगों का ध्यान संतुलित और पोषक आहार की तरफ जाने लगा है. इस मामले में मोटे अनाज का कोई मुकाबला नहीं है. इससे शरीर को उचित पोषण मिलता है जो आमतौर पर अन्य अनाजों से नहीं मिल पाता. आसानी से पचने वाले जौ यानि ओट्स में अत्यधिक मात्रा में फाइबर होता है. इसके द्वारा ब्लड कोलेस्ट्रोल काबू में रहता है.


स्वास्थ्य सम्बन्धी इन कारणों के साथ-साथ मोटा अनाज के व्यापारिक लाभ भी हैं. भारत दुनिया के उन सबसे बड़े देशों में शामिल है जहाँ सबसे ज्यादा मोटा अनाज पैदा होता है. दुनियाभर में पैदा होने वाले मोटे अनाज में भारत का हिस्सा 41 प्रतिशत तक है. खाद्य एवं कृषि संगठन जो एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, के अनुसार वर्ष 2020 में मोटे अनाजों का विश्व उत्पादन 30.464 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) हुआ. अकेले भारत में 12.49 एमएमटी मोटे अनाज का उत्पादन हुआ. भारत दुनिया के कई देशों को मोटे अनाज का निर्यात करता है. इसमें यूएई, नेपाल, सऊदी अरब, लीबिया, ओमान, मिस्र, ट्यूनीशिया, यमन, ब्रिटेन तथा अमेरिका शामिल हैं. निश्चित ही देश में मोटा अनाज उत्पादन में वृद्धि से अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत को लाभ मिलेगा.


इसके साथ ही मोटा अनाज को प्रोत्साहित करके भारत जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने का रास्ता भी दिखा रहा है. मोटे अनाज को पैदा करने के कई लाभ हैं. ये न्यूनतम उर्वरक के उपयोग के साथ पैदा होने वाली फसल है. कीटनाशकों का इस्तेमाल न किये जाने के कारण ये हानिकारक भी नहीं होते. मोटे अनाज के उत्पादन से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है, जो पर्यावरण के अनुकूल है. आज जिस तरह से संक्रामक रोग बढ़ रहे हैं, लोगों के जीवन में खानपान का ढंग बदलता जा रहा है, जलवायु परिवर्तन का संकट दिनों-दिन बढ़ रहा है, ऐसे में समय है मोटे अनाज के उपयोग को बढ़ावा देने का. इसके लिए इसके पोषण के गुणों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जाए ताकि लोगों की खाने-पीने की पसंद में बदलाव हो सके.

 






 

29 दिसंबर 2020

नकारात्मक है कृषि सुधार कानून विरोधी आन्दोलन

इस समय देश की राजधानी और देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति किसान आन्दोलन की चपेट में है. सामान्य नागरिकों को देश के किसानों और जवानों के सन्दर्भ में किसी तरह का तर्क-वितर्क सुनना पसंद नहीं आता है, इसी कारण से बहुतेरे नागरिक बिना कुछ और विचार किये अपना समर्थन वर्तमान में चल रहे किसान आन्दोलन को देने लगे. किसानों का यह आन्दोलन केंद्र सरकार द्वारा पारित किये गए तीन बिलों, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन बिल आवश्यक वस्तु अधिनियम के विरोध में हो रहा है.


किसी भी सामान्य नागरिक, जिसे राजनीति से कहीं भी खड़े होकर चर्चा कर लेने भर का सम्बन्ध होता है, को इससे कोई सरोकार नहीं होता है कि किसी भी सरकार द्वारा किसी बिल को, किसी भी संशोधन को अकारण अथवा बिना किसी नियम-कानून के नहीं कर दिया जाता है. यदि उक्त किसान सम्बन्धी कानूनों की ही बात की जाये तो यह अकेले किसी एक-दो व्यक्तियों की सोच नहीं, एक-दो मंत्रियों का कार्य नहीं. किसी भी ऐसे कानून को अथवा ऐसे बदलाव को, जिसका असर पूरे देश पर पड़ने वाला होता है उसे एक व्यापक सोच के साथ पूरे नियम-विधान के बाद ही पारित किया जाता है.


यहाँ यदि एक पल को कानूनों का संक्षिप्त रूप देखें तो स्पष्ट समझ आता है कि कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 के अनुसार किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते हैं. इसमें वे बिना किसी समस्या के दूसरे राज्यों में भी फसल बेच और खरीद सकते हैं अर्थात एपीएमसी (APMC) के दायरे से बाहर भी फसलों की खरीद-बिक्री संभव है. इसमें एक लाभ यह है कि की बिक्री पर कोई टैक्स नहीं लगेगा और इसके साथ ही ऑनलाइन बिक्री की भी अनुमति होगी. संभव है कि इस कदम के बाद किसानों को अच्छे दाम मिलने लगें.


