मानसून के
रुष्ट रहने के बाद मौसम विभाग आशा बंधा रहा है कि अबकी बारिश बहुत अच्छी होगी.
किसानों को इस बार मानसून से किसी तरह की शिकायत नहीं होगी. हाल-फ़िलहाल विगत
दो-चार दिनों से बादलों के रंग-ढंग देखते हुए ऐसी अपेक्षा की जा सकती है. इस
अपेक्षा के साथ ही एक तरह का भय भी बना रहता है कि कहीं आशा से अधिक बारिश हो जाये
और सूखे की स्थिति के ठीक उलट बाढ़ की, अतिवृष्टि की स्थिति न पैदा हो जाये.
बहरहाल, ये स्थितियां मानसून पर निर्भर करती हैं. सूखे की, बाढ़ की, अतिवृष्टि की स्थिति
को पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर माना जाता है. इनके अनियमित होने का सीधा असर
किसान पर पड़ता है, कृषि पर पड़ता है. ऐसा नहीं है कि बाकी किसी अन्य रोजगार या फिर
किसी अन्य व्यवस्था पर सूखे का या बाढ़ का प्रभाव नहीं पड़ता मगर जिस तरह से कृषि
भारतीय अर्थव्यवस्था से सीधे-सीधे सम्बद्ध है, उससे सीधा और स्पष्ट प्रभाव इसी
क्षेत्र पर पड़ता है.
वर्तमान
में औद्योगीकरण, वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीय कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. अनेक तरह के
व्यवसाय होने के बाद भी, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि के योगदान को
नकारा नहीं जा सकता है. देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में इसकी सशक्त भूमिका है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है,
वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. इसके
बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है,
यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. कृषि
कार्य के अनेक कारकों के अलावा मूल रूप से कृषि विपणन व्यवस्था का सही न होना भी
किसानों की स्थिति को कमजोर बनाता है. सरकारी स्तर पर भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया
जा रहा है. हाल ही में बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बुन्देलखण्ड पैकेज के करोड़ों
रुपयों को मंडी स्थल बनाने में फिजूलखर्च कर दिया गया. ग्रामीण अंचलों से दूर बनाई
गई नवीन मंडी स्थल तक पहुँचने के साधनों को विकसित नहीं किया गया. गाँव के
साहूकार, महाजन, बड़े किसानों के चंगुल को कमजोर नहीं किया गया, ऐसे में छोटे और
मंझोले किसान इन्हीं के चंगुल में फँसकर अपनी फसल को कम कीमत में बेचने को मजबूर
होते हैं.
विपणन व्यवस्था
में कई प्रकार के दोष होने के कारण किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं
हो पाता है, इससे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. विपणन व्यवस्था में ऐसे दोष
के रूप में संग्रहण को देखा जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज उन्नत तकनीक के बाद
भी फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे संग्रहण से उपज के
सड़ने-गलने, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. नष्ट हो जाती फसल,
जानवरों द्वारा ख़राब कर दी गई फसल के कारण किसान फसलों के संग्रहण
को लेकर सदैव चिंतित रहता है और इसी से बचने के लिए वह काफी कम दामों में अपनी फसल
का विक्रय कर देता है.
संग्रहण के
साथ-साथ परिवहन साधनों की अनुपलब्धता अथवा उनका संपन्न न होना भी विपणन व्यवस्था की
एक कमी कही जा सकती है. ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान
बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते हैं. फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते
हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं. ऐसी कमियों के चलते ग्रामीण
इलाकों में मध्यस्थों की, दलालों की संख्या में वृद्धि होने लगती है. मध्यस्थों की बहुत
बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही
तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों
का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण
नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं.
दरअसल हमारे
देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये
गए किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि
क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इस कानून
के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण
किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य
करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व
उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया
गया,
जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का
रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त
लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस
कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों,
मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.
आवश्यकता
इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो. सभी किसान उत्साहजनक रूप
से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन
व्यवस्था का निर्माण किया जाये. इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण
के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे.
आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय
पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे. इसके साथ-साथ
सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी
नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित
मूल्य प्राप्त कर सकें. इस तरह के कुछ उपायों को सकारात्मक रूप से लागू करके सरकारों
द्वारा कृषि फसल को बचाया जा सकता है, कृषि उत्पाद का उचित मूल्य कृषकों को प्रदान करवाया जा सकता
है,
कृषकों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सुरैया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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