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उपन्यासों के वाल्टर स्कॉट कहलाने वाले वृन्दावनलाल वर्मा की आज 131वीं जयंती है. आज ही 9 जनवरी सन 1889 को उनका जन्म झाँसी जिले के मऊरानीपुर में हुआ था. उनका बचपन अपने चाचा के
पास ललितपुर में बीता. चाचा के साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचि के होने के कारण उनकी भी
रुचि पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाओं के प्रति बचपन से ही थी. लेखन प्रवृत्ति बचपन से ही
होने के कारण उन्होंने नौंवीं कक्षा में ही तीन छोटे-छोटे नाटक लिखकर इण्डियन प्रेस
प्रयाग को भेजे. जहाँ से उनको पुरस्कार स्वरूप 50 रुपये भी प्राप्त
हुए. प्रारम्भिक शिक्षा भिन्न-भिन्न स्थानों पर संपन्न करने के बाद उन्होंने बी.ए.
और क़ानून की परीक्षा पास की. इसके बाद वे झाँसी में वकालत करने लगे.
पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों के प्रति रुचि होने के चलते और लेखन के द्वारा भारतीय इतिहास की सत्यता सबके सामने लाने की उनकी प्रतिज्ञा ने मात्र बीस साल की अल्पायु में सन 1909 में उनसे सेनापति ऊदल नाटक लिखवा लिया. इसके राष्ट्रवादी तेवरों से बौखलाकर अंग्रेज़ सरकार ने इस नाटक पर पाबंदी लगा कर इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं. बचपन में भारतीय समृद्ध इतिहास के प्रति नकारात्मक भाव देखकर वृन्दावन लाल वर्मा देश का वास्तविक इतिहास सबके सामने लाने की प्रतिज्ञा कर चुके थे. उनकी प्रतिज्ञा अपने आपसे थी, इसी कारण वे इतिहास की सत्यता सामने लाने के लिए लगातार प्रयत्नशील बने रहे. इसी के चलते उन्होंने ऐतिहासिक विषयों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया. इसके साथ-साथ ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की प्रेरणा उनको प्रसिद्द ऐतिहासिक उपन्यासकार वाल्टर स्काट से मिली. गढ़कुंडार जैसे विस्तृत उपन्यास की कथा-वस्तु के बारे में उनका स्वयं का कहना है कि एक शिकार कार्यक्रम के दौरान रात भर उस किले की छवि देखते-देखते ही उन्होंने उसकी एतिहासिकता की कथा को स्वरूप प्रदान कर दिया था.
उनका
ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की तरफ प्रवृत्त होना उस समय बहुत ही साहसिक कदम कहा जायेगा
क्योंकि उस दौर में प्रेमचंद उपन्यास सम्राट के रूप में अपनी सशक्त उपस्थिति हिन्दी
साहित्य में बनाये हुए थे. ऐसे दौर में इतिहास जैसे विषय पर लेखन करना और उसे जनसामान्य के बीच सहज मान्यता प्रदान करवाना सरल नहीं था. वृन्दावन लाल वर्मा जी की सरल और रोचक लेखन-शैली का ही कमाल कहा जायेगा कि उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास ने उन्हें पर्याप्त ख्याति प्रदान करवा दी. उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास गढ़कुंडार को जबरदस्त
प्रसिद्धि मिली. इसके बाद तो वृन्दावन लाल वर्मा ने विराटा की पद्मिनी, कचनार, झाँसी की रानी, माधवजी सिंधिया,
मुसाहिबजू, भुवन विक्रम, अहिल्याबाई, टूटे कांटे, मृगनयनी
आदि सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास लिखे. उनके उपन्यासों में इतिहास जीवन्त होकर बोलता
है. इसके साथ-साथ उन्होंने सामाजिक उपन्यास, नाटक, कहानियाँ भी लिखीं. उनकी आत्मकथा अपनी कहानी भी सुविख्यात है.
भारतीय ऐतिहासिकता को साहित्यिक जगत में जीवंत स्वरूप में प्रदान करने वाले साहित्यकार वृन्दावन लाल वर्मा सन 23 फ़रवरी 1969 में हमसे विदा हो गए. उनकी मृत्यु के 28 साल बाद 9 जनवरी सन 1997 को भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया.
आज उनके जन्मदिन पर उनकी पुण्य स्मृतियों को नमन...
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वंदेमातरम्
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