02 दिसंबर 2020

कुतर्क भरे समाज की भटकती दिशा

समझ नहीं आता है कि जैसे-जैसे हम लोग साक्षर होते जा रहे हैं, पढ़ते-लिखते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही क्यों दिमागी रूप से कुंद होते जा रहे हैं? इधर बहुत सोच-विचार कर इस बारे में लिखने का मन बनाया. कुछ दिनों से देश की राजधानी पर किसान आन्दोलन का संकट दिख रहा है. इस आन्दोलन के बहाने से जिस तरह से खालिस्तान समर्थन के, पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लग रहे थे, वे ज्यादा चिंताजनक लगे. कृषि से सम्बंधित कानूनों पर किसानों की आपत्ति है या नहीं इसे बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है मगर बहुत से राजनैतिक दलों में आपत्ति देखने को मिली. केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आये दिन देश के किसी न किसी हिस्से से राजनैतिक दलों के विरोधी स्वर सुनाई देने लगते हैं. ऐसा उस समय और भी तेजी से होता है जबकि कहीं से चुनावी आहट सुनने को मिलती है. बहरहाल, अभी दिल्ली में जमे किसानों और उससे जुड़े कुछ बिन्दुओं पर.


कृषि से सम्बंधित कानूनों के विरोध में दिल्ली में मुख्य रूप से पंजाब का किसान एकत्रित हुआ है. इधर आन्दोलन शुरू होने के समय बहुत से लोगों ने जैसी कि आशंका व्यक्त की थी, कुछ वैसा देखने को भी मिला. आन्दोलन में किसानों की शक्ल में कुछ खालिस्तान समर्थक और कुछ पाकिस्तान समर्थक भी दिखाई देने लगे. इस बारे में सोशल मीडिया पर कई वीडियो भी दिखाई दिए. इनके साथ-साथ किसान रूप में जमा आन्दोलनकारियों द्वारा सड़क से गुजरने वाले कुछ लोगों से अभद्रता करते भी दिखाया गया है. जब इस बारे में सोशल मीडिया में अपने विचार व्यक्त किये तो बहुत से लोगों ने किसानी से, खेती से जुड़ा न होना बताते हुए इस मुद्दे से हमें जैसे बाहर ही कर दिया. इधर बहुत से ऐसे लोग अपनी राय देते दिख रहे हैं जिनका न इन कानूनों से मतलब है और न ही उनको इसका भान है कि कानूनों में परिवर्तन के बाद और पहले की स्थिति में मूल अंतर क्या आया है? इधर कुछ समय से एक लीक सी बन गई है कि जैसे ही सामने वाला आपके तर्कों से हारने लगता है, उसके पास आपके सवालों का जवाब नहीं रहता है तो सीधे-सीधे आपको सम्बंधित क्षेत्र से जुड़ा हुआ न बताकर आपको ख़ारिज करने का काम करने लगता है.


इधर इस किसान आन्दोलन पर टिप्पणी करने पर कुछ ऐसा ही हमारे साथ हुआ. जो लोग अनर्गल तरीके से लिखने में लगे थे, उनसे इन कानूनों के लाभ-हानि पूछ लिए, उनके द्वारा इन संसोधनों का पढ़ा हुआ होना पूछ लिया, बस बात यहीं बिगड़ गई. हमें किसानी, किसान, खेती आदि के बारे में बताया जाने लगा. इन सब क्षेत्रों में हमारा अनुभव जाना जाने लगा. ये सत्य है कि जमीनी रूप से हम कृषि कार्यों से बहुत दूर हैं. हमने कभी खेतों में काम नहीं किया, कभी हल नहीं चलाया, कभी पानी नहीं लगाया, कभी रात में खेतों की रखवाली नहीं की. ये सब न करने का ये मतलब नहीं कि हमें किसानों के दर्द का भान नहीं. इसका ये अर्थ नहीं कि हमें जानकारी नहीं कि खेती कैसे होती है.


ऐसे लोगों की जानकारी के लिए इतना ही काफी है कि जमींदार परिवार से होने के बाद भी आज भी हमारे भाई खेती-किसानी का काम स्वयं करते हैं. खेतों में उनके द्वारा किसी सामान्य किसान की तरह पसीना बहाया जाता है. यह काम अकेले हमारे पैतृक गाँव में ही नहीं होता बल्कि हमारे ननिहाल में भी होता है. इसके साथ-साथ हमारे कई अभिन्न मित्र खेती के कार्य में संलग्न हैं. इन सबके द्वारा हमें खेती के, किसानों के अनुभवों से सहजता से परिचय मिल जाता है. और जहाँ तक बात कानूनों को, स्थितियों को, परिस्थितियों को, नियमों को समझने की है तो हमने स्वयं कृषि से सम्बंधित शोध-कार्य के पश्चात् पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है. इस उपाधि को प्राप्त करने में हमने सिर्फ टेबल वर्क ही नहीं किया है बल्कि किसानों से मिलकर, खेती की, कृषि की स्थिति को देखकर अपना कार्य पूरा किया है.


इधर ऐसा लग रहा है जैसे कि अब मुद्दा विषय का, विषय से सम्बंधित अध्ययन का रह ही नहीं गया है. अब बात विचारधाराओं की होने लगती है. जो जिसके पक्ष का है, उसी के पक्ष की बात को सुनना, कहना पसंद करता है, शेष लोग उसके लिए बेकार हो जाते हैं. पता नहीं ऐसी एकतरफा स्थिति समाज को किस दिशा में ले जा रही है, किस अंत पर ले जाकर खड़ा कर देगी?


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वंदेमातरम्

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