11 जनवरी 2021

शास्त्री के साथ क्या हुआ था?

जब साल 1966 के अप्रैल में ताशकंद में आए एक विनाशकारी भूकंप में सैकड़ों जानें चली गयी, तब सलामत बचे लोगों में कुछ को ऐसा लगा कि जैसे ईश्वर भारतीय प्रधानमंत्री की उनके यहाँ उसी साल हुई मौत से नाराज थे. कुछ महीनों बाद आँखों में आँसू लिए ललिता शास्त्री उस विला को देखने को पहुँचीं, जहाँ उनके पति को ठहराया गया था. एक महिला कर्मचारी उन्हें उस बेडरूम तक ले गई, जहाँ शास्त्री ने अपनी आखिरी साँस ली थी. शास्त्री का कमरा दिखाते वक्त वो उज्बेकी महिला अपनी भवों में सिलवटें डालकर गंभीरता से फुसफुसाई... “कोई टेलीफोन नहीं”- यानी अपने आखिरी वक्त में भारतीय प्रधानमंत्री एक तरह से बाकी दुनिया से कटे हुए थे.


लोगों को संदेह था कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बारे में आधिकारिक तौर पर जो जानकारी दी गई थी, उसमें कुछ न कुछ जरूर छिपाया गया था. शास्त्री की मौत से जुड़ी शंकाओं के बारे में जहाँ ताशकंद में दबी जुबान में बातें होती थीं, तो वहीं उन दिनों भारत में यही चर्चा सबसे बड़ा विषय था. आज भी ताशकंद में शास्त्री जी की मृत्यु और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का रहस्यमई हालत में लापता होना देश के सबसे विवादित सियासी मसले हैं.


शास्त्री की मौत हमारे दिलो-दिमाग में आज भी कुछ ऐसे बसी है कि जब भी उनका जिक्र होता है, चर्चा खुद-ब-खुद जनवरी 1966 के उस घटनाक्रम तक पहुँच जाती है. आखिर उस दिन ताशकंद में क्या हुआ था? शास्त्री जी जैसे महान व्यक्तित्व को किसी किस्म के प्रचार की जरूरत नहीं है. उनकी सादगी और ईमानदारी हमारे जेहन में हमेशा के लिए दर्ज है. लेकिन ये सवाल आज भी चुभता है कि आखिर हमारे प्रधानमंत्री की किसी विदेशी जमीन में संदिग्ध मौत पर कभी कोई जाँच क्यों नहीं की गई? जबकि यह हमारे अब तक के इतिहास का इकलौता ऐसा मामला है.


ऐसा भी नहीं है कि ये मामला कभी देश के सामने नहीं लाया गया हो. संसद में शास्त्री के लिए शोक सन्देश पढ़े जाने के फ़ौरन बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पूछा था: “ताशकंद में क्या हुआ? क्या उनकी मृत्यु को टाला नहीं जा सकता था? क्या यह संभव नहीं था कि बिस्तर से बिना उठे ही वह अपने डॉक्टर को और नौकर को बुला सकते? क्या यह संभव नहीं था कि वहाँ ऑक्सीजन की व्यवस्था होती? जो पाँच या सात मिनट मिले थे, उसमें अगर उचित प्रबंध होता, तो शायद हम उन्हें बचा पाते?”


लेकिन भला कौन था-जो शास्त्री जी को मृत देखना चाहता था? उनके बचपन के दोस्त टीएन सिंह के मुताबिक वो ‘अजातशत्रु’ (जिसका कोई शत्रु न हो) थे. अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए भी मानती थी कि 40 साल के सियासी सफ़र में शास्त्री के न के बराबर ही दुश्मन थे. ऐसे में कौन था जिसको शास्त्री की मौत से फायदा होता? आखिर भारत के खिलाफ ऐसे खतरनाक अपराध की सोच के पीछे भी भला क्या मकसद हो सकता था?




उनकी मौत पर कभी कोई जाँच नहीं हुई, क्योंकि सरकार हमेशा यही कहती रही कि शास्त्री की मृत्यु हार्ट अटैक से ही हुई है. उनके अनुसार शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. कुछ लोगों ने ‘दाल में कुछ काला’ होने के आरोप भी लगाये, लेकिन सरकार ने इस मामले में अपने आधिकारिक स्टैंड को बदलना दूर उस पर दोबारा गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा. जाँच को लेकर उठी आवाजें धीरे-धीरे खामोश हो गईं. बीच-बीच में सुभाष चन्द्र बोस के लापता होने के विवाद के साथ ये मामला भी उठाया जाता रहा. कुछ वक्त बाद दोनों ही मसले एक ही चश्मे से देखे जाने लगे. 1970 में जब समर्थकों के दवाब में सरकार बोस के मामले की न्यायिक जाँच कराने को तैयार हो गई, तब शास्त्री के समर्थकों ने भी (इनमें से ज्यादातर लोगों ने बोस के मामले में भी आवाज़ उठाई थी) उनके केस की जाँच के लिए भरसक कोशिशें की, लेकिन सरकार पर उसका कोई असर नहीं हुआ. उसी साल से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया.


