28 जुलाई 2019

जुड़िये हमारी 'कुछ सच्ची कुछ झूठी' से


आखिरकार लम्बे इंतजार के बाद कुछ सच्ची कुछ झूठी का प्रकाशन हो ही गया. विगत दो-तीन वर्षों से लगातार प्रकाशन की, लेखन की, संपादन की स्थिति में होने के कारण हमारा यह ड्रीम प्रोजेक्ट थमा हुआ था. रुका हुआ नहीं कह सकते क्योंकि इस पर लगातार काम चल रहा था. जब स्थिति खुद पर लिखने की हो, अपने जीवन को कागज़ पर उतार कर सार्वजनिक करने की हो तब अनेक तरह की ऊहापोह जैसी स्थितियां भी सामने आने लगती हैं. इस पुस्तक के लिए एक लम्बे समय से दिमाग काम कर रहा था और दिल भी इसके लिए समान रूप से दिमाग का साथ दे रहा था. ऐसे में विभिन्न घटनाओं को लिखना, तमाम घटनाओं को जानबूझ कर छोड़ना, बहुत सी घटनाओं पर काल्पनिकता का आवरण ओढ़ाना, बहुत सी बातों को एक आवरण के सहारे नए रंग में पेश करना आदि ऐसे कदम थे जो अपनाने थे. इस बारे में हमारा मानना यह रहा है कि अपने जीवन को सार्वजनिक करने का यह मंतव्य कतई नहीं होना चाहिए कि दूसरे के जीवन में उथल-पुथल मच जाये. इसी कारण से सब कुछ सच्ची-सच्ची होने के बाद भी उसमें ऐसा झूठ चढ़ाया गया जो सच होने के बाद भी सच न लगे.


बहरहाल, अब जबकि अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज से इसका प्रकाशन हो चुका है. यह पुस्तक अमेज़न पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध है तो आप सभी से अपेक्षा है कि इसे पढ़ेंगे और हमारे बारे में हमें ही बताने का कष्ट करेंगे.

अंजुमन प्रकाशन के बारे में जानकारी नीचे की लिंक पर दी गई है. वीनस केसरी जी ने पूरी तन्मयता से हमारे ड्रीम प्रोजेक्ट को सफल बनाने का प्रयास किया है, उनका आभार.

अमेज़न की लिंक भी नीचे दी जा रही है. आप यहाँ से कुछ सच्ची कुछ झूठी को मंगवा सकते हैं.

आप सभी का स्नेह अपेक्षित है.

27 जुलाई 2019

कहाँ गए सावन के वो झूले


सावन का मौसम अपने आपमें अनेक तरह की रागात्मक क्रियाएं छिपाए रहता है. रक्षाबंधन का पावन पर्व, पेड़ों पर डाले गए झूले, उनमें पेंग भरते हर उम्र के लोग, गीत गाते हुए महिलाओं का झूलों के सहारे आसमान को धरती पर उतार लाने की कोशिश. सामान्य बातचीत में जब भी सावन का जिक्र होता है तो उसके साथ सहज ही झूलों की चर्चा होने लगती है. झूलों की चर्चा होने पर उसके साथ महिलाओं का जुड़ा होना पाया जाता है. ऐसा शायद कोई दृष्टान्त सामने आया हो जबकि सावन के झूलों की बात चल रही हो और उसमें पुरुषों की चर्चा की जा रही हो. ऐसा माना जाता रहा है कि झूला झूलने का काम सिर्फ महिलाओं का है. अब ऐसा मानने वाले लोग भी कम दिखने लगे हैं. इसका कारण स्त्री-पुरुष समानता नहीं वरन झूलों का न के बराबर दिखाई देना है. पहले झूले बहुतायत में दिखाई देते थे. शायद ही कोई बड़ा, घना पेड़ बिना झूले के रहता हो. अब ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता. अब ऐसे पेड़ भी बहुत कम दिखते हैं और झूले भी न के बराबर दिखते हैं. हाँ, पार्कों में अवश्य ही ऐसे झूले दिखते हैं. उनमें बच्चों का पेंग भरते देखना सुखद लगता है. भले ही पेड़ की कमी यहाँ दिखती हो मगर झूले का असल स्वाद यहाँ अवश्य ही मिलता है.

