रक्तदान करते हुए एक लम्बी समयावधि हो चुकी है.
वर्ष 1991 से आरम्भ यह अभियान आजतक निरंतर नियमित रूप से चल रहा है. अपने इस कार्य
के दौरान और अध्ययन के दौरान बहुत बार प्लाज्मा शब्द से परिचय हुआ. इतने वर्षों
में प्लाज्मा के बारे में सुनते रहने के बाद भी उसके उपयोग की तरफ बहुत गंभीरता से
ध्यान नहीं दिया था. इधर विगत वर्ष में कोरोना का प्रकोप शुरू होने के बाद से ही
प्लाज्मा के बारे में, प्लाज्मा थैरेपी के बारे में खूब
चर्चा सुनाई देने लगी. आये दिन इस बारे में बहुत से लोग जानकारी चाहते हैं कि
प्लाज्मा क्या है? यह कैसे काम करता है? इसके द्वारा वर्तमान
कोविड-19 बीमारी में कैसे इलाज किया जा रहा है? एक प्रयास है
इस बारे में संक्षिप्त जानकारी देने का.
किसी व्यक्ति के रक्त (Blood) में चार प्रमुख चीजें होती हैं. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (व्हाइट ब्लड
सेल्स, WBC), लाल रक्त कोशिकाएँ
(रेड ब्लड सेल्स, RBC), प्लेटलेट्स और
प्लाज्मा. किसी स्वस्थ शरीर में रेड ब्लड सेल्स (RBC) की मात्रा सर्वाधिक होती
है. शरीर में शामिल पूरे खून का 38-40 प्रतिशत भाग RBC होता है. यह रीढ़धारी जन्तुओं के श्वसन अंगों से आक्सीजन लेकर उसे शरीर के विभिन्न
अंगों की कोशिकाओं तक पहुँचाने का सहज माध्यम है. इस कोशिका में केन्द्रक नहीं
होता है और इसकी औसत आयु 120 दिन की होती है.
श्वेत रक्त
कोशिकायें (WBC) को
श्वेताणु या ल्यूकोसाइट्स भी कहा जाता है. ये शरीर को संक्रामक रोगों और बाह्य
पदार्थों से रक्षा करने वाली प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकायें हैं. इन्हें सामान्य बोलचाल
की भाषा में शरीर का सिपाही के नाम से भी जाना जाता है. WBC किसी व्यक्ति के शरीर
में एंटीजन और एंटीबॉडी का
निर्माण करती हैं. एक बार बनी हुयी एंटीबॉडी जीवन भर नष्ट नहीं होती है. श्वेत
रक्त कोशिकाओं की संख्या किसी स्वस्थ व्यक्ति में उसके रक्त का लगभग 1 प्रतिशत होती है. इन कोशिकाओं की संख्या में ऊपरी सीमा से
अधिक हुई वृद्धि को ल्यूकोसाइटोसिस तथा निम्न सीमा के
नीचे की संख्या को ल्यूकोपेनिया कहा जाता है.
प्लेटलेट्स को बिम्बाणु
भी कहते हैं. ये शरीर में उपस्थित रक्त में अनियमित आकार की छोटी अनाभिकीय कोशिका
होती है. ये वे कोशिकाएँ होती हैं जिनमें नाभिक नहीं होता है बल्कि मात्र डीएनए ही
होता है. एक प्लेटेलेट कोशिका का औसत जीवनकाल 8-12 दिन का
होता है. सामान्यत: किसी मनुष्य के रक्त में एक लाख पचास हजार से लेकर चार लाख
प्रति घन मिलीमीटर प्लेटलेट्स होते हैं. ये थ्रोम्बोपीटिन
हार्मोन की वजह से विभाजित होकर खून में समाहित
होते हैं और मात्र 10 दिन के जीवनकाल तक संचारित होने के बाद स्वत: नष्ट हो जाते हैं. शरीर में थ्रोम्बोपीटिन का काम प्लेटलेट्स की संख्या को सामान्य बनाये
रखना होता है.
प्लाज्मा हमारे
शरीर में उपलब्ध खून में मौजूद एक तरह का तरल पदार्थ होता है. यह पीले रंग का होता
है, जिसमें पानी, नमक और अन्य एंजाइम्स होते हैं. इसकी सहायता
से हमारे शरीर की कोशिकाएँ और प्रोटीन शरीर के विभिन्न अंगों में खून पहुँचाते
हैं. किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्लाज्मा की मात्रा 52 से 62 प्रतिशत तक होती है. वर्तमान में कोरोना
संक्रमण के चलते प्लाज्मा थेरेपी का चलन तेजी से बढ़ा है. ऐसे किसी भी स्वस्थ मरीज,
जिसमें एंटीबॉडीज़ विकसित हो चुकी हैं, का प्लाज़्मा निकालकर
दूसरे व्यक्ति को चढ़ाना ही प्लाज्मा थेरेपी है.
