दुःख, ये शब्द ऐसा है जिसको
समाज में खूब व्याख्यायित किया गया है. दुःख को मानव जीवन के लिए कर्मों का आधार
माना गया है. एक तरह का आवश्यक अंग माना गया है दुःख को. हिन्दी साहित्य में भी
भक्ति से सम्बंधित साहित्य में दुःख को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया है.
कहीं दुःख को चिर-स्थायी दोस्त बताया गया है, कहीं बिना दुःख
के जिंदगी की सच्चाई का पता न चलने की बात कही गई है. दुःख को भले ही किसी ने दो
पल का माना हो मगर उसी के सहारे अपने और पराये की पहचान होना भी बताया है. इसे
धार्मिक अथवा साहित्यिक विचारों का प्रभाव कहेंगे या कुछ और कि बहुधा लोगों को
अपने दुःख को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताते देखा है. हमारे जितना दुःख किसी और को होता
तो मर जाता, तुम क्या जानो दर्द किसे कहते हैं,
ज़माने का सारा दुख हमारे हिस्से ही आया है, ज़िन्दगी
भर दुःख ही तो सहा है, जितना कष्ट उठा लिया उससे ज्यादा कोई
क्या देगा... आदि वाक्य आये दिन आप भी लोगों के मुँह से
सुनते होंगे.
दुःख किसी न किसी रूप में सबसे साथ जुड़े होते हैं
पर हमें सिर्फ अपने दुःख ही क्यों सबसे बड़े लगते हैं? कष्ट
किसी न किसी रूप में सबके साथ जुड़ा है पर हमें सिर्फ अपना ही कष्ट क्यों सबसे बड़ा
दिखाई देता है? क्यों हमें किसी और के कष्ट, समस्या बड़ा समझ नहीं आता? क्यों अपने ही दुःख को हम
किसी दूसरे के दुःख पर आरोपित करना चाहते हैं? हो सकता है कि ऐसा उस स्थिति में होता
हो जबकि हम अपने दुःख में नितांत अकेले बैठे हों. कष्ट, समस्या,
दुःख किसी भी रूप में किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि का कारक नहीं बनते.
उनके होने पर किसी व्यक्ति को सुख की अनुभूति नहीं होती है. इसके बाद भी ऐसा देखने
में आता है कि व्यक्ति अपने कष्टों, अपने दुखों को लगभग
पालने-पोसने का काम करते हैं. किसी न किसी तरह, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
रूप में समाज में अपने दुःख को प्रकट करने का अवकाश खोजते हैं.
आम आदमी हो अथवा कोई ख़ास, सभी
अपने दुःख को ही विशिष्ट मानते-बताते हैं. उनके लिए दूसरे के दुःख से कोई सरोकार
नहीं. ऐसे लोगों में कोई अपने शारीरिक कष्टों का दुःख अत्यंत विकटता के साथ प्रकट
करता है. कोई मानसिक कष्टों को सर्वाधिक दुखद बताते हुए अपने आपको संसार का
एकमात्र दुखी प्राणी सिद्ध करने की कोशिश में लगा रहता है. किसी को दुःख का कारण
नहीं ज्ञात, उसका आधार नहीं ज्ञात मगर इसके बाद भी उसका दुःख
सभी के दुःख से बहुत-बहुत बड़ा होता है. ऐसे लोग दुःख के माध्यम से लोगों की
सहानुभूति बटोरने की मानसिकता से काम तो करते ही हैं साथ ही अपने आपको अपने साथ के
बाकी लोगों से कहीं ऊपर मानने-मनवाने का जतन भी करते दिखाई देते हैं. ऐसे लोग जो
बात-बात में अपने दुःख का रोना रोते हैं, अपने दुःख को ही
सबसे बड़ा और कष्टप्रद बताते नहीं थकते हैं.
अनेकानेक मामलों में ऐसा महसूस होता है जैसे लोग
दुखों को आत्मसात कर उनका पोषण करते रहते हैं. यह आमतौर पर देखने में आता है कि
किसी तिथि विशेष पर व्यक्ति को उसका सुख जितना प्रसन्न करता है उससे कहीं अधिक
किसी तिथि विशेष पर मिला हुआ दुःख ज्यादा दुखी करता है. इसे समझने की आवश्यकता है
कि किसी व्यक्ति के जीवन में उसके सुख पर दुःख आजीवन कैसे और क्यों आक्षेपित हो
जाता है? व्यक्ति समाज का एक हिस्सा है, उसी के द्वारा समाज का निर्माण हुआ है. ऐसे में सभी व्यक्तियों का दायित्व
बनता है कि वे एक-दूसरे के साथ तारतम्यता बनाये रखें, एक-दूसरे
के साथ सामंजस्य बनाये रहें. यदि व्यक्ति ऐसा करने में सक्षम होता है तो वह
एक-दूसरे के सुखों का आनंद भी उठा सकता है, एक-दूसरे के
दुखों, कष्टों, समस्याओं को भी मिलकर
सुलझा सकता है. मिलजुल कर रहने के कारण, सामूहिकता की भावना
होने के कारण किसी भी व्यक्ति को अपना कष्ट किसी दूसरे के कष्ट के आगे बहुत बड़ा
नहीं लगेगा. कष्ट की, समस्या की स्थिति में वह हमेशा दूसरे
के कष्टों को, समस्याओं को दूर करने के लिए आगे ही आगे
रहेगा. इससे व्यक्ति को समझ में आएगा कि समाज में एकमात्र वही नहीं है जिसके पास
समस्याएं हैं, कष्ट हैं. उसके जैसे, उससे
बुरी स्थिति में बहुत से लोग हैं जो कष्टों में, समस्याओं
में रहने के बाद भी अपने जीवन को सहजता से संचालित कर रहे हैं.
व्यक्ति को अपनी गंभीरता, अपने धैर्य, अपनी हिम्मत का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए. इनके द्वारा वह आत्मविश्वास में वृद्धि करता रहता है. इसी आत्मविश्वास के चलते वह सदैव कष्टों पर विजय पा सकता है, समस्याओं का समाधान खोज सकता है, दुखों से मुक्ति पा सकता है. बस उसे ध्यान रखना होगा कि उससे ज्यादा कष्ट वाले, समस्या वाले इस समाज में हैं. उसे ध्यान रखना होगा कि उसके पास आत्मविश्वास है जो उसे हारने नहीं देगा. दुःख हो अथवा सुख दोनों ही परिस्थितिजन्य होते हैं. परिस्थितियाँ कभी एक जैसी नहीं रहतीं ऐसे में परिस्थितियों के बदलने का प्रयास करना चाहिए अथवा उनके बदलने का इंतजार करना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं हो रहा है तब तक भी और आगे भी जीवन में आये सुखों के पलों के साथ विश्वास बनाये रखते हुए दुखों को कम करने का, दुखों को भूलने का काम करना चाहिए. यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि दुखों का लगातार मन-मष्तिष्क में बने रहना व्यक्ति की कार्य-क्षमता को, उसकी जीवन-शैली को, उसकी पारिवारिकता को, उसकी सामाजिकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. इसके विपरीत सुख व्यक्ति में उत्साह भरते हैं, उसे आगे बढ़ने को प्रेरित करते हैं, उसके मनोबल को बढ़ाते हैं. विश्वास के सहारे दुखों पर विजय प्राप्त करते हुए उन्हें सुखों में परिवर्तित करना व्यक्ति का ध्येय होना चाहिए, उसका कर्म होना चाहिए.
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बहुत बढ़िया।
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