अकादमिक क्षेत्र
में लेखन का बहुत महत्त्व है. वर्तमान में अनेक नीतियों के चलते न केवल
शोधार्थियों के लिए बल्कि प्राध्यापकों के लिए भी लेखन महत्त्वपूर्ण हो गया है.
जहाँ शोधार्थियों के शोध-कार्य हेतु शोधपरक लेखन को अनिवार्य जैसा किया गया है
वहीं उच्च शिक्षा क्षेत्र से सम्बंधित प्राध्यापकों के लिए शोधपरक लेखन को उनकी
अकादमिक योग्यता से जोड़ दिया गया है. शोध कर रहे विद्यार्थियों के लिए तो अपने शोध
ग्रन्थ को लिखते समय उनसे अपेक्षा ही की जाती थी कि वे शोधपरक आलेख लिखेंगे. अब
प्राध्यापक वर्ग के लिए भी एक तरह की अनिवार्यता लगा दी गई है कि वे अपनी अकादमिक
प्रोन्नति हेतु स्वयं भी शोधपरक लेखन हेतु तत्पर रहेंगे. शोधपरक लेखन को, उसके
प्रकाशन को प्राध्यापक वर्ग हेतु उनके मूल्यांकन से जोड़ दिया गया है. अब इनकी
अकादमिक प्रोन्नति हेतु,
उनकी अकादमिक योग्यता के लिए एपीआई के लिए लेखन को, शोधपरक
लेखन को वरीयता दी जा रही है.
आलेख और शोध-आलेख
में बहुत बड़ा अंतर नहीं है. इसे मात्र इतने से परिचयात्मक रूप में समझा जा सकता है
कि जिस आलेख के साथ सन्दर्भ जुड़े हुए हैं, उसे शोध-आलेख कहते हैं. इसका सीधा सा अर्थ है कि उस आलेख में
अपनी बात को प्रामाणिक ढंग से कहा गया है अथवा किसी तरह की शोध का उल्लेख किया गया
है. इसके अलावा सन्दर्भ रहने पर आलेख विश्वसनीय बन जाता है. किसी आलेख में
सन्दर्भों का होना उस लेखक के शोध कार्य को भी प्रमाणित करते हुए विश्वसनीय बनाता
है. इसके साथ-साथ आलेख में सन्दर्भों का होना लेखक की लेखकीय योग्यता को, उसकी क्षमता को, प्रतिभा को,
मेहनत को भी प्रदर्शित करता है.
सन्दर्भों के होने
की स्थिति के साथ-साथ अक्सर न केवल शोधार्थियों में बल्कि प्राध्यापकों में भी इसे
लेकर संशय की स्थिति रहती है कि उनके द्वारा सन्दर्भों का उल्लेख कहाँ किया जाये, किस तरह किया जाये? ये समस्या अब और जटिल होती समझ आने लगी है जबकि शोध कार्यों को लेकर, शोध-प्रबंधों को लेकर, शोध-आलेखों को लेकर लगातार
एकसमान नीति पर जोर दिया जाने लगा है. शोध-आलेख के साथ सन्दर्भ लिखने के कुछ
अलग-अलग तरीके लेखकों द्वारा प्रयोग में लाये जाते रहे हैं. कुछ लेखक आलेख में
यथास्थान सन्दर्भों का उल्लेख करते हैं. ऐसा करने पर पाठकों के लिए अवरोध उत्पन्न होता
है. इस अवरोध का बचाव करने के लिए सन्दर्भों को शोध-आलेख के अंत में अथवा प्रत्येक
पृष्ठ पर सबसे नीचे दिए जाने की व्यवस्था को एकसमान रूप से स्वीकार किया गया. ऐसे
सन्दर्भ जो प्रत्येक पृष्ठ पर नीचे दिए जाते हैं, उन्हें पाद-टिप्पणी/फुटनोट (Footnote)
कहते हैं और जो सन्दर्भ आलेख के अन्त
में एक ही जगह दिए जाते हैं उनको अन्त-टिप्पणी/एंडनोट (Endnote) कहते हैं. शोध-आलेखों की प्रमाणिकता, महत्ता के लिए इस तरह के दो
सन्दर्भों में से किसी एक सन्दर्भ का होना आवश्यक है. बिना सन्दर्भ के लिखे गए लेख
को शोध-आलेख के रूप में मान्यता नहीं मिलती है. ऐसे आलेख की कोई विश्वसनीयता भी नहीं
होती है.
