यह इस ब्लॉग की दो हजारवीं पोस्ट है. मई 2008 में ब्लॉग बनाने के बाद से लगातार लिखना हो रहा है. कभी रोज लिखा गया, एक दिन में दो-तीन पोस्ट लिखी गईं तो कभी दो-तीन दिन का अन्तराल होता रहा मगर ब्लॉग पर लिखना बंद नहीं हुआ. पिछले दो-तीन दिनों से इस दो हजारवीं पोस्ट के विषय के बारे में विचार चल रहा था. कुछ अलग सा लिखना चाह रहे थे मगर समझ नहीं पा रहे थे कि क्या लिखा जाए. इस बारे में मित्रों से भी चर्चा हुई, सोशल मीडिया पर भी शुभेच्छुओं के बीच बात रखी. बहुत से सुझाव मिले और आश्चर्य की बात देखिए कि बहुतायत में लोगों ने प्रेम सम्बन्धी विषय पर लिखने की राय दी.
वैसे हमने सोचा तो ये था कि इस पोस्ट में अपनी जीवन-यात्रा को संक्षिप्त रूप में लिखा जाये मगर इस बारे में खुद में ही निश्चितता नहीं बन पा रही थी. जैसे-जैसे मित्रों के सुझाव मिलते रहे वैसे-वैसे लगा कि प्रेम ही एक ऐसा विषय है जो कभी भी पुराना नहीं होता, कभी भी किसी को बोर नहीं करता, तो इसी पर लिखा जाये. वैसे भी हम सभी की आदत होती है दूसरों की प्रेमकथा के बारे में जानने की, दूसरों की प्रेम-कहानियाँ सुनने-सुनाने की, प्रेमी-प्रेमिकाओं के बारे में चर्चा करने की. इस बारे में हमने आत्मकथा कुछ सच्ची कुछ झूठी में लिखा भी है. आज की इस दो हजारवीं पोस्ट के विषय से सम्बंधित मित्रों की राय के बाद प्रेम सम्बन्धी विषय पर लिखने का मन बना लिया. इसमें भी आधार हमने खुद को बनाया है. ऐसा करने के पीछे कारण हमारी कुछ सच्ची कुछ झूठी ही है. बहुत से मित्र, पाठक उसमें हमारी प्रेम-कहानी न पाकर उदास हो गए थे. उन्होंने इस पर अपना दुःख व्यक्त किया था, हमसे अपनी नाराजी प्रकट की थी, इस दो हजारवीं पोस्ट में अपनी ही प्रेमकथा लिख देने या कहें कि उसका आरम्भ कर देने से उन सभी मित्रों, पाठकों की नाराजगी भी दूर होगी और हमें भी किसी न किसी रूप में कुछ सच्ची कुछ झूठी में रह गई कमी को कुछ हद तक पूरा करने का अवसर मिलेगा.
चलिए फिर, आपको सैर करवाते हैं अपनी प्रेम-कहानियों के उपवन में. आश्चर्य न करिए. प्रकृति ने, इंसान की रचना करने वाले सृष्टि निर्माता ने हमारी प्रकृति ही ऐसी बनाई कि मन-दिल हमेशा युवा बना रहा, उसमें प्रेम की लहरें हमेशा उमड़ती-घुमड़ती रहीं. ईश्वर की इस कृति की प्रेमपरक प्रकृति को माता-पिता द्वारा दिए गए नाम ने भी चिरयुवा बनाये रखा. कुमारेन्द्र का सामान्य सा अर्थ भी इसी सन्दर्भ में लगाया जा सकता है.
हमारे इस प्रेम-उपवन में सैर करते समय प्रेम की ये बगिया आप सभी को हमारी नजर से देखनी होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि प्रेम इतना व्यापक फलक वाला गुलशन है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनी निगाह से देखता है. व्यापक परिदृश्य को अनेकानेक निगाहों से देखने के कारण प्रेम के सन्दर्भ बदल सकते हैं, उसके मानक परिवर्तित हो सकते हैं. ऐसे में हमारे प्रेम-उपवन के भी अनेकानेक निहितार्थ निकाले जा सकते हैं, अनेकानेक सन्दर्भ स्थापित किये जा सकते हैं. ऐसा होने से आप हमारी प्रेम-कहानियों की उस भावबोध को महसूस नहीं कर सकेंगे जिस भावभूमि पर खड़े होकर हमने अपने प्रेम को जिया है, उसको ज़िन्दगी भर के लिए अंतस की गहराइयों में आत्मसात किया है.
