02 जनवरी 2019

समाधान के इंतजार में कृषि

राजनैतिक दल जनता की कमजोर नब्ज पकड़ कर सत्ता तो प्राप्त कर लेते हैं मगर यह समझना नहीं चाहते कि इसका समाज पर, देश पर क्या असर पड़ने वाला है. अभी हाल के संपन्न विधानसभा चुनाव में किसानों की कर्जमाफी के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेना एक अलग बात है किन्तु इसके द्वारा प्रदेश के खजाने पर पड़ने वाले बोझ का आकलन करना किसी ने गंवारा न समझा. इससे पहले उत्तर प्रदेश में भी सत्तासीन होते ही ऐसा कदम उठाया गया था. यदि ये राजनैतिक दल समझते हों कि इस तरह के कदमों से किसानों का अथवा प्रदेश का भला होने वाला है तो यह उनकी भूल है. यहाँ समझना होगा कि ऐसे कदम मुफ्तखोरी को बढ़ावा देते हैं जो देश के आर्थिक हित में कतई नहीं है. इससे उन किसानों में भी नकारात्मकता बढ़ती है जो नियमित रूप से पूरी ईमानदारी से अपना कर्ज अदा करते रहे हैं. राजनैतिक दलों को समझना चाहिए कि किसानों से अथवा कृषि से सम्बंधित समस्या का समाधान कर्जमाफी कतई नहीं है. असल में देश के किसी भी हिस्से के किसानों की अपनी ही अलग समस्या है, जिस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है.


यह आज भी विचारणीय है कि वर्तमान दौर औद्योगीकरण, वैश्वीकरण का होने के बाद भी कृषि का अपना महत्त्व बना हुआ है. अनेकानेक व्यवसाय, विभिन्न तरह के कारोबार विकसित होने, उन्नत उद्योग-धंधे स्थापित होने के बाद भी कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. कृषि का देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में योगदान है. एक अनुमान के अनुसार माना जाता है कि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. वैश्विक स्तर पर भी भारतीय कृषि की अपनी ही साख है. चाय, चावल, मूँगफली तथा तम्बाकू ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके चलते वैश्विक स्तर पर भारत का पहले तीन देशों में कोई न कोई स्थान बना रहता है. ऐसी स्थिति होने के बाद भी भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है, यहाँ का कृषक आत्महत्या जैसे कदमों को उठाने पर मजबूर है. देखा जाये तो ऐसी समस्या देश की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों के चलते है. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है. कृषि की, कृषकों की दशा सुधारने को सतत प्रयास किये जा रहे हैं मगर सटीक बिंदु पर चोट नहीं की जा रही है.

विगत कई दशकों में देश में उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए हैं किन्तु कृषि क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया. कृषि क्षेत्र में अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को बाध्य हैं. इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं. इस कानून के द्वारा न तो नए व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है. इसके उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का माध्यम बन गईं हैं. हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया. इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस कानून को अपनाया नहीं गया है. इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.

देश के लगभग हर राज्य में किसान अपनी समस्याओं से पीडि़त हैं और सरकारी तन्त्र द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान की बात तो की जाती है किन्तु किसी प्रकार का समाधान उनके द्वारा होता दिखता नहीं है. कृषि कार्य में अनियमितता, बैंक ऋण की समस्या, बाजार से फसल का सही मूल्य न प्राप्त होना, मजदूरी आदि के अवसरों का लगातार कम होते जाने की अनेकानेक समस्याओं के साथ-साथ सरकार की ओर से किसी तरह की राहत न मिलने, कृषि हेतु पर्याप्त अनुदान न मिलने, बैंक ऋण में रियायत न होने आदि के कारण भी किसान लगातार गरीबी, बदहाली, भुखमरी की मार सह रहे हैं. इन समस्याओं के निस्तारण न होने से, कोई रास्ता न दिखाई देने से वे आत्महत्या जैसा अमानवीय एवं कठोर कदम उठा रहे हैं. इसके बाद भी न तो सरकार का ध्यान किसानों की ओर जा रहा है और न ही किसी राजनैतिक दल ने हताश-निराश किसानों की सहायता के लिए अपने कदम बढ़ाये हैं. 

विद्रूपता ये है कि सरकारें मुआवजे के नाम पर खिलवाड़ करने लगती हैं. सत्ता की खातिर कर्जमाफी जैसा लालच दिखाती हैं. इसके अलावा राज्य सरकारों का अपना-अपना रोना है और आरोपों का ठीकरा केंद्र पर फोड़ दिया जाता है. इस तरह के कदमों से किसानों का भला नहीं होने वाला है. यहाँ विचारणीय है कि यदि इन किसानों की जगह कोई औद्योगिक आपदा आ गई होती तो सरकारों ने न जाने कौन-कौन से राहतकोष खोल दिए होते. आज भले ही कृषि में उद्योगों की तरह मुनाफा नहीं है किन्तु ये बात सबको याद रखनी होगी कि कृषि देशभर को खाद्यसामग्री उपलब्ध करवाती है, उसे उद्योग अथवा मुनाफाखोरी करने का साधन माना भी नहीं जाना चाहिए. इसके बाद भी सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वो किसानों को उद्योगपति समझते हुए, कृषि को उद्योग मानते हुए इस बारे में सजगता से काम करे. ऐसा न होने की दशा में ये किसानों के भविष्य के लिए, उनके परिवार के लिए, उनके जीवन के लिए सही नहीं होगा. वर्तमान हालातों में इन बातों पर चर्चा कर लेने से किसानों की समस्याओं का हल नहीं निकलने वाला है. सरकारों को, चाहे वो केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, मिलजुलकर किसानों के हितार्थ योजनों को महज बनाने की नहीं वरन उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू करने की जरूरत है. कर्जमाफी तात्कालिक समाधान तो हो सकता है, दीर्घकालिक नहीं. ऐसे में हम सबको भी नियंत्रित, निष्पक्ष भाव से एक नागरिक समझकर ही किसानों की मदद को आगे आयें. जिस तरह का राजनैतिक परिदृश्य वर्तमान में दिख रहा है उससे नहीं लगता है कि कोई भी सरकार निष्पक्ष रूप से किसानों की सहायता के लिए मुक्त-हस्त से आगे आएगी. इन सबका असर कहीं न कहीं किसानों को  मिलने वाली मदद, मुआवजे पर ही पड़ेगा. कुछ समय राजनीति न करते हुए किसानों के हितार्थ एकजुट हो लिया जाये; सरकार को जगाने के लिए खड़ा हो लिया जाये.


(उक्त आलेख दैनिक जागरण दिनांक 02-01-2019 के राष्ट्रीय संस्करण में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है)

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