इस बिल के साथ पारित मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 के द्वारा देशभर में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग करने सम्बन्धी व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है. इसके अनुसार यदि फसल खराब होती है तो नुकसान की भरपाई अनुबंध करने वाले पक्ष को करनी होगी. ऐसा माना जा रहा है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी और बिचौलिया राज खत्म होगा. तीसरे कानून के रूप में आवश्यक वस्तु संशोधन बिल आवश्‍यक वस्‍तु अधिनियम में संशोधन किया गया है. यह कानून सन 1955 में बनाया गया था. इसमें संशोधन करते हुए अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्‍पादों पर से स्टॉक लिमिट (भण्डारण सीमा) हटा दी गई है. राष्‍ट्रीय आपदा, सूखा जैसी अपरिहार्य स्थितियाँ होने की दशा में भण्डारण सीमा निर्धारित की जाएगी.


इन कानूनों को लेकर जिस तरह से विपक्षी दलों द्वारा उकसाने की राजनीति की जा रही है, वह चिंतनीय है. जो लोग वर्तमान कृषि स्वरूप से, बिक्री और भण्डारण की स्थिति से परिचित हैं वे भली-भांति समझ सकते हैं कि इन कानूनों के आने से किसान को हानि कम है जबकि लाभ ज्यादा है. आज भी मंडियों में छोटे और मंझोले किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य मिल ही नहीं पाता है. छोटी जोतों वाले किसान तो मंडियों का मुँह भी नहीं देख पाते हैं. उनकी फसल का मूल्य तो गाँव के महाजन अथवा बड़े किसान द्वारा निर्धारित करके चुका दिया जाता है.


वर्तमान आन्दोलन की आड़ में सक्रिय राजनैतिक दल जनता की कमजोर नब्ज पकड़ कर अपना हित ही साधने का प्रयास कर रहे हैं मगर यह समझना नहीं चाहते कि इसका समाज पर, देश पर क्या असर पड़ने वाला है. यह विचारणीय है कि वर्तमान दौर औद्योगीकरण, वैश्वीकरण का होने के बाद भी कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. एक अनुमान के अनुसार माना जाता है कि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. इसके बाद भी देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है.


विगत कई दशकों में देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए हैं किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया था. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.


देश के लगभग हर राज्य में किसान अपनी समस्याओं से पीडि़त हैं और सरकारी तन्त्र द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान की बात तो की जाती है किन्तु किसी प्रकार का समाधान उनके द्वारा होता दिखता नहीं है. अब जबकि कृषि सुधार कानूनों के द्वारा सरकार कुछ सकारात्मकता दिखाने का प्रयास कर रही है तो राजनैतिक दलों द्वारा अनावश्यक रूप से किसानों को उकसाया जा रहा है. यहाँ राजनैतिक दलों को वर्तमान संशोधित कानूनों के परिणामों को देखने का इंतजार करना चाहिए था. यदि वे वाकई किसानों के हितैषी हैं तो कम से कम एक वर्ष में इन सुधारों को अमली रूप में आते देखते. वर्तमान हालातों में आन्दोलन कर देने से, सड़कें जाम कर देने से, राजधानी को बंधक बना लेने से किसानों की समस्याओं का हल नहीं निकलने वाला है. दवाब की राजनीति के द्वारा सरकार को कानून वापस लेने के लिए बाध्य करना भविष्य के लिए कितना घातक होगा, इसे अभी महसूस नहीं किया जा रहा है. किसी भी लोकतान्त्रिक संस्था द्वारा लम्बे विमर्श के बाद बनाये और दोनों सदनों में बहस के पश्चात् पारित कानूनों को वापस लेने के लिए आन्दोलन करना आत्मघाती कदम है. यह भविष्य के लिए नकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करेगा.




(उक्त आलेख 29-12-2020 के समाचार-पत्र बीपीएन टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.)
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वंदेमातरम्

02 दिसंबर 2020

कुतर्क भरे समाज की भटकती दिशा

समझ नहीं आता है कि जैसे-जैसे हम लोग साक्षर होते जा रहे हैं, पढ़ते-लिखते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही क्यों दिमागी रूप से कुंद होते जा रहे हैं? इधर बहुत सोच-विचार कर इस बारे में लिखने का मन बनाया. कुछ दिनों से देश की राजधानी पर किसान आन्दोलन का संकट दिख रहा है. इस आन्दोलन के बहाने से जिस तरह से खालिस्तान समर्थन के, पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लग रहे थे, वे ज्यादा चिंताजनक लगे. कृषि से सम्बंधित कानूनों पर किसानों की आपत्ति है या नहीं इसे बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है मगर बहुत से राजनैतिक दलों में आपत्ति देखने को मिली. केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आये दिन देश के किसी न किसी हिस्से से राजनैतिक दलों के विरोधी स्वर सुनाई देने लगते हैं. ऐसा उस समय और भी तेजी से होता है जबकि कहीं से चुनावी आहट सुनने को मिलती है. बहरहाल, अभी दिल्ली में जमे किसानों और उससे जुड़े कुछ बिन्दुओं पर.


