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30 अक्टूबर 2024

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो, यह वाक्य सुन्दरसार्थक और मनोहारी प्रतीत होता है. चारों ओर दियों की जगमगमोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाशरंग-बिरंगी आतिशबाजीरोशनियों के साथ फूटते पटाखे आदि अद्भुत छटा का प्रदर्शन करते हैं. बच्चोंयुवाओंबुजुर्गोंपुरुषों-महिलाओं का स्वाभाविक रूप हर्षोल्लासित होना दिखाई देता है. सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते नजर आते हैं. नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता का वातावरण स्थापित करते हैं. दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना का संचार करता है. घरों की साफ-सफाईलोगों से मिलना-जुलनामिठाई-पकवान का बनना आदि-आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है.

 

भारतीय संस्कृति में पर्वों, त्यौहारों का महत्व हमेशा से रहा है. यहाँ की अनुपम वैविध्यपूर्ण संस्कृति में प्रकृति के अन्तर्गत मनमोहक ऋतुओं की तरह से विविध पर्व-त्यौहार भी हैं. इन त्यौहारों की विशेषता यह है कि इन्हें धार्मिकता के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है. ये पर्व धार्मिक संदेशों के मध्य से सामाजिक सरोकारों की, सामाजिक संदर्भों की, समरसता की, सौहार्द्र की, भाईचारे की भी प्रतिस्थापना करते हैं. इसका उद्देश्य यही है कि इनके द्वारा सामाजिकता का विकास हो, सामाजिक सरोकारों की भी स्थापना होती रहे. दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करना, उत्सव के दिन सभी से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है.

 



वर्तमान में स्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ है. सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व अब चकाचौंध के वशीभूत होता जा रहा है. भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, औद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली के बीच दीपावली का उद्देश्य सेल्युलाइड दुनिया के पीछे संकुचित, भयभीत खड़ा दिखाई देता है. इस आभासी दुनिया का दुष्परिणाम है कि अब आकाश को छूने के लिए उड़ते रॉकेट को देखकर बच्चों की तालियाँ, खिलखिलाती हँसी नहीं दिखती वरन् मोबाइल के पीछे सेल्फी लेने वाले हाव-भाव दिखाई पड़ते हैं. कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता में हमारे रिश्ते-नाते, हमारे सामाजिक सरोकार भी तिरोहित हुए हैं. मिठाई के पैकेट स्वयं को तुच्छ और गरिमाहीन सा महसूस करने लगते हैं जब किसी ब्रांडेड कम्पनी की चाकलेट का डिब्बा खुलकर मुँह चिढ़ाने लगता है. बच्चों के हाथों में झूमती रंगीन फुलझड़ी एकाएक मद्विम पड़ जाती है जैसे ही उसके सामने कोई विदेशी आतिशबाजी अपने अस्तित्व का विस्तार करने लगती है. मँहगे से मँहगे संसाधनों का उपयोग करके हम दीपावली नहीं मनाते हैं बल्कि अपने आसपास के वातावरण में अपनी सत्तात्मक स्थिति को स्थापित करने का कार्य करते हैं. इस तरह की सोच के कारण समाज से समरसता और भाईचारे जैसी स्थितियों का विलोपन होता जा रहा है. सौहार्द्र को भी बाजारीकरण का रंग चढ़ जाता है; सद्भावना भी झिलमिलाती पॉलीपैक में बिकने लगती है; भाईचारा भी किसी यूज एण्ड थ्रो जैसी बोतल मे चमकदार पेय पदार्थ सा चमकने लगता है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो?

 

नैराश्य के इस वातावरण के बाद भी; कृत्रिम चकाचौंध के बीच भी; दीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है. हमें भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भी, सामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो करना ही है. बाजारीकरण में गुम सी हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो हमें जागृत करता है कुछ करने को; एक प्रकार के आवरण को गिराने को; असामाजिकता को मिटाने को; सामाजिक सरोकारों की स्थापना को. इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा. भारीभरकम खर्चों के बीच, मँहगी से मँहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियाँ देखकर ही अपनी दीपावली मना रहे होंगे. उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण कर रहे होंगे. यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह को, अपनी उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त में, तन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना पड़े; हमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का एहसास होता रहे; अपनी खुशी से दूसरे बच्चों में, और लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे.

 

हमें दीपमालिके के स्वागत में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आँगन तक ही नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है. उजाले की एक सकारात्मक किरण ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती है, बस हम ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह से, उमंग से परिवर्तन का, समरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें. आप स्वयं एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर हो उठेगा. 

16 अक्टूबर 2024

बाज़ार के हाथों में संचालित पर्व-त्यौहार

भारतीय समाज सदैव से पर्वों, त्योहारों, आयोजनों के उल्लास में रँगा-बसा दिखाई देता है. विगत कुछ समय से देखने में आ रहा है कि जैसे किसी त्यौहार का, पर्व का आना होता है वैसे ही बाज़ार केन्द्रित अनेक शक्तियाँ अपने-अपने स्तर से सक्रिय हो जाती हैं. पर्वों, त्योहारों के सन्दर्भ में बाजार में देखने वाली सक्रियता का न तो पर्वों से कोई लेना-देना होता है और न ही त्योहारों की पावनता से. बाज़ार का उद्देश्य किसी न किसी रूप में इंसानी दिल-दिमाग पर अपना नियंत्रण रखना होता है. ऐसे में सवाल स्वयं से ही उठता है कि क्या इंसान बाजार के हाथों की कठपुतली बन चुका हैये ऐसा सवाल है जो आये दिन हर उस व्यक्ति के मन में कौंधता होगा जो संवेदनशील होगा. स्थिति यह है कि ऐसे आयोजनों में आवश्यकता की छोटी से छोटी वस्तु से लेकर जीवन का बड़े से बड़ा पल बाज़ार के द्वारा संचालित होने लगा है. सुबह जागने से लेकर सोने तक की समस्त गतिविधियों पर बाज़ार अपना नियंत्रण किये बैठा है. सुबह जागने के बाद उसे किन-किन पोषक तत्त्वों से भरे टूथपेस्ट की जरूरत है किस तरह के कपड़े उसके स्वास्थ्य का बेहतर ख्याल रख सकते हैं, सुबह के नाश्तेदोपहर के भोजन, कार्यक्षेत्र की स्थितिबच्चों का स्कूलगृहणियों का काम-काज आदि सब कुछ बाज़ार के द्वारा ही पूरा होता दिखाई देता है. 

 

विडम्बना ये है कि बाज़ार स्वयं चलकर घर के भीतर आ चुका है. टीवीसमाचार-पत्रपत्रिकाओं के सहारेहाथ में बराबर चलते मोबाइल के सहारे बाज़ार ने घर के साथ-साथ इंसान के दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया है. घर से बाहर निकलते ही सड़क किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्सगली-मोहल्ले के कोने में झाँकते छोटे-छोटे से बैनरखम्बोंदीवारों पर चिपके पोस्टरजगह-जगह बँटते पैम्पलेट हर समय इंसान को बाज़ार की कैद में होने का आभास करवाते हैं. हर एक पल के लिए बाज़ार ने कुछ न कुछ व्यवस्था कर रखी है. इंसान ख़ुशी के क्षणों में जी रहा है या ग़म साझा कर रहा हैबाज़ार ने इसके लिए भी इंतजाम कर रखे हैं. जन्मदिनशादीवैवाहिक वर्षगाँठपर्व-त्यौहार या फिर कोई भी आयोजन हो, विज्ञापनों के द्वारा इंसान को सम्मोहित कर लिया जाता है. कुछ करते हुए दाग लग जाएँ तो दाग अच्छे हैं. कुछ अच्छा होने पर कुछ मीठा हो जाये. भले ही टेढ़ा लगे पर मेरा सा लगे. कितना भी बड़ा डर हो पर उसके आगे जीत का एहसास दिखे. त्यौहार में पारंपरिक मिष्ठान बने या न बने पर कुछ मीठा हो जाये का विकल्प बाज़ार ने इंसान के सामने परोस रखा है.

 

इस बाजारीकरण की सबसे ख़राब स्थिति यह है कि इंसान कब उत्पादों का उपयोग करते-करते खुद ही उत्पाद बन गया उसे खबर ही नहीं हुई. शादी-विवाह जैसा विशुद्ध पारिवारिक और पवित्र संस्कार बाज़ार के हवाले हो गया. अब विवाह संस्कार परिजनों के हाथों से नहीं बल्कि बाजार के हाथों से संचालित होने लगा है. बाजार बताने लगा है कि दूल्हा-दुल्हन को कैसे तैयार होना है. बाज़ार बता रहा है कि पूरे आयोजन में कैसे और किस तरह से फोटोशूट किया जाना है. करवाचौथ जैसा पावन पर्व विशुद्ध रूप से बाजार का शिकार होकर दाम्पत्य जीवन में प्रविष्ट हो चुका है. बाज़ार द्वारा निर्धारित उपहार जब पत्नी को दिया जायेगा, बाज़ार सज्जित परिधान जब पहने जाएँगे तभी इस उपवास का उचित फल मिलेगा, इस तरह के सन्देश बाज़ार घर-घर में पहुँचाने में सफल हो गया है. पर्वों, त्योहारों के आते ही वाहन खरीदने के लाभ बताये जाते हैं. बाज़ार ही बताता है कि कौन सी मिठाई खिलाई जाए तो रिश्ते मजबूत होते हैं. परिजनों के एकसाथ मिलकर खुशियाँ मनाने में कौन सा रंग, कौन सा पेंट घर को चमकाएगा, ये भी बाज़ार निर्धारित कर रहा है. परिवार, संस्कार, संस्कृति से सम्बंधित वे सभी आयोजन जिनसे व्यक्ति का भावनात्मक जुड़ाव हैसबको बाज़ार ने अपने कब्जे में ले रखा है.

 

बाज़ार ने न केवल शालीनता के दायरे को पार किया बल्कि अनावश्यक रूप से घर-परिवारों में आर्थिक बोझ को भी बढ़ाया है. महँगे होते जाते आयोजनअत्यंत भव्यता बिखेरती साज-सज्जासामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से बर्बाद किया जाता धन आदि किसी भी रूप में किसी एक व्यक्ति की सकारात्मक सोच नहीं है. इसके पीछे पूरी तरह से नियोजित ढंग से बाज़ार अपना काम कर रहा है. उसका काम अपने उत्पाद को बेचना मात्र है. इस प्रक्रिया में स्वयं इंसान ही उत्पाद बनकर उभरने लगा है. वह बिना सोचे-विचारे बस इन कृत्यों को मशीनी ढंग से करने में लगा है. वह स्वयं ही नहीं समझ पा रहा है कि इन कृत्यों को करने में उसे ख़ुशी मिल रही है या फिर वह बाज़ार के हाथों में नाच रहा है?  

