क्या इंसान बाजार के हाथों की कठपुतली बनता जा
रहा है या कठपुतली बन चुका है? ये ऐसा सवाल है जो आये दिन हर
उस व्यक्ति के मन में कौंधता होगा जो संवेदनशील होगा. व्यक्ति के जीवन की आज यह
स्थिति बनी हुई है कि रोजमर्रा की आवश्यकता की छोटी से छोटी वस्तु से लेकर जीवन का
बड़े से बड़ा पल बाज़ार के द्वारा संचालित होने लगा है. सुबह जागने के लिए व्यक्ति को
किस घड़ी के अलार्म की आवश्यकता है, जागने के बाद उसे किन-किन
पोषक तत्त्वों से भरे टूथपेस्ट की जरूरत है, यदि वह व्यक्ति
सुबह की सैर पर जाता है तो कौन से जूते उसके लिए लाभदायक हैं, किस तरह के कपड़े उसके स्वास्थ्य का बेहतर ख्याल रख सकते हैं आदि-आदि बाज़ार
ही तय कर रहा है. सुबह के नाश्ते, दोपहर के भोजन,
कार्यक्षेत्र की स्थिति, बच्चों का स्कूल, गृहणियों का काम-काज आदि सबकुछ अब बिना बाज़ार के पूरा होता नहीं दिखाई
देता है.
इन स्थितियों से दो-चार होने के लिए व्यक्ति को
बाज़ार जाने की आवश्यकता नहीं है. अब बाज़ार स्वयं चलकर आपके घर के भीतर आ चुका है.
टीवी पर विज्ञापन के सहारे, समाचार-पत्र, पत्रिकाओं के सहारे, हाथ में बराबर चलते मोबाइल के
सहारे बाज़ार ने न केवल घर में जगह बना ली है बल्कि उसने इंसान के दिल-दिमाग पर
कब्ज़ा कर लिया है. घर से बाहर निकलते ही सड़क किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स, गली-मोहल्ले के कोने में झाँकते छोटे-छोटे से बैनर,
खम्बों, दीवारों पर चिपके पोस्टर,
जगह-जगह बँटते पैम्पलेट हर समय इंसान को बाज़ार की कैद में होने का आभास करवाते
हैं. अब खाने-पीने के सामान को खरीदने की बात हो या फिर पहनने-ओढ़ने के लिए वस्त्रों
का चुनाव करना हो, घर को सजाने के लिए किसी वस्तु की चाहना
हो या फिर कोई मंगलकारी आयोजन हो, सभी में व्यक्ति की सोच से
अधिक तेज चलते हुए बाज़ार अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है. हर एक पल के लिए बाज़ार
ने कुछ न कुछ व्यवस्था कर रखी है. इंसान ख़ुशी के क्षणों में जी रहा है या ग़म साझा
कर रहा है, बाज़ार ने इसके लिए भी इंतजाम कर रखे हैं.
जन्मदिन हो, शादी हो, वैवाहिक वर्षगाँठ हो, पर्व-त्यौहार हों या फिर कोई
भी आयोजन विज्ञापनों के द्वारा इंसान को इतना सम्मोहित कर लिया जाता है कि वह बिना
बाज़ार के आगोश में आये कुछ कर ही नहीं सकता है. कुछ करते हुए दाग लग जाएँ तो दाग
अच्छे हैं, कुछ अच्छा होने पर कुछ मीठा हो जाये. भले ही टेढ़ा
लगे पर मेरा सा लगे, कितना भी बड़ा डर हो पर उसके आगे जीत का
एहसास दिखे, त्यौहार में पारंपरिक मिष्ठान बने या न बने पर
कुछ मीठा हो जाये का विकल्प बाज़ार ने इंसान के सामने परोस रखा है. एकबारगी यदि
देखें तो हँसी-ख़ुशी के माहौल को, अपने उल्लास को ऐसे किसी भी
उत्पाद के सहारे मिल-बाँट कर मना लेना बुरा नहीं है. बुरे का एहसास उस समय होता है
जबकि व्यक्ति बजाय इन उत्पादों का उपयोग करने के, इनका उपभोग
करने के स्वयं ही उत्पाद बनने लगता है.