कृषि से सम्बंधित कानूनों के विरोध में दिल्ली में मुख्य रूप से पंजाब का किसान एकत्रित हुआ है. इधर आन्दोलन शुरू होने के समय बहुत से लोगों ने जैसी कि आशंका व्यक्त की थी, कुछ वैसा देखने को भी मिला. आन्दोलन में किसानों की शक्ल में कुछ खालिस्तान समर्थक और कुछ पाकिस्तान समर्थक भी दिखाई देने लगे. इस बारे में सोशल मीडिया पर कई वीडियो भी दिखाई दिए. इनके साथ-साथ किसान रूप में जमा आन्दोलनकारियों द्वारा सड़क से गुजरने वाले कुछ लोगों से अभद्रता करते भी दिखाया गया है. जब इस बारे में सोशल मीडिया में अपने विचार व्यक्त किये तो बहुत से लोगों ने किसानी से, खेती से जुड़ा न होना बताते हुए इस मुद्दे से हमें जैसे बाहर ही कर दिया. इधर बहुत से ऐसे लोग अपनी राय देते दिख रहे हैं जिनका न इन कानूनों से मतलब है और न ही उनको इसका भान है कि कानूनों में परिवर्तन के बाद और पहले की स्थिति में मूल अंतर क्या आया है? इधर कुछ समय से एक लीक सी बन गई है कि जैसे ही सामने वाला आपके तर्कों से हारने लगता है, उसके पास आपके सवालों का जवाब नहीं रहता है तो सीधे-सीधे आपको सम्बंधित क्षेत्र से जुड़ा हुआ न बताकर आपको ख़ारिज करने का काम करने लगता है.


इधर इस किसान आन्दोलन पर टिप्पणी करने पर कुछ ऐसा ही हमारे साथ हुआ. जो लोग अनर्गल तरीके से लिखने में लगे थे, उनसे इन कानूनों के लाभ-हानि पूछ लिए, उनके द्वारा इन संसोधनों का पढ़ा हुआ होना पूछ लिया, बस बात यहीं बिगड़ गई. हमें किसानी, किसान, खेती आदि के बारे में बताया जाने लगा. इन सब क्षेत्रों में हमारा अनुभव जाना जाने लगा. ये सत्य है कि जमीनी रूप से हम कृषि कार्यों से बहुत दूर हैं. हमने कभी खेतों में काम नहीं किया, कभी हल नहीं चलाया, कभी पानी नहीं लगाया, कभी रात में खेतों की रखवाली नहीं की. ये सब न करने का ये मतलब नहीं कि हमें किसानों के दर्द का भान नहीं. इसका ये अर्थ नहीं कि हमें जानकारी नहीं कि खेती कैसे होती है.


ऐसे लोगों की जानकारी के लिए इतना ही काफी है कि जमींदार परिवार से होने के बाद भी आज भी हमारे भाई खेती-किसानी का काम स्वयं करते हैं. खेतों में उनके द्वारा किसी सामान्य किसान की तरह पसीना बहाया जाता है. यह काम अकेले हमारे पैतृक गाँव में ही नहीं होता बल्कि हमारे ननिहाल में भी होता है. इसके साथ-साथ हमारे कई अभिन्न मित्र खेती के कार्य में संलग्न हैं. इन सबके द्वारा हमें खेती के, किसानों के अनुभवों से सहजता से परिचय मिल जाता है. और जहाँ तक बात कानूनों को, स्थितियों को, परिस्थितियों को, नियमों को समझने की है तो हमने स्वयं कृषि से सम्बंधित शोध-कार्य के पश्चात् पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है. इस उपाधि को प्राप्त करने में हमने सिर्फ टेबल वर्क ही नहीं किया है बल्कि किसानों से मिलकर, खेती की, कृषि की स्थिति को देखकर अपना कार्य पूरा किया है.