बरगद का पेड़ (यही जगह कहलाती है बरगदिया तरे)

हमें अपना बचपन और उसके बाद की स्थिति भली-भांति याद है जबकि खूब झूला झूला जाता था. उस समय जहाँ हम लोग रहते थे वहाँ पर एक बड़ा बरगद का पेड़ हुआ करता था. जिसकी छाँव में हम बच्चे अपनी शरारतें करते और बड़े लोग अपनी चर्चाएँ. उस जगह को बरगदिया तरे कह कर पुकारा जाता था. सभी लोग उस जगह को इसी नाम से आज भी पहचानते हैं. उसी बरगद के पेड़ पर झूला डल जाया करता था फिर क्या दिन क्या रात, क्या सुबह क्या शाम, क्या बच्चे क्या बड़े, क्या महिलाएं क्या पुरुष सभी लोग झूला झूलते नजर आते थे. दो-दो, चार-चार के अलावा कई बार आठ-आठ लोग एकसाथ झूला झूलते नजर आते. किसी दिन खूब मजबूत लम्बा सा बांस लेकर बाँधा जाता और उसी के अनुपात में मोटी रस्सी. बस फिर क्या एक-एक करके झूला झूलने वालों की संख्या बढ़ती रहती, पेंग भी बढ़ती रहती. किसी-किसी दिन डंडे की जगह बड़ा सा तख्ता बाँध दिया जाता. फिर क्या, कुछ लोग एक तरफ मुंह करके बैठते, कुछ लोग दूसरी तरफ मुंह करके. कभी-कभी शरारत का आलम ये रहता कि झूले को बजे झुलाने के, पेंग बढाने के उसी को गोल-गोल घुमाया जाता रहता. जिस-जिस बच्चे को गोल-गोल घूमने से समस्या होती वह चक्कर खाता हुआ इधर से उधर डोलता नजर आता. 


अपने घर के पास के झूले के साथ-साथ ननिहाल में भी झूले का खूब आनंद उठाया है. एक बार का किस्सा तो बहुत अच्छे से याद है जबकि घर के बाहर लगे नीम के पेड़ पर झूला डाला गया. उस झूले में बजे डंडे के चारपाई का इस्तेमाल किया गया. इसका कारण ये कि हमने इच्छा जताई कि लेट कर झूला झूलना है. फिर क्या था, ननिहाल में सबके अत्यंत प्रिय होने के कारण मामा लोगों ने आनन-फानन डंडे की जगह चारपाई बाँध दी. अब लेटे-लेटे झूले का आनंद किया गया. कॉलेज टाइम में भी झूला झूलने का आनंद लिया. मेले में, प्रदर्शनी में आज भी झूला झूलने का आनंद लेते हैं. अब ये बात और है कि ये झूले पेड़ के बजाय जमीन पर खड़े होते हैं और बिजली के सहारे से गोल-गोल चक्कर लगवाते हैं. इन झूलों में रफ़्तार का मजा भले आये मगर न तो पेंग बढ़ाकर आसमान छूने जैसा रोमांच आता है, न ही महिलाओं के लोकगीतों की मधुर स्वर-लहरियाँ सुनाई देती हैं, न ही बच्चों की शरारतें देखने को मिलती हैं. अब तो रफ़्तार, तकनीक के चलते शोर, चीख-पुकार, चिल्ला-चोट ही सुनाई देती है. आज भी आने-जाने के दौरान, घूमने के दौरान कहीं भी पेड़ पर पड़ा झूला दिख जाता है तो बिना झूले मन मानता नहीं है. कभी-कभी इस मन को घर के जाल पर बेटी के लिए लगाए जाते झूले में झूल कर भी समझा लिया जाता है.

