चलिए, कुछ देर बाद नए साल का
नया दिन गुजरने वाला है. सभी ने खूब दम से एक-दूसरे को बधाई-शुभकामनायें दीं. ऐसा
लगा जैसे इस बार सबकुछ अच्छा-अच्छा होने वाला है. एहसास सुखद प्रतीत होता है कि अब
सबकुछ अच्छा, सुखद होने वाला है. इसके बाद भी जब आँख खुलती है तो समझ आता है कि
ऐसा कुछ नहीं है. सब कुछ ज्यों का त्यों बना हुआ है, सबकुछ वैसा ही चल रहा है जैसा
अभी तक चलता आ रहा था. इस सम्बन्ध में अपनी अइया यानि दादी की एक बात याद आती है.
देश के आज़ाद होने के समय की बात बताते हुए वे अक्सर बताया करती थीं कि कुछ दिनों
से घर में, पड़ोस में बराबर बातचीत होती कि देश आज़ाद होने वाला है. पंद्रह अगस्त की
सुबह सभी जगह चहल-पहल मची हुई थी, गलियों में लोग उल्लासित से दिखाई दे रहे थे, एक
शोर सा था कि देश आज़ाद हो गया. अइया बताती हैं कि उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि
कुछ तो बदला नहीं फिर इस आज़ादी का क्या मतलब है. सब कुछ तो वैसा ही दिख रहा है
जैसा कल रात को सोते समय दिखा था. यह सही भी है. देश आज़ाद हुआ था मगर न तो अंग्रेज
एकदम से गायब हो गए थे और न ही कोई नई व्यवस्था एकदम से सामने दिखाई देने लगी थी.
कुछ ऐसा ही नए साल के उल्लास में दिखाई देता है.
न कुछ बदलता है, न बदलता
दिखाई देता है सिवाय एक कैलेण्डर के, सिवाय एक तारीख के, सिवाय एक महीने. इसके बाद
भी उल्लास ऐसा जैसे कोई अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया हो. ऐसा उत्साह लोगों में जैसे
कोई अनोखा बदलाव देखने को मिलने वाला हो. ऐसी उमंग लोगों में जैसे कोई अजब सा
माहौल आने वाला हो. हल्ला-गुल्ला, हंगामा, बाइक रेस के बीच ऐसा कुछ नहीं दिखाई
दिया जो कल नहीं था. इसके बाद भी अनोखा नशा देखने को मिलता है. ऐसा लगता है जैसे
व्यक्तिगत रूप से कोई परिवर्तन आने वाला है. देखा जाये यही बाजार की शक्ति है जो
अपने हाथों में इन्सान को संभाले है. अब सबकुछ बाजार के हाथों से संचालित होता है.
इसी बाजार के हाथों में अब दिन-महीने-पर्व-आयोजन हैं. इसी का उदाहरण है ये नववर्ष
और आने वाले महीनों में और भी दिन इसी का उदाहरण बनेंगे. तो आइये, बिना कुछ
जाने-सोचे-समझे बाजार के हाथों की कठपुतली बनकर उमंग में डूब जाएँ, उल्लास में
उतरायें. ये साल भी मनाएँ, आने वाला साल भी मनाएँ.
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