पर्यावरण के प्रति सामाजिक रूप से सभी
चिंतित दिखाई देते हैं. बचपन से पर्यावरण की एक रटी-रटाई परिभाषा ‘परि+आवरण’ के साथ
आगे बढ़ते रहने के कारण जल, वायु, ध्वनि, मृदा प्रदूषणों पर सबकी चिंता देखने को
मिलती है मगर अपना विकराल रूप धारण कर चुके इलेक्ट्रॉनिक कचरे की तरफ अभी समाज
बहुत गम्भीर नहीं दिखता है. आज भी बहुत बड़े जनमानस की तरफ से समझने की कोशिश न हो
रही कि इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट भी भयानक तरीके से पर्यावरण के लिए, मानव के लिए खतरा
बन गया है.
इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट को सामान्य
बोलचाल में ई-कचरा के रूप में जाना जाता है. इस शब्द का प्रयोग चलन से बाहर हो चुके
पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिये किया जाता है. ई-कचरा सूचना प्रौद्योगिकी और संचार
उपकरण तथा उपभोक्ता इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स के रूप में निकलता है. इसमें
मूलतः सेलफोन, स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, कम्प्यूटर से सम्बंधित उपकरण, माइक्रोवेव,
रिमोट कंट्रोल, बिजली के तार, स्मार्ट लाइट, स्मार्टवॉच आदि शामिल हैं.
सामाजिक रूप से यह बहुत बड़ी समस्या है
क्योंकि समाज का जिस तेजी से डिजिटाइजेशन हो रहा है, उसी तेजी से ई-कचरा उत्पन्न
हो रहा है. आधुनिक तकनीक और मानव जीवन शैली में आने वाले बदलाव के कारण ऐसे
उपकरणों का उपयोग दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है जो विषैले, हानिकारक पदार्थों के
जनक बनते हैं. ट्यूबलाइट, सीएफएल जैसी रोज़मर्रा वाली
वस्तुओं में पारे जैसे कई प्रकार के विषैले पदार्थ पाए जाते हैं, जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं.
ऐसा अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग
488 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक ई-कचरा मॉनिटर
2020 के अनुसार दुनिया भर में वर्ष 2019 53.6 मिलियन मीट्रिक टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ.
संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में एशिया में ई-कचरे की सर्वाधिक मात्रा लगभग 24.9 मीट्रिक टन उत्पन्न हुई. रिपोर्ट के अनुसार कुल ई-कचरे में स्क्रीन और मॉनिटर
6.7 मीट्रिक टन, लैंप 4.7 मीट्रिक टन, आईटी और दूरसंचार उपकरण 0.9 मीट्रिक टन शामिल हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत ने
2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न
किया जो 2017-18 के 7 लाख टन से काफी अधिक
है. इसके विपरीत 2017-18 से ई-कचरा निपटान क्षमता 7.82
लाख टन से नहीं बढ़ाई गई है. एक रिपोर्ट कहती है कि ई-कचरा उत्पादक
देशों अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के
बाद भारत का स्थान है.
ई-कचरे
में मरकरी, कैडमियम और क्रोमियम जैसे कई विषैले तत्त्व शामिल होते हैं. इनके निस्तारण
के असुरक्षित तौर-तरीकों से मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. इससे अनेक तरह की बीमारियाँ
होने की आशंका रहती है. भूमि में दबाने से ई-कचरा मिट्टी और भूजल को दूषित करता है.
जब मिट्टी भारी धातुओं से दूषित हो जाती है तो उस क्षेत्र की फसलें विषाक्त हो जाती
हैं, जो अनेक बीमारियों का कारण बन सकती हैं. भविष्य में कृषियोग्य
भूमि को भी अनुपजाऊ हो सकती है. मिट्टी के दूषित होने के बाद ई-कचरे में शामिल पारा,
लिथियम, लेड, बेरियम आदि भूजल तक पहुँचती हैं.
धीरे-धीरे तालाबों, नालों, नदियों, झीलों
आदि का पानी अम्लीय और विषाक्त हो जाता है. यह स्थिति मानवों, जानवरों, पौधों आदि के लिए घातक हो सकती है. ई-कचरा में शामिल विषाक्त पदार्थों का नकारात्मक
प्रभाव मस्तिष्क, हृदय, यकृत, गुर्दे आदि पर बहुत तेजी से दिखाई देता है. इसके साथ-साथ मनुष्य के तंत्रिका
तंत्र और प्रजनन प्रणाली को भी यह प्रभावित कर सकता है.