22 अक्टूबर 2022

दीपमालिके के स्वागत में एक दीप प्रज्ज्वलित करें

असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतम् गमय यह वाक्य एक तरफ सत्य की तरफ जाने का सन्देश देता है वहीं साथ में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा देता है. चारों ओर दीपों की कतारमोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाशरंग-बिरंगी आतिशबाजीविविध आवाजों-रोशनियों के साथ फूटते पटाखे, सभी अपने आप में अद्भुत छटा का प्रदर्शन करते हैं. बच्चों कायुवाओं काबुजुर्गों कापुरुषों-महिलाओं का हर्षोल्लासित होना स्वाभाविक सा दिखाई देता है. सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते नजर आते हैं. नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता का वातावरण स्थापित करते हैं. दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना का संचार करता है. घरों की साफ-सफाईलोगों से मिलना-जुलनामिठाई-पकवान का बनना आदि-आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है.


भारतीय परम्परा मेंसंस्कृति में पर्वोंत्यौहारों का महत्व हमेशा से रहा है. यहां जितनी अनुपम वैविध्यपूर्ण प्रकृति में मनमोहक ऋतुएं हैंठीक उसी तरह से विविधता धारण किये पर्व-त्यौहार भी हैं. इन त्यौहारों की विशेष बात यह रही है कि इन्हें धार्मिकता से जोड़ने के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है. ये पर्व धार्मिक संदेशों के मध्य से सामाजिक सरोकारों कीसामाजिक संदर्भों कीसमरसता कीसौहार्द्र कीभाईचारे की भी प्रतिस्थापना करते दिखाई देते हैं. होना भी यही चाहिए किसी भी पर्व काकिसी भी अनुष्ठान का उद्देश्य मात्र स्वयं को प्रसन्न रखने की स्थिति में नहीं होना चाहिए. हमारा उद्देश्य सदैव यही हो कि हमारे कदमों से सामाजिकता का विकास हो हीसामाजिक सरोकारों की भी स्थापना होती रहे. दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करनाउत्सव के दिन सभी से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है.




इधर सामाजिक स्थितियों में कुछ परिवर्तन सा महसूस होता है. सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व अब बाह्य आडम्बर और चकाचौंध भरी स्थितियों के वशीभूत होता समझ में आता है. यदि हम अपने आसपास के परिदृश्य का अवलोकन करें तो तमाम सारी प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ कृत्रिमता का विकास होता भी समाज में दिखाई देता है. भूमण्डलीकरणवैश्वीकरणऔद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली ने पर्वों-त्यौहारों की सहजतासरलता को विखण्डित सा कर दिया है. कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता की भेंट हमारे पर्व ही नहीं चढ़े हैं वरन् हमारे रिश्ते-नातेहमारे सामाजिक सरोकार भी तिरोहित हुए हैं. गरिमामयी रिश्तों की गर्मजोशी अचानक ही हिम प्रशीतक की भांति लगने लगती है.  


त्यौहार अब नितांत औपचारिकताओं में सिमटाए जाने लगे हैं. संबंधों मेंरिश्तों में पहले की तरह गर्माहट नहीं दिखाई देती हैबाज़ारों में अपनत्व कम कटुता ज्यादा देखने को मिलने लगी है विदेशी सामानों के बीच आज भी कई-कई छोटे बच्चे-बच्चियाँ साँचे में ढले गणेश-लक्ष्मीमिट्टी के दिएरुईमोमबत्तियाँ आदि बेचते दिखते हैं. मशीनों से निर्मित चमकते-दमकते गणेश-लक्ष्मी की भव्य मूर्तियों के आगे स्टाइलिश दीयों के आगेडिजाइनर मोमबत्तियों के सामनेअजब-गजब रूप से चमक बिखेरती झालरों के सामने इनका अंधकार ज्यों का त्यों रहता है. हर एक पटाखे के फूटने के साथहर एक दिया रौशनी बिखेरने के साथहर बार और अकेले त्यौहार मनाने के साथ एहसास होता है कि मंहगाई सामानों में ही नहीं आई है संबंधों मेंरिश्तों में भी आई है. अंधकार सिर्फ अमावस की रात को ही घना नहीं हुआ है बल्कि अपनत्व मेंस्नेह में भी घनीभूत होकर छा गया है. काले आसमान में रौशनी बिखेरती आतिशबाजीघर की छत पर चमक बिखेर कर शांत हो जाते दिएमकान की दीवारों से लिपटी विदेशी झालरें अपनी क्षणभंगुर चमक से एक पल को तो अंधकार दूर कर देती हैं किन्तु समाज में लगातार बढ़ते जाते अंधकार को दूर नहीं कर पा रही हैं.


नैराश्य के ऐसे वातावरण के बाद भीकृत्रिम चकाचौंध के बीच भीदीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है. हमें भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भीसामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो करना ही है. बाजारीकरण में गुम हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो हमें जागृत करता है कुछ करने कोएक प्रकार के आवरण को गिराने कोअसामाजिकता को मिटाने कोसामाजिक सरोकारों की स्थापना को. इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा. भारीभरकम खर्चों के बीचमंहगी से मंहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियां देखकर ही अपनी दीपावली मना रहे होंगे. उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण कर रहे होंगे. यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह कोअपनी उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त मेंतन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना पड़ेहमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का एहसास होता रहेअपनी खुशी से दूसरे बच्चों मेंऔर लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे. हमें दीपमालिके के स्वागत में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आंगन तक नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है. उजाले की एक सकारात्मक किरण ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती हैबस हम ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह सेउमंग से परिवर्तन कासमरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें. आप स्वयं एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर हो उठेगा.

 





 

28 अगस्त 2022

बाजार द्वारा संचालित समाज

क्या इंसान बाजार के हाथों की कठपुतली बनता जा रहा है या कठपुतली बन चुका है? ये ऐसा सवाल है जो आये दिन हर उस व्यक्ति के मन में कौंधता होगा जो संवेदनशील होगा. व्यक्ति के जीवन की आज यह स्थिति बनी हुई है कि रोजमर्रा की आवश्यकता की छोटी से छोटी वस्तु से लेकर जीवन का बड़े से बड़ा पल बाज़ार के द्वारा संचालित होने लगा है. सुबह जागने के लिए व्यक्ति को किस घड़ी के अलार्म की आवश्यकता है, जागने के बाद उसे किन-किन पोषक तत्त्वों से भरे टूथपेस्ट की जरूरत है, यदि वह व्यक्ति सुबह की सैर पर जाता है तो कौन से जूते उसके लिए लाभदायक हैं, किस तरह के कपड़े उसके स्वास्थ्य का बेहतर ख्याल रख सकते हैं आदि-आदि बाज़ार ही तय कर रहा है. सुबह के नाश्ते, दोपहर के भोजन, कार्यक्षेत्र की स्थिति, बच्चों का स्कूल, गृहणियों का काम-काज आदि सबकुछ अब बिना बाज़ार के पूरा होता नहीं दिखाई देता है. 


इन स्थितियों से दो-चार होने के लिए व्यक्ति को बाज़ार जाने की आवश्यकता नहीं है. अब बाज़ार स्वयं चलकर आपके घर के भीतर आ चुका है. टीवी पर विज्ञापन के सहारे, समाचार-पत्र, पत्रिकाओं के सहारे, हाथ में बराबर चलते मोबाइल के सहारे बाज़ार ने न केवल घर में जगह बना ली है बल्कि उसने इंसान के दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया है. घर से बाहर निकलते ही सड़क किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स, गली-मोहल्ले के कोने में झाँकते छोटे-छोटे से बैनर, खम्बों, दीवारों पर चिपके पोस्टर, जगह-जगह बँटते पैम्पलेट हर समय इंसान को बाज़ार की कैद में होने का आभास करवाते हैं. अब खाने-पीने के सामान को खरीदने की बात हो या फिर पहनने-ओढ़ने के लिए वस्त्रों का चुनाव करना हो, घर को सजाने के लिए किसी वस्तु की चाहना हो या फिर कोई मंगलकारी आयोजन हो, सभी में व्यक्ति की सोच से अधिक तेज चलते हुए बाज़ार अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है. हर एक पल के लिए बाज़ार ने कुछ न कुछ व्यवस्था कर रखी है. इंसान ख़ुशी के क्षणों में जी रहा है या ग़म साझा कर रहा है, बाज़ार ने इसके लिए भी इंतजाम कर रखे हैं.




जन्मदिन हो, शादी हो, वैवाहिक वर्षगाँठ हो, पर्व-त्यौहार हों या फिर कोई भी आयोजन विज्ञापनों के द्वारा इंसान को इतना सम्मोहित कर लिया जाता है कि वह बिना बाज़ार के आगोश में आये कुछ कर ही नहीं सकता है. कुछ करते हुए दाग लग जाएँ तो दाग अच्छे हैं, कुछ अच्छा होने पर कुछ मीठा हो जाये. भले ही टेढ़ा लगे पर मेरा सा लगे, कितना भी बड़ा डर हो पर उसके आगे जीत का एहसास दिखे, त्यौहार में पारंपरिक मिष्ठान बने या न बने पर कुछ मीठा हो जाये का विकल्प बाज़ार ने इंसान के सामने परोस रखा है. एकबारगी यदि देखें तो हँसी-ख़ुशी के माहौल को, अपने उल्लास को ऐसे किसी भी उत्पाद के सहारे मिल-बाँट कर मना लेना बुरा नहीं है. बुरे का एहसास उस समय होता है जबकि व्यक्ति बजाय इन उत्पादों का उपयोग करने के, इनका उपभोग करने के स्वयं ही उत्पाद बनने लगता है.