कोरोना संक्रमित व्यक्ति के उपचार के लिए किसी
ऐसे व्यक्ति का ही प्लाज्मा लिया जा सकता है जो कोरोना संक्रमित होने के बाद ठीक
हो चुके हैं. ऐसे लोगों के अंदर एंटीबॉडीज विकसित हो चुकी हो. सिर्फ वही लोग ठीक
होने के 14 दिन बाद प्लाज्मा दान कर सकते हैं. यहाँ ध्यान
दें वाली बात यह है कि जो व्यक्ति प्लाज्मा दान करता है उसे किसी भी तरह का कोई
खतरा नहीं होता है. इसके देने से हीमोग्लोबिन में भी किसी तरह की गिरावट नहीं आती
है. यदि प्रक्रिया की दृष्टि से देखें तो प्लाज्मा का दान रक्तदान से ज्यादा सरल
और सुरक्षित है. प्लाज्मा दान करने के बाद सिर्फ एक-दो गिलास पानी पीकर ही वापस
पहली वाली स्थिति में आ सकते हैं. प्लाज्मा में सम्बंधित व्यक्ति के खून से सिर्फ प्लाज्मा लेकर RBC, WBC और प्लेटलेट्स वापस देने वाले व्यक्ति के शरीर में पहुँचाये जाते हैं. इसलिए
प्लाज्मा दान करने से शरीर पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.
जो व्यक्ति कोविड-19 से
ठीक हो गए हैं, उनके शरीर से रक्त लेकर प्लाज्मा को अलग किया
जाता है. जिस स्वस्थ कोविड मरीज से प्लाज्मा लिया जाता है उसके रक्त में एंटीबॉडीज
बनी होती हैं. यही एंटीबॉडीज कोविड संक्रमितों को दी जाती है. डॉक्टर्स के अनुसार
एक व्यक्ति के प्लाज्मा से दो संक्रमित व्यक्तियों का इलाज किया जा सकता है. कोविड-19 संक्रमण से
स्वस्थ होने के 14 दिन बाद से लेकर 04
महीने के अंदर प्लाज्मा दान किया जा सकता है.
किसी व्यक्ति के शरीर से प्लाज्मा का निकालना प्लाज्मा
फेरसिस की विधि से होता है. इसमें एक मशीन में ब्लड का संचार होता है. इसमें एक
हाथ से रक्त निकलता है जो मशीन से गुजरता है. इस रक्त में से एंटीबॉडी युक्त
प्लाज्मा निकाल लिया जाता है और शेष रक्त को देने वाले के शरीर में वापस भेज दिया जाता
है. इस प्रक्रिया के द्वारा 200 से 400 मिली के आसपास प्लाज्मा निकाला जाता है. एक बार प्लाज्मा डोनेट करने के
बाद दोबारा 14 दिन बाद प्लाज्मा दिया जा सकता है. स्वस्थ
शरीर में 14 दिन में प्लाज्मा का निर्माण हो जाता है.
यहाँ एक बात और विशेष है कि जिस व्यक्ति ने
कोरोना संक्रमण से बचने हेतु वैक्सीनेशन करवा लिया है वह भी वैक्सीनेशन के 28
दिन बाद प्लाज्मा डोनेट कर सकता है लेकिन यहाँ शर्त वही है कि प्लाज्मा
दान करने वाला व्यक्ति कोरोना संक्रमण से स्वस्थ हो चुका हो. कोरोना संक्रमित के
इलाज हेतु मरीज को कोरोना वायरस के विरुद्ध बनी एंटीबॉडीज की जरूरत होती है न कि वैक्सीनेशन
वाली एंटीबॉडीज की.
यद्यपि कोरोना संक्रमित व्यक्ति के उपचार में प्लाज्मा की भूमिका को लेकर चिकित्सक और चिकित्सा वैज्ञानिक स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह रहे हैं तथापि ऐसी खबरें हैं कि इसके प्रयोग से कोरोना संक्रमित स्वस्थ अवश्य हुए हैं. इसके चलते हुए तमाम चिकित्सक और समाजसेवी लगातार अनुरोध करते दिख रहे हैं कि जो व्यक्ति कोरोना से प्रभावित होकर पूर्णतः स्वस्थ हो चुका है वह अपना प्लाज्मा अवश्य दान करे. यह तो स्पष्ट है कि प्लाज्मा देने वाले को किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं है. ऐसे में यह स्वीकारते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अनमोल है और यह जीवन एक बार ही मिला है, यदि किसी के काम आ जाये तो इससे बेहतर कोई कार्य नहीं. समाजहित में ऐसे व्यक्तियों को कोरोना मुक्त समाज बनाने के लिए आगे आना चाहिए जो कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. उनका प्लाज्मा लाभ लेकर अन्य संक्रमित व्यक्ति भी स्वस्थ हो सकते हैं.
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