इधर ऐसा लग रहा है जैसे कि अब मुद्दा विषय का, विषय से सम्बंधित अध्ययन का रह ही नहीं गया है. अब बात विचारधाराओं की होने लगती है. जो जिसके पक्ष का है, उसी के पक्ष की बात को सुनना, कहना पसंद करता है, शेष लोग उसके लिए बेकार हो जाते हैं. पता नहीं ऐसी एकतरफा स्थिति समाज को किस दिशा में ले जा रही है, किस अंत पर ले जाकर खड़ा कर देगी?


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वंदेमातरम्

02 जनवरी 2019

समाधान के इंतजार में कृषि

राजनैतिक दल जनता की कमजोर नब्ज पकड़ कर सत्ता तो प्राप्त कर लेते हैं मगर यह समझना नहीं चाहते कि इसका समाज पर, देश पर क्या असर पड़ने वाला है. अभी हाल के संपन्न विधानसभा चुनाव में किसानों की कर्जमाफी के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेना एक अलग बात है किन्तु इसके द्वारा प्रदेश के खजाने पर पड़ने वाले बोझ का आकलन करना किसी ने गंवारा न समझा. इससे पहले उत्तर प्रदेश में भी सत्तासीन होते ही ऐसा कदम उठाया गया था. यदि ये राजनैतिक दल समझते हों कि इस तरह के कदमों से किसानों का अथवा प्रदेश का भला होने वाला है तो यह उनकी भूल है. यहाँ समझना होगा कि ऐसे कदम मुफ्तखोरी को बढ़ावा देते हैं जो देश के आर्थिक हित में कतई नहीं है. इससे उन किसानों में भी नकारात्मकता बढ़ती है जो नियमित रूप से पूरी ईमानदारी से अपना कर्ज अदा करते रहे हैं. राजनैतिक दलों को समझना चाहिए कि किसानों से अथवा कृषि से सम्बंधित समस्या का समाधान कर्जमाफी कतई नहीं है. असल में देश के किसी भी हिस्से के किसानों की अपनी ही अलग समस्या है, जिस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है.


यह आज भी विचारणीय है कि वर्तमान दौर औद्योगीकरण, वैश्वीकरण का होने के बाद भी कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. अनेकानेक व्यवसाय, विभिन्न तरह के कारोबार विकसित होने, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. कृषि का देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में योगदान है. एक अनुमान के अनुसार माना जाता है कि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. वैश्विक स्तर पर भी भारतीय कृषि की अपनी ही साख है. चाय, चावल, मूँगफली तथा तम्बाकू ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके चलते वैश्विक स्तर पर भारत का पहले तीन देशों में कोई न कोई स्थान बना रहता है. ऐसी स्थिति होने के बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. देखा जाये तो ऐसी समस्या देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों के चलते है. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है. कृषि की, कृषकों की दशा सुधारने को सतत प्रयास किये जा रहे हैं मगर सटीक बिंदु पर चोट नहीं की जा रही है.

विगत कई दशकों में देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए हैं किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.

देश के लगभग हर राज्य में किसान अपनी समस्याओं से पीडि़त हैं और सरकारी तन्त्र द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान की बात तो की जाती है किन्तु किसी प्रकार का समाधान उनके द्वारा होता दिखता नहीं है. कृषि कार्य में अनियमितता, बैंक ऋण की समस्या, बाजार से फसल का सही मूल्य न प्राप्त होना, मजदूरी आदि के अवसरों का लगातार कम होते जाने की अनेकानेक समस्याओं के साथ-साथ सरकार की ओर से किसी तरह की राहत न मिलने, कृषि हेतु पर्याप्त अनुदान न मिलने, बैंक ऋण में रियायत न होने आदि के कारण भी किसान लगातार गरीबी, बदहाली, भुखमरी की मार सह रहे हैं. इन समस्याओं के निस्तारण न होने से, कोई रास्ता न दिखाई देने से वे आत्महत्या जैसा अमानवीय एवं कठोर कदम उठा रहे हैं. इसके बाद भी न तो सरकार का ध्यान किसानों की ओर जा रहा है और न ही किसी राजनैतिक दल ने हताश-निराश किसानों की सहायता के लिए अपने कदम बढ़ाये हैं. 

