भारतीय समाज सदैव
से पर्वों, त्योहारों, आयोजनों के उल्लास में रँगा-बसा दिखाई देता है. विगत कुछ समय से देखने
में आ रहा है कि जैसे किसी त्यौहार का, पर्व का आना होता है
वैसे ही बाज़ार केन्द्रित अनेक शक्तियाँ अपने-अपने स्तर से सक्रिय हो जाती हैं. पर्वों, त्योहारों के सन्दर्भ में बाजार में देखने वाली सक्रियता का न तो पर्वों
से कोई लेना-देना होता है और न ही त्योहारों की पावनता से. बाज़ार का उद्देश्य किसी
न किसी रूप में इंसानी दिल-दिमाग पर अपना नियंत्रण रखना होता है. ऐसे में सवाल
स्वयं से ही उठता है कि क्या इंसान बाजार के हाथों की कठपुतली बन चुका है? ये ऐसा सवाल है जो आये दिन हर उस व्यक्ति के मन में कौंधता होगा जो
संवेदनशील होगा. स्थिति यह है कि ऐसे आयोजनों में आवश्यकता की छोटी से छोटी वस्तु
से लेकर जीवन का बड़े से बड़ा पल बाज़ार के द्वारा संचालित होने लगा है. सुबह जागने
से लेकर सोने तक की समस्त गतिविधियों पर बाज़ार अपना नियंत्रण किये बैठा है. सुबह
जागने के बाद उसे किन-किन पोषक तत्त्वों से भरे टूथपेस्ट की जरूरत है, किस तरह के कपड़े उसके स्वास्थ्य का बेहतर ख्याल रख सकते हैं, सुबह के
नाश्ते, दोपहर के भोजन, कार्यक्षेत्र
की स्थिति, बच्चों का स्कूल, गृहणियों का काम-काज आदि सब कुछ बाज़ार के द्वारा ही पूरा होता दिखाई देता
है.
विडम्बना ये है कि
बाज़ार स्वयं चलकर घर के भीतर आ चुका है. टीवी, समाचार-पत्र, पत्रिकाओं के
सहारे, हाथ में बराबर चलते मोबाइल के सहारे बाज़ार ने घर
के साथ-साथ इंसान के दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया है. घर से बाहर निकलते ही सड़क
किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स, गली-मोहल्ले के कोने
में झाँकते छोटे-छोटे से बैनर, खम्बों, दीवारों पर चिपके पोस्टर, जगह-जगह बँटते
पैम्पलेट हर समय इंसान को बाज़ार की कैद में होने का आभास करवाते हैं. हर एक पल के
लिए बाज़ार ने कुछ न कुछ व्यवस्था कर रखी है. इंसान ख़ुशी के क्षणों में जी रहा है
या ग़म साझा कर रहा है, बाज़ार ने इसके लिए भी इंतजाम कर
रखे हैं. जन्मदिन, शादी, वैवाहिक
वर्षगाँठ, पर्व-त्यौहार या फिर कोई भी आयोजन हो, विज्ञापनों के द्वारा इंसान को सम्मोहित कर लिया जाता है. कुछ करते हुए
दाग लग जाएँ तो दाग अच्छे हैं. कुछ अच्छा होने पर कुछ
मीठा हो जाये. भले ही टेढ़ा लगे पर मेरा सा लगे. कितना
भी बड़ा डर हो पर उसके आगे जीत का एहसास दिखे. त्यौहार
में पारंपरिक मिष्ठान बने या न बने पर कुछ मीठा हो जाये का विकल्प बाज़ार ने इंसान
के सामने परोस रखा है.
इस बाजारीकरण की
सबसे ख़राब स्थिति यह है कि इंसान कब उत्पादों का उपयोग करते-करते खुद ही उत्पाद बन
गया उसे खबर ही नहीं हुई. शादी-विवाह जैसा विशुद्ध पारिवारिक और पवित्र संस्कार
बाज़ार के हवाले हो गया. अब विवाह संस्कार परिजनों के हाथों से नहीं बल्कि
बाजार के हाथों से संचालित होने लगा है. बाजार बताने लगा है कि दूल्हा-दुल्हन को
कैसे तैयार होना है. बाज़ार बता रहा है कि पूरे आयोजन में कैसे और किस तरह से
फोटोशूट किया जाना है. करवाचौथ जैसा पावन पर्व विशुद्ध रूप से बाजार का शिकार होकर
दाम्पत्य जीवन में प्रविष्ट हो चुका है. बाज़ार द्वारा निर्धारित उपहार जब पत्नी को
दिया जायेगा, बाज़ार सज्जित परिधान जब पहने जाएँगे तभी इस
उपवास का उचित फल मिलेगा, इस तरह के सन्देश बाज़ार घर-घर में पहुँचाने में सफल हो
गया है. पर्वों, त्योहारों के आते ही वाहन खरीदने के लाभ
बताये जाते हैं. बाज़ार ही बताता है कि कौन सी मिठाई खिलाई जाए तो रिश्ते मजबूत
होते हैं. परिजनों के एकसाथ मिलकर खुशियाँ मनाने में कौन सा रंग, कौन सा पेंट घर को चमकाएगा, ये भी बाज़ार निर्धारित
कर रहा है. परिवार, संस्कार, संस्कृति से सम्बंधित वे सभी
आयोजन जिनसे व्यक्ति का भावनात्मक जुड़ाव है, सबको बाज़ार
ने अपने कब्जे में ले रखा है.
बाज़ार ने न केवल
शालीनता के दायरे को पार किया बल्कि अनावश्यक रूप से घर-परिवारों में आर्थिक बोझ
को भी बढ़ाया है. महँगे होते जाते आयोजन, अत्यंत भव्यता बिखेरती साज-सज्जा, सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से बर्बाद किया जाता धन आदि
किसी भी रूप में किसी एक व्यक्ति की सकारात्मक सोच नहीं है. इसके पीछे पूरी तरह से
नियोजित ढंग से बाज़ार अपना काम कर रहा है. उसका काम अपने उत्पाद को बेचना मात्र
है. इस प्रक्रिया में स्वयं इंसान ही उत्पाद बनकर उभरने लगा है. वह बिना
सोचे-विचारे बस इन कृत्यों को मशीनी ढंग से करने में लगा है. वह स्वयं ही नहीं समझ
पा रहा है कि इन कृत्यों को करने में उसे ख़ुशी मिल रही है या फिर वह बाज़ार के
हाथों में नाच रहा है?
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