यह इस बाजारीकरण की सबसे ख़राब स्थिति है कि इंसान कब बाज़ार में उपलब्ध उत्पादों का उपयोग करते-करते खुद ही उत्पाद बन गया उसे खबर ही नहीं हुई. कभी गौर किया है इस बात पर कि शादी-विवाह जैसा विशुद्ध पारिवारिक और पवित्र संस्कार कब बाज़ार के हवाले हो गया? अब विवाह संस्कार परिजनों के हाथों से नहीं, उनकी मनमर्जी से नहीं बल्कि बाजार के हाथों से संचालित होने लगा है. अब बाजार बताने लगा है कि दूल्हा-दुल्हन को कैसे तैयार होना है. अब बाज़ार ने निर्धारित कर दिया है कि सजावट कैसी होनी है. अब बाज़ार बता रहा है कि पूरे आयोजन में कैसे और किस तरह से फोटोशूट किया जाना है. बाज़ार की इन हरकतों ने जहाँ एक तरफ पाश्चात्य स्थिति को भारतीय संस्कृति पर थोपने जैसा काम किया है वहीं अनावश्यक रूप से व्यक्तियों की जेब पर भी डाका डाला है.


इन सबमें भारी-भरकम विज्ञापन, टीवी के रंगीन लकदक करते सीरियल भी सहायक भूमिका में नजर आने लगे हैं. विवाह अब संस्कार नहीं, पारिवारिक आयोजन नहीं बल्कि बाजारीकरण का सशक्त मॉडल बनकर सामने आया है. अकेले विवाह ही नहीं वरन व्यक्ति से सम्बंधित वे तमाम सारे आयोजन जिनमें किसी न किसी रूप में व्यक्ति का भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ा है, सबको बाज़ार ने अपने कब्जे में ले रखा है. विवाह के पहले का फोटोशूट कब कैसे जनसामान्य के बीच जा घुसा किसी को खबर न हुई. शालीनता के महीन से परदे को गिराते हुए बाज़ार ने प्री-वेडिंग शूट के नाम पर अशालीनता फैलानी शुरू कर दी गई. विवाह का एकमात्र यही आयोजन नहीं बल्कि उससे जुड़े तमाम सारे छोटे-बड़े आयोजन भी बाज़ार ने हड़प लिए हैं. हल्दी, मेंहदी, द्वारचार, जयमाल, फेरे, विदाई आदि को अब बाज़ार संचालित कर रहा है. कैसे कपडे पहने जाने हैं, किस कंपनी के पहने जाने हैं, किसे क्या भूमिका निभानी है, कैसे नृत्य करते हुए कन्या आएगी, किस तरह से जयमाल होगी, वर-वधु कैसे आधुनिकता के वशीभूत होकर फेरे लेंगे, विदाई के समय कन्या कैसे और कितना रोएगी आदि बाज़ार ने सिखा-पढ़ा दिया है. मातृत्व जैसे भावनात्मक एहसास को भी विज्ञापनों, फोटोशूट के हाथों में थमा दिया गया. इन कृत्यों में आधुनिकता, वर्तमान चलन के नाम पर फूहड़ता, नग्नता, अशालीनता के अलावा और कुछ देखने को नहीं मिला.


बाज़ार ने न केवल शालीनता के दायरे को पार किया बल्कि अनावश्यक रूप से घर-परिवारों में आर्थिक बोझ को भी बढ़ाया है. महँगे होते जाते आयोजन, अत्यंत भव्यता बिखेरती साज-सज्जा, सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से बर्बाद किया जाता धन आदि किसी भी रूप में किसी एक व्यक्ति की सकारात्मक सोच नहीं है. इसके पीछे पूरी तरह से नियोजित ढंग से बाज़ार अपना काम कर रहा है. उसका काम अपने उत्पाद को बेचना मात्र है. इस प्रक्रिया में स्वयं इंसान ही उत्पाद बनकर उभरने लगा है. वह बिना सोचे-विचारे बस इन कृत्यों को मशीनी ढंग से करने में लगा है. वह स्वयं ही नहीं समझ पा रहा है कि इन कृत्यों को करने में उसे ख़ुशी मिल रही है या फिर वह बाज़ार के हाथों में नाच रहा है?  




 

11 अगस्त 2022

कुत्सित मानसिकता का शिकार होते पावन पर्व

यद्यपि उस दिन रक्षाबंधन नहीं था तथापि उनका बयान रक्षाबंधन को केंद्र में रखकर ही दिया गया था. ‘उनका इसीलिए लिख रहे हैं क्योंकि नाम लिखना एक तो हम ही नहीं चाह रहे, दूसरी बात वे स्त्री-विमर्श की स्थापित लेखिका घोषित हैं, तीसरी बात ये कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र से जुड़े होने के कारण या कहें कि हमारे परिवार से जुड़े होने के कारण वे हमारी परिजन ही हैं. इसी परिवारवाद के चलते उनको हम मामी सम्बोधन से बुलाया करते हैं. ये और बात है कि वे अक्सर हमसे नाराज रहती हैं और नाराज रहने का एक कारण उनकी बहुत सी बातों का, उनके बहुत से बयानों का विरोध हम सीधे-सीधे उनको फोन करके जता देते थे. यहाँ ‘थे इसलिए कि अब जबसे हमें जानकारी हुई कि वे हमसे नाराज रहने लगी हैं, तो हमने उनको फोन करना बंद कर दिया.


बहरहाल, अभी उन सारी बातों की चर्चा से इतर रक्षाबंधन पर उनके बयान और उसके बाद की स्थिति पर चर्चा. जैसा कि पहले ही लिखा कि उस दिन रक्षाबंधन नहीं था और न ही रक्षाबंधन पर्व का महीना. किसी कार्यक्रम में उनको मुख्य अतिथि बनाया गया तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार दो बयान दिए. बयान क्या ये कहें कि भाषण में दो बातें प्रमुखता से रखीं, जिनको मीडिया ने उनसे ज्यादा प्रमुखता से प्रकाशित किया. इन दो बातों में पहली बात थी रक्षाबंधन से सम्बंधित और दूसरी थी महिलाओं की साड़ी पहनने से लेकर. रक्षाबंधन के बारे में उनका विचार था कि साल में एक दिन भाई राखी बंधवा कर बहिनों को कुछ गिफ्ट इस कारण देते हैं ताकि बहिनें पैतृक संपत्ति, जायदाद में हिस्सा न माँगें. दूसरा बयान था साड़ी को लेकर कि किसी महिला को साड़ी पहनने पर विवश पुरुष करता है ताकि पुरुष उस महिला के शरीर को देख सके. यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें कि उन स्थापित लेखिका के बयान ज्यों के त्यों ऐसे न रहे होंगे मगर भाव यही थे.




उनके कार्यक्रम के बाद इन्हीं बयानों को समाचार-पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया. सिबह-सुबह पढ़ते ही दिमाग झनझना गया. समझ न आया कि एक महिला कैसे किसी दूसरी महिला के बारे में बुरा सोच सकती है, बोल सकती है, जबकि वह एक लेखिका है, संवेदनशील लेखिका मानी जाती है, स्त्री-विमर्श जैसे मुद्दे की साहित्यकार समझी जाती हैं. बुरा सोचने के बारे में आप लोग दिमाग न लगाइए, आगे पढ़िए, समझ आएगा कि बुरा कैसे.


उनका फोन नंबर उस समय हमारे मोबाइल में हुआ करता था, हमने तुरंत फोन लगाया. बिना ब्रश किये, बिना चाय पिए वैसे भी हमारा दिमाग भन्न रहता है, उस दिन और ज्यादा हुआ. उनका फोन कुछ घंटियों के इंतजार के बाद उठ गया, उन्हीं ने उठाया. मामी जी नमस्ते के साथ हमने अपनी बात शुरू की कि आज आपके दो विचार पेपर में पढ़े, कुछ जमे नहीं. अब चूँकि अगला तो बयान दे चुका ही था तो उसे नकारना नहीं था. उनके एक-दो बातों के कहने के साथ ही हमने अपने मुखारविंद को खोला और कहा कि मामी जी, आप साड़ी किस पुरुष के कहने पर पहनती हैं? उस समय हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी थीं, तो हमने उनका नाम लेकर पूछा कि उनको कौन सा पुरुष साड़ी पहनने को विवश करता है? इसी के साथ हमने फिर सवाल दागा कि सोनिया गांधी और जयललिता तो बराबर साड़ी में रहती हैं, इनको किस पुरुष का भय? ये लोग और आप क्यों नहीं जींस-टॉप पहनकर निकलती हैं?


कुछ इसी तरह की बात हमने उनके रक्षाबंधन वाले बयान पर कही. हमने कहा कि यदि एक राखी के बाँधने के बाद कुछ सौ-हजार रुपये मिलने के बाद यदि कोई बहिन संपत्ति पर, जायदाद पर हिस्सा माँगने से शांत रह जाती है तो इसका मतलब है कि महिलाएँ वाकई दिमाग से पैदल होती हैं. इसका अर्थ ये भी हुआ कि उन दिमागी पैदल महिलाओं के लिए आपने कुछ न किया बस अपना साहित्य बढ़ाती रहीं. इतना सुनते ही वे अपने स्वभाव के अनुसार भन्न हो गईं. हमसे जो कहा सो कहा, तुरंत अपनी मित्र और हमारी मामी जी को फोन किया और बोलीं कि इस पूरे देश में हमारे विचारों का, हमारे स्त्री-विमर्श का एकमात्र विरोधी चिंटू है. उसके बाद उन्होंने हालिया बातों को तथा पुरानी बातों को मामी जी से कहा. उस घटना के बाद एक बार वे हमें बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में आयोजित एक सेमिनार में मिलीं तो हमने अभिवादन के बाद उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि पहचाना? तो वे तपाक से बोलीं, कुमारेन्द्र. इस पर हमने कहा, लगता है कि अभी तक हमसे नाराज हैं? उनके सवालिया रूप पर हमने कहा, वैसे तो आप हमें चिंटू ही बुलाती हैं. इस पर वे बस मुस्कुरा कर रह गईं.


बाद में जानकारी हुई कि वे अब ख्यालों में भी हमारा नाम आने पर मुस्कुराती नहीं हैं तो हमने उनका नंबर अपनी लिस्ट से हटा दिया. वे प्रसन्न रहें क्योंकि उनको असल प्रसन्नता उनको अपनी ज़िन्दगी में नहीं मिली है. हमें तो हर रक्षाबंधन उनकी संकुचित सोच याद आ ही जाती है. बस इस बार याद आई तो इस बारे में लिख दिया. 