विद्रूपता ये है कि सरकारें मुआवजे के नाम पर खिलवाड़ करने लगती हैं. सत्ता की खातिर कर्जमाफी जैसा लालच दिखाती हैं. इसके अलावा राज्य सरकारों का अपना-अपना रोना है और आरोपों का ठीकरा केंद्र पर फोड़ दिया जाता है. इस तरह के कदमों से किसानों का भला नहीं होने वाला है. यहाँ विचारणीय है कि यदि इन किसानों की जगह कोई औद्योगिक आपदा आ गई होती तो सरकारों ने न जाने कौन-कौन से राहतकोष खोल दिए होते. आज भले ही कृषि में उद्योगों की तरह मुनाफा नहीं है किन्तु ये बात सबको याद रखनी होगी कि कृषि देशभर को खाद्यसामग्री उपलब्ध करवाती है, उसे उद्योग अथवा मुनाफाखोरी करने का साधन माना भी नहीं जाना चाहिए. इसके बाद भी सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वो किसानों को उद्योगपति समझते हुए, कृषि को उद्योग मानते हुए इस बारे में सजगता से काम करे. ऐसा न होने की दशा में ये किसानों के भविष्य के लिए, उनके परिवार के लिए, उनके जीवन के लिए सही नहीं होगा. वर्तमान हालातों में इन बातों पर चर्चा कर लेने से किसानों की समस्याओं का हल नहीं निकलने वाला है. सरकारों को, चाहे वो केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, मिलजुलकर किसानों के हितार्थ योजनों को महज बनाने की नहीं वरन उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू करने की जरूरत है. कर्जमाफी तात्कालिक समाधान तो हो सकता है, दीर्घकालिक नहीं. ऐसे में हम सबको भी नियंत्रित, निष्पक्ष भाव से एक नागरिक समझकर ही किसानों की मदद को आगे आयें. जिस तरह का राजनैतिक परिदृश्य वर्तमान में दिख रहा है उससे नहीं लगता है कि कोई भी सरकार निष्पक्ष रूप से किसानों की सहायता के लिए मुक्त-हस्त से आगे आएगी. इन सबका असर कहीं न कहीं किसानों को  मिलने वाली मदद, मुआवजे पर ही पड़ेगा. कुछ समय राजनीति न करते हुए किसानों के हितार्थ एकजुट हो लिया जाये; सरकार को जगाने के लिए खड़ा हो लिया जाये.


(उक्त आलेख दैनिक जागरण दिनांक 02-01-2019 के राष्ट्रीय संस्करण में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है)

27 अगस्त 2018

शौर्य-पराक्रम-बलिदान की प्रतीक है कजली


भुन्जरियों का पावन पर्व कजली बुन्देलखण्ड क्षेत्र में आज भी पूरे उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. बुन्देलखण्ड क्षेत्र, जो विन्ध्य पर्वत श्रेणियों में बसा है, सुरम्य सरोवरों से रचा है, नैसर्गिक सुन्दरता से निखरा है वह सदैव ही अपनी संस्कृति, लोक-तत्त्व, शौर्य, आन-बान-शान के लिए प्रसिद्द रहा है. शौर्य-त्याग-समर्पण-वीरता को यहाँ सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में माना-जाना जाता है. इसके प्रतीक पर्व कजली का आज भी विशेष महत्त्व है. कजली मेला बुन्देलखण्ड क्षेत्र के दो परम वीर भाइयों आल्हा और ऊदल के शौर्य-पराक्रम के साथ-साथ अन्य बुन्देली रण-बाँकुरों की विजय-स्मृतियों को अपने आप में संजोये हुए है. इस मेले का आयोजन विगत आठ सौ से अधिक वर्षों से निरंतर होता आ रहा है. बुन्देलखण्ड में कजली को खेती-किसानी से सम्बद्ध करके भी देखा जाता है. गरमी की लू-लपट से सबकुछ झुलसा देने वाली आग में गर्म-तप्त खेतों को जब सावन की फुहारों से ठंडक मिलती है तो यहाँ का किसान खुद को खेती के लिए तैयार करने लगता है. कजली उत्सव का शुभारम्भ सावन महीने की नौवीं तिथि से ही शुरू हो जाता है. घर की महिलाएँ खेतों से मिट्टी लाकर उसे छौले के दोने (पत्तों का बना पात्र) में भरकर उसमें गेंहू, जौ आदि को बो देती हैं. नित्य उसमें पानी-दूध को चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है, इसके पीछे उन्नत कृषि, उन्नत उपज होने की कामना छिपी रहती है. सावन की पूर्णिमा को इन पात्रों (दोने) में बोये गए बीजों के नन्हें अंकुरण (कजली) को निकालकर इनको तालाब में विसर्जित किया जाता है. इसके बाद इन्हीं कजलियों को आपस में आदरपूर्वक आदान-प्रदान करते हुए एक दूसरे को शुभकामनायें दी जाती हैं तथा उन्नत उपज की कामना भी की जाती है. ये परम्परा आज भी चली आ रही है, बस इसमें शौर्य-गाथा के जुड़ जाने से आज इसका विशेष महत्त्व हो गया है.


