विगत कुछ समय से स्त्री-सम्बन्धी मुद्दों पर या फिर स्त्री-केन्द्रित विषयों
पर ज्यादा ही चर्चा देखने को मिल रही है. इस चर्चा में, विमर्श में स्त्री की
आज़ादी की बात की जा रही है. उसके स्वतंत्र विचारों की बात हो रही है. उसके
अस्तित्व पर बहस हो रही है. सोचकर, सुनकर अच्छा लगता है कि समाज में स्त्री, पुरुष
दोनों ही स्त्री-विकास की, स्त्री-सशक्तिकरण की बात करने में लगे हैं. इस
अच्छे-भले सुनने, महसूस करने के बीच यदि स्त्री-स्वतंत्रता, स्त्री-सशक्तिकरण के
लिए उठाये गए मुद्दों पर दृष्टिपात करने पर कहानी कुछ और ही समझ आती है. स्त्री की
आज़ादी की आवाज़ उठाने वाले विषयों में हैप्पी टू ब्लीड, फ्री सेक्स, मैरिटल रेप,
उन्मुक्त शारीरिक सम्बन्ध, माहवारी पर चुप्पी तोड़ो, मंदिर प्रवेश आदि-आदि दिखाई
देते हैं. कहीं, किसी तरफ से स्त्रियों के स्वावलंबन की बात नहीं होती है. किसी
तरफ से स्त्रियों की आर्थिक आज़ादी की चर्चा नहीं होती है. कोई भी स्त्रियों के
वास्तविक अधिकारों की बात करता नहीं दिखता है. ऐसा लगता है जैसे स्त्री की समूची
दुनिया को देह के इर्द-गिर्द, सेक्स के आसपास, धर्म के चारों तरफ ही केन्द्रित कर
दिया गया है. समाज में एक तरफ स्त्री-सशक्तिकरण की वकालत करने वाले, स्त्रियों के
अधिकारों की चर्चा करने वाले, स्त्री-अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले समाज पर ही आरोप
लगाते हैं कि स्त्रियों को सदैव सेक्स और धर्म के नाम पर कैद किया जाता रहा; उसके
अस्तित्व को छोटा करके दिखाया जाता रहा; महिलाओं की सोच को कुंठित करके रखा गया और
इसके ठीक उलट उन्हीं के द्वारा स्त्री-आज़ादी के लिए धर्म और सेक्स को ही मुख्य
बिन्दु बनाया जाता है.
समझने वाली बात है कि क्या सेक्स की आज़ादी से, देह की आज़ादी से, माहवारी की
चुप्पी तोड़ने से स्त्री को वाकई आज़ादी मिल जाएगी? कहीं ये स्त्री-सशक्तिकरण का
झंडा उठाये वर्ग द्वारा एक तरह का षड्यंत्र तो नहीं जो स्त्री को सेक्स और धर्म की
चाशनी में लपेटकर उसी में बंधक बना देना चाहता है? हैप्पी टू ब्लीड से लेकर
माहवारी पर चुप्पी तोड़ो पर इस तरह से होहल्ला मचाया गया जैसे कि स्त्री की आज़ादी
की राह में यही सबसे बड़ा रोड़ा है. प्रतिमाह आने वाली इस शारीरिक प्रक्रिया के बारे
में इस तरह से दुष्प्रचार किया जा रहा मानो इन पाँच दिनों में स्त्री को सिर्फ
पुरुष ही बंधक बना लेता हो; सिर्फ पुरुष ही उसकी आवाज़ को खामोश कर देता हो. प्राकृतिक
शारीरिक संरचना में अनिवार्यता के चलते उत्पन्न कतिपय दैहिक क्रियाविधि को
घर-परिवार की महिलाओं द्वारा ही सबसे ज्यादा निशाने पर लिया जाता है. मंदिर में
प्रवेश न करना, पूजादि धार्मिक कृत्य न करना, रसोई में घुसने, खाद्य-पदार्थ छूने
की मनाही आदि-आदि सहित अनेक कार्यों से महिलाओं को महिलाओं द्वारा ही वंचित किया
जाता है. स्त्री की देह को जिस तरह से प्रश्नवाचक चिन्ह लगा कर देखा जाता है, जिस
तरह से उसकी शारीरिक सञ्चालन की प्राकृतिक गतिविधि को केन्द्रित करके स्त्री को
लक्ष्य किया जाता है, उस सोच पर, उस गतिविधि पर नियंत्रण लगाये जाने की आवश्यकता
है.
वर्तमान में जिस तरह का परिवेश समाज में बनता जा रहा है उसमें सेक्स को, स्त्री-देह
को प्रमुखता दी जाने लगी है. किसी भी उत्पाद का विज्ञापन हो, किसी भी तरह का
म्यूजिकल कार्यक्रम हो, कोई भी एलबम हो, क्रिकेट का मैदान हो सभी जगह किसी न किसी
रूप में स्त्री-देह को सजा-संवार कर पेश किया जाता है. यदि इस तथ्य को ध्यान में
रखा जाये तो कहीं ऐसा तो नहीं कि स्त्री से सम्बंधित इस तरह के संचालित अभियानों
का कथित उद्देश्य उनकी देह को ही विमर्श के केंद्र में रखना हो? स्त्री देह से
सम्बंधित विभिन्न समस्याओं का समाधान संभव हो कि सार्वजनिक सहभागिता से निकले
किन्तु इस तरह के सार्वजनिक अभियानों से कतई नहीं निकलने वाला. ये अभियान विवाद
पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. सोचिये एक मिनट रुक कर कि हैप्पी टू
ब्लीड से किस तरह का सन्देश दिया गया? फ्री सेक्स के द्वारा किस तरह से संबंधों की
वकालत की जा रही है? मैरिटल रेप जैसी अवधारणा से क्या दाम्पत्य जीवन सुखमय बनेगा?
माहवारी पर चुप्पी किससे तोड़नी होगी और कैसे? बेहतर हो कि ऐसे विषयों पर सकारात्मक
चर्चा हो न कि प्रचार की तरह इन्हें इस्तेमाल किया जाये. माहवारी जैसे विषयों को,
सेक्स जैसे विषयों को समाज की गति को देखते हुए, उसके परिवेश को देखते हुए
पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये. अपनी देह के गोपन को जानना-समझना प्रत्येक व्यक्ति
का अधिकार है किन्तु ये किसी का अधिकार नहीं कि वो स्वतंत्रता के नाम पर दूसरे की
देह से खेलने का कार्य करे.
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