 

15 नवंबर 2020

त्योहारों से गायब होती जा रही है मिठास

अब दीपावली आती है तो ज्ञानियों को लेकर आती है. अब धुएँ से, पटाखों के शोर से पर्यावरण को नुकसान होने की बात कही जाती है जबकि बचपन में पढ़ा था कि पटाखों के शोर, धुएँ से जहरीले कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं. पता नहीं तब गलत पढ़ाया जाता था या कि अब गलत ज्ञान दिया जा रहा है? पटाखों के अलावा किन-किन चीजों से पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है, किस-किस कदम से प्रदूषण फ़ैल रहा है, इस पर सार्थक चर्चा नहीं हो रही है. बहरहाल, ये तथाकथित ज्ञानियों का क्षेत्र है और इस पर वे तभी सक्रिय होते हैं जबकि हिन्दू धर्म से सम्बंधित त्यौहार, पर्व सामने दिख रहे हों. दीपावली पर हम बचपन में भी खूब पटाखे फोड़ा करते थे और आज भी फोड़ते हैं. अब अंतर ये आया है कि अब खूब नहीं फोड़े जाते क्योंकि खूब फोड़ने के लिए घर में हमसे छोटे बच्चे मौजूद हैं.




बचपन में दीपोत्सव के पाँचों दिन पटाखों की गूँज सुनाई पड़ती थी. रंग-बिरंगी आतिशबाजी के बीच कड़ाबीन का अपना गज़ब आकर्षण हुआ करता था. हम बच्चों के बीच उनको चलाने वाला विशेष महत्त्व रखता है. कड़ाबीन या फिर किसी भी दूसरे आवाज़ वाले पटाखों को चलाने में कलाबाजी की आवश्यकता होती थी. आग लगाना और उसके चलने के पहले ही उस पटाखे की पहुँच से दूर हो जाना बहुत ही फुर्तीला और सावधानी भरा कदम माना जाता था. ऐसा तब और भी अधिक कलाबाजी का काम समझा जाता था जबकि चारों तरफ से किसी न किसी रूप में आतिशबाजी चलने में लगी हो. देर रात तक पटाखे चलाने के बाद सुबह-सुबह की ठंडक में बचे-बचाए, बिना चले पटाखों को बीनने का काम गुप्तचर रूप में किया जाता. अधचले, बिना चले पटाखे एक तरह के बोनस का स्वाद दिया करते थे.


अब पहले की तरह पारिवारिक सदस्यों का इकठ्ठा होना भी नहीं होता है. आतिशबाजी भी पहले की तरह सामूहिकता में नहीं चलाई जाती है. मोहल्ले की गलियाँ, घरों की छतें अब पहले की तरह गुलज़ार नहीं दिखाई देती हैं. अब पहले की तरह अधचले, बिना चले पटाखों को बीनने वाले जासूस भी नहीं दिखाई देते हैं. अब ऐसा लगता है जैसे त्यौहार को बस मनाना है. यह भी एक तरह की औपचारिकता सी लगने लगी है. इस औपचारिकता के निर्वहन में वो पहले जैसी मिठास गायब होती चली जा रही है. तथाकथित ज्ञानियों को पर्यावरण की चिंता है मगर सामाजिकता से गायब हो रही मिठास की चिंता नहीं है. घरों-घरों तक में फैलते जा रहे एकाकी सामाजिक प्रदूषण के प्रति कोई भी सचेत नहीं है.


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#कुमारेन्द्र 

14 नवंबर 2020

हँसते-गाते परिजनों संग गुजरें पर्व-त्यौहार

दीपावली, दीपावली करते-करते समय गुजर गया और दीपावली एकदम से ही गुजर गई. हर बार त्यौहार के जाते ही नए त्यौहार का इंतजार शुरू हो जाता. नया त्यौहार आते ही चला जाता और दे जाता आने वाले त्यौहार का इंतजार. यह साल अजीब तरह से गुजर रहा है. इसका आरम्भ एक ऐसी बीमारी से हुआ जो है भी और होते हुए भी न होने जैसी लग रही है. फिलहाल, इस बीमारी की बात नहीं. जिस तरह का वातावरण विगत कई महीनों से बना हुआ था, उसे देखते हुए लग रहा था कि दीपावली सहित अनेक त्यौहार फीके-फीके से गुजर जायेंगे. इसकी शंका तब और बढ़ी जबकि दीपावली से कुछ दिन पहले मनाये जाने वाला दशहरा पर्व एकदम ख़ामोशी से गुजर गया. लगा कि दीपावली भी बिना किसी शोर-शराबे के, ख़ामोशी से बीत जाएगी.


दीपावली का आना हुआ और इसके साथ आया दार्शनिक लोगों का प्रवचन देना. पर्यावरण, प्रदूषण की बातें करके अनेक जगहों पर आतिशबाजी को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया. कुछ जगहों के इस प्रतिबन्ध के बीच बहुत सारी जगहों पर खुलकर आतिशबाजी की गई. ख़ुशी का, प्रसन्नता का प्रस्फुटन देखने को मिला मगर इसके बाद भी बहुत कुछ खालीपन खुद में महसूस हुआ. इधर बहुत सालों से समस्त परिजनों का एकसाथ मिलकर त्योहारों का मनाया जाना नहीं हो पा रहा है. इस खालीपन को कोई आतिशबाजी नहीं भर सकती है. इसे विशुद्ध रूप से वही समझ सकता है, जिसने परिवार के साथ बहुत सारा समय हँसते हुए, मस्ती में गुजारा हो. फ़िलहाल तो इस बार की दीपावली कोरोना के डर को दरकिनार करते हुए बहुत सारे लोगों ने हँसते-हँसते मनाई. आशा है कि आगामी पर्व सभी लोग परिजनों के साथ एकजुट होकर ऐसे ही हँसते-गाते मनाएँगे.








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#कुमारेन्द्र 

13 नवंबर 2020

थम गई है सड़क की तरफ होती दौड़

त्योहारों का आना होता है तो मन प्रसन्न हो उठता है. त्योहारों के आने में खुशियों का समावेश होता है और वे खुशियाँ हमें हमारी यादों में ले जाती हैं. तमाम त्योहारों के बीच होली और दीपावली ऐसे पर्व होते थे जबकि पूरा परिवार उरई में इकठ्ठा होता था. सभी मिलकर खूब धमाल मचाया करते थे, खूब हुल्लड़ हुआ करता था. उन दिनों में आज की तरह त्वरित संपर्क का साधन, मोबाइल नहीं हुआ करता था. बेसिक फोन भी यदा-कदा घरों में लगे हुए थे. चाचा लोगों के आने की खबर पत्र के माध्यम से मिला करती थी. ये सूचना तो जैसे हम भाइयों के लिए आधिकारिक सूचना हुआ करती थी मगर इसके अलावा हम लोगों को ये भी भली-भांति ज्ञात था कि जिस दिन से सरकारी छुट्टियों का आरम्भ होगा, चाचा लोगों का उसी दिन आना होगा.




महीनों से होली, दीपावली के दिन गिने जाने लगते. ऐसा लगता जैसे वर्षों के इंतजार के बाद ये त्यौहार आये हों. उसी में वह दिन भी जाने कितने महीनों बाद आता जबकि घर में सबका इकठ्ठा होना शुरू हो जाता. हम तीनों भाई पूरे दिन घर से लेकर सड़क तक के न जाने कितने चक्कर लगा दिया करते. उस समय बस दिन का पता होता था मगर किस समय चाचा लोगों का आना होगा, ये खबर नहीं होती थी. ऐसे में सुबह नौ-दस बजे के बाद से उन लोगों के आने तक बस भागदौड़ लगी रहती. इस दौड़ के बीच ऐसा नहीं कि दस-बीस मिनट का अन्तराल रहता हो. चाचा लोगों के आने की ख़ुशी की आतुरता ऐसी होती कि सड़क से एक भाई की वापसी के साथ ही दूसरे भाई की दौड़ सड़क की तरफ हो जाती. सड़क के दूर मोड़ पर रिक्शा के दिखते ही घनघोर शोर, चीखना-चिल्लाना शुरू हो जाता. ऐसा लगता जैसे इसी शोर में रिक्शा और तेजी से खिंचा चला आएगा.


अब चाचा लोगों का अपने-अपने परिवारों के साथ रुकना हो गया है. समय के साथ शेष भाई-बहिन भी अपनी-अपनी जगह जमे हुए हैं. आना-जान होता है मगर अब नियमितता कम हो गई है. अब पहले जैसी आतुरता दिखती है मगर सड़क तक की दौड़ नहीं होती. इसका कारण ये है कि अब आने वालों के एक-एक पल की जानकारी मोबाइल से मिलती रहती है. कौन कब कहाँ तक पहुँच गया है, यह जानकारी होती रहती है. अब जबकि बहुत अच्छे से मालूम होता है कि त्यौहार पर फलां चाचा-चाची का उरई आना नहीं हो रहा है, ये भी मालूम होता है कि छोटे भाई-बहिन अपनी-अपनी तमाम जिम्मेवारियों के कारण नहीं आ पा रहे हैं इसके बाद भी मन में, दिल में उनके आने की हुक सी उठती रहती है. सबकुछ जानते-समझते हुए भी आँखें सड़क की तरफ मुड़ जाती हैं, निगाहें बार-बार मोबाइल की तरफ जाती हैं और पीछे बस इंतजार रह जाता है.


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#कुमारेन्द्र 

10 नवंबर 2020

दीपावली के पटाखों संग मस्ती

दीपावली के आते ही प्रदूषण ज्यादा दिखाई देने लगता है. विगत कई वर्षों से ऐसा देखने में आ रहा है कि जैसे ही किसी हिन्दू पर्व का आना होता है वैसे ही ज्ञान देने वालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. दीपावली पर पटाखे न चलाने की सलाह, होली पर रंग न खेलने की सलाह. एक पर्व के कारण प्रदूषण का फैलना और दूसरे के कारण पानी की बर्बादी को मुख्य कारण बताया जाता है. आज जब भी ऐसी बातों को देखते हैं तो याद आता है वर्षों पुराना समय, स्मृति में कौंध जाते हैं अपने बचपन के दिन. उस समय तो आज से ज्यादा पटाखे चलते थे, हम सब आज से ज्यादा पटाखे चलाते थे मगर कभी धुएँ का, प्रदूषण का रोना नहीं रोया गया. ऐसे में आज समझना होगा कि इस धुएँ की वास्तविक समस्या क्या है.