25 जुलाई 2019

दोस्ती जिन्दाबाद, दोस्त जिन्दाबाद


तीन रूपों में एक व्यक्ति. एक रिश्ता, एक सोच. हो सकता है ऐसा लिखना बहुत से लोगों को बुरा लगे. ऐसा इसलिए क्योंकि समय के साथ बहुत से लोग मिलते रहे, बिछड़ते रहे. इसी मिलने-बिछड़ने के क्रम में बहुत से लोग ऐसे भी रहे जो कभी हमसे अलग हुए ही नहीं. ऐसे लोगों में संदीप और अभिनव को रखा जा सकता है. अभिनव से मिलना हुआ कक्षा छह के दौरान, जबकि हम दोनों एक ही कक्षा में साथ-साथ पढ़ते नजर आये. इसके उलट संदीप किसी भी स्कूल में, किसी भी क्लास में हमारे साथ नहीं पढ़ा मगर आत्मीयता कहीं से भी कम न रही. उससे मिलना हुआ एक कोचिंग के दौरान, जिसे उस समय हम ट्यूशन के नाम से संबोधित करते थे. उसमें उसके सरल स्वभाव के चलते मिलना हुआ और फिर जो रिश्ता बना वो आजतक बना हुआ है. 


बहुत से लोग हैं जो दोस्ती के, दोस्तों के अर्थ को तलाशते घूमते हैं. असल में ऐसा लगता है जैसे उन लोगों ने दोस्ती को, दोस्तों को समझा ही नहीं. दोस्ती का, दोस्तों का अर्थ समझने के लिए इस तिकड़ी को समझना होगा. ऐसा नहीं है कि इस तिकड़ी के अलावा और कोई नहीं मगर सभी के अपने-अपने महत्त्व हैं. इन दो के अलावा और भी बहुत मित्र हैं जो किसी न किसी रूप में हमसे जुड़े हैं. हम इसे ऐसे देखते हैं जैसे किसी भी शरीर के लिए एक-एक अंग की अपनी महत्ता है, ऐसे ही हमारे जीवन में एक-एक मित्र की महत्ता है. कोई आँख बना है, कोई कान, कोई मुंह बना है, कोई जीभ, कोई साँस है तो कोई धड़कन, कोई दिल है तो कोई दिमाग. हमारे लिए कोई मित्र किसी से कम नहीं. यहाँ इस तिकड़ी का जिक्र इसलिए क्योंकि महीनों आपस में न मिलने के बाद भी, दसियों दिन आपस में बातचीत न होने के बाद भी एक-दूसरे की एक-एक ख़बर रहती है. ये वो विश्वास है जो एक बार जन्मने के बाद कभी कम हुआ ही नहीं. कोई कितना भी कहे मगर आपस में बना सम्बन्ध कभी अविश्वास की स्थिति में आया ही नहीं. हम तीनों के बीच लात-जूता कभी न हुआ, अब भी नहीं होता पर बिना गाली-गलौज के, बिना हड़काए, बिना गरियाए काम भी न चलता, मिलने पर. मिलने पर कोई बाहरी देखे तो लगे कि किसी बात का तकाजा हो रहा है, ऐसे चिल्ला-चोट मचती है.

फिलहाल, अभी इन्हीं दो के साथ क्योंकि एक लम्बे अरसे के बाद मिलना हुआ था हम तीनों का. बाकियों के बारे में भी समय-समय पर जानकारी देते रहेंगे. तब तक जय दोस्ती, दोस्त जिंदाबाद.


