09 दिसंबर 2022

रेपो रेट और भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के फैसलों की घोषणा की गई. इस समिति ने इस बार भी मँहगाई को नियंत्रित करने के लिए रेपो रेट को बढ़ाने का फैसला किया है. मौद्रिक नीति समिति ने अपनी बैठक में तरलता समायोजन सुविधा अर्थात लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी (एलएएफ) के अन्तर्गत रेपो रेट को 35 आधार अंक या 0.35 प्रतिशत बढ़ाने का निर्णय लिया. समिति के छह सदस्यों में से पाँच सदस्यों ने रेपो रेट बढ़ाने के फैसले का समर्थन किया. इस बढ़ोतरी को मिला कर देखा जाये तो पिछले सात महीनों में भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से ब्याज दरों में पाँचवीं बार वृद्धि की गई है. बैंक ने इससे पूर्व मई में 0.40 प्रतिशत जून, अगस्त और सितंबर में 0.50 प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी. इस वृद्धि के बाद अब रिजर्व बैंक की रेपो रेट 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 6.25 प्रतिशत हो गई है.


रेपो रेट को बढ़ाने का निर्णय अचानक से नहीं लिया गया. जब सितम्बर माह में चौथी बार रेपो रेट में बढ़ोत्तरी की गई थी, उसी समय रिजर्व बैंक गवर्नर ने संकेत दिए थे कि यदि मँहगाई पर नियंत्रण न लगा तो आने वाले समय में रेपो रेट को बढ़ाया जा सकता है. इस बार तीन दिनों तक मौद्रिक नीति समिति की बैठक चलने के बाद रेपो रेट को बढ़ाने का फैसला किया गया. इस बढ़ोत्तरी की घोषणा करते हुए रिजर्व बैंक गवर्नर ने कहा कि अगले चार महीनों में मँहगाई दर चार प्रतिशत से ऊपर बने रहने की संभावना है. उन्होंने यह भी कहा है कि देश में ग्रामीण माँग में सुधार दिख रहा है. कंज्यूमर कॉन्फिडेंस में भी सुधार हुआ है. गवर्नर के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 में जीडीपी ग्रोथ 6.8 प्रतिशत रह सकता है.




भारतीय अर्थव्यवस्था में रेपो रेट शब्द अब आम होता जा रहा है. सात महीनों में पाँच बार इसमें वृद्धि से आम आदमी भले ही इस शब्द से परिचित हो गया हो मगर वह इसकी कार्य-प्रणाली से, इसके वास्तविक सन्दर्भों से अपरिचित ही है. सामान्यजन के लिए अक्सर यह समझना कठिन हो जाता है कि रेपो रेट के बढ़ने या घटने से आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ता है. रेपो रेट के द्वारा किस तरह से मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है. भारतीय रिजर्व बैंक एक विशिष्ट दर पर वाणिज्यिक बैंकों को धन उधार देता है. इसी के आधार पर बैंकों द्वारा उपभोक्ताओं को ब्याज दर का निर्धारण किया जाता है. यदि आसान शब्दों में कहें तो रेपो रेट का मतलब है रिजर्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज की दर. बैंकों द्वारा अपने उपभोक्ताओं को देने के लिए, अन्य वित्तीय कार्यों के निष्पादन हेतु भारतीय रिजर्व बैंक से एक तरह का ऋण लिया जाता है. रिजर्व बैंक एक निश्चित रेट पर या कहें कि दर पर अन्य बैंकों को ऋण उपलब्ध कराती है. उसी को रेपो रेट कहा जाता है. बाद में बैंक इसी रेट पर अपने ग्राहकों को ऋण प्रदान करते हैं. रेपो रेट अधिक होने से ग्राहकों को अधिक ब्याज दर पर ऋण मिलता है जबकि रेपो रेट कम होने पर बैंक अपने ऋण पर ग्राहकों से कम ब्याज दर वसूल करते हैं. रेपो रेट का निर्धारण मौद्रिक नीति समिति की दो मासिक बैठक में किया जाता है.


यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय रिजर्व बैंक सभी वाणिज्यिक बैंकों को ऋण नहीं देता है. उसके द्वारा सबसे पहले वाणिज्यिक बैंकों की प्रतिभूतियों और बांडों का सत्यापन किया जाता है. इसके पश्चात् ही रिजर्व बैंक द्वारा ऋण देने की प्रक्रिया शुरू की जाती है. जब तक वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उधार ली गई राशि का भुगतान नहीं किया जाता है, तब तक ये प्रतिभूतियाँ अथवा बांड रिजर्व बैंक के पास बंधक रहते हैं. किसी कारण से यदि वाणिज्यिक बैंक ऋण को नहीं चुका पाता है तो रिजर्व बैंक को उन प्रतिभूतियों को बेचने का अधिकार होता है.


देखा जाये तो रेपो रेट देश के आर्थिक विकास के लिए एक आवश्यक उपकरण होता है. देश की मुद्रास्फीति पर भी यह महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है. इसके माध्यम से अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति और तरलता को भी नियंत्रित करने में सहायता मिलती है. रेपो रेट अधिक होने की स्थिति में बैंकों के लिए रिजर्व बैंक से उधार लेने की लागत मँहगी हो जाती है. ऐसी स्थिति अर्थव्यवस्था में निवेश और मुद्रा आपूर्ति को धीमा कर देती है. परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना सहज हो जाता है. ऐसे कदम से मँहगाई को भी नियंत्रित करने में मदद मिलती है. यही कारण है कि विगत सात माह में रिजर्व बैंक द्वारा पाँच बार रेपो रेट को बढ़ाया गया है.


रेपो रेट समग्र अर्थव्यवस्था पर कई तरह के प्रभावों का कारण बन सकता है चाहे वह बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव हो, औसत नागरिक पर प्रभाव हो या भारतीय अर्थव्यवस्था अन्य बिन्दुओं पर प्रभाव हो. किसी भी तरह की मौद्रिक नीतियों में परिवर्तन से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाला महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बैंकिंग का होता है. यह बैंकों के लिए एक बड़ी राहत की खबर होती है जब रिजर्व बैंक रेपो रेट को कम करने का फैसला करता है. रेपो रेट कम होने के कारण वाणिज्यिक बैंक रिजर्व बैंक से कम दर पर उधार ले सकते हैं. इसके ठीक उलट स्थिति रेपो रेट बढ़ने पर होती है. रेपो रेट के बढ़ने या फिर घटने का सीधा प्रभाव उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ता है. इसके द्वारा गृह ऋणव्यवसाय ऋण और अन्य ऋण दर परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता है. ऐसा होने से मुद्रा प्रवाह में स्थिरता या कमी आती है. इसके द्वारा बहुत हद तक मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है.


रिजर्व बैंक द्वारा बढ़ाये जाने वाले रेपो रेट से मँहगे बैंक ऋण उधारकर्ता को ऋण लेने से हतोत्साहित करते हैं. यह बाजार में धन की आपूर्ति को कम करता है और इस प्रकार प्रणाली में तरलता को स्थिर करता है. यह भले ही खपत, विस्तार और उत्पादन में कम पैसे की आपूर्ति के साथ एक गिरावट है किन्तु इसके द्वारा रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति की दर को नियंत्रण में रखने के लिए आर्थिक विकास और बढ़ती मुद्रास्फीति के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करता है. बाजार में तरलता में कमी आने पर, मुद्रा की गति कम रहने पर, नकदी का प्रवाह कम रहने के कारण लोगों की क्रय शक्ति पर भी प्रभाव पड़ता है. इसके द्वारा भी मँहगाई को नियंत्रित किया जा सकता है. संभव है कि प्रथम दृष्टया रेपो रेट के बढ़ने से ब्याज दरों में बढ़ना अर्थव्यवस्था के लिए, आम आदमी के लिए अहितकर लगे किन्तु दीर्घकालिक स्थिति से निपटने के लिए यह सर्वाधिक अनुकूल कदम कहा जाता है. 





 

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