असतो
मा सदगमय॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय॥ मृत्योर्मामृतम् गमय॥ यह वाक्य एक तरफ सत्य की तरफ
जाने का सन्देश देता है वहीं साथ में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा देता
है। इसी तरह दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो भी सुन्दर, सार्थक,
सशक्त और मनोहारी प्रतीत होता है। चारों ओर दीपों की कतार, मोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाश, रंग-बिरंगी आतिशबाजी,
विविध आवाजों-रोशनियों के साथ फूटते पटाखे, सभी अपने आप में अद्भुत छटा
का प्रदर्शन करते हैं। बच्चों का, युवाओं का, बुजुर्गों का, पुरुषों-महिलाओं का हर्षोल्लासित होना
स्वाभाविक सा दिखाई देता है। सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते
नजर आते हैं। नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता
का वातावरण स्थापित करते हैं। दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना
का संचार करता है। घरों की साफ-सफाई, लोगों से मिलना-जुलना,
मिठाई-पकवान का बनना आदि-आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप
से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है।
भारतीय
परम्परा में, संस्कृति में पर्वों, त्यौहारों
का महत्व हमेशा से रहा है। यहां जितनी अनुपम वैविध्यपूर्ण प्रकृति में मनमोहक ऋतुएं
हैं, ठीक उसी तरह से विविधता धारण किये पर्व-त्यौहार भी हैं।
देश में लगभग प्रत्येक दिन किसी न किसी रूप में पर्वों का, त्यौहारों
का अनुष्ठान होता रहता है। इन त्यौहारों की विशेष बात यह रही है कि इन्हें धार्मिकता
से जोड़ने के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है। ये पर्व धार्मिक संदेशों
के मध्य से सामाजिक सरोकारों की, सामाजिक संदर्भों की,
समरसता की, सौहार्द्र की, भाईचारे की भी प्रतिस्थापना करते दिखाई देते हैं। होना भी यही चाहिए किसी भी
पर्व का, किसी भी अनुष्ठान का उद्देश्य मात्र स्वयं को प्रसन्न
रखने की स्थिति में नहीं होना चाहिए। हमारा उद्देश्य सदैव यही हो कि हमारे कदमों से
सामाजिकता का विकास हो ही, सामाजिक सरोकारों की भी स्थापना होती
रहे। किसी समय में व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़े रखने का माध्यम यही पर्व-त्यौहार हुआ
करते हैं। दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर
के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करना, उत्सव के दिन सभी
से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है।
इधर
सामाजिक स्थितियों में कुछ परिवर्तन सा महसूस होता है। सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व
अब बाह्य आडम्बर और चकाचौंध भरी स्थितियों के वशीभूत होता समझ में आता है। यदि हम अपने
आसपास के परिदृश्य का अवलोकन करें तो तमाम सारी प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ कृत्रिमता
का विकास होता भी समाज में दिखाई देता है। भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण,
औद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली ने पर्वों-त्यौहारों की
सहजता, सरलता को विखण्डित सा कर दिया है। इसी आभासी दुनिया का
दुष्परिणाम है कि अब आकाश को छूने के लिए उड़ते रॉकेट को देखकर बच्चों की तालियां,
खिलखिलाती हंसी नहीं वरन् उनकी फटी-फटी सी आंखें, अचम्भित से हाव-भाव दिखाई पड़ते हैं। कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता की भेंट
हमारे पर्व ही नहीं चढ़े हैं वरन् हमारे रिश्ते-नाते, हमारे सामाजिक
सरोकार भी तिरोहित हुए हैं। गरिमामयी रिश्तों की गर्मजोशी अचानक ही हिम प्रशीतक की
भांति लगने लगती है।
त्यौहार
अब नितांत औपचारिकताओं में सिमटाए जाने लगे हैं। संबंधों में, रिश्तों में पहले की तरह गर्माहट नहीं दिखाई देती है, बाज़ारों में अपनत्व कम कटुता ज्यादा देखने को मिलने लगी है, सामान की खरीददारी करने वाली निगाहों से ज्यादा देहयष्टि को घूरने वाली नजरें
ज्यादा हो गईं हैं। विदेशी सामानों के बीच आज भी कई-कई छोटे बच्चे-बच्चियाँ साँचे में
ढले गणेश-लक्ष्मी, मिट्टी के दिए, रुई,
मोमबत्तियाँ आदि बेचते दिखते हैं। मशीनों से निर्मित चमकते-दमकते गणेश-लक्ष्मी
की भव्य मूर्तियों के आगे स्टाइलिश दीयों के आगे, डिजाइनर मोमबत्तियों
के सामने, अजब-गजब रूप से चमक बिखेरती झालरों के सामने इनका अंधकार
ज्यों का त्यों रहता है। हर एक पटाखे के फूटने के साथ, हर एक
दिया रौशनी बिखेरने के साथ, हर बार और अकेले त्यौहार मनाने के
साथ एहसास होता है कि मंहगाई सामानों में ही नहीं आई है संबंधों में, रिश्तों में भी आई है। अंधकार सिर्फ अमावस की रात को ही घना नहीं हुआ है बल्कि
अपनत्व में, स्नेह में भी घनीभूत होकर छा गया है। काले आसमान
में रौशनी बिखेरती आतिशबाजी, घर की छत पर चमक बिखेर कर शांत हो
जाते दिए, मकान की दीवारों से लिपटी विदेशी झालरें अपनी क्षणभंगुर
चमक से एक पल को तो अंधकार दूर कर देती हैं किन्तु समाज में लगातार बढ़ते जाते अंधकार
को दूर नहीं कर पा रही हैं।
नैराश्य
के इस वातावरण के बाद भी; कृत्रिम चकाचौंध के बीच भी;
दीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है। हमें
भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भी, सामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो
करना ही है। बाजारीकरण में गुम सी हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो
हमें जागृत करता है कुछ करने को; एक प्रकार के आवरण को गिराने
को; असामाजिकता को मिटाने को; सामाजिक सरोकारों
की स्थापना को। इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा। भारीभरकम खर्चों
के बीच, मंहगी से मंहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन
बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियां देखकर ही अपनी
दीपावली मना रहे होंगे। उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी
कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण
कर रहे होंगे। यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह को, अपनी
उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त
में, तन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना
पड़े; हमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का
एहसास होता रहे; अपनी खुशी से दूसरे बच्चों में, और लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे। हमें दीपमालिके के स्वागत
में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश
सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आंगन तक नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर
दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है। उजाले की एक सकारात्मक किरण
ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती है, बस हम
ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह से, उमंग से परिवर्तन का,
समरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें। आप स्वयं
एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर
हो उठेगा।
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