आप
सभी लोग प्रेम शब्द की पावनता से खुद को जोड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहिए. प्रेम की
भावनाओं के नामकरण से बचिए क्योंकि प्रेम बहुत संवेदनशील विषय होता है और यहाँ
किसी भी तरह का नामकरण करने पर वह अति-संवेदनशील की श्रेणी में शामिल हो जाता है.
इसके बाद स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में है के परम वाक्य से बाहर की हो
जाती है.
इसे पढ़कर शायद उन सभी लोगों को बुरा लगे जो प्रेम को अत्यंत संकुचित रूप में देखते-समझते हैं. ऐसे लोगों के लिए प्रेम का मतलब सिर्फ और सिर्फ एक से प्रेम करने से होता है. ऐसा लगता है जैसे प्रेम कोई कोटा सिस्टम हो, एक व्यक्ति से प्रेम हो गया, उसके बाद कोटा ख़तम. प्रेम दिल की पवित्र भावना है जो पल-पल पल्लवित, पुष्पित होती है, सुरभित होती है. हमें तो आज तक प्रेम होता है. आज भी प्रेम होता है. बचपन में भी हुआ, किशोरावस्था में भी हुआ, युवावस्था में भी हुआ. क्या आपको नहीं हुआ? क्या आपको आज प्रेम नहीं होता?
खैर जाने दीजिये, आइये प्रेम-उपवन के उस हिस्से में चलते हैं जो हमारे बचपन से जुड़ा हुआ है. उम्र का वो पड़ाव जब प्रेम के सन्दर्भ, प्रसंग भी ज्ञात नहीं थे मगर उससे प्यार हुआ था. तमाम सारे दोस्तों के बीच वही एक लड़की सबसे ख़ास लगती. उसका ख़ास लगना ही प्रेम है, यह तो तब पता चला जबकि प्रेम का एहसास कर पाने की समझ विकसित हुई. आज जब पीछे पलट कर उस प्रेम की अनुभूति करते हैं तो आज भी वह वैसा ही मासूम दिखाई देता है, तितलियों सा रंगीन, पंछियों सा चंचल. उन दिनों में अख़बारों, पत्रिकाओं से काटे गए चित्रों के आदान-प्रदान करने की स्मृतियाँ आज भी दिल को गुदगुदा देती हैं. बचपन का दौर जिस तरह से मासूमियत के साथ कभी लौटकर न आने को विदा हो जाता है, वह ख़ास लगने वाली शख्सियत भी कभी न मिलने को दूर हो गई. बचपन की वो मासूम कहानी बिना कुछ कहे चलती रही थी, बिना कुछ कहे ही समाप्त हो गई.
समय भागता रहता है, उम्र बढ़ती रहती है, ज़िन्दगी के अनुभव परिपक्वता बढ़ाते रहते हैं. जीवन वास्तविकता के धरातल पर आ चुका था. प्रेम-कहानी को या कहानियों को रचने, गढ़ने से ज्यादा ध्यान खुद को गढ़ने पर, कैरियर बनाने पर दिया जाने का भाव आ गया था. यह भाव हम तो समझ रहे थे मगर दिल नहीं समझ रहा था. वह तो बस प्रेम करते रहना चाह रहा था, सो दिल ने प्रेम किया. पूरी गरिमा के साथ, पूरी पावनता के साथ, पूरी ईमानदारी के साथ किया.
इस अवधि में कहने-बताने लायक बहुत कुछ है. उन दिनों बहुत कुछ घटित हुआ, अच्छा भी, बुरा भी. हँसी भी साथ रही तो आँसुओं ने भी साथ न छोड़ा. बहुत कुछ ऐसा रहा जो साथ-साथ चलता रहा, साथी जैसा लगा इसके बाद भी किसी को अपना न कह सके. दिल, दिमाग, मन आदि सब किसी न किसी द्वंद्व में फँसे समझ आते. आगे बढ़ते कदम बढ़ते-बढ़ते रुक जाते. हाथों को थामने की कोशिश में खुद अपनी ही हथेलियों को बाँध लिया जाता. जो अपना न था, वो अपना न बना. बात जहाँ थी, वहाँ से आगे का सफ़र पूरा करते हुए वापस उसी जगह आकर रुक गई, जहाँ से शुरू हुई थी.