ऐतिहासिकता के आधार पर ऐसा कहा जाता है बुन्देलखण्ड के महोबा राज्य पर पृथ्वीराज चौहान की नजर बहुत पहले से लगी हुई थी. महोबा राज्य के विरुद्ध साजिश रचकर कुछ साजिशकर्ताओं ने वहां के अद्भुत वीर भाइयों, आल्हा-ऊदल को महोबा राज्य से निकलवा दिया था. पृथ्वीराज चौहान को भली-भांति ज्ञात था कि महोबा के पराक्रमी आल्हा और ऊदल की कमी में महोबा को जीतना जीतना आसान होगा. महोबा के राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि अपनी हजारों सहेलियों और महोबा की अन्य दूसरी महिलाओं के साथ प्रतिवर्ष कीरत सागर तालाब में कजलियों का विसर्जन करने जाया करती थी. सन 1182 में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी के अपहरण की योजना बनाई और तय किया गया कि कजलियों के विसर्जन के समय ही आक्रमण करके राजकुमारी का अपहरण कर लिया जाये. अपनी विजय को सुनिश्चित करने और राजकुमारी के अपहरण के लिए उसके सेनापति चामुंडा राय और पृथ्वीराज चौहान के पुत्र सूरज सिंह ने महोबा को घेर लिया. जिस समय ये घेरेबंदी हुई उस समय आल्हा-ऊदल कन्नौज में थे.


महोबा राजा सहित सबको इसका एहसास था कि बिना आल्हा-ऊदल पृथ्वीराज चौहान की सेना को हरा पाना मुश्किल होगा. राजा परमाल खुद ही आल्हा-ऊदल को राज्य छोड़ने का आदेश दे चुके थे, ऐसे में उनके लिए कुछ कहने-सुनने की स्थिति थी ही नहीं. ऐसे विषम समय में महोबा की रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल को महोबा की रक्षा करने के लिए तुरंत वापस आने का सन्देश भिजवाया. सूचना मिलते ही आल्हा-ऊदल अपने चचेरे भाई मलखान के साथ महोबा पहुँच गए. परमाल के पुत्र रंजीत के नेतृत्व में पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया गया. इस युद्ध की सूचना मिलते ही राजकुमारी चंद्रावलि का ममेरा भाई अभई (रानी मल्हना के भाई माहिल का पुत्र) उरई से अपने बहादुर साथियों के साथ महोबा पहुँच गया. लगभग 24 घंटे चले इस भीषण युद्ध में आल्हा-ऊदल के अद्भुत पराक्रम, वीर अभई के शौर्य के चलते पृथ्वीराज चौहान की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा. सेना रणभूमि से भाग गई. इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान का पुत्र सूरज सिंह भी मारा गया. इसके अलावा राजा परमाल का पुत्र रंजीत सिंह और वीर अभई भी वीरगति को प्राप्त हुए. ऐसी किंवदंती है कि वीर अभई सिर कटने के बाद भी कई घंटों युद्ध लड़ता रहा था. कहा जाता है कि इसी युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने ऊदल की हत्या छलपूर्वक कर दी थी. जिसके बाद आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को मारने की शपथ ली किन्तु बाद में अपने गुरु की आज्ञा मानकर संन्यास ग्रहण कर जंगल में तपस्या के लिए चले गए थे.

ऐतिहासिक विजय को प्राप्त करने के बाद राजकुमारी चंद्रावलि और उसकी सहेलियों के साथ-साथ राजा परमाल की पत्नी रानी मल्हना ने, महोबा की अन्य महिलाओं ने भी भुजरियों (कजली) का विसर्जन किया. इसी के बाद पूरे महोबा में रक्षाबंधन का पर्व धूमधाम से मनाया गया. तब से ऐसी परम्परा चली आ रही है कि बुन्देलखण्ड में रक्षाबंधन का पर्व भुजरियों का विसर्जन करने के बाद ही मनाया जाता है. वीर बुंदेलों के शौर्य को याद रखने के लिए ही कहीं-कहीं सात दिनों तक कजली का मेला आयोजित किया जाता है. यहाँ के लोग आल्हा-ऊदल के शौर्य-पराक्रम को नमन करते हुए बुन्देलखण्ड के वीर रण-बाँकुरों को याद करते हैं.