यह इस बाजारीकरण की सबसे ख़राब स्थिति है कि
इंसान कब बाज़ार में उपलब्ध उत्पादों का उपयोग करते-करते खुद ही उत्पाद बन गया उसे
खबर ही नहीं हुई. कभी गौर किया है इस बात पर कि शादी-विवाह जैसा विशुद्ध पारिवारिक
और पवित्र संस्कार कब बाज़ार के हवाले हो गया? अब विवाह
संस्कार परिजनों के हाथों से नहीं, उनकी मनमर्जी से नहीं
बल्कि बाजार के हाथों से संचालित होने लगा है. अब बाजार बताने लगा है कि
दूल्हा-दुल्हन को कैसे तैयार होना है. अब बाज़ार ने निर्धारित कर दिया है कि सजावट
कैसी होनी है. अब बाज़ार बता रहा है कि पूरे आयोजन में कैसे और किस तरह से फोटोशूट
किया जाना है. बाज़ार की इन हरकतों ने जहाँ एक तरफ पाश्चात्य स्थिति को भारतीय
संस्कृति पर थोपने जैसा काम किया है वहीं अनावश्यक रूप से व्यक्तियों की जेब पर भी
डाका डाला है.
इन सबमें भारी-भरकम विज्ञापन, टीवी के रंगीन लकदक करते सीरियल भी सहायक भूमिका में नजर आने लगे हैं.
विवाह अब संस्कार नहीं, पारिवारिक आयोजन नहीं बल्कि बाजारीकरण
का सशक्त मॉडल बनकर सामने आया है. अकेले विवाह ही नहीं वरन व्यक्ति से सम्बंधित वे
तमाम सारे आयोजन जिनमें किसी न किसी रूप में व्यक्ति का भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ा है, सबको बाज़ार ने अपने कब्जे में ले रखा है. विवाह के पहले का फोटोशूट कब
कैसे जनसामान्य के बीच जा घुसा किसी को खबर न हुई. शालीनता के महीन से परदे को
गिराते हुए बाज़ार ने प्री-वेडिंग शूट के नाम पर अशालीनता फैलानी शुरू कर दी गई.
विवाह का एकमात्र यही आयोजन नहीं बल्कि उससे जुड़े तमाम सारे छोटे-बड़े आयोजन भी
बाज़ार ने हड़प लिए हैं. हल्दी, मेंहदी,
द्वारचार, जयमाल, फेरे, विदाई आदि को अब बाज़ार संचालित कर रहा है. कैसे कपडे पहने जाने हैं, किस कंपनी के पहने जाने हैं, किसे क्या भूमिका
निभानी है, कैसे नृत्य करते हुए कन्या आएगी, किस तरह से जयमाल होगी, वर-वधु कैसे आधुनिकता के
वशीभूत होकर फेरे लेंगे, विदाई के समय कन्या कैसे और कितना
रोएगी आदि बाज़ार ने सिखा-पढ़ा दिया है. मातृत्व जैसे भावनात्मक एहसास को भी
विज्ञापनों, फोटोशूट के हाथों में थमा दिया गया. इन कृत्यों
में आधुनिकता, वर्तमान चलन के नाम पर फूहड़ता, नग्नता, अशालीनता के अलावा और कुछ देखने को नहीं
मिला.
बाज़ार ने न केवल शालीनता के दायरे को पार किया
बल्कि अनावश्यक रूप से घर-परिवारों में आर्थिक बोझ को भी बढ़ाया है. महँगे होते
जाते आयोजन, अत्यंत भव्यता बिखेरती साज-सज्जा, सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से बर्बाद किया जाता धन आदि किसी
भी रूप में किसी एक व्यक्ति की सकारात्मक सोच नहीं है. इसके पीछे पूरी तरह से
नियोजित ढंग से बाज़ार अपना काम कर रहा है. उसका काम अपने उत्पाद को बेचना मात्र
है. इस प्रक्रिया में स्वयं इंसान ही उत्पाद बनकर उभरने लगा है. वह बिना
सोचे-विचारे बस इन कृत्यों को मशीनी ढंग से करने में लगा है. वह स्वयं ही नहीं समझ
पा रहा है कि इन कृत्यों को करने में उसे ख़ुशी मिल रही है या फिर वह बाज़ार के
हाथों में नाच रहा है?
ये प्रोटेक्टिड है शायद इसलिए ।
जवाब देंहटाएंलेख बड़ा अच्छा लगा, हमारा जीवन अब पैकेज पर चल रहा है। पक्की सौदेबाजी , नौकरी में पैकेज, शिक्षा में पैकेज, अस्पतालों में पैकेज, शादी ब्याह के लिए पूरा पैकेज। इससे बड़ा बाजारवाद कैसा होगा।
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