समय
के साथ किस तरह स्थितियाँ बदल जाती हैं या कहें कि बदल दी जाती हैं, इसका एहसास
किसी को नहीं होता. एक समय था जबकि हमारा बचपन था तब मैदान बच्चों से भरे रहते थे.
शाम को घर बैठे रहना डांट का कारण बनता था. हरहाल में शाम को थोड़ी देर मैदान में
जाकर कुछ न कुछ खेलना अनिवार्य हुआ करता था. अब स्थिति इसके ठीक उलट है. अब मैदान
एकदम खाली हैं. शाम को घर से बाहर निकलना बच्चों के लिए अनिवार्य नहीं है. अब वे
बाहर हाथ-फिर चलाने के बजाय या तो मोबाइल पर उंगलियाँ चलाते हैं या फिर टीवी पर
आँखें. इसी तरह हमें अच्छे से याद है कि पहले नियमित रूप से मिलना-जुलना हुआ करता
था. सम्बन्ध कभी भी दो पर दो के नहीं रहे वरन पारिवारिक रहे. बिना किसी औपचारिकता
के बेधड़क एक-दूसरे के घर आना-जाना हुआ करता था. न केवल आना-जाना वरन खाना-पीना भी.
ऐसा एक-दो दिन का हाल नहीं हुआ करता था बल्कि बहुतायत में यही हुआ करता था. अब
स्थिति इसके ठीक उलट हो गई है. अब बाहर जाना होता है तो किसी के घर नहीं वरन किसी
होटल में, रेस्टोरेंट में. अब यदि किसी के घर जाना होता भी है तो अकेले, पारिवारिक
आना-जाना न के बराबर दिखाई देता है. इसमें भी किसी के घर जाने के पहले उसकी अनुमति
सी चाहिए होती है. ऐसा इसलिए नहीं कि उसके घर जाने पर उसके न मिलने पर समय की
बर्बादी होगी वरन इसलिए कि जिस समय मिलने जाना है उस समय वह अपने किसी टीवी
कार्यक्रम को देखे में तो व्यस्त नहीं. किसी लाइव शो को देखने में, किसी मैच में
चिल्लाने में, किसी रोने-ढोने वाले सीरियल देखने में तो मगन नहीं.
कुछ
ऐसे ही हालात त्योहारों को लेकर सामने आ रहे हैं. उसमें भी विशेष रूप से हिन्दुओं
के त्यौहार को लेकर. इस्लाम में ताजिया कितना भी बड़ा बनाया जाने, सड़क पर निकाला
जाये कोई दिक्कत नहीं. हाँ, दही-हांडी की ऊँचाई निर्धारित होगी. बकरीद में कितने
भी बकरे काट दिए जाएँ कोई प्रदूषण नहीं फैलना उसके खून, खाल, मांस से न पर्यावरणीय
संकट उत्पन्न होना है, ऐसा बस उतनी देर में ही होगा जबकि दीपावली के पटाखे फोड़े
जायेंगे. हाईवे का निर्माण होना है तो मंदिरों के हटाये जाने पर विकास-कार्य का
हवाला दिया जायेगा मगर यदि मामला किसी मस्जिद के, मजार के हटाने का आता है तो वहां
मजहबी भावनाएं घायल होने लगती हैं. मंदिर में प्रवेश की बात आती है तो यह सभी का
अधिकार होता है मगर यदि बात मस्जिद में प्रवेश की आ जाये तो वहां मजहबी भावनाओं
में अदालत हस्तक्षेप नहीं करती. इन विकट स्थितियों के बीच यदि बचपन याद करते हैं
तो याद आता है दीपावली का निबंध. जिसमें कि हम पढ़ा करते थे कि दीपावली दीपों,
आतिशबाजी, रौशनी का पर्व है. इसके पटाखों के धुंए से कीड़े-मकोड़े-मच्छर आदि मर जाते
हैं. अब देख रहे है कि पटाखों के चलाये जाने पर भी कानूनी पकड़ बनाई जाने लगी है.
संभव
है कि आज की स्थितियों में इन्सान ने अपने लाभ के लिए पटाखों को पहले के मुकाबले
अधिक हानिकारक बना दिया हो मगर क्या पूरे साल में बस एक रात में कुछ घंटे पटाखे
चलाना ही प्रदूषण को बढ़ाता है? यदि निष्पक्ष ढंग से देखा जाये तो चौबीस घंटे
मकानों, कार्यालयों, बाजारों, दुकानों आदि में चलते एसी, सड़कों पर लाखों की संख्या
में दौड़ती एसी कारें, कारखानों से निकलना धुआँ आदि क्या पर्यावरण को संरक्षित कर
रहा है? क्या इन सबसे प्रदूषण नहीं फैलता है? ऐसे में महज एक रात में कुछ घंटों को
कानूनी शिकंजे में कसने की जो नीति अपनाई जा रही है वह एक दृष्टि से भले ही
तार्किक समझ आ रही हो मगर जबकि एक-एक आदमी, निर्णय देने वाले लोग भी उसी सिस्टम का
हिस्सा बने हुए हैं जो प्रदूषण फैला रहा है तब आतिशबाजी नियंत्रण सम्बन्धी निर्णय
पक्षपातपूर्ण समझ आते हैं. एक तरह की शिगूफेबाजी ही नजर आती है.
कोई
भी पर्व, त्यौहार हो सभी के लिए सुखदायी हो, ऐसी कामना है मगर यदि धर्म-मजहब देखकर
उनके कृत्यों पर निर्णय दिए जायेंगे तो यह सामाजिक विभेद की स्थिति पैदा करेगा.
ऐसे में सुखदायी स्थिति, सौहार्द्र बनना कहीं से भी सहज नहीं समझ आता.
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