देश में एक बार फिर कोरोना लहर दिखाई देने लगी है.
इसे यदि थोड़ा सा संशोधित कर दिया जाये तो कहा जा सकता है कि देश के चुनिन्दा भागों, राज्यों को छोड़कर कर कोरोना ने
दोबारा अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है. मध्य प्रदेश,
महाराष्ट्र, गुजरात आदि सहित अनेक राज्यों में कोरोना
संक्रमितों की संख्या अचानक से बढ़नी शुरू हो गई है. इन प्रभावित राज्यों के कई-कई
शहर बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं और इनमें रात्रि का लॉकडाउन लगा दिया गया है. कई जगहों से लॉकडाउन के विरोध में भी उठते
स्वरों का सुना जा सकता है. आखिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
जनसाधारण ने वर्ष 2020 में लॉकडाउन के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं को
बहुत करीब से देखा है. उस स्थिति में बहुतों ने अपने रोजगार को गँवाया है तो बहुत
से परिवारों ने उसी स्थिति के कारण अपने परिजनों को भी खोया है. ऐसे में कैसे
लॉकडाउन को स्वीकार कर लिया जाये? यह स्थिति उस समय और भी असमंजस वाली हो जाती है जबकि कोरोना का असर उन
राज्यों में बिलकुल भी नहीं दिखाई दे रहा है जहाँ चुनाव हो रहे हैं. इन राज्यों
में जिस तरह से भीड़ भरी रैलियाँ हो रही हैं, जिस तरह से
शीर्ष नेता बिना मास्क के यात्रा करने में लगे हैं, बिना
मास्क और सोशल डिस्टेंस के जिस तरह से भीड़ ग़दर काटे है वह कोरोना की भयावहता के
उलट कहानी कहता है. ऐसे में लॉकडाउन के खिलाफ लोगों का आना स्वाभाविक है.
इधर अब 45+ आयु वालों को भी कोरोना से लड़ने वाली वैक्सीन लगने लगी है मगर इसे भी
शत-प्रतिशत सुरक्षित नहीं माना जा सकता है. यदि चिकित्सकीय दृष्टि से देखा जाये तो
वैस्कीन की दो खुराकों और निश्चित सावधानी के बाद ही कोरोना की भयावहता से बचा जा
सकता है. ऐसे में स्पष्ट है कि वैक्सीन की एक खुराक कोरोना से बचाव के लिए पूरी
तरह प्रभावी नहीं. इसके लेने के बाद सम्बंधित व्यक्ति को मास्क, सुरक्षित दूरी, सेनेटाइज आदि का प्रयोग करते रहना है. यदि ऐसा है तो फिर चुनावी राज्यों
में भीड़ को अनदेखा क्यों किया जा रहा है? अभी तक चुनावी राज्यों से इतर जहाँ-जहाँ
कोरोना संक्रमितों की संख्या मिल रही है वहाँ विवाहोत्सवों तक के लिए प्रशासनिक
अनुमति लेने जैसे प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं. विद्यालय बंद करवा दिए गए हैं. मॉल, मंदिर आदि बंद हैं मगर चुनावी रैलियाँ प्रतिबंधित नहीं हैं. इसे क्या
समझा जाये?
गंभीरता के साथ देखा जाये, विचार किया जाये तो ऐसा लगता है
जैसे कोरोना की दूसरी लहर नितांत काल्पनिक स्थिति है. ऐसा इसलिए क्योंकि यदि
कोरोना की दूसरी लहर भयावह होती तो चुनावी राज्यों में इतनी भीड़ के बाद भी कोरोना
संक्रमितों की भयावह स्थिति नहीं दिख रही है. यह भी हो सकता है कि कोरोना की दूसरी
लहर भयावह हो मगर चुनावी राज्यों में आँकड़ों को छिपाए रखने के आदेश दिए गए हों? अभी किसी भी स्थिति को पूरी प्रमाणिकता के साथ कह पाना कठिन है मगर यह तो
कहना अत्यंत सहज है कि चुनावी राज्यों में या तो कोरोना का असर नहीं है या फिर
यहाँ के लोग कोरोना संक्रमण-प्रूफ हो चुके हैं.
यह तो सोचने वाली बात है कि जहाँ जहाँ चुनाव होता है वहाँ के नेता हर तरह से प्रूफ़ हो जा रहे हैं। देहात तो शुरू से कोरोना प्रूफ़ रहा है। आश्चर्यजनक है कि 2020 से अब तक एक साल हो गया, लॉकडाउन, कर्फ़्यू, मास्क, सेनिटाइज़र, ताली-थाली, दीया-बाक़ी, पूजा, हवन सब हो गया; फिर स्थित जैसी की तैसी क्यों हुई। सब कुछ संदेहास्पद लगता है मुझे।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर् और सामयिक।
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