15 मई 2023

कृषि-पदार्थों की विपणन व्यवस्था में हो सुधार

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है. यहाँ के जीवन और अर्थव्यवस्था में कृषि की अहम भूमिका है. देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में कृषि की सशक्त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है. देश की बहुसंख्यक आबादी कृषि पर निर्भर है. माना जाता है कि लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का सराहनीय योगदान होने के साथ-साथ विश्व में भी कृषि के कारण भारत की साख बनी हुई है. ऐसी स्थिति के बाद भी इस क्षेत्र में कतिपय समस्याएँ निरंतर विद्यमान रहती हैं. जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण कृषि क्षेत्र समस्याग्रस्त भी बना रहता है.


शहरों के विकास और वहाँ तीव्रतर गति से बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप खाद्य फसलों की आवश्यकता तेजी से महसूस हुई. किसान अब वाणिज्यिक फसलों को महत्व देने लगा. कृषि के बढ़ते वाणिज्यीकरण, बाजारीकरण के कारण लगातार चली आ रही पुरानी विपणन व्यवस्था में सुधार की ओर ध्यान देना आवश्यक है. अच्छी विपणन व्यवस्था एक ओर औद्योगिक विकास के हित में है, साथ ही किसानों के लिए भी लाभप्रद है. उचित विपणन में यह आवश्यक होता है कि कोई उपभोक्ता हो, साथ ही बिक्री सम्बन्धी एक मानक व्यवस्था हो. इसमें कृषि-उपज को बिक्री हेतु एकत्र करना, उसे मण्डियों तक लाना, परिवहन की व्यवस्था करना, उनके गोदाम में रखने की व्यवस्था करना, इसके बाद ही बिक्री की कड़ी आती है.




देखने में आया है कि कृषि-पदार्थों की विपणन व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो पा रही है. विपणन व्यवस्था में कमी के साथ-साथ भारतीय कृषि की दशायें भी इस पर अपना प्रभाव डालती हैं. किसान की गरीबी और पिछड़ेपन के कारण भी विपणन की आदर्श स्थिति निर्मित नहीं हो पाती है. वर्तमान में देश में अनेक प्रकार की विपणन व्यवस्थायें कार्य कर रहीं हैं. ये व्यवस्थायें समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वतः ही निर्मित हो जातीं हैं. आज भी बड़े पैमाने पर गाँव के छोटे किसान परिवहन की समस्या, फसल का मूल्य शीघ्र ही पाने की विवशता, जीवन-निर्वाह के लिए तथा अन्य दूसरे कार्यों के लिए धन की नितांत आवश्यकता के चलते कम दामों में अपनी फसल को गाँवों में ही बेचने को विवश होता है. अनेक किसान अपनी फसल को गाँव में न बेचकर आसपास लगने वाली हाट में बेच देते हैं. इसके पीछे किसान का एक कारण उसी बाजार से अपनी जरूरत का सामान भी क्रय कर लेना होता है. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बड़े किसान जिनके पास फसल का आधिक्य होता है वे इस प्रकार से हाट में अपनी फसल नहीं बेचते हैं. यहाँ वे किसान विपणन के लिए आते हैं जिन्हें नकद धनराशि की आवश्यकता शीघ्र ही होती है. असल में यातायात की कठिनाई के कारण, मंडियों में आढ़तियों और दलालों के कपटपूर्ण व्यवहार के चलते संकोचवश एवं आशंकित होकर भी छोटे किसान बड़ी मंडियों में जाने से घबराते हैं. इस कारण वे गाँव के आसपास के छोटे शहर में बनी मंडी में अपनी फसल को बेच देते हैं. इस प्रकार की मंडियों का संचालन थोक व्यापारियों के हाथों में होता है. इस व्यवस्था में किसान कई बार घाटे का शिकार हो जाता है.

 

कृषि उत्पादों का सही मूल्य दिलवाने और किसानों का कपटपूर्ण व्यवहार से बचाने के लिए सहकारी विपणन पर जोर दिया जाता है. सहकारी विपणन समितियाँ थोड़े-थोड़े विपणन आधिक्य को एकत्र कर बेचतीं हैं. इसमें सामूहिक रूप से फसल को इकट्ठा कर मण्डी में बेचा जाता है. इससे सौदा करने की शक्ति बढ़ती है, किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्त होता है और वे अपने उत्पादन की बेहतर कीमत प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं. इससे किसानों में उत्पादन करने के प्रति भी एक उत्साह का संचार होता है. वर्तमान में हमारे देश में सहकारी विपणन व्यवस्था के साथ-साथ अन्य विपणन व्यवस्थायें भी काम कर रहीं हैं. इनके चलते कृषि विपणन व्यवस्था में कई प्रकार के दोष देखने में आते हैं. इन दोषों के कारण किसानों को एक तो उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, दूसरे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं. गाँव आधारित विपणन व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष संग्रहण का होता है. फसल के संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है. इस प्रकार के संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने से, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है. मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष कहा जा सकता है. किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इससे किसान को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है. इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं. किसानों को ऋण चुकाने के लिए, आगामी फसल के लिए माल लेने के लिए, जीविकोपार्जन के लिए धन की आवश्यकता के कारण उचित विपणन व्यवस्था प्राप्त नहीं हो पाती है. मूल्य की सही जानकारी न लगना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जायेगी.


यदि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो, सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए. इसके लिए सरकार सहकारी मंडियों को तो बढ़ावा देने के साथ-साथ श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे. मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे. आकाशवाणी, दूरदर्शन और अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाई जाए. नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें. 






 

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