29 दिसंबर 2020

नकारात्मक है कृषि सुधार कानून विरोधी आन्दोलन

इस समय देश की राजधानी और देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति किसान आन्दोलन की चपेट में है. सामान्य नागरिकों को देश के किसानों और जवानों के सन्दर्भ में किसी तरह का तर्क-वितर्क सुनना पसंद नहीं आता है, इसी कारण से बहुतेरे नागरिक बिना कुछ और विचार किये अपना समर्थन वर्तमान में चल रहे किसान आन्दोलन को देने लगे. किसानों का यह आन्दोलन केंद्र सरकार द्वारा पारित किये गए तीन बिलों, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन बिल आवश्यक वस्तु अधिनियम के विरोध में हो रहा है.


किसी भी सामान्य नागरिक, जिसे राजनीति से कहीं भी खड़े होकर चर्चा कर लेने भर का सम्बन्ध होता है, को इससे कोई सरोकार नहीं होता है कि किसी भी सरकार द्वारा किसी बिल को, किसी भी संशोधन को अकारण अथवा बिना किसी नियम-कानून के नहीं कर दिया जाता है. यदि उक्त किसान सम्बन्धी कानूनों की ही बात की जाये तो यह अकेले किसी एक-दो व्यक्तियों की सोच नहीं, एक-दो मंत्रियों का कार्य नहीं. किसी भी ऐसे कानून को अथवा ऐसे बदलाव को, जिसका असर पूरे देश पर पड़ने वाला होता है उसे एक व्यापक सोच के साथ पूरे नियम-विधान के बाद ही पारित किया जाता है.


यहाँ यदि एक पल को कानूनों का संक्षिप्त रूप देखें तो स्पष्ट समझ आता है कि कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 के अनुसार किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते हैं. इसमें वे बिना किसी समस्या के दूसरे राज्यों में भी फसल बेच और खरीद सकते हैं अर्थात एपीएमसी (APMC) के दायरे से बाहर भी फसलों की खरीद-बिक्री संभव है. इसमें एक लाभ यह है कि की बिक्री पर कोई टैक्स नहीं लगेगा और इसके साथ ही ऑनलाइन बिक्री की भी अनुमति होगी. संभव है कि इस कदम के बाद किसानों को अच्छे दाम मिलने लगें.


इस बिल के साथ पारित मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 के द्वारा देशभर में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग करने सम्बन्धी व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है. इसके अनुसार यदि फसल खराब होती है तो नुकसान की भरपाई अनुबंध करने वाले पक्ष को करनी होगी. ऐसा माना जा रहा है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी और बिचौलिया राज खत्म होगा. तीसरे कानून के रूप में आवश्यक वस्तु संशोधन बिल आवश्‍यक वस्‍तु अधिनियम में संशोधन किया गया है. यह कानून सन 1955 में बनाया गया था. इसमें संशोधन करते हुए अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्‍पादों पर से स्टॉक लिमिट (भण्डारण सीमा) हटा दी गई है. राष्‍ट्रीय आपदा, सूखा जैसी अपरिहार्य स्थितियाँ होने की दशा में भण्डारण सीमा निर्धारित की जाएगी.


इन कानूनों को लेकर जिस तरह से विपक्षी दलों द्वारा उकसाने की राजनीति की जा रही है, वह चिंतनीय है. जो लोग वर्तमान कृषि स्वरूप से, बिक्री और भण्डारण की स्थिति से परिचित हैं वे भली-भांति समझ सकते हैं कि इन कानूनों के आने से किसान को हानि कम है जबकि लाभ ज्यादा है. आज भी मंडियों में छोटे और मंझोले किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य मिल ही नहीं पाता है. छोटी जोतों वाले किसान तो मंडियों का मुँह भी नहीं देख पाते हैं. उनकी फसल का मूल्य तो गाँव के महाजन अथवा बड़े किसान द्वारा निर्धारित करके चुका दिया जाता है.


वर्तमान आन्दोलन की आड़ में सक्रिय राजनैतिक दल जनता की कमजोर नब्ज पकड़ कर अपना हित ही साधने का प्रयास कर रहे हैं मगर यह समझना नहीं चाहते कि इसका समाज पर, देश पर क्या असर पड़ने वाला है. यह विचारणीय है कि वर्तमान दौर औद्योगीकरण, वैश्वीकरण का होने के बाद भी कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. एक अनुमान के अनुसार माना जाता है कि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. इसके बाद भी देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है.


विगत कई दशकों में देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए हैं किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया था. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.


देश के लगभग हर राज्य में किसान अपनी समस्याओं से पीडि़त हैं और सरकारी तन्त्र द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान की बात तो की जाती है किन्तु किसी प्रकार का समाधान उनके द्वारा होता दिखता नहीं है. अब जबकि कृषि सुधार कानूनों के द्वारा सरकार कुछ सकारात्मकता दिखाने का प्रयास कर रही है तो राजनैतिक दलों द्वारा अनावश्यक रूप से किसानों को उकसाया जा रहा है. यहाँ राजनैतिक दलों को वर्तमान संशोधित कानूनों के परिणामों को देखने का इंतजार करना चाहिए था. यदि वे वाकई किसानों के हितैषी हैं तो कम से कम एक वर्ष में इन सुधारों को अमली रूप में आते देखते. वर्तमान हालातों में आन्दोलन कर देने से, सड़कें जाम कर देने से, राजधानी को बंधक बना लेने से किसानों की समस्याओं का हल नहीं निकलने वाला है. दवाब की राजनीति के द्वारा सरकार को कानून वापस लेने के लिए बाध्य करना भविष्य के लिए कितना घातक होगा, इसे अभी महसूस नहीं किया जा रहा है. किसी भी लोकतान्त्रिक संस्था द्वारा लम्बे विमर्श के बाद बनाये और दोनों सदनों में बहस के पश्चात् पारित कानूनों को वापस लेने के लिए आन्दोलन करना आत्मघाती कदम है. यह भविष्य के लिए नकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करेगा.




(उक्त आलेख 29-12-2020 के समाचार-पत्र बीपीएन टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.)
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वंदेमातरम्

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