इधर बहुत दिनों से ऐसी स्थिति बनी हुई है कि न पढ़ने का मन करता है और न ही लिखने का. लिखने-पढ़ने के अलावा यदि देखा जाये तो किसी भी काम में मन नहीं लग रहा है. इसे भी हम लॉकडाउन का नकारात्मक प्रभाव मान रहे हैं. संभव है कि ऐसा सबके लिए न हो मगर ऐसा हमारे लिए तो सत्य ही है. पिछले वर्ष कोरोना के आने के बाद से जिस तरह से लॉकडाउन का लगना रहा हो, उसके बाद घर में बंद रहने की स्थिति रही हो, कार्यालय, संस्थान, बाज़ार आदि खुलने का मौका भले ही आया हो मगर पहले की तरह स्वतंत्रता देखने को नहीं मिली है. इसी कारण से एक तरह की बंदिश जैसे, बोझिलता जैसी तन-मन में बनी हुई समझ आ रही है.
कोरोना ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया
है. इस साल भी लॉकडाउन का लगना हुआ और फिर उसके बाद धीमे-धीमे कुछ-कुछ नियमों, शर्तों के साथ जनसामान्य के जीवन को वापस पटरी पर लाने की कोशिश की जाने
लगी है. लोगों का बाज़ार में घूमना-टहलना पहले की तरह होता दिख रहा है मगर दिमाग
में वह आज़ादी नहीं है जो वर्ष 2020 के पहले हुआ करती थी. इस तरह की बंदिश के साथ एक
तरह की अनिश्चितता भी है. अभी कोई भी शत-प्रतिशत कोरोना के जाने की, बने रहने की समयावधि के बारे में कुछ भी नहीं कह सकता है. यह अनिश्चितता
भी हमें व्यक्तिगत रूप से परेशान सा कर रही है. परेशानी यह नहीं कि कोरोना के कारण
ऐसा माहौल बना हुआ है बल्कि परेशानी इसकी कि जीवन-शैली की सामान्य स्थिति कब, कैसे बन सकेगी? काम की वही पुरानी गति कैसे आ सकेगी? लोगों के बीच मिलना-जुलना फिर उसी पुराने अंदाज में हो सकेगा?
जैसी दशा दिख रही है उसमें अभी घर में कैद होकर
ही कार्य करने जैसी स्थिति समझ आ रही है. ऐसे में कार्यालय के, संस्थानों के काम तो किये जा सकते हैं मगर बहुत से काम जो व्यावहारिक रूप
से फील्ड में जाकर ही किये जा सकते हैं, वे नहीं हो पा रहे
हैं. इससे भी उलझन जैसी स्थिति बनी हुई है. फ़िलहाल तो इसी उलझन के साथ रहते हुए
आगे बढ़ना है. मन भी इसी के साथ लगाना है.
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