किसी भी शोध-आलेख
में सन्दर्भों को कई जगहों से एकत्र किया जाता है. कई सन्दर्भ पुस्तकों से लिए
जाते हैं तो बहुत से सन्दर्भों को शोध-पत्रिकाओं से लिया जाता है. वर्तमान में
इंटरनेट का बहुतायत उपयोग होने के कारण से अनेक वेबसाइट भी सामग्री संग्रहण के काम
आती हैं. शोध-आलेखों में उनका भी सन्दर्भ देना आवश्यक होता है. ऐसी स्थिति में कई
बार शोधार्थियों के समक्ष, लेखकों के समक्ष, प्राध्यापकों के समक्ष समस्या आती
है कि इन विभिन्न माध्यमों से एकत्र किये गए सन्दर्भों का उल्लेख कैसे किया जाये? एकरूपता की दृष्टि से भी ये आवश्यक हो जाता है कि शोध-आलेख में सन्दर्भों
को एकसमान रूप से लिखा जाये.
यहाँ पुस्तकों, शोध-पत्रिकाओं, इंटरनेट पर उपलब्ध वेबसाइट से ली गई सामग्री,
आँकड़ों आदि के सन्दर्भ को लिखने का ढंग कुछ इस प्रकार से अपनाया जा सकता है. यदि
सन्दर्भ पुस्तक से लिए गए हैं तो उनके लिखने का तरीका इस प्रकार होगा. सबसे
पहले पुस्तक के लेखक का नाम लिखा जायेगा, इसमें भी उपनाम पहले लिखा जायेगा फिर
नाम. इसके बाद पुस्तक के प्रकाशन का वर्ष लिखा जाता है. प्रकाशन वर्ष लिखने के बाद
बोल्ड फॉर्मेट में पुस्तक का नाम दिया जायेगा. इसके पश्चात् पुस्तक के प्रकाशन का
स्थान और फिर पुस्तक के प्रकाशक का नाम आता है. सन्दर्भ लिखने के क्रम में सबसे
अंत में पृष्ठ संख्या लिखना होता है. इसे इस उदाहरण से और आसानी से समझा जा
सकता है.
सेंगर, कुमारेन्द्र सिंह (डॉ.), 2009, पत्रकारिता के सन्दर्भ, उरई (उ.प्र.), बुन्देलखण्ड प्रकाशन, पृ. 97
पुस्तकों के
साथ-साथ शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों से भी सामग्री को लिया जाता है. ऐसे
में इनका सन्दर्भ देने में क्रम कुछ इस तरह से रखते हैं. पुस्तक की तरह ही यहाँ
सबसे पहले लेखक का नाम लिखा जाता है, इसमें भी उपनाम को पहले लिखते हैं फिर लेखक का नाम, इसके बाद आलेख के प्रकाशन का वर्ष लिखा जाता है. प्रकाशन वर्ष लिखने के
बाद सम्बंधित आलेख का शीर्षक लिखा जाता है, जिससे सामग्री को
लिया गया है. जिस पत्र, पत्रिका अथवा संकलन में वह आलेख
प्रकाशित है उसका नाम वोल्ड फॉर्मेट में लिखा जाता है. इसके बाद पत्रिका
की अंक संख्या, पत्रिका प्रकाशक का नाम और फिर पत्रिका के प्रकाशन का स्थान लिखा
जाता है. क्रम लिखने में सबसे अंत में पृष्ठ संख्या लिखते हैं. इसे निम्न उदाहरण से सहजता से समझा जा सकता
है.
सेंगर, कुमारेन्द्र सिंह (डॉ.),
2010, वृन्दावन लाला वर्मा के साहित्य में सौन्दर्य-बोध, मेनिफेस्टो (शोधपत्रिका), Vol.II, अंक- 2, समाज अध्ययन केन्द्र, उरई,
पृ. 94.
वर्तमान दौर में
तकनीक के उपयोग से इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में शोध-सामग्री को बहुत सी
वेबसाइट से भी एकत्र किया जाता है. वेबसाइट से ली गई सामग्री का सन्दर्भ भी देना
चाहिए. इससे शोध-आलेख की प्रमाणिकता बनी रहती है. इसके लिए सबसे पहले इस
वेबसाइट की लिंक, जिसे यूआरएल कहा जाता है उसे लिखा जाता है, इसके बाद जिस तारीख को सम्बंधित
वेबसाइट से सामग्री को लिया गया उसे लिखना होगा है. उदाहरण के लिए निम्नवत को देख सकते है.
https://dastawez.blogspot.com/2022/02/blog-post_28.html (दिनांक 19-09-2023 को देखा गया.)
हिन्दी भाषा के
शोध-आलेखों के लिए पिछले कुछ समय से सर्वमान्य रूप में सन्दर्भों को इस रूप में
लिखा जा रहा है,
स्वीकारा जा रहा है. बावजूद इसके शोधार्थी और प्राध्यापकगण अपने-अपने क्षेत्र,
शैक्षणिक संस्थान के नियमानुसार इसकी जाँच करके ही अपने शोध-आलेखों में सन्दर्भ
लेखन करें.
ये आलेख सूचना, जानकारी मात्र के लिए है.
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