22 जुलाई 2019

नाबालिग बाइक स्टंटबाज़ और जान हथेली पर


क्या आपने कभी बीच शहर में बाइक से स्टंटबाजी होते देखी है? शहर की उस सड़क पर ऐसा होते देखा है जहाँ आवागमन बहुतायत में रहता हो? क्या ऐसा कारनामा सड़क पर नाबालिगों द्वारा होते देखा है? बहुत से लोगों का जवाब इसके लिए न में होगा. आपमें से बहुतों का जवाब भले ही न में हो मगर हमारा शहर ऐसा ही है. यहाँ ऐसा ही होता है, बीच सड़क पर होता है, भीड़ भरी सड़क पर होता है, विद्यार्थियों द्वारा होता है. अंदाजा लगाइए, शहर का मुख्य मार्ग, लोगों की पैदल आवाजाही के बीच वाहनों का निर्बाध आवागमन और उसी के बीच स्टंट करते बाईकर्स. बाइक पर स्टंट करते ये लोग कोई व्यावसायिक अथवा प्रशिक्षित स्टंटबाज नहीं होते हैं. ये किसी बाइक कंपनी का प्रचार करने वाले भी नहीं हैं. इन स्टंट करने वालों को किसी भी तरह से बाइक बेचना नहीं है. किसी तरह का कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलना है इसके लिए. इसके बाद भी इनकी स्टंटबाज़ी लगातार ज़ारी रहती है. और तो और स्टंट करते समय ये बाइक पर अकेले भी नहीं होते हैं. इनका कोई निश्चित समय भी नहीं होता है स्टंट करने का. तेज रफ़्तार, अनियंत्रित ढंग से सड़क पर बाइक दौड़ाते ये बाईकर्स किसी तरह के यातायात नियमों का पालन भी नहीं करते हैं. चौंकिए नहीं, ये किसी फिल्म का, किसी टीवी सीरियल का सीन नहीं बल्कि उरई की स्टेशन रोड का नित्य का हाल है. सुबह हो या शाम, दोपहर हो या फिर रात सड़क खाली हो या फिर लोगों से भरी, ये बाइकर्स अपनी-अपनी बाइक पर करतब दिखाते यहाँ आसानी से दिख जाते हैं.


शहर के प्रसिद्द चौराहा जो कभी नगर के प्रसिद्द व्यापारी मच्छर मल सिन्धी के नाम पर मच्छर चौराहा के नाम से जाना जाता था अब इसे शहीद भगत सिंह चौराहा के नाम से जानते हैं, यहाँ से रेलवे स्टेशन तक बाइक वाले स्टंटधारियों की कलाकारी दिखती है. यह कलाकारी इतने तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि इससे बाद उसी सड़क पर राठ रोड नवनिर्मित ओवर ब्रिज तक इनकी अनियंत्रित भागती बाइक को देखा जा सकता है. तेज गति से बाइक को दौड़ाना, एकसाथ दो-दो, तीन-तीन लोगों का बैठना, पूरी सड़क पर लहरा-लहरा कर बाइक का भगाना, बाइक के साइड स्टैंड को सड़क पर रगड़ करवा कर चिंगारी पैदा करना, कभी-कभी एक पहिये के सहारे बाइक को चलाने का स्टंट करना, तेज एक्सीलेटर के द्वारा फायरिंग की आवाज़ करवाना आदि को नियमित रूप से देखा जा सकता है. आश्चर्य की बात ये कि ये सभी बाइकर्स किशोरावस्था के हैं. विद्यालयों में पढ़ने वाले ये विद्यार्थी इस सड़क पर अपने करतब दिखाते नजर आते हैं. उन्हें न तो अपनी जान की परवाह रहती है और न ही उस सड़क पर आवागमन करते नागरिकों की. इस कारण आये दिन इस सड़क पर हादसे होते रहते हैं. कई बार यही बाइकर्स चोट-चपेट का शिकार बनते हैं तो कई बार ये आम नागरिकों को घायल करते हैं. विडम्बना ये है कि स्टेशन रोड के आसपास रिहायशी नागरिकों द्वारा, दुकानदारों द्वारा यदि इनको समझाने का प्रयास किया जाता है तो ये किशोर बाइकर्स लड़ने-झगड़ने पर भी आमादा रहते हैं. अनेक बार दुकानदार, नागरिक इनकी हिंसा का शिकार भी हुए हैं.  

