इंटरनेट के युग
में कुछ समय पहले तक सोशल मीडिया जैसे शब्द की अवधारणा नहीं थी. समय के साथ
जैसे-जैसे इंटरनेट तकनीक ने विकास-गति को पकड़ा, अनेक नए-नए शब्द जुड़ते चले गए. सोशल मीडिया ऐसे ही शब्दों में
से एक है. आज स्थिति यह है कि लोगों का अधिकतम समय सोशल मीडिया पर बीत रहा है. ऐसा
शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि किसी दिन एक ऐसा मंच उपलब्ध होगा जिसके माध्यम
से अपने मित्रों से बातचीत की जा सकेगी, जहाँ से अपने मन की
खरीददारी भी हो सकेगी. पढ़ने-लिखने का माध्यम भी यह मंच बनेगा. आज सोशल मीडिया
दुनिया भर के लोगों से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण मंच बना हुआ है. इस महत्त्वपूर्ण
मंच के सुखद पहलुओं के बीच एक दुखद पहलू यह भी सामने आया कि सोशल मीडिया की गिरफ्त
में बच्चे बहुतायत में हैं. उनके द्वारा दिन का बहुत सारा समय सोशल मीडिया पर
गुजारा जा रहा है.
इंटरनेशनल जर्नल
ऑफ़ पीडियाट्रिक रिसर्च की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग 88 प्रतिशत बच्चे
सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं. इनमें से लगभग 81 प्रतिशत व्हाट्सएप का और लगभग
55 प्रतिशत फेसबुक का उपयोग कर रहे हैं. देश में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार सोशल
मीडिया, ऑनलाइन गेमिंग आदि का उपयोग करने वाले बच्चे नौ से सत्रह वर्ष की उम्र के
हैं, जो प्रतिदिन तीन घंटे से अधिक समय यहाँ बिताते हैं. डिजिटल युग में तेजी से
उभरते इन आँकड़ों को सुखद तो नहीं कहा जा सकता है. ऐसे में जबकि कोरोनाकाल की
ऑनलाइन शैक्षिक व्यवस्था के बाद से लगभग प्रत्येक बच्चे के हाथ में स्मार्टफोन,
इंटरनेट की सुविधा सहज रूप में उपलब्ध है तो उसका सोशल मीडिया पर आना भी सहज ही
है. सोशल मीडिया पर आने की सहजता और सोशल मीडिया का नियंत्रण मुक्त होना निश्चित
रूप में बाल-मन,
किशोर-मन के लिए घातक है. ऑनलाइन शिक्षा की आड़ में वे क्या देख रहे हैं, किस वेबसाइट पर जा रहे हैं इसे देखना-समझना आवश्यक है. इंटरनेट की दुनिया
में मनोरंजन के नाम पर जिस तरह से ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म ने अपना अशालीन रंग दिखलाया है
उसका नकारात्मक असर बच्चों पर, किशोरों पर देखने को मिल
रहा है. ओटीटी की वेबसीरीज की अश्लीलता को, गालियों को, अश्लील भाव-भंगिमा को सोशल मीडिया में
तैरती बहुतायत रील्स में देखा जा सकता है. गालियों, अश्लील
बातचीत को लेकर समाज में जिस तरह की शर्म, लिहाज बना
हुआ था, वह लगभग समाप्त हो गया है. इसके चलते इनके
स्वभाव में, दैनिक-चर्या
में फूहड़ता, अश्लीलता, हिंसा, क्रूरता आदि दिखने लगी है.
बच्चों के सोशल
मीडिया पर बढ़ते चलन को देखते हुए पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया में सोलह वर्ष से कम आयु
के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग प्रतिबंधित करने सम्बन्धी एक विधेयक पारित
किया गया. इस विधेयक के आने के बाद ऑस्ट्रेलिया के सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चे
फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक आदि जैसे सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे. इस
विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि सोशल मीडिया कम्पनियाँ बच्चों को
सोशल मीडिया इस्तेमाल पर रोक नहीं लगा पाती हैं तो उन पर भारी जुर्माना लगाया
जायेगा. ऐसा वैश्विक रूप में किसी देश द्वारा पहली बार किया गया है. इस विधेयक के
पारित होने के बाद बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग को प्रतिबंधित किये जाने सम्बन्धी
बहस भी छिड़ी. सैद्धांतिक रूप में यह कदम भले ही सार्थक लगता हो मगर व्यावहारिक रूप
में इसे अमल में लाना मुश्किल ही है. आखिर किसी सोशल मीडिया कम्पनी-एजेंसी द्वारा
यह कैसे निर्धारित किया जायेगा कि सम्बंधित सोशल मीडिया मंच का इस्तेमाल सोलह वर्ष
से कम उम्र के बच्चे द्वारा नहीं किया जा रहा है? तकनीकी
ज्ञान में पूर्णतः सक्षम आज के सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए छद्म नाम, जन्मतिथि आदि के द्वारा सोलह वर्ष से अधिक का होने में कितना समय लगेगा.
ऐसे में यदि समाज,
सरकार वाकई इसे लेकर गम्भीर है कि बच्चों का बहुतायत समय सोशल मीडिया पर गुजर रहा
है तो उसे किसी विधेयक जैसी सैद्धांतिक स्थिति के साथ-साथ कुछ व्यावहारिक कदमों को
भी उठाना होगा. स्मार्टफोन की पैरेंटल कंट्रोल सुविधा को और सशक्त करना होगा. इसके
द्वारा अभिभावकों को भी अपने बच्चों के स्मार्टफोन में तमाम वेबसाइट को, सोशल
मीडिया मंचों को प्रतिबंधित करना होगा. इसके साथ-साथ बच्चों को सोशल मीडिया से, इंटरनेट से होने वाले नुकसान के
बारे में भी समझाया जाना होगा. आपराधिक दुनिया की जानकारी देते हुए उनके डिजिटल
अरेस्ट, साइबर क्राइम, चाइल्ड
पोर्नोग्राफी आदि जैसी नकारात्मकता से भी परिचित करवाना होगा. जरा-जरा सी बात को, घटना को सोशल मीडिया पर अपलोड करने, अपने दोस्तों, परिजनों के साथ शेयर करने की हानियों से परिचित करवाना होगा. उनकी इस
प्रवृत्ति को रोकने का कार्य भी करना होगा. इसके साथ-साथ बच्चों को सोशल मीडिया की
आभासी दुनिया से इतर वास्तविक दुनिया की तरफ ले जाना होगा. उनको परिवार के साथ
अधिक से अधिक समय बिताने को प्रोत्साहित करना होगा. मोबाइल,
कम्प्यूटर, ऑनलाइन गेमिंग के स्थान पर मैदानों में खेलने को
वरीयता देनी होगी. इस तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का कम से कम उपयोग करने का कदम
उठाना होगा. शिक्षा, संस्कारों
को मोबाइल, कम्प्यूटर के स्थान
पर परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा, शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से दिए जाने का कार्य पुनः करना होगा. पारिवारिक
वातावरण को सकारात्मक,
संस्कारित बनाते हुए बच्चों को सोशल मीडिया के चंगुल से मुक्त करवाया जा सकता है.
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