हम लोगों के लिए होली का मतलब
हमेशा से हुल्लड़ से ही रहा है. उस समय भी जबकि हम छोटे से थे, उस समय भी जब हम
किशोरावस्था में कहे जा सकते थे और तब भी जबकि हमें भी बड़ा माना जाने लगा था.
हमारे लिए ही नहीं, हमारे पूरे परिवार के लिए होली का मतलब खूब मस्ती, खूब हुल्लड़,
खूब हंगामा करना होता था. किसी भी त्यौहार का, पर्व का मजा उस समय और भी बढ़ जाता
है जबकि पूरा परिवार एकसाथ हो. आज भले ही हम सभी लोग अपनी-अपनी व्यस्तताओं,
अपने-अपने कार्यों में व्यस्त होने के कारण भले ही किसी त्यौहार पर एकसाथ न जुट पा
रहे हों मगर उस समय होली और दीपावली, ये दो त्यौहार ऐसे होते थे कि सभी चाचा लोग
सपरिवार उरई इकठ्ठा हुआ करते थे. आज भले ही त्योहारों पर इकठ्ठा होने में अन्तराल
आया हो मगर परिवार में किसी भी वैवाहिक आयोजन पर अथवा किसी मांगलिक कार्य पर एकजुट
हो जाते हैं. बहरहाल, आज की चर्चा फिर कभी, उस समय हम लोग अपने बचपन में थे और
पिताजी-अम्मा, चाचा-चाची लोग अपनी युवावस्था में थे. हम सभी भाई-बहिन एकसाथ जुटते
तो बस हंगामा ही हंगामा होता. हम बच्चों के हंगामे में चाचा लोग भी शामिल हो जाया
करते थे. तीनों चाचियाँ एकसाथ न केवल अपने कामों को हँसते-बोलते निपटाती बल्कि हम
बच्चों की तमाम फरमाइशें भी पलक झपकते ही पूरी करतीं.
होली, दीपावली के त्योहारों
में मिलने पर लगता जैसे सारे संसार की खुशियाँ उन्हीं कुछ दिनों में सिमट आई हों.
इसमें भी होली कुछ ज्यादा पसंद आता हम बच्चों को क्योंकि इसमें हुल्लड़ करने की
खुली छूट मिली होती. तीनों चाचा लोगों का ज्यादातर होलिका दहन वाले दिन ही आना हुआ
करता था. उनके आने के बाद होली के हंगामेदार तरीके से मनाये जाने के तरीके विचार
किये जाते. हम सभी भाई-बहिनों की फ़ौज को किसी न किसी चाचा का आशीर्वाद मिल जाता बस
उसी रात से हंगामा शुरू हो जाता. वहाँ घर के सभी बड़े लोग होलिका दहन कार्यक्रम में
गए होते यहाँ हम बच्चे चाचा के साथ मिलकर कोयला पीस रहे होते, काजल की डिब्बियाँ खोजी
जा रही होतीं, कड़ाही, तवे के पीछे की कालिख खुरच रहे होते, फाउंटेन पेन की काली
स्याही को कहीं एक जगह इकठ्ठा करने में लगे होते. रात को खाना खाने के बाद की
गप्पबाजी दो-दो, तीन-तीन बजे तक समाप्त नहीं होती. हम बच्चे जागते, सोते सी दशा
में सबके सोने का इंतजार करते रहते. सबके चेहरे पर मूँछें बनाये जाने का काम,
चेहरे पर कलाकारी दिखाने के काम भी चाचा के साथ मिलकर करना होता था. सुबह जागने पर
सभी अपने-अपने चेहरों की कारीगरी देखकर हँसता, खीझता. हम बच्चे भी इससे न बच पाते.
सबके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ बनाने वाले हम बच्चों के चेहरे भी रँगे-पुते होते थे.