ऐसा नहीं है कि इस सड़क को प्रशासन द्वारा बाइक स्टंट के लिए अनुमति दी गई है. बच्चों के बाइक पर स्टंट करने का एक कारण इस सड़क पर संचालित तमाम कोचिंग सेंटर्स, कॉलेज और फास्ट फ़ूड सेंटर्स हैं. यहाँ किशोरों की, युवाओं की बहुतायत में आमद रहती है. इनके एकसाथ आने-जाने के कारण तमाम सारे छोटे-बड़े ग्रुप सड़क पर अनियंत्रित ढंग से अपने क्रियाकलापों को संपन्न करते रहते हैं. इन बच्चों के परिवार वाले तो जैसे इनके प्रति, इनकी सुरक्षा के प्रति आँखें मूँदें ही हैं, प्रशासन भी इस सड़क पर इन बाइकर्स के खिलाफ किसी भी तरह की सख्त कार्यवाही करने से बचता है. शहर भर में जगह-जगह आये दिन वाहनों की जांच की जाती है. वहां चालकों के कानूनी कागजातों की जांच की जाती है. हेलमेट, सीट बेल्ट लगाये जाने के सन्देश प्रसारित किये जाते हैं. आये दिन स्कूल के बच्चों के साथ यातायात नियमों के पालन करने सम्बन्धी रैलियाँ निकाली जाती हैं. इन सबके बाद भी स्टेशन रोड प्रशासनिक सख्ती की आस निहारती रहती है. ये समझ से परे है कि आखिर प्रशासन स्टेशन रोड पर होते स्टंट पर, तेज रफ़्तार दौड़ती बाइक पर नियंत्रण क्यों नहीं कर रहा है? यहाँ बाइक दौड़ाते बच्चों के ड्राइविंग लाइसेंस की जांच क्यों नहीं की जाती है? सोचने वाली बात ये है कि इस सड़क की ये सारी गतिविधियाँ प्रशसन के संज्ञान में हैं. इसके बाद भी ऐसा लगता है जैसे कार्यवाही के लिए वह किसी बहुत बड़े हादसे के इंतजार में है.


19 जुलाई 2019

कुछ अलग सा करने का मन है


बहुत बार ऐसा होता है जबकि बिना किसी व्यस्तता के भी व्यस्तता समझ आती है. समझ नहीं आता कि चौबीस घंटे का समय कहाँ, कैसे निकल जाता है. दिन भर के क्रियाकलापों पर नजर डाली जाये तो कुछ भी ऐसा समझ नहीं आता है कि महसूस हो कि अति-व्यस्त रहने वाला काम किया है. इसके बाद भी ऐसा लगता है जैसे चौबीस घंटे कम पड़ गए. कुछ काम सोचते-सोचते भी पूरे नहीं हो पाते हैं या कहें कि करे जा पाते हैं. कुछ इसी तरह के कामों में आजकल लिखना होता जा रहा है. हाँ, पढ़ना तो हो रहा है मगर लिखना उस गति से नहीं हो पा रहा है जैसा कि किसी समय हुआ करता था. इधर बहुत दिनों से न तो ब्लॉग पर नियमित लिखना हो पा रहा है और न ही किसी पत्र-पत्रिका के लिए लिखा जाना हो पा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है, यह समझ से परे है.


इस तरह की स्थिति कई बार आई, उस दौर में भी आई जबकि हम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे. हालाँकि उस दौर में लिखने का काम आज की तरह नहीं हुआ करता था तथापि पढ़ने का, परीक्षाओं से सम्बंधित अध्ययन करने का काम तो चलता ही था. पता नहीं क्यों एक दिन अचानक से सबकुछ गड़बड़ सा समझ आने लगा. नियमित रूप से की जाने वाली बाजार की चहलकदमी के बीच अचानक से सबकुछ बेकार सा समझ आने लगा. बाजार की अपनी यात्रा के दौरान ही निर्णय लिया कि अब कुछ दिन कुछ भी पढ़ा नहीं जायेगा. किसी भी तरह से दिमाग पर पढ़ने का बोझ नहीं डाला जायेगा. एक तरह से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति जैसा कुछ. मिलने-जुलने वालों को, मित्रों को, परिजनों को इस बारे में अवगत भी करा दिया गया ताकि अनावश्यक रूप से पढ़ने का, तैयारी करने का दबाव न बनाया जाए. लगभग तीन महीने की इस संन्यास वाली अवस्था से जब वापसी की तो बहुत सुखद स्थिति से परिचय हुआ. खुद में ही बहुत अच्छा सा महसूस हुआ. 