16 अप्रैल 2018

विपणन व्यवस्था सुधारे बिना कृषि विकास संभव नहीं


किसी भी सरकार द्वारा अब कृषि के बजाय औद्योगीकरण की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है. कारोबारियों को तमाम तरह के लाभ देने के साथ-साथ व्यवसाय से सम्बंधित अनेक कार्यक्रम भी समय-समय पर सरकारी स्तर पर किये जाते हैं. इसके बाद भी अनेक तरह के व्यवसाय के बीच, विभिन्न तरह के कारोबार विकसित होने के बाद भी, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि को नकारा नहीं जा सकता है. आज मानसून की अनियमितता के चलते अथवा मौसम के लगातार बनते-बिगड़ते स्वभाव के बाद भी भले ही कृषि का चक्र अनियमित दिखता हो किन्तु इसके बाद भी देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में इसकी सशक्त भूमिका है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. कृषि का सराहनीय योगदान न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था में बना हुआ है वरन सम्पूर्ण विश्व में भी भारतीय कृषि की अपनी ही साख बनी हुई है. चाय, चावल, मूँगफली तथा तम्बाकू ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके उत्पादन के चलते वैश्विक स्तर पर भारत का पहले तीन देशों में कोई न कोई स्थान बना रहता है. इसके बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. देखा जाये तो ऐसी समस्या देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों के चलते है. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है. इन समस्याओं के अतिरिक्त कृषि पदार्थों के विपणन की व्यवस्था मुख्य रूप से कृषि को पिछड़ा बना रही है. देश का बहुसंख्यक किसान कृषि फसल के उचित विपणन न होने के कारण कृषि कार्य में उन्मुक्त रूप से संलिप्त नहीं हो पाता है. 


हमारे देश में कृषि विपणन व्यवस्था में वर्तमान में कई प्रकार के दोष देखने को मिलते हैं. इन दोषों के कारण किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, इससे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. विपणन व्यवस्था में ऐसे दोष के रूप में संग्रहण को देखा जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज उन्नत तकनीक के बाद भी फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. नष्ट हो जाती फसल, जानवरों द्वारा ख़राब कर दी गई फसल के कारण किसान फसलों के संग्रहण को लेकर सदैव चिंतित रहता है और इसी से बचने के लिए वह काफी कम दामों में अपनी फसल का विक्रय कर देता है. संग्रहण के साथ-साथ परिवहन साधनों की अनुपलब्धता अथवा उनका संपन्न न होना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जा सकती है. ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते हैं. फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं. ऐसी कमियों के चलते ग्रामीण इलाकों में मध्यस्थों की, दलालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इससे किसान को कभी-कभी अपनी उपज का लगभग 50 प्रतिशत तक ही दाम मिल पाता है. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं.

दरअसल हमारे देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये गए, उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.


इस तरह की विषम परिस्थितयों के बीच किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल के सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो. सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे. इसके साथ-साथ सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. इस तरह के कुछ उपायों को सकारात्मक रूप से लागू करके सरकारों द्वारा कृषि फसल को बचाया जा सकता है, कृषि उत्पाद का उचित मूल्य कृषकों को प्रदान करवाया जा सकता है, कृषकों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.



15 जून 2016

विपणन व्यवस्था सुधारे बिना कृषि-विकास नहीं

मानसून के रुष्ट रहने के बाद मौसम विभाग आशा बंधा रहा है कि अबकी बारिश बहुत अच्छी होगी. किसानों को इस बार मानसून से किसी तरह की शिकायत नहीं होगी. हाल-फ़िलहाल विगत दो-चार दिनों से बादलों के रंग-ढंग देखते हुए ऐसी अपेक्षा की जा सकती है. इस अपेक्षा के साथ ही एक तरह का भय भी बना रहता है कि कहीं आशा से अधिक बारिश हो जाये और सूखे की स्थिति के ठीक उलट बाढ़ की, अतिवृष्टि की स्थिति न पैदा हो जाये. बहरहाल, ये स्थितियां मानसून पर निर्भर करती हैं. सूखे की, बाढ़ की, अतिवृष्टि की स्थिति को पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर माना जाता है. इनके अनियमित होने का सीधा असर किसान पर पड़ता है, कृषि पर पड़ता है. ऐसा नहीं है कि बाकी किसी अन्य रोजगार या फिर किसी अन्य व्यवस्था पर सूखे का या बाढ़ का प्रभाव नहीं पड़ता मगर जिस तरह से कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था से सीधे-सीधे सम्बद्ध है, उससे सीधा और स्पष्ट प्रभाव इसी क्षेत्र पर पड़ता है.