होली का दिन. रंग खेलने का
दिन. पिचकारी की धार मारने का दिन. सबको रंगीन बनाने का दिन. उस दिन तो हम बच्चे
तो बच्चे पिताजी-अम्मा, चाचा-चाची भी बच्चे नजर आते. उन दिनों घर पर मिलने वाले भी
बहुत लोग आते. उनकी खूब खातिरदारी की जाती. खूब बड़ी छत पर उनको ससम्मान ले जाया
जाता. पिताजी और तीनों चाचा लोग मिलकर सबको अपनी गिरफ्त में लेकर वो हाल करते कि
पूछिए मत. कभी-कभी कोई बहुत बुरी तरह से रँगा हुआ चेहरा लेकर आता तो पहले उसका
चेहरा धुलवाया जाता और फिर बाकायदा कुर्सी पर बैठा कर चेहरे पर पुनः होली खेली
जाती. कोई ड्राइंग करने वाले ब्रश से कलाकारी दिखा रहा है. कोई उंगली से कानों में
रंग भरने में लगा है. कोई पैरों में महावर लगाकर उसका श्रृंगार कर रहा है तो कोई
आँखों में काजल लगाकर उसे संवार रहा है. पूरी प्रक्रिया में कोई जोर-जबरदस्ती
नहीं, कोई हंगामा नहीं, कोई खींचा-तानी नहीं इससे हँसते-खेलते माहौल में होली का
उत्सव अपने चरम पर पहुँचता जाता. दिन के एक निश्चित समय तक घर में मिलने आये लोगों
संग, आपस में होली खेलने के बाद, मोहल्ले में ऊधम मचा लेने के बाद नगर भ्रमण पर
निकला जाता. चूँकि गुझिया, पपड़िया, मठरी, शकरपारे आदि इतनी बार और इतने अधिक खाए
जा चुके होते कि भोजन करने की आवश्यकता समझ ही नहीं आती.
चाचा लोग हम बच्चों की गैंग
के सरगना होते और फिर हम सबका धमाल शुरू होता सडकों पर. परिचित हो या फिर अपरिचित,
सभी को एक निगाह से देखा जाता. सबको रंग लगाया जाता, गुलाल लगाया जाता. कोई परिचित
का मिला तो हम बच्चों ने उसके पैर छूकर आशीर्वाद लिया. रंग लगाने का, गुलाल लगाने
का क्रम संपन्न हुआ. कोई अपरिचित मिला तो उससे अभिवादन हो गया. सड़क चलते बड़ों,
बच्चों के अलावा दुकानदारों तक से होली खेल ली जाती. उस समय संपत की पान की बड़ी
प्रसिद्द दुकान हुआ करती थी. वहाँ की दूध की बोतल आज भी अपने उसी स्वाद में मिलती
है. उसके बाद लालजी चाट का स्वाद लिया जाता. किसी हाथठेले वाले की दुकान से पिचकारी,
मुखौटे आदि खरीदने का काम भी कर लिया जाता. किसी कन्फेक्शनरी की दुकान से टॉफी, कम्पट
आदि का आनंद लिया जाता. ये दुकानदार भी हम बच्चों के रंगों का शिकार हो जाया करते.
तब आज की तरह किसी तरह का मनमुटाव देखने को नहीं मिलता था. आज के जैसी आपसी कटुता
भी देखने को नहीं मिलती थी. न तो बड़े किसी बात का बुरा मानते थे और न ही छोटे किसी
तरह का अभद्रता करते नजर आते.
आज होली पर उस समय की होली के
हंगामे बराबर याद आते हैं. भाग-भाग कर लोगों को पकड़ना. उनको कुर्सी पर बैठाकर लाल-नीला-हरा
करना. कभी-कभी कपड़ाफाड़ होली मनाया जाना. किसी-किसी को गाने की धुन पर खूब नचाया
जाना. चेहरे, कान, दांत, हाथ, पैर, पेट, पीठ आदि को बिना रंगीन किये न जाने देना. कभी-कभी
रंगों के साथ खूब पानी का मजा लेना. अब सब यादें बनी हुई हैं. चाचा-चाची लोग
अपने-अपने परिवार में सिमट गए हैं. हम बच्चों के अपने-अपने परिवार हो गए हैं. मिलना
अब नियमित भले न हो पाता हो मगर होली, दीपावली सब एकदूसरे को याद अवश्य कर लेते
हैं. होली के हुड़दंग को एक-दूसरे से साझा कर लेते हैं.
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