भुन्जरियों का पावन पर्व
कजली बुन्देलखण्ड क्षेत्र में आज भी पूरे उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है.
बुन्देलखण्ड क्षेत्र, जो विन्ध्य पर्वत श्रेणियों में बसा है, सुरम्य सरोवरों से रचा
है, नैसर्गिक सुन्दरता से निखरा है वह सदैव ही अपनी संस्कृति,
लोक-तत्त्व, शौर्य, आन-बान-शान
के लिए प्रसिद्द रहा है. शौर्य-त्याग-समर्पण-वीरता को यहाँ सांस्कृतिक प्रतीक के
रूप में माना-जाना जाता है. इसके प्रतीक पर्व कजली का आज भी विशेष महत्त्व है. कजली
मेला बुन्देलखण्ड क्षेत्र के दो परम वीर भाइयों आल्हा और ऊदल के शौर्य-पराक्रम के साथ-साथ
अन्य बुन्देली रण-बाँकुरों की विजय-स्मृतियों को अपने आप में संजोये हुए है. इस मेले
का आयोजन विगत आठ सौ से अधिक वर्षों से निरंतर होता आ रहा है. बुन्देलखण्ड में कजली
को खेती-किसानी से सम्बद्ध करके भी देखा जाता है. गरमी की लू-लपट से सबकुछ झुलसा देने
वाली आग में गर्म-तप्त खेतों को जब सावन की फुहारों से ठंडक मिलती है तो यहाँ का किसान
खुद को खेती के लिए तैयार करने लगता है. कजली उत्सव का शुभारम्भ सावन महीने की नौवीं
तिथि से ही शुरू हो जाता है. घर की महिलाएँ खेतों से मिट्टी लाकर उसे छौले के दोने
(पत्तों का बना पात्र) में भरकर उसमें गेंहू, जौ आदि को बो देती
हैं. नित्य उसमें पानी-दूध को चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है, इसके पीछे उन्नत कृषि, उन्नत उपज होने की कामना छिपी
रहती है. सावन की पूर्णिमा को इन पात्रों (दोने) में बोये गए बीजों के नन्हें अंकुरण
(कजली) को निकालकर इनको तालाब में विसर्जित किया जाता है. इसके बाद इन्हीं कजलियों
को आपस में आदरपूर्वक आदान-प्रदान करते हुए एक दूसरे को शुभकामनायें दी जाती हैं
तथा उन्नत उपज की कामना भी की जाती है. ये परम्परा आज भी चली आ रही है, बस इसमें शौर्य-गाथा के जुड़ जाने से आज इसका विशेष महत्त्व हो गया है.
ऐतिहासिकता के आधार
पर ऐसा कहा जाता है बुन्देलखण्ड के महोबा राज्य पर पृथ्वीराज चौहान की नजर बहुत पहले
से लगी हुई थी. महोबा राज्य के विरुद्ध साजिश रचकर कुछ साजिशकर्ताओं ने वहां के अद्भुत
वीर भाइयों, आल्हा-ऊदल
को महोबा राज्य से निकलवा दिया था. पृथ्वीराज चौहान को भली-भांति ज्ञात था कि महोबा
के पराक्रमी आल्हा और ऊदल की कमी में महोबा को जीतना जीतना आसान होगा. महोबा के राजा
परमाल की पुत्री चंद्रावलि अपनी हजारों सहेलियों और महोबा की अन्य दूसरी महिलाओं के
साथ प्रतिवर्ष कीरत सागर तालाब में कजलियों का विसर्जन करने जाया करती थी. सन 1182 में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी के अपहरण की योजना बनाई
और तय किया गया कि कजलियों के विसर्जन के समय ही आक्रमण करके राजकुमारी का अपहरण कर
लिया जाये. अपनी विजय को सुनिश्चित करने और राजकुमारी के अपहरण के लिए उसके सेनापति
चामुंडा राय और पृथ्वीराज चौहान के पुत्र सूरज सिंह ने महोबा को घेर लिया. जिस समय
ये घेरेबंदी हुई उस समय आल्हा-ऊदल कन्नौज में थे.
महोबा राजा सहित सबको
इसका एहसास था कि बिना आल्हा-ऊदल पृथ्वीराज चौहान की सेना को हरा पाना मुश्किल होगा.
राजा परमाल खुद ही आल्हा-ऊदल को राज्य छोड़ने का आदेश दे चुके थे, ऐसे में उनके लिए कुछ कहने-सुनने
की स्थिति थी ही नहीं. ऐसे विषम समय में महोबा की रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल को महोबा
की रक्षा करने के लिए तुरंत वापस आने का सन्देश भिजवाया. सूचना मिलते ही आल्हा-ऊदल
अपने चचेरे भाई मलखान के साथ महोबा पहुँच गए. परमाल के पुत्र रंजीत के नेतृत्व में
पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया गया. इस युद्ध की सूचना मिलते ही राजकुमारी चंद्रावलि
का ममेरा भाई अभई (रानी मल्हना के भाई माहिल का पुत्र) उरई से अपने बहादुर साथियों
के साथ महोबा पहुँच गया. लगभग 24 घंटे चले इस भीषण युद्ध में
आल्हा-ऊदल के अद्भुत पराक्रम, वीर अभई के शौर्य के चलते पृथ्वीराज
चौहान की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा. सेना रणभूमि से भाग गई. इस युद्ध में पृथ्वीराज
चौहान का पुत्र सूरज सिंह भी मारा गया. इसके अलावा राजा परमाल का पुत्र रंजीत सिंह
और वीर अभई भी वीरगति को प्राप्त हुए. ऐसी किंवदंती है कि वीर अभई सिर कटने के बाद
भी कई घंटों युद्ध लड़ता रहा था. कहा जाता है कि इसी युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने ऊदल
की हत्या छलपूर्वक कर दी थी. जिसके बाद आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को मारने की शपथ ली
किन्तु बाद में अपने गुरु की आज्ञा मानकर संन्यास ग्रहण कर जंगल में तपस्या के लिए
चले गए थे.
ऐतिहासिक विजय को प्राप्त
करने के बाद राजकुमारी चंद्रावलि और उसकी सहेलियों के साथ-साथ राजा परमाल की पत्नी
रानी मल्हना ने, महोबा की अन्य महिलाओं ने भी भुजरियों (कजली) का विसर्जन किया. इसी के बाद
पूरे महोबा में रक्षाबंधन का पर्व धूमधाम से मनाया गया. तब से ऐसी परम्परा चली आ रही
है कि बुन्देलखण्ड में रक्षाबंधन का पर्व भुजरियों का विसर्जन करने के बाद ही मनाया
जाता है. वीर बुंदेलों के शौर्य को याद रखने के लिए ही कहीं-कहीं सात दिनों तक कजली
का मेला आयोजित किया जाता है. यहाँ के लोग आल्हा-ऊदल के शौर्य-पराक्रम को नमन करते
हुए बुन्देलखण्ड के वीर रण-बाँकुरों को याद करते हैं.
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