इस पर चर्चा बाद में, पहले अपनी दीपावली की चर्चा जो पुराने दिनों में हम सभी ने बड़ी मस्ती से मनाई है, की कुछ बातें. सभी चाचा लोग सपरिवार उरई नियमित रूप से आया करते थे. पटाखों की संख्या तो निश्चित थी ही नहीं. सबकी उम्र के अनुसार खूब सारे पटाखे दिन में धूप में सुखाये जाते या कहें कि उनकी नमी को दूर किया जाता. इक्का-दुक्का पटाखे तो हम बच्चे लोग बस ये जाँचने के नाम पर ही चला मारते कि पटाखे सही से सूखे हैं या नहीं. किसी तरह इंतजार करते-करते शाम आती. शाम को पूजन के बाद सबसे ज्यादा जल्दी छत पर जाकर दिए, मोमबत्तियाँ लगाने की, पटाखे चलाने की रहती.




पटाखे चलाते समय सावधानी पूरी तरह से रखी जाती इसके बाद भी ऐसी कोई न कोई घटना हो जाती जो लम्बे समय तक हँसी पैदा करती. लम्बे समय तक क्या, कुछ घटनाएँ तो ऐसी हैं कि आज तक उनकी चर्चा करके ठहाके लगाये जाते हैं. कभी अनार का रुक-रुक कर चलना, कभी चखरी का उछल-उछल कर घूमना, कभी राकेट का बजाय ऊपर जाने के छत के ही चक्कर लगा लेना आदि ऐसी घटनाएँ हैं जो हर दीपावली पटाखे चलाते समय अपने आप याद आ जाती हैं.




अब शासन के निर्देशों पर ही पटाखे चलाने का समय निर्धारित हो गया है. आवाज़ का, रौशनी का, पटाखों का मानक तक निर्धारित कर दिया गया है. अबकी समाचार आ रहे हैं कि बहुत सी जगहों पर पटाखों को बैन कर दिया गया है. पर्यावरण की चिंता करती सरकारों ने कभी अपने आसपास देखा है कि पटाखों के अलावा और कहाँ से प्रदूषण फ़ैल रहा है? तमाम कारखाने, तमाम कारें, टैक्सी आदि इतनी बुरी तरह से धुआँ फैलाते हैं कि उनके आगे पटाखों का धुआँ कहीं नहीं ठहरता. इसके बाद भी सबके निशाने पर दीपावली ही है. सड़क पर चलती कारों, घरों, कार्यालयों में चौबीस घंटे चलते एसी के कारण होने वाले प्रदूषण की, पर्यावरण नुकसान की चिंता किसी सरकार को नहीं है. इस तरह की मानसिकता से एक सवाल दिमाग में हर बार कौंधता है कि कहीं त्योहारों के समय का ये नाटक हिन्दू त्योहारों-पर्वों को सीमित करने की, समाप्त करने की कोई साजिश तो नहीं?


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#कुमारेन्द्र

17 अक्टूबर 2019

करवाचौथ व्रत नितांत व्यक्तिगत मामला है


समाज आधुनिकता की बात करने में लगा है, उसके द्वारा स्त्री-पुरुष समानता की बात की जा रही है, चंद्रमा पर आदमी के उतरने की आहटें सुनाई दे रही हों तब चंद्रमा के द्वारा किसी इन्सान की लम्बी उम्र की कामना किया जाना एक प्रक्रिया को हास्यास्पद बनाता ही है. सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दिया जाये कि इस आलेख का उद्देश्य किसी भी रूप में किसी की भावनाओं से, किसी की परंपरा से, किसी की श्रद्धा से खिलवाड़ करना नहीं है. इसके द्वारा स्वयं अपने आपके तमाम सवालों के जवाब प्राप्ति का रास्ता तलाशना है. प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों के पास खुद को प्रफुल्ल्ति रखने के, लोगों से मेल-मिलाप बढ़ाने के तरीकों में पर्व-त्यौहार आदि ही हुआ करते थे. इनके माध्यम से वह मेले, प्रदर्शनी आदि का आयोजन भी कर लिया करता था. जैसा कि कतिपय कारणोंवश समाज में पर्दा प्रथा का आरम्भ हुआ, महिलाओं का घर के अन्दर रहना जैसे अनिवार्य हो गया वैसे में उनके लिए ख़ुशी पाने का रास्ता त्योहारों, पर्वों, मेलों आदि से ही गुजरता था.

ऐसे में उनके द्वारा ही एक त्यौहार करवाचौथ के रूप में भी सामने आया होगा. इसे भी पति की लम्बी उम्र से जोड़ने के भी अपने सामाजिक कारण रहे होंगे. यह हम सभी को भली-भांति ज्ञात है कि समाज में आज भी विधवाओं के प्रति सोच में सकारात्मकता उस स्तर तक नहीं आ सकी जिस स्तर तक समाज विकास कर चुका है. ऐसे में सोचा जा सकता है कि दसियों साल पहले विधवाओं के प्रति किस तरह की मानसिकता समाज में व्याप्त रही होगी. उस समय जबकि विज्ञान ने आम जनमानस के बीच अपनी पैठ नहीं बनाई होगी, तकनीक ने अपनी स्थिति स्पष्ट न की होगी तब समाज में भगवान ही सबका पालनहार, तारणहार हुआ करता था. ऐसे में किसी भी महिला के लिए अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक था कि उसके पति की आयु लम्बी रहे. ऐसे में उसके सामने भगवान् ही एकमात्र सहारा रहा होगा. उसके द्वारा इसी कारण सामाजिक मान्यताओं के अधीन बने करवाचौथ को सहज स्वीकार कर लिया होगा.


आज जबकि चंद्रमा के बारे में स्थिति सबके सामने है, किसी भी ग्रह, उपग्रह के द्वारा किसी भी व्यक्ति की उम्र बढ़ने की असलियत के बारे में भी सबको जानकारी है तब करवाचौथ मनाये जाने की स्थितियां पहले से कहीं अधिक भिन्न हैं. आज आधुनिकता के दौर में न केवल त्यौहार-पर्व आधुनिक हुए हैं वरन परम्पराओं-संस्कृतियों ने भी आधुनिकता का चोला ओढ़ लिया है. आज करवाचौथ का सामान्य सा सन्दर्भ पति की लम्बी उम्र से बहुत कम लोग ही लगाया करते होंगे. आज करवाचौथ का सन्दर्भ एक त्यौहार के आयोजन सा है. इस आयोजन में आधुनिक पति भी उसी तरह से अपनी पत्नी का सहयोग करते हैं, जैसी कि स्त्री-पुरुष समानता के विचार में अपेक्षा की जाती है. आज के दौर में इस पर्व का सन्दर्भ सजने-संवरने से, खरीददारी करने से, दाम्पत्य संबंधों की मधुरता से संदर्भित करके देखा जाने लगा है. सभी को ज्ञात है कि उम्र बढ़ने के लिए संयमित जीवन-शैली, नियंत्रित खानपान, उचित देखभाल की आवश्यकता है न कि किसी व्रत की.

आज के दौर में जैसा कि देखने में आता है कि व्यक्ति आधुनिकता की आपाधापी से ऊब कर अब पुनः प्राचीन मान्यताओं की तरफ, प्राचीन जीवन-शैली की तरफ, उसी रहन-सहन की तरफ आकर्षित हो रहा है. कुछ इसी तरह का बदलाव अब नई पीढी में देखने को मिल रहा है. नव-युगलों को हनीमून के नाम पर भले ही अपने शहर से कोसों दूर विचरण करते देखा जाता हो मगर नव-युवतियों में मांग भरने, मंगलसूत्र पहनने, कलाई भर-भर चूड़ियाँ पहनने का चलन सामान्य रूप से देखने को मिल रहा है. कपड़ों के नाम पर भले ही उनके साथ आधुनिकता हो मगर इस तरह के श्रृंगार में अभी भी पारम्परिकता देखने को मिल रही है. इसे भी नई पीढ़ी का पारंपरिक फैशन कहा जा सकता है.

कुछ इसी तरह से ही करवाचौथ के व्रत को लिया जाना चाहिए. यह किसी भी व्यक्ति के लिए उसका नितांत व्यक्तिगत मामला है. इसे न तो जबरिया मनवाया जाना चाहिए और न ही मनाये जाने वालों की भावनाओं का मजाक बनाया जाना चाहिए. करवाचौथ का मनाया जाना अथवा न मनाया जाना किसी भी रूप में स्त्री-विमर्श से संदर्भित नहीं किया जाना चाहिए. इसे किसी भी महिला का व्यक्तिगत रुचि का मामला समझकर उसी पर छोड़ देना चाहिए. आज भी समाज में लाखों महिलाएँ ऐसी हैं जिन्होंने पूरी श्रद्धा के साथ इस व्रत को मनाया मगर आज वैधव्य को भोग रही हैं. बहुत सी महिलाएँ ऐसी होंगी जो आये दिन अपने पति के हाथों प्रताड़ना का शिकार होती होंगी मगर फिर भी उसकी लम्बी आयु के लिए इस व्रत को रखती होंगी. तमाम महिलाएँ ऐसी होंगी जो बिना ऐसे किसी व्रत के बहुत ही हंसी-ख़ुशी से अपने दाम्पत्य जीवन का सुख भोग रही हैं. ऐसे में करवाचौथ व्रत को नितांत व्यक्तिगत मसला समझकर उन्हीं पर छोड़ दिया जाना चाहिए. ये किसी भी महिला के या कहें कि दंपत्ति के प्रसन्न रहने के, ख़ुशी तलाशने के अपने रास्ते हैं, जहाँ जबरन हस्तक्षेप करने का किसी को कोई अधिकार नहीं.

16 अगस्त 2019

बुन्देलखण्ड की संस्कृति में आज भी जीवित है कजली


आधुनिकता का पर्याप्त प्रभाव होने के बाद भी बुन्देलखण्ड क्षेत्र में पावन पर्व कजली उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. यहाँ की लोक-परम्परा में शौर्य-त्याग-समर्पण-वीरता के प्रतीक मने जाने वाले कजली का विशेष महत्त्व है. इस क्षेत्र के परम वीर भाइयों, आल्हा-ऊदल के शौर्य-पराक्रम के साथ-साथ अन्य बुन्देली रण-बाँकुरों की विजय-स्मृतियों को अपने आपमें संजोये हुए कजली मेले का आयोजन आठ सौ से अधिक वर्षों से निरंतर होता आ रहा है. सावन महीने की नौवीं से ही इसका अनुष्ठान शुरू हो जाता था. घर-परिवार की महिलाएँ खेतों से मिट्टी लाकर उसे छौले के दोने (पत्तों का बना पात्र) में भरकर उसमें गेंहू, जौ आदि को बो देती थी. नित्य उसमें पानी-दूध को चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता था, इसके पीछे उन्नत कृषि, उन्नत उपज होने की कामना छिपी रहती थी. सावन की पूर्णिमा को इन पात्रों (दोने) में बोये गए बीजों के नन्हें अंकुरण (कजली) को निकालकर दोनों को तालाब में विसर्जन किया जाता था. बाद में इन्हीं कजलियों का आपस में आदरपूर्वक आदान-प्रदान करके एक दूसरे को शुभकामनायें देते हुए उन्नत उपज की कामना भी की जाती थी. ये परम्परा आज भी चली आ रही है, बस इसमें शौर्य-गाथा के जुड़ जाने से आज इसका विशेष महत्त्व हो गया है.