आजकल जिस तरह की मानसिक स्थिति बनी हुई है, उसे देखकर लगता है कि जल्द ही किसी तरह का ऐसा ही निर्णय लेना पड़ेगा. जैसा कि आजकल आर्थिक वातावरण है, भौतिकतावादी सोच बनती जा रही है उसमें लोगों के द्वारा समझाया जाता है कि अब नौकरी में स्थायित्व आ गया है, अब इस तरह से निर्णय नहीं लिए जाने चाहिए जिनसे धन का नुकसान हो. यहाँ आजतक एक बात समझ नहीं आई कि खुद की मनोस्थिति से ऊपर ऐसी कौन से स्थिति होती है जो सुखद कही जाये? अपनी मानसिक सक्षमता के आगे कौन सी सक्षमता कही जाएगी जो खुद को प्रसन्न रख सके. समझ नहीं आता कि एकमात्र धन ही क्यों सबके जीवन में हावी होता जा रहा है? हाँ, ऐसा समझा जाना सही है कि आज के समय में धन का महत्त्व है. संभव है कि आज के समय में धन आवश्यक भी हो मगर जहाँ तक हमारा समझना है कि धन अनिवार्य नहीं है. धन से अधिक अनिवार्य खुद की प्रसन्नता है. परिवार की प्रसन्नता है. मन की प्रसन्नता है. यदि मन ही प्रसन्न नहीं है, मानसिक स्थिति ही सक्षम नहीं है तो फिर धन कहाँ से आकर सुख देगा? ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जो समय-समय पर हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती हैं और फिर किसी न किसी रूप में कुछ अलग करने को प्रेरित करती हैं, प्रोत्साहित करती हैं. जल्द ही कुछ नया करने का विचार है, कुछ अलग सा करने का मन है. क्या होगा, कब होगा ये अभी समय के गर्भ में है.

12 जुलाई 2019

सोशल मीडिया की भेड़चाल


सोशल मीडिया पर जिस दौर में हमारा आना हुआ था तब लोगों ने बताया-समझाया था कि यहाँ बौद्धिक चर्चा होती है, आपसी विमर्श होता है. बहुतेरे लोगों ने हमारे पढ़ने-लिखने के शौक को देखते हुए बताया था कि इसके माध्यम से अच्छा पढ़ने को मिलेगा और उससे लिखने में सहायता मिलेगी. शुरुआती दौर में कुछ महीने ऐसा समझ आया मगर धीरे-धीरे समझ आने लगा कि यहाँ समय बर्बाद करने के अलावा और कुछ मिलना नहीं है. उस दौर में जो सोचा था उसे अब चरितार्थ होते देख रहे हैं. अब सोशल मीडिया सार्थक विषयों पर चर्चाओं से इतर अनावश्यक चर्चाओं में ज्यादा व्यस्त रहने लगा है. ऐसे विषय जिनके माध्यम से किसी तरह का सामाजिक परिवर्तन किया जा सकना संभव हो सकता है वे नदारद दिखाई देने लगे हैं. किसी भी विषय पर चाहे वे काम के हों या नहीं, सभी में एक तरह की भेड़चाल दिखाई देने लगी है. इस भेड़चाल में न केवल युवा, किशोर भाग ले रहे हैं वरन परिपक्व उम्र के लोग भी भाग ले रहे हैं. ऐसे लोगों को भी भीड़ का हिस्सा बनते देखा जा सकता है जो अपने आपको बौद्धिकता से भरा-पूरा बताते हैं. 


विगत कुछ दिनों से ऐसी घटनाओं में अचानक से वृद्धि सी होती समझ आई. कुछ दिन पहले जेसीबी काण्ड चला. उसके बाद तो जिसे देखो वो इस काण्ड को अपनी वाल पर संचालित करता दिखा. इसमें सभी आयुवर्ग के लोग मौज-मस्ती में शामिल हुए लेकिन उसी का लगातार प्रसारण सा करते रहना सिवाय बेवकूफी के और कुछ समझ न आया. क्रिकेट मैच हों, किसी राजनेता के साथ घटित होने वाली कोई घटना हो, राजनैतिक घटनाक्रम हो या फिर कुछ और सबके सब बिना दिमाग चलाये उसी एक के पीछे हाथ-पैर धोकर पड़ जाते हैं. ये समझने वाली बात है कि सोशल मीडिया का जिस तरह से दुरुपयोग होने लगा है वह अब न ही विमर्श का मंच बचा है और न ही किसी सार्थक चर्चा का. किसी भी अच्छे-भले, सार्थक, सकारात्मक विषय को एक कमेंट के द्वारा गलत दिशा में ले जाया जाता है और फिर उसके सहारे से कुत्सित कदम चलते दिखाई देने लगते हैं.