भावनाओं के धरातल पर खड़े होकर अपने प्रेम का एहसास करते हैं तो सफल-असफल की संकुचित सोच से बहुत आगे का महसूस करते हैं. प्रेम को उथलेपन से ऊपर उठकर महसूस करने का भाव जागृत करके ही प्रेम को चिरस्थायी बनाया जा सकता है. यह कोई ओस की बूँद नहीं जो पल भर बाद मिट जाये. इस भाव को समझने के बाद ही प्रेम का वास्तविक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है. इस भाव ने उन दिनों के प्रेम की छवि को धूमिल न होने दिया, उस प्रेम को तन्हा न होने दिया.
उम्र के इस दौर में जबकि जीवन का अर्धशतक अगले किसी मोड़ पर आपका इंतजार कर रहा हो तब प्रेम गंभीरता के भावबोध से भरा होता है. उसमें लड़कपन जैसी उड़ान नहीं होती, लहरों की तरह उछलना-कूदना नहीं होता वरन धीर-गंभीर रूप में वह पावनता का स्वरूप निर्मित करता है. आज इस पड़ाव पर यह कहना कि हमें किसी से प्रेम नहीं है या किसी से प्रेम नहीं होता और किसी से नहीं बल्कि खुद से झूठ बोलना होगा. ऐसा हर वो व्यक्ति कर रहा है जो ऐसे दौर से गुजरता है. उम्र के किसी भी पड़ाव पर प्रेम समाप्त नहीं होता. यदि ऐसा किसी के भी साथ होता है तो वह पाषण हृदय व्यक्ति ही होगा.
फिलहाल, आप लोग प्रेम-उपवन की इतनी सी संक्षिप्त सैर से संतुष्टि प्राप्त करिए क्योंकि विस्तार से सैर करवाने पर वह मात्र एक पोस्ट में समाहित न होने वाली. जैसा कि कुछ सच्ची कुछ झूठी में कहा था, यहाँ भी कह रहे हैं कि अपने प्रेम पर विस्तार से लिखा जायेगा, बहुत कुछ लिखा जायेगा, जो एहसास आज तक दिल के किसी कोने में कैद हैं उन सबको खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान के लिए स्वतंत्र किया जायेगा.
प्रेम की चर्चा होने पर हमारे मित्र विमल किसी विद्वान के वक्तव्य का जिक्र करना कभी नहीं भूलते कि प्रेम अग्नि के समान है उसका सदुपयोग हो तो वह पावक अग्नि के समान शुद्ध करता है, नहीं तो वह सामान्य अग्नि के समान जलाता है.
बढ़िया लिखा
जवाब देंहटाएंदो हजारवीं पोस्ट पर बहुत -बहुत बधाई।इस मुकाम तक पहुँचना ही लेखन में अभिरुचि,समर्पण व निरन्तरता का परिचायक है।मुझे लगता है, प्रेम उपवन की सैर आपने दिल की बजाय दिमाग से करायी है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएं गुरु जी
जवाब देंहटाएंखुल कर नही बोला, अपने प्रेम प्रसङ्ग को बड़ी गरिमा के साथ छुपा लिया. किंतु प्रेम के सम्बन्ध में आपके विचार पूजनीय है, 😔🙏
जवाब देंहटाएंKumar..aap ne gagar me sagar bhar diya hai..!
जवाब देंहटाएंबधाई हो भाई साहब
जवाब देंहटाएं2000वीं पोस्ट के लिए बधाई। यह सच है प्रेम की व्याख्या बहुत कठिन है, वह किसी से कभी भी हो सकता है। यह अलग बात की कोई अभिव्यक्त करता है कोई चुपचाप इसे जीता है। बहुत सुन्दर विषय पर आपने यह पोस्ट लिखा है। बधाई और शुभकामनाएँ।
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