कजली विसर्जन में बिटिया रानी - उरई, माहिल तालाब 

बुन्देलखण्ड के महोबा राज्य पर पृथ्वीराज चौहान की नजर लगी हुई थी. इसी कारण एक साजिश रचकर कुछ विरोधियों ने महोबा के अतुलित वीर भाइयों आल्हा-ऊदल को राज्य से निकलवा दिया था. पृथ्वीराज चौहान को भान था कि आल्हा और ऊदल के न होने के कारण महोबा की सैन्य क्षमता कमजोर हो गई होगी. ऐसे में अब महोबा को जीतना संभव है. सन 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण की एक योजना बनाई. उसने महोबा की राजकुमारी के अपहरण की योजना बनाई और तय किया गया कि कजलियों के विसर्जन के समय ही आक्रमण करके राजकुमारी का अपहरण कर लिया जाये. महोबा के राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि अपनी हजारों सहेलियों और महोबा की अन्य दूसरी महिलाओं के साथ प्रतिवर्ष कीरत सागर तालाब में कजलियों का विसर्जन करने जाया करती थी. अपनी विजय को सुनिश्चित करने और राजकुमारी के अपहरण के लिए उसके सेनापति चामुंडा राय और पृथ्वीराज चौहान के पुत्र सूरज सिंह ने महोबा को घेर लिया. जिस समय ये घेरेबंदी हुई उस समय आल्हा-ऊदल कन्नौज में थे. 

राजा परमाल खुद ही आल्हा-ऊदल को राज्य छोड़ने का आदेश दे चुके थे, ऐसे में उनके लिए कुछ कहने-सुनने की स्थिति ही नहीं थी मगर उनके साथ-साथ सभी लोग जानते थे कि आल्हा-ऊदल के बिना पृथ्वीराज चौहान की सेना को हरा पाना मुश्किल होगा. इस विषम परिस्थिति में महोबा की रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल को महोबा की रक्षा करने के लिए तुरंत वापस आने का सन्देश भिजवाया. सूचना मिलते ही आल्हा-ऊदल अपने चचेरे भाई मलखान के साथ महोबा पहुँच गए. परमाल के पुत्र रंजीत के नेतृत्व में पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया गया. इस युद्ध की सूचना मिलते ही राजकुमारी चंद्रावलि का ममेरा भाई अभई (रानी मल्हना के भाई माहिल का पुत्र) उरई से अपने बहादुर साथियों के साथ महोबा पहुँच गया. लगभग 24 घंटे चले इस भीषण युद्ध में आल्हा-ऊदल के अद्भुत पराक्रम, वीर अभई के शौर्य के चलते पृथ्वीराज चौहान की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा. सेना रणभूमि से भाग गई. इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान का पुत्र सूरज सिंह भी मारा गया. इसके अलावा राजा परमाल का पुत्र रंजीत सिंह और वीर अभई भी वीरगति को प्राप्त हुए. कहा जाता है कि इसी युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने ऊदल की हत्या छलपूर्वक कर दी थी. जिसके बाद आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को मारने की शपथ ली किन्तु बाद में अपने गुरु की आज्ञा मानकर संन्यास ग्रहण कर जंगल में तपस्या के लिए चले गए थे.

इस ऐतिहासिक विजय के बाद राजकुमारी चंद्रावलि और उसकी सहेलियों के साथ-साथ राजा परमाल की पत्नी रानी मल्हना ने, महोबा की अन्य महिलाओं ने भी भुजरियों (कजली) का विसर्जन किया. इसी के बाद पूरे महोबा में रक्षाबंधन का पर्व धूमधाम से मनाया गया. तब से ऐसी परम्परा चली आ रही है कि बुन्देलखण्ड में रक्षाबंधन का पर्व भुजरियों का विसर्जन करने के बाद ही मनाया जाता है. इसके बाद ही इस क्षेत्र में बहिनें रक्षाबंधन पर्व के एक दिन बाद भाइयों की कलाई में राखी बाँधती हैं. वीर बुंदेलों के शौर्य को याद रखने के लिए ही कहीं-कहीं सात दिनों तक कजली का मेला आयोजित किया जाता है. यहाँ के लोग आल्हा-ऊदल के शौर्य-पराक्रम को नमन करते हुए बुन्देलखण्ड के वीर रण-बाँकुरों को याद करते हैं.

10 फ़रवरी 2019

दिव्यता और ऐतिहासिकता का पर्व है वसंत पंचमी


माघ मास की पंचमी को वसंत पंचमी के पावन पर्व के रूप में मनाया जाता है. शास्त्रों में इसे ऋषि पंचमी के रूप में जाना जाता है. वसंत पंचमी पर ज्ञान, पौराणिकता, आध्यात्मिकता के साथ-साथ दिव्यता का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है. ऋतुराज वसंत सबके मन को लुभाता हुआ अपने आपमें दिव्यता, भव्यता, ऊर्जा का संचार करता है. वासंती प्रवाह न केवल प्रकृति को वरन उसके अंगों-उपांगों तक को नवीन ऊर्जा से भर देती है. वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है. प्रकृति से लेकर पशु-पक्षी तक सभी उल्लास से भर जाते हैं. माँ सरस्वती के जन्मने के रूप में वर्णित पौराणिकता के चलते जहाँ वसंत पर्व में पावनता के दर्शन होते हैं वहीं सम्पूर्ण प्रकृति पर छाई माँ शारदे के वीणा की मधुर तान सबको सम्मोहित करती है. 

पौराणिकता मान्यता है कि पृथ्वी के निर्माण के बाद जीवों की उत्पत्ति हुई,, उसके बाद भी वहां सूनापन बना हुआ था. ब्रह्मा जी के लिए ये चिंता का विषय था कि इतनी गहन और श्रेष्ठ सर्जना के बाद भी पृथ्वी पर शांति छाई हुई है. इसके पश्चात् उन्होंने विष्णु जी की आज्ञा से पृथ्वी पर एक दिव्य शक्ति का प्रादुर्भाव किया. इस शक्ति के उत्पन्न होते ही चारों तरफ ज्ञान, उत्सव, संगीत, राग-रागिनियों, पावनता, दिव्यता का वातावरण चित्रित होने लगा. स्वर-लहरियाँ दसों दिशाओं में गूँजने लगीं. यह दिव्य शक्ति अपने छह हाथों के साथ प्रकट हुई जिसने एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में कमल, तीसरे और चौथे हाथ में कमंडल तथा पाँचवें और छठवें में वीणा धारण किये हुए थे. इसके दिव्य रूप से ऋषियों को वेदमंत्रों का ज्ञान हुआ. सभी जीवों को उस दिव्य शक्ति की वीणालहरी से स्वर प्राप्त हुआ. ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा. वर्तमान में माँ सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है. ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं. वसन्त पंचमी को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं.


माँ सरस्वती को भारतीय मान्यतानुसार ज्ञान की, विद्या की देवी स्वीकार भी किया गया है. इस पर्व की पावनता की वैज्ञानिकता के सम्बन्ध में इसलिए भी सहज विश्वास किया जा सकता है क्योंकि जिस प्राकृतिक वातावरण में वसंत का आगमन होता है उस समय चारों तरफ हरियाली के साथ-साथ खेत पीले रंग की चादर ओढ़े हुए सुहाने मौसम का स्वागत कर रहे होते हैं. खेतों में फैली फसलों की हरियाली और वासंती रंग किसानों के मेहनत का सुखद पुरस्कार दर्शा रही होती है. मस्ती में आनंद से सराबोर होते किसान झूमते हुए इसी वासंती रंग से अपार ऊर्जा का संचरण अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं. पूस की कड़कती ठण्ड के बाद सुहाने, गुलाबी मौसम में चारों तरह आनंद और मनमोहकता का बिखराव दिखाई देता है. उत्सवधर्मी भारतीय ऐसे किसी भी अवसर को आनंद में परिवर्तित कर लेते हैं जहाँ सर्वत्र खुशियों की आहट सुनाई देने लगे. यही कारण है कि वसंत पंचमी को किसी भी तरह के मांगलिक कार्यों का शुभारम्भ किया जा सकता है. वैदिक परम्पराओं का पालन करने वाले, मुहूर्त, शुभ घड़ी आदि देखकर कार्य करने वाले लोग भी इस दिन स्वेच्छा से निर्बाध रूप से अपने मांगलिक कार्यों का आरम्भ करते हैं.

वसंत पंचमी की पौराणिकता के साथ-साथ इसके साथ ऐतिहासिकता भी सम्बद्ध है. ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वसंत पंचमी का दिन पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है. उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को सोलह बार युद्ध में पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया. इसके बाद  सत्रहवीं बार हुए युद्ध में पृथ्वीराज चौहान जब पराजित हो गए तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा. वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं. इसके बाद गौरी ने उनको मृत्युदंड देने से पहले उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा. पृथ्वीराज चौहान के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया. चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान को संकेत करते हुए मोहम्मद गौरी के बैठे होने के स्थान का आभास करवाया.
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान॥

पृथ्वीराज चौहान ने कोई भूल नहीं की. उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से जो बाण छोड़ा वह गौरी के सीने में जा धंसा. इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया.  सन 1192 ई को घटित यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी.