वर्तमान में औद्योगीकरण, वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीय कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. अनेक तरह के व्यवसाय होने के बाद भी, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में इसकी सशक्त भूमिका है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. इसके बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. कृषि कार्य के अनेक कारकों के अलावा मूल रूप से कृषि विपणन व्यवस्था का सही न होना भी किसानों की स्थिति को कमजोर बनाता है. सरकारी स्तर पर भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है. हाल ही में बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बुन्देलखण्ड पैकेज के करोड़ों रुपयों को मंडी स्थल बनाने में फिजूलखर्च कर दिया गया. ग्रामीण अंचलों से दूर बनाई गई नवीन मंडी स्थल तक पहुँचने के साधनों को विकसित नहीं किया गया. गाँव के साहूकार, महाजन, बड़े किसानों के चंगुल को कमजोर नहीं किया गया, ऐसे में छोटे और मंझोले किसान इन्हीं के चंगुल में फँसकर अपनी फसल को कम कीमत में बेचने को मजबूर होते हैं.

विपणन व्यवस्था में कई प्रकार के दोष होने के कारण किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, इससे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. विपणन व्यवस्था में ऐसे दोष के रूप में संग्रहण को देखा जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज उन्नत तकनीक के बाद भी फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. नष्ट हो जाती फसल, जानवरों द्वारा ख़राब कर दी गई फसल के कारण किसान फसलों के संग्रहण को लेकर सदैव चिंतित रहता है और इसी से बचने के लिए वह काफी कम दामों में अपनी फसल का विक्रय कर देता है.

संग्रहण के साथ-साथ परिवहन साधनों की अनुपलब्धता अथवा उनका संपन्न न होना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जा सकती है. ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते हैं. फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं. ऐसी कमियों के चलते ग्रामीण इलाकों में मध्यस्थों की, दलालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं.

दरअसल हमारे देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये गए किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.


आवश्यकता इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो. सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे. इसके साथ-साथ सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. इस तरह के कुछ उपायों को सकारात्मक रूप से लागू करके सरकारों द्वारा कृषि फसल को बचाया जा सकता है, कृषि उत्पाद का उचित मूल्य कृषकों को प्रदान करवाया जा सकता है, कृषकों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.

29 फ़रवरी 2016

किसानों को बचाने को भी उपाय किये जाएँ

औद्योगीकरण, वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीय कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. अनेक तरह के व्यवसाय होने के बाद भी, विभिन्न तरह के कारोबार विकसित होने के बाद भी, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. आज मानसून की अनियमितता के चलते अथवा मौसम के लगातार बनते-बिगड़ते स्वभाव के बाद भी भले ही कृषि का चक्र अनियमित दिखता हो किन्तु इसके बाद भी देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में इसकी सशक्त भूमिका है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. कृषि का सराहनीय योगदान न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था में बना हुआ है वरन सम्पूर्ण विश्व में भी भारतीय कृषि की अपनी ही साख बनी हुई है. चाय, चावल, मूँगफली तथा तम्बाकू ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके उत्पादन के चलते वैश्विक स्तर पर भारत का पहले तीन देशों में कोई न कोई स्थान बना रहता है. इसके बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. देखा जाये तो ऐसी समस्या देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों के चलते है. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है. इन समस्याओं के अतिरिक्त कृषि पदार्थों के विपणन की व्यवस्था मुख्य रूप से कृषि को पिछड़ा बना रही है. देश का बहुसंख्यक किसान कृषि फसल के उचित विपणन न होने के कारण कृषि कार्य में उन्मुक्त रूप से संलिप्त नहीं हो पाता है.  

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हमारे देश में कृषि विपणन व्यवस्था में वर्तमान में कई प्रकार के दोष देखने को मिलते हैं. इन दोषों के कारण किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, इससे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. विपणन व्यवस्था में ऐसे दोष के रूप में संग्रहण को देखा जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज उन्नत तकनीक के बाद भी फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. नष्ट हो जाती फसल, जानवरों द्वारा ख़राब कर दी गई फसल के कारण किसान फसलों के संग्रहण को लेकर सदैव चिंतित रहता है और इसी से बचने के लिए वह काफी कम दामों में अपनी फसल का विक्रय कर देता है. संग्रहण के साथ-साथ परिवहन साधनों की अनुपलब्धता अथवा उनका संपन्न न होना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जा सकती है. ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते हैं. फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं. ऐसी कमियों के चलते ग्रामीण इलाकों में मध्यस्थों की, दलालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इससे किसान को कभी-कभी अपनी उपज का लगभग 50 प्रतिशत तक ही दाम मिल पाता है. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं.
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दरअसल हमारे देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये गए, उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.
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इस तरह की विषम परिस्थितयों के बीच किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल के सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो. सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे. इसके साथ-साथ सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. इस तरह के कुछ उपायों को सकारात्मक रूप से लागू करके सरकारों द्वारा कृषि फसल को बचाया जा सकता है, कृषि उत्पाद का उचित मूल्य कृषकों को प्रदान करवाया जा सकता है, कृषकों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.