ई-कचरा
के निपटान की अपनी स्थितियाँ, अपनी चुनौतियाँ हैं. इस कारण सबसे ज्यादा जोर इसके
पुनर्नवीनीकरण पर दिया जा रहा है. पुनर्नवीनीकरण के द्वारा प्लास्टिक, धातु, काँच
आदि को अलग-अलग करके उसको पुनरुपयोग योग्य बनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक
ई-कचरा मॉनिटर 2020 रिपोर्ट में कहा गया है कि अब वैश्विक स्तर पर उन देशों की संख्या
61 से बढ़कर 78 हो गई है जिन्होंने ई-कचरे से संबंधित कोई नीति, कानून या विनियमन
अपनाया है. इसमें भारत भी शामिल है किन्तु इसके बाद भी भारत में ई-अपशिष्ट के
प्रबंधन से सम्बंधित अनेक चुनौतियाँ हैं. सबसे बड़ी चुनौती जन भागीदारी का बहुत कम होना
है. इसके पीछे उपभोक्ताओं की एक तरह की अनिच्छा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की
रीसाइक्लिंग के लिये बनी रहती है. इसके अलावा हाल के वर्षों में एक और चुनौती इस
रूप में सामने आई है कि देश में बहुत से घरों में ई-कचरे का निस्तारण बड़े पैमाने पर
होने लगा है. यह स्थिति तब है जबकि भारत में ई-कचरे के प्रबंधन के लिये वर्ष 2011 से
कानून लागू है जो यह अनिवार्य करता है कि अधिकृत विघटनकर्त्ता और पुनर्चक्रणकर्त्ता
द्वारा ही ई-कचरा एकत्र किया जाए. इसके लिये वर्ष 2017 में ई-कचरा (प्रबंधन) नियम 2016
अधिनियमित किया गया है.
उपलब्ध
आँकड़ों के अनुसार भारत में ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण करने वाली कुल 312 अधिकृत कंपनियाँ
हैं जो प्रतिवर्ष लगभग 800 किलो टन ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण कर सकती हैं. हालाँकि अभी
भी भारत में औपचारिक क्षेत्र की पुनर्चक्रण क्षमता का सही उपयोग संभव नहीं हो पाया
है क्योंकि ई-कचरे का बहुत बड़ा भाग अभी भी अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा नियंत्रित किया
जाता है. ऐसा माना जाता है कि देश का लगभग नब्बे प्रतिशत ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक
क्षेत्र में किया जाता है.
तकनीक,
आधुनिक जीवनशैली, आवश्यकता आदि की आड़ लेकर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग भले ही
अंधाधुंध तरीके से किया जाने लगा हो मगर यह स्वीकारना होगा ई-कचरा भविष्य के लिए
खतरा बनता जा रहा है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, गैजेट्स का जीवन बहुत लम्बा नहीं होता
है और बहुतायत समाज का इन्हीं पर निर्भर होते जाना खतरे का सूचक है. आज की युवा
पीढ़ी के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुविधा के लिए कम, पैशन के लिए ज्यादा उपयोग
किया जा रहा है. ऐसे में उनके द्वारा उपकरणों को जल्दी-जल्दी बदल दिया जाता है.
नवीन तकनीक के कारण भी बहुतेरे उपकरण आउटडेटेड हो जाते हैं. यह भी ई-कचरा की
मात्रा को बढ़ाने का काम कर रहा है.
पर्यावरण
की, मानव, जीवों की सुरक्षा की खातिर लोगों को केवल हवा, पानी, भूमि, पेड़-पौधों को
बचाने के बारे में ही सजग नहीं होना है बल्कि ई-कचरा के प्रति भी सावधान होने की
आवश्यकता है. बेहतर हो कि जीवनशैली को संयमित, नियंत्रित किया जाये. इलेक्ट्रॉनिक
उपकरणों का अत्यावश्यक होने पर ही उपयोग किया जाये. उनके निस्तारण के लिए औपचारिक
क्षेत्र की सहायता ली जाये. संभव है कि मानव समाज कुछ हद तक आने वाले खतरे को टाल
सके.
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