वसंत पंचमी की पौराणिकता, ऐतिहासिकता और उसकी दिव्याभा के साथ-साथ उसमें साहित्यिकता का भी समन्वय है. सम्पूर्ण भारतवर्ष की समस्त ऋतुओं में से वसंत ऋतु एकमात्र ऐसी ऋतु है जिसे सभी आयुवर्ग के लोगों द्वारा पसंद किया जाता है. विद्या की देवी माँ सरस्वती के अवतरण दिवस के कारण इसका सम्बन्ध शिक्षा, ज्ञान से होने के कारण शिक्षक, शिक्षार्थी के साथ-साथ साहित्यकार, लेखक भी सहज रूप में इससे अपने को सम्बद्ध मानते हैं. शिक्षक, शिक्षार्थी शैक्षणिक संस्थानों में, गुरुकुलों में, विद्यालयों में माँ सरस्वती का पूजन करते हैं. इसी तरह कवियों, साहित्यकारों, लेखकों ने इस पर्व को युवामन के चिर-अभिलाषी पर्व के रूप में वर्णित किया है. उनके द्वारा वसंत का उद्घाटन कहीं नायिका के रूप में चित्रित किया गया है तो कहीं उसे प्रेयसी के रूप में दर्शाया गया है. ऐसा विरल समुच्चय अन्यत्र देखने को मिलता नहीं है जबकि किसी एक पर्व के साथ पावनता, पौराणिकता, परम्परा, ऐतिहासिकता, साहित्यिकता, शिक्षा, ज्ञान, ऊर्जा, जोश आदि का समन्वय हो. देखा जाये तो वसंत पंचमी सृजन का प्रतीक है. उमंग, उल्लास, जोश का प्रतीक है. नवचेतना का गान है तो नवोन्मेषी प्राकट्य का आधार है. वसंत की इस पावन वासंती ऊर्जा में प्रयास यही हो कि सभी अपने में नवचेतना का स्फूर्त प्रकीर्णन महसूस करें. नवचेतना का संचार भरें और उस नवीन स्फूर्ति से देशहित में, समाजहित में खुद को प्रेरित करें.



04 नवंबर 2018

त्योहारों पर पक्षपाती निर्णय


समय के साथ किस तरह स्थितियाँ बदल जाती हैं या कहें कि बदल दी जाती हैं, इसका एहसास किसी को नहीं होता. एक समय था जबकि हमारा बचपन था तब मैदान बच्चों से भरे रहते थे. शाम को घर बैठे रहना डांट का कारण बनता था. हरहाल में शाम को थोड़ी देर मैदान में जाकर कुछ न कुछ खेलना अनिवार्य हुआ करता था. अब स्थिति इसके ठीक उलट है. अब मैदान एकदम खाली हैं. शाम को घर से बाहर निकलना बच्चों के लिए अनिवार्य नहीं है. अब वे बाहर हाथ-फिर चलाने के बजाय या तो मोबाइल पर उंगलियाँ चलाते हैं या फिर टीवी पर आँखें. इसी तरह हमें अच्छे से याद है कि पहले नियमित रूप से मिलना-जुलना हुआ करता था. सम्बन्ध कभी भी दो पर दो के नहीं रहे वरन पारिवारिक रहे. बिना किसी औपचारिकता के बेधड़क एक-दूसरे के घर आना-जाना हुआ करता था. न केवल आना-जाना वरन खाना-पीना भी. ऐसा एक-दो दिन का हाल नहीं हुआ करता था बल्कि बहुतायत में यही हुआ करता था. अब स्थिति इसके ठीक उलट हो गई है. अब बाहर जाना होता है तो किसी के घर नहीं वरन किसी होटल में, रेस्टोरेंट में. अब यदि किसी के घर जाना होता भी है तो अकेले, पारिवारिक आना-जाना न के बराबर दिखाई देता है. इसमें भी किसी के घर जाने के पहले उसकी अनुमति सी चाहिए होती है. ऐसा इसलिए नहीं कि उसके घर जाने पर उसके न मिलने पर समय की बर्बादी होगी वरन इसलिए कि जिस समय मिलने जाना है उस समय वह अपने किसी टीवी कार्यक्रम को देखे में तो व्यस्त नहीं. किसी लाइव शो को देखने में, किसी मैच में चिल्लाने में, किसी रोने-ढोने वाले सीरियल देखने में तो मगन नहीं.


कुछ ऐसे ही हालात त्योहारों को लेकर सामने आ रहे हैं. उसमें भी विशेष रूप से हिन्दुओं के त्यौहार को लेकर. इस्लाम में ताजिया कितना भी बड़ा बनाया जाने, सड़क पर निकाला जाये कोई दिक्कत नहीं. हाँ, दही-हांडी की ऊँचाई निर्धारित होगी. बकरीद में कितने भी बकरे काट दिए जाएँ कोई प्रदूषण नहीं फैलना उसके खून, खाल, मांस से न पर्यावरणीय संकट उत्पन्न होना है, ऐसा बस उतनी देर में ही होगा जबकि दीपावली के पटाखे फोड़े जायेंगे. हाईवे का निर्माण होना है तो मंदिरों के हटाये जाने पर विकास-कार्य का हवाला दिया जायेगा मगर यदि मामला किसी मस्जिद के, मजार के हटाने का आता है तो वहां मजहबी भावनाएं घायल होने लगती हैं. मंदिर में प्रवेश की बात आती है तो यह सभी का अधिकार होता है मगर यदि बात मस्जिद में प्रवेश की आ जाये तो वहां मजहबी भावनाओं में अदालत हस्तक्षेप नहीं करती. इन विकट स्थितियों के बीच यदि बचपन याद करते हैं तो याद आता है दीपावली का निबंध. जिसमें कि हम पढ़ा करते थे कि दीपावली दीपों, आतिशबाजी, रौशनी का पर्व है. इसके पटाखों के धुंए से कीड़े-मकोड़े-मच्छर आदि मर जाते हैं. अब देख रहे है कि पटाखों के चलाये जाने पर भी कानूनी पकड़ बनाई जाने लगी है.

संभव है कि आज की स्थितियों में इन्सान ने अपने लाभ के लिए पटाखों को पहले के मुकाबले अधिक हानिकारक बना दिया हो मगर क्या पूरे साल में बस एक रात में कुछ घंटे पटाखे चलाना ही प्रदूषण को बढ़ाता है? यदि निष्पक्ष ढंग से देखा जाये तो चौबीस घंटे मकानों, कार्यालयों, बाजारों, दुकानों आदि में चलते एसी, सड़कों पर लाखों की संख्या में दौड़ती एसी कारें, कारखानों से निकलना धुआँ आदि क्या पर्यावरण को संरक्षित कर रहा है? क्या इन सबसे प्रदूषण नहीं फैलता है? ऐसे में महज एक रात में कुछ घंटों को कानूनी शिकंजे में कसने की जो नीति अपनाई जा रही है वह एक दृष्टि से भले ही तार्किक समझ आ रही हो मगर जबकि एक-एक आदमी, निर्णय देने वाले लोग भी उसी सिस्टम का हिस्सा बने हुए हैं जो प्रदूषण फैला रहा है तब आतिशबाजी नियंत्रण सम्बन्धी निर्णय पक्षपातपूर्ण समझ आते हैं. एक तरह की शिगूफेबाजी ही नजर आती है.

कोई भी पर्व, त्यौहार हो सभी के लिए सुखदायी हो, ऐसी कामना है मगर यदि धर्म-मजहब देखकर उनके कृत्यों पर निर्णय दिए जायेंगे तो यह सामाजिक विभेद की स्थिति पैदा करेगा. ऐसे में सुखदायी स्थिति, सौहार्द्र बनना कहीं से भी सहज नहीं समझ आता.

03 मार्च 2018

इंसानों के बीच बढ़ती दूरियाँ


आधुनिक होकर हम सभी विस्तारित होते जा रहे हैं. इसमें तकनीक भी सहायक सिद्ध हो रही है. तकनीकी विकास ने इंसानों के बीच, शहरों के बीच, राज्यों के बीच, देशों के बीच दूरियों को कम किया है. इंसानों को छोड़ कर बाकी तत्वों के लिए दूर या पास होने का बहुत भावनात्मक स्तर नहीं रहता है. इन्सान एकमात्र ऐसा तत्त्व है जो भौगोलिक दूरी के साथ-साथ भावनात्मक दूरी का एहसास रखता है. तकनीक के विकास ने भौगोलिक दूरियों को लगभग समाप्त सा कर दिया है. मोबाइल क्रांति ने जहाँ पल भर में एक-दूसरे को एक-दूसरे के सामने खड़ा करने की क्षमता को विकसित किया है वहीं यातायात सुविधा ने दूरियों को घंटों में समेट दिया है. अब हम दूरियों की बात किमी में नहीं वरन समय के अनुपात में करने लगे हैं. मोबाइल क्रांति के साथ-साथ सोशल मीडिया के तमाम सारे मंचों ने दूरियों को मिटाते हुए सबको एक-दूसरे से मिलने का अवसर दिया है. देशों की सीमाओं को लाँघते हुए समूचे विश्व को एक गाँव में परिवर्तित कर दिया है.


दूरियों के भेद को भौगोलिक रूप से मिटाने के बाद भी इंसानों ने दिल के भेद को मिटाने में सफलता हासिल नहीं कर पाई है. तकनीकी विकास ने लोगों को परदे पर एक-दूसरे के सामने जरूर बैठा दिया है मगर वास्तविक रूप से आमने-सामने बैठने की मानसिकता में लगातार गिरावट आती जा रही है. सामान्य दिनों की मेल-मिलाप वाली प्रक्रिया, दोस्त-यारों की घंटों के हिसाब से लगने वाली बैठकी, दर्जनों की संख्या में एकत्र होकर जमघट लगाने की सोच भी अब देखने को नहीं मिल रही है. सामान्य दिनों के मेल-मिलाप में आने वाली इस गिरावट को पर्व-त्योहारों के अवसर पर भी देखा जा रहा है. अब पर्व-त्यौहार भी औपचारिकता में संपन्न या कहें कि निपटाए जाने लगे हैं. दोस्तों के हुजूम के हुजूम अब सड़कों पर, बाजार में, घरों में देखने को नहीं मिलते हैं. हँसी-मजाक की महफ़िलें अब जमती नहीं दिखाई देती हैं. कई-कई परिवारों के बीच दिखाई देने वाले आत्मीय रिश्तों का भी लोप होता दिखाई देने लगा है. त्योहारों के अवसर पर मिलने-जुलने की परम्परा को अब बोझिलता से निपटाने का उपक्रम किया जाने लगा है. अब आपस में मिलने-जुलने के बजाय लोग मोबाइल के माध्यम से मिलने को ज्यादा सुविधाजनक समझने लगे हैं. सोशल मीडिया मंचों का अधिकाधिक उपयोग करके वे पर्व-त्योहारों की औपचारिकता का निर्वहन करने लगे हैं. इत्तेफाक से मिलने-मिलाने की स्थिति यदि कभी, कहीं अपवादस्वरूप बनती दिखती भी है तो वहां मोबाइल का हस्तक्षेप सबसे ज्यादा रहता है. आमने-सामने बैठे लोग भी आपस में बातचीत करने से ज्यादा पल-पल मोबाइल को निहारने में लगे रहते हैं. जरा-जरा सी देर में इस तरह मोबाइल खंगाला जाता है जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण मसला हल किया जा रहा हो.


