वर्ष २०२० में कोरोना वायरस के आने के बाद लोगों
में सुरक्षा को लेकर सजगता भी दिखाई दी थी और एक तरह का डर भी. उस समय डर होने का
एक कारण इस बीमारी का नया-नया होना तो था ही साथ ही जिस तरह से मीडिया में इसके
वैश्विक स्वरूप को दिखाया गया वह डराने वाला था. इसके साथ-साथ आये दिन आने वाले
आँकड़ों, वीडियो आदि ने भी जनमानस को भयभीत कर रखा था. भय के माहौल में लोगों ने
राहत लेते हुए वर्ष २०२१ में प्रवेश किया. इसी अवधि में चाक-चौबंद व्यवस्था दिखाई
दी, वैक्सीन के बन जाने के समाचार आये,
साथ ही कोरोना के असर का कम होना भी दिखाई दिया. इसके बाद अचानक से कोरोना वायरस
ने पुनः हमला कर दिया. लोग एकदम से संक्रमित होने लगे. अचानक से कोरोना से होने
वाली मौतों की संख्या बढ़ने लगी. सामान्य से चलते जीवन में एकदम से उथल-पुथल सी मच
गई.
एकदम से संक्रमितों की संख्या बढ़ी साथ ही उससे
होने वाली मौतों की संख्या भी बढ़ने लगी. कोरोना से होने वाली मौतों की सत्यता-असत्यता
के पीछे की सबकी अपनी कहानी है मगर इसके द्वारा लोगों में दहशत पैदा होने लगी. डर
का माहौल बुरी तरह से लोगों को भयानक वातावरण का एहसास कराने लगा. इस तरह के
वातावरण को बनाने में जहाँ मीडिया पीछे नहीं रही वहीं सोशल मीडिया से जुड़े लोगों
ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी. मौत का तांडव, लाशों के ढेर, चिताओं के मेले, मौत का नंगा नाच आदि जैसे शब्दों
से समाचारों को लिखा जाने लगा. ऐसा लगने लगा जैसे लोगों को डराने के लिए, उन्हें दहशत में लाने के लिए इस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया जा रहा
हो. समाचार, वीडियो जानकारी से अधिक हॉरर मूवी समझ आने लगे.
इन मौतों की खबरों के कारण जिस तरह का भय समाज
में दिखाई दे रहा था उससे ज्यादा डर इस कारण भी बना हुआ है क्योंकि लोग अपने आसपास
ही नहीं किसी दूसरे शहर में होने वाली किसी भी मौत से स्वयं को जोड़ ले रहे हैं. लोग
सोशल मीडिया के द्वारा अनावश्यक रूप से मौत की खबरों को प्रसारित करने में लगे हुए
हैं. कुछ लोगों के लिए ऐसा करना जानकारी का संप्रेषण है तो कुछ लोग इसके पीछे
सरकार की, शासन-प्रशासन की विफलता दिखाना चाहते हैं. लोगों
की मंशा कुछ भी मगर इससे आमजनमानस में दहशत भरने लगी. लोग जान-परिचित वालों की मौत
पर तो दुखी हो रहे हैं, ऐसा होना स्वाभाविक है किन्तु
बहुतायत में अब लोग अपरिचितों की मौत से भी खुद को जोड़ने लगे हैं. दिन भर की ही
नहीं, अपने पड़ोस, अपने शहर की ही नहीं
वरन दसियों दिन पुरानी, दूसरे शहरों-राज्यों की मौतों को अब
लोग अपने सिर पर लादे घूमने लगे हैं. मौतों के ये समाचार लोगों को जानकारी देने से
ज्यादा मौत के करीब ले जाने लगे हैं.
लोग अपने आसपास की मौतों से खुद को जोड़ते हुए
भयाक्रांत हो रहे हैं. पिछले हफ्ते हमारे एक मित्र का फोन आया. शाम का समय था, उसकी आवाज़ में एक तरह का डर, निराशा जैसा समझ आया.
उसे टोका तो उसने बताया कि वह बहुत घबराया हुआ है, कोरोना
से. उसने बताया कि उसकी कॉलोनी में उस दिन तीन लोगों की मौत हो गई. पूछने पर उसी
ने बताया कि तीन लोगों में दो लोग पैंसठ वर्ष से अधिक के थे और एक पचपन वर्ष के
थे. इसमें भी एक बात उसने बतायी कि इन तीन लोगों में कोरोना से एक का निधन हुआ, पैंसठ वर्ष वालों का.
उसके साथ दो-चार संवेदना भरे वाक्यों के बाद पूछने
पर जानकारी हुई कि वह दस-बारह साल से उस कॉलोनी में रह रहा है. उससे यह पूछने पर
कि इन दस-बारह सालों में क्या उसकी कॉलोनी में किसी का निधन नहीं हुआ? उसने बताया कि इस दौरान लगभग बीस-पच्चीस लोगों का निधन हो चुका है. उसी
ने बताया कि पिछले साल ही तीन लोगों का निधन हुआ.
उसकी यही बातें पकड़ते हुए हमने उससे कहा कि क्या
पिछले साल की अथवा पिछले दस-बारह सालों में हुई मौतों की खबर तुमने हमें दी? क्या उन मौतों पर कभी तुमने परेशान होकर, डर कर
हमें फोन किया? उसके मना करते ही उसके साथ जरा तेज़ आवाज़ में
बात करते हुए कहा कि यही वो स्थिति है जो अनजाने डर को अपने में समाहित करके दहशत पैदा
करती है. इसी दहशत को तुम्हारे जैसे लोग फैलाने का काम करते हैं. तुम्हारे जैसे
लोग ही ऐसी खबरों से डरते नहीं बल्कि उनका प्रसारण करते हो. तुम जिसे लोग अपने डर
को दूसरों के चेहरे पर भी देखना चाहते हैं ताकि समाज में सभी लोग दहशत में जीते
रहें.
इसके बाद उसे बहुत से उदाहरणों से समझाते रहे, उसकी हिम्मत बढ़ाते रहे. अब वह डर से कितना बाहर आया यह तो वही जाने पर
वास्तविकता यही है कि लोग अपने आपको लेकर कम डर रहे हैं और अनजाने लोगों की मौतों
को अपने सिर में लाद कर डर से आगे निकल दहशत को अपने अन्दर भरते जा रहे हैं. इस समय
जो माहौल है उसमें हम सभी को अनावश्यक रूप से ऐसी खबरों के प्रसारण से बचना चाहिए
जो डर का पैदा करती हों. ऐसी खबरों से न केवल स्वस्थ व्यक्ति घबराता है बल्कि उनको
इनसे ज्यादा खतरा है जो कोरोना संक्रमित हैं. ऐसी खबरों से लगता है जैसे चारों तरफ
सिर्फ और सिर्फ मौतें हो रही हैं. यदि स्वस्थ होने वालों और मौतों का आँकड़ा देखें तो
स्पष्ट अंतर दिखाई देता है. हमारे देश में कोरोना संक्रमण से स्वस्थ होने वालों की
संख्या बहुत अधिक है और मौतों की संख्या दो प्रतिशत से अधिक नहीं है.
इस विपत्ति के समय में यदि किसी का सहयोग नहीं
किया जा सकता है तो कम से कम किसी को डराने का काम तो न किया जाये. समझ से परे है
कि आखिर इस भय का ऐसा माहौल क्यों बनाया जा रहा है? कहीं
इसके पीछे भी आपदा में अवसर बनाने वाला बाज़ार तो नहीं?
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