30 अक्टूबर 2024

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो, यह वाक्य सुन्दरसार्थक और मनोहारी प्रतीत होता है. चारों ओर दियों की जगमगमोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाशरंग-बिरंगी आतिशबाजीरोशनियों के साथ फूटते पटाखे आदि अद्भुत छटा का प्रदर्शन करते हैं. बच्चोंयुवाओंबुजुर्गोंपुरुषों-महिलाओं का स्वाभाविक रूप हर्षोल्लासित होना दिखाई देता है. सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते नजर आते हैं. नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता का वातावरण स्थापित करते हैं. दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना का संचार करता है. घरों की साफ-सफाईलोगों से मिलना-जुलनामिठाई-पकवान का बनना आदि-आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है.

 

भारतीय संस्कृति में पर्वों, त्यौहारों का महत्व हमेशा से रहा है. यहाँ की अनुपम वैविध्यपूर्ण संस्कृति में प्रकृति के अन्तर्गत मनमोहक ऋतुओं की तरह से विविध पर्व-त्यौहार भी हैं. इन त्यौहारों की विशेषता यह है कि इन्हें धार्मिकता के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है. ये पर्व धार्मिक संदेशों के मध्य से सामाजिक सरोकारों की, सामाजिक संदर्भों की, समरसता की, सौहार्द्र की, भाईचारे की भी प्रतिस्थापना करते हैं. इसका उद्देश्य यही है कि इनके द्वारा सामाजिकता का विकास हो, सामाजिक सरोकारों की भी स्थापना होती रहे. दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करना, उत्सव के दिन सभी से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है.

 



वर्तमान में स्थितियों में कुछ परिवर्तन हुआ है. सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व अब चकाचौंध के वशीभूत होता जा रहा है. भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, औद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली के बीच दीपावली का उद्देश्य सेल्युलाइड दुनिया के पीछे संकुचित, भयभीत खड़ा दिखाई देता है. इस आभासी दुनिया का दुष्परिणाम है कि अब आकाश को छूने के लिए उड़ते रॉकेट को देखकर बच्चों की तालियाँ, खिलखिलाती हँसी नहीं दिखती वरन् मोबाइल के पीछे सेल्फी लेने वाले हाव-भाव दिखाई पड़ते हैं. कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता में हमारे रिश्ते-नाते, हमारे सामाजिक सरोकार भी तिरोहित हुए हैं. मिठाई के पैकेट स्वयं को तुच्छ और गरिमाहीन सा महसूस करने लगते हैं जब किसी ब्रांडेड कम्पनी की चाकलेट का डिब्बा खुलकर मुँह चिढ़ाने लगता है. बच्चों के हाथों में झूमती रंगीन फुलझड़ी एकाएक मद्विम पड़ जाती है जैसे ही उसके सामने कोई विदेशी आतिशबाजी अपने अस्तित्व का विस्तार करने लगती है. मँहगे से मँहगे संसाधनों का उपयोग करके हम दीपावली नहीं मनाते हैं बल्कि अपने आसपास के वातावरण में अपनी सत्तात्मक स्थिति को स्थापित करने का कार्य करते हैं. इस तरह की सोच के कारण समाज से समरसता और भाईचारे जैसी स्थितियों का विलोपन होता जा रहा है. सौहार्द्र को भी बाजारीकरण का रंग चढ़ जाता है; सद्भावना भी झिलमिलाती पॉलीपैक में बिकने लगती है; भाईचारा भी किसी यूज एण्ड थ्रो जैसी बोतल मे चमकदार पेय पदार्थ सा चमकने लगता है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो?

 

नैराश्य के इस वातावरण के बाद भी; कृत्रिम चकाचौंध के बीच भी; दीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है. हमें भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भी, सामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो करना ही है. बाजारीकरण में गुम सी हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो हमें जागृत करता है कुछ करने को; एक प्रकार के आवरण को गिराने को; असामाजिकता को मिटाने को; सामाजिक सरोकारों की स्थापना को. इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा. भारीभरकम खर्चों के बीच, मँहगी से मँहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियाँ देखकर ही अपनी दीपावली मना रहे होंगे. उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण कर रहे होंगे. यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह को, अपनी उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त में, तन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना पड़े; हमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का एहसास होता रहे; अपनी खुशी से दूसरे बच्चों में, और लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे.

 

हमें दीपमालिके के स्वागत में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आँगन तक ही नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है. उजाले की एक सकारात्मक किरण ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती है, बस हम ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह से, उमंग से परिवर्तन का, समरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें. आप स्वयं एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर हो उठेगा. 

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