सामान्य रूप से इस तरह की हरकतें असामान्य हरकतों में, बुरे बर्ताव के रूप में देखी जानी चाहिए मगर आधुनिकता के वशीभूत सब इसको सामान्य सी घटना, सामान्य सी प्रक्रिया, दैनिक चर्या मानकर सहज रूप में स्वीकार करने लगे हैं. असल में लगभग सभी कहीं न कहीं इस हरकत से खुद भी ग्रसित हैं, ऐसे में उनके द्वारा किसी दूसरे को दोष देने की हिमाकत भी नहीं की जा सकती है. तकनीक के विकास ने जहाँ बहुत सारे सार्थक परिणाम समाज को दिए हैं, उसी तकनीक ने इस तरह का नकारात्मक माहौल भी समाज में बनाने में सहायक भूमिका निभाई है. इंसानों के बीच भौगोलिक दूरियों के मिटने से जहाँ समूचा विश्व एकसूत्र में बंधा दिखाई देता है वहीं दो इन्सान कोसों दूर दिखाई देते हैं. ऐसा लगता है कैसे आमने-सामने बैठे दो इंसानों के बीच बहुत ऊंची दीवार उठी हुई है या फिर वे दोनों बहुत दूर बैठे हुए हैं. यह तकनीकी विकास भले ही आभासी रूप में, सोशल मीडिया के चमकते परदे पर एक-दूसरे को आमने-सामने खड़ा कर रहा हो मगर उसी तकनीक ने दो इंसानों को आपस में बहुत-बहुत दूर कर दिया है. ये दूरी न केवल मानसिक, शारीरिक रूप से परिलक्षित होने लगी है वरन संवेदनात्मक रूप से भी इंसानों में दूरियाँ आने लगी हैं.

02 मार्च 2018

उस होली की मस्ती का अपना मजा था


हम लोगों के लिए होली का मतलब हमेशा से हुल्लड़ से ही रहा है. उस समय भी जबकि हम छोटे से थे, उस समय भी जब हम किशोरावस्था में कहे जा सकते थे और तब भी जबकि हमें भी बड़ा माना जाने लगा था. हमारे लिए ही नहीं, हमारे पूरे परिवार के लिए होली का मतलब खूब मस्ती, खूब हुल्लड़, खूब हंगामा करना होता था. किसी भी त्यौहार का, पर्व का मजा उस समय और भी बढ़ जाता है जबकि पूरा परिवार एकसाथ हो. आज भले ही हम सभी लोग अपनी-अपनी व्यस्तताओं, अपने-अपने कार्यों में व्यस्त होने के कारण भले ही किसी त्यौहार पर एकसाथ न जुट पा रहे हों मगर उस समय होली और दीपावली, ये दो त्यौहार ऐसे होते थे कि सभी चाचा लोग सपरिवार उरई इकठ्ठा हुआ करते थे. आज भले ही त्योहारों पर इकठ्ठा होने में अन्तराल आया हो मगर परिवार में किसी भी वैवाहिक आयोजन पर अथवा किसी मांगलिक कार्य पर एकजुट हो जाते हैं. बहरहाल, आज की चर्चा फिर कभी, उस समय हम लोग अपने बचपन में थे और पिताजी-अम्मा, चाचा-चाची लोग अपनी युवावस्था में थे. हम सभी भाई-बहिन एकसाथ जुटते तो बस हंगामा ही हंगामा होता. हम बच्चों के हंगामे में चाचा लोग भी शामिल हो जाया करते थे. तीनों चाचियाँ एकसाथ न केवल अपने कामों को हँसते-बोलते निपटाती बल्कि हम बच्चों की तमाम फरमाइशें भी पलक झपकते ही पूरी करतीं.


होली, दीपावली के त्योहारों में मिलने पर लगता जैसे सारे संसार की खुशियाँ उन्हीं कुछ दिनों में सिमट आई हों. इसमें भी होली कुछ ज्यादा पसंद आता हम बच्चों को क्योंकि इसमें हुल्लड़ करने की खुली छूट मिली होती. तीनों चाचा लोगों का ज्यादातर होलिका दहन वाले दिन ही आना हुआ करता था. उनके आने के बाद होली के हंगामेदार तरीके से मनाये जाने के तरीके विचार किये जाते. हम सभी भाई-बहिनों की फ़ौज को किसी न किसी चाचा का आशीर्वाद मिल जाता बस उसी रात से हंगामा शुरू हो जाता. वहाँ घर के सभी बड़े लोग होलिका दहन कार्यक्रम में गए होते यहाँ हम बच्चे चाचा के साथ मिलकर कोयला पीस रहे होते, काजल की डिब्बियाँ खोजी जा रही होतीं, कड़ाही, तवे के पीछे की कालिख खुरच रहे होते, फाउंटेन पेन की काली स्याही को कहीं एक जगह इकठ्ठा करने में लगे होते. रात को खाना खाने के बाद की गप्पबाजी दो-दो, तीन-तीन बजे तक समाप्त नहीं होती. हम बच्चे जागते, सोते सी दशा में सबके सोने का इंतजार करते रहते. सबके चेहरे पर मूँछें बनाये जाने का काम, चेहरे पर कलाकारी दिखाने के काम भी चाचा के साथ मिलकर करना होता था. सुबह जागने पर सभी अपने-अपने चेहरों की कारीगरी देखकर हँसता, खीझता. हम बच्चे भी इससे न बच पाते. सबके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ बनाने वाले हम बच्चों के चेहरे भी रँगे-पुते होते थे.


होली का दिन. रंग खेलने का दिन. पिचकारी की धार मारने का दिन. सबको रंगीन बनाने का दिन. उस दिन तो हम बच्चे तो बच्चे पिताजी-अम्मा, चाचा-चाची भी बच्चे नजर आते. उन दिनों घर पर मिलने वाले भी बहुत लोग आते. उनकी खूब खातिरदारी की जाती. खूब बड़ी छत पर उनको ससम्मान ले जाया जाता. पिताजी और तीनों चाचा लोग मिलकर सबको अपनी गिरफ्त में लेकर वो हाल करते कि पूछिए मत. कभी-कभी कोई बहुत बुरी तरह से रँगा हुआ चेहरा लेकर आता तो पहले उसका चेहरा धुलवाया जाता और फिर बाकायदा कुर्सी पर बैठा कर चेहरे पर पुनः होली खेली जाती. कोई ड्राइंग करने वाले ब्रश से कलाकारी दिखा रहा है. कोई उंगली से कानों में रंग भरने में लगा है. कोई पैरों में महावर लगाकर उसका श्रृंगार कर रहा है तो कोई आँखों में काजल लगाकर उसे संवार रहा है. पूरी प्रक्रिया में कोई जोर-जबरदस्ती नहीं, कोई हंगामा नहीं, कोई खींचा-तानी नहीं इससे हँसते-खेलते माहौल में होली का उत्सव अपने चरम पर पहुँचता जाता. दिन के एक निश्चित समय तक घर में मिलने आये लोगों संग, आपस में होली खेलने के बाद, मोहल्ले में ऊधम मचा लेने के बाद नगर भ्रमण पर निकला जाता. चूँकि गुझिया, पपड़िया, मठरी, शकरपारे आदि इतनी बार और इतने अधिक खाए जा चुके होते कि भोजन करने की आवश्यकता समझ ही नहीं आती.


चाचा लोग हम बच्चों की गैंग के सरगना होते और फिर हम सबका धमाल शुरू होता सडकों पर. परिचित हो या फिर अपरिचित, सभी को एक निगाह से देखा जाता. सबको रंग लगाया जाता, गुलाल लगाया जाता. कोई परिचित का मिला तो हम बच्चों ने उसके पैर छूकर आशीर्वाद लिया. रंग लगाने का, गुलाल लगाने का क्रम संपन्न हुआ. कोई अपरिचित मिला तो उससे अभिवादन हो गया. सड़क चलते बड़ों, बच्चों के अलावा दुकानदारों तक से होली खेल ली जाती. उस समय संपत की पान की बड़ी प्रसिद्द दुकान हुआ करती थी. वहाँ की दूध की बोतल आज भी अपने उसी स्वाद में मिलती है. उसके बाद लालजी चाट का स्वाद लिया जाता. किसी हाथठेले वाले की दुकान से पिचकारी, मुखौटे आदि खरीदने का काम भी कर लिया जाता. किसी कन्फेक्शनरी की दुकान से टॉफी, कम्पट आदि का आनंद लिया जाता. ये दुकानदार भी हम बच्चों के रंगों का शिकार हो जाया करते. तब आज की तरह किसी तरह का मनमुटाव देखने को नहीं मिलता था. आज के जैसी आपसी कटुता भी देखने को नहीं मिलती थी. न तो बड़े किसी बात का बुरा मानते थे और न ही छोटे किसी तरह का अभद्रता करते नजर आते.

आज होली पर उस समय की होली के हंगामे बराबर याद आते हैं. भाग-भाग कर लोगों को पकड़ना. उनको कुर्सी पर बैठाकर लाल-नीला-हरा करना. कभी-कभी कपड़ाफाड़ होली मनाया जाना. किसी-किसी को गाने की धुन पर खूब नचाया जाना. चेहरे, कान, दांत, हाथ, पैर, पेट, पीठ आदि को बिना रंगीन किये न जाने देना. कभी-कभी रंगों के साथ खूब पानी का मजा लेना. अब सब यादें बनी हुई हैं. चाचा-चाची लोग अपने-अपने परिवार में सिमट गए हैं. हम बच्चों के अपने-अपने परिवार हो गए हैं. मिलना अब नियमित भले न हो पाता हो मगर होली, दीपावली सब एकदूसरे को याद अवश्य कर लेते हैं. होली के हुड़दंग को एक-दूसरे से साझा कर लेते हैं.