तो फिर हम आज साल 2019 में इस मामले को लेकर इतना गंभीर क्यों हैं? शास्त्री के निधन के 54 सालों बाद उस घटना को कुरेदने से भला क्या हासिल होगा? दरअसल मेरा मकसद है कि इस मुद्दे पर पूर्णतः विराम लगना चाहिए, जो कि आज तक नहीं हो पाया है. ऐसा तभी संभव होगा जब इस घटना की तह तक पहुँचने की कोशिश की जाये, ताकि उस रात की एक मुकम्मल तस्वीर सामने आ सके. आज भी कई लोग हैं जो उस घटना की पूरी सच्चाई जानना चाहते हैं. खासकर शास्त्री जी के परिजन, जो आज भी उस हादसे से उबर नहीं सके हैं. उस भयावह रात के बारे में सोचकर अभी भी उनके दोनों बेटों की आँखें डबडबा आती हैं. उस रात फोन पर शास्त्री जी की हालत नाजुक होने का संदेशा मिलने के बाद उनके परिवार के लोग अगले आधे घंटे तक भगवान के आगे प्रार्थना करते रहे, लेकिन...


सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु से जुड़े विवाद पर एक मशहूर किताब लिखने के बाद मुझे ‘शास्त्री’ की संदिग्ध मौत पर लिखने के लिए भी कई सुझाव दिए गए. मैं उन सुझावों को टालता रहा. दरअसल मेरे पास ऐसा न करने की दो वजहें थीं. एक तो यह कि ‘बोस’ के मामले के उलट शास्त्री की मौत के केस में आधिकारिक तौर पर कुछ जानकारियाँ नहीं थीं. इसको लेकर दाखिल की गई मेरी आरटीआई (शास्त्री की मौत से जुड़े मामले में दाखिल की गई ये पहली RTI थी) से भी बस कुछ खबरों और लेखों के लायक जानकरी ही हासिल हो सकी थी. भले ही दोनों मामलों में चर्चा एक साथ की जाती हो लेकिन नेता जी और शास्त्री जी के मृत्यु के मामले एक लिहाज में बिलकुल अलग हैं – एक तबके का मानना रहा है कि नेताजी अपनी मृत्यु की अधिकारिक तारीख के बहुत बाद भी जिन्दा थे, जबकि शास्त्री जी की मृत्यु यकीनन ताशकंद में ही हो गई थी. लिहाजा नेताजी के मामले में खोजबीन के लिए भी काफी कुछ था. जबकि शास्त्री के केस में सिर्फ यही तय करना था, कि क्या उनकी मौत प्राकृतिक थी या नहीं? बिना पर्याप्त जानकारी और तथ्यों के इस घटना को लेकर एक ठोस, सटीक और संवेदनशील कहानी बुनना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम मुश्किल नहीं था.


इस किताब को न लिखने के पीछे मेरा दूसरा तर्क था कि कहीं मेरी पहचान राष्ट्रीय नेताओं की मौत पर लिखते रहने वाले लेखक के तौर पर न बन जाए! हालाँकि मेरा मकसद ऐसी गुत्थियों को सुलझाने का है. इसलिए शास्त्री केस पर कई बेहद चर्चित और सराहे गए लेखों को लिखने के बाद भी मैं इस मुद्दे पर किताब लिखने को लेकर इच्छुक नहीं था.


लेकिन कुछ महीनों पहले मैं दिल्ली में फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री के साथ खाने की मेज पर बैठा था. इसी दौरान पहली बार मेरे दिमाग में इस किताब को लिखने का ख्याल आया. अग्निहोत्री इसी मामले को लेकर ‘द ताशकंद फाइल्स’ के नाम से एक फिल्म ला रहे हैं. उनकी इस फिल्म के लिए जरूरी तथ्य जुटाने के बाद कुछ सार्थक और बेहतर करने की चाह में मैंने अपनी हिचकिचाहट को दरकिनार कर इस किताब पर काम शुरू किया, ताकि फिल्म के साथ बने माहौल के बीच राष्ट्रीय महत्त्व के मसले को एक अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचाया जा सके.



(अनुज धर जी की प्रसिद्द पुस्तक शास्त्री के साथ क्या हुआ था? का प्राक्थन, साभार, लाल बहादुर शास्त्री जी की पुण्यतिथि पर)
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वंदेमातरम्

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. वाह बहुत बढ़िया। अनुज धर जी की ये पुस्तक सबको पढ़नी चाहिए। नेताजी और शास्त्री जी को लेकर इन्होंने बहुत कुछ लिखा है वो भी पूरे तथ्यों के साथ।

    वन्देमातरम् !

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