असल में लगभग मुफ्त की स्थिति में मिलता इंटरनेट और उस पर संपादन-सहित, एकदम स्वतंत्र मंच ने सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी दे दी है. उनको इससे कोई सन्दर्भ नहीं कि उनकी इस नाहक स्वतंत्रता का समाज पर, लोगों पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है या फिर क्या प्रभाव पड़ेगा. उनको तो इस संपादन-रहित मंच ने सारी सीमायें तोड़ने की सुविधा उपलब्ध करा दी है. इसका दुरुपयोग करते हुए लोगों के सामने न तो उम्र का लिहाज है, न ज्ञान का, न अनुभव का, न ही रिश्तों का. ऐसे में सिवाय परेशानी के, आपसी विद्वेष बढ़ने के और कुछ होता दिख नहीं रहा है. ये स्थिति वर्तमान में तो कष्टकारी समझ आ रही है, कालांतर में खतरनाक होने वाली है. जिस तरह से युवा पीढ़ी, बच्चे अपनी सुध-बुध खोकर सिर्फ और सिर्फ इंटरनेट को, सोशल मीडिया को अपना भविष्य बना बैठे हैं वह दुखद है. इससे बचने के उपाय न केवल सरकार को, शासन को, प्रशासन को करने होंगे वरन समाज को, परिवार को भी इस दिशा में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा.

07 जुलाई 2019

ज़िन्दगी और जीवन के बारीक अंतर को समझना होगा


ज़िन्दगी और जीवन भले ही देखने-सुनने में एक जैसे समझ आते हों मगर दोनों के स्वभाव में, प्रवृत्ति में बहुत बारीक सा अंतर है. इस बारे में दार्शनिक रूप में बहुत कुछ कहा जा सकता है, बहुत कुछ लिखा जा सकता है, बहुत कुछ बताया जा सकता है. इसके बाद भी असलियत बहुत बारीक सी रेखा के आसपास ही घूमती रहती है. इसे बहुत दार्शनिक शब्दों में न कहते हुए बहुत ही सरल शब्दों में ऐसे समझा जा सकता है कि जीवन वह है जो हमें मिला है और ज़िन्दगी वह है जो हम गुजारते हैं. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि इंसानों के अलावा जीवन वनस्पतियों में भी होता है, जानवरों में भी होता है, पक्षियों में भी होता है. इसके उलट ज़िन्दगी कितने लोग बिताते हैं? क्या आपको लगता है कि ज़िन्दगी एक पौधा बिताता है? क्या आप समझते हैं कि एक पेड़ ज़िन्दगी बिताता है? आपको क्या लगता है कि कोई जीव-जंतु, पशु-पक्षी ज़िन्दगी का आनंद उठाता है? बहुसंख्यक लोग इसका जवाब देने के पहले जीवन और ज़िन्दगी में ही भटकते नजर आयेंगे. 

असल में अभी हममें से बहुत से लोग ज़िन्दगी और जीवन में अंतर करना ही नहीं सीख सके हैं. उनके लिए दोनों शब्द एक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं जबकि ऐसा नहीं है. जीवन वो है जो हमें जन्म देता है, हमें सांसे देता है और इसके उलट ज़िन्दगी वह है जो हम जन्म के बाद गुजारना शुरू करते हैं, हर एक साँस के सहारे आगे ले जाना शुरू करते हैं. ज़िन्दगी और जीवन का ये दर्शन जिसकी समझ में आ जाता है वही असल में अपने जीवन का भी आनंद लेता है, ज़िन्दगी का भी आनंद लेता है. ऐसे में बहुत से लोगों को जरा सी नाकामी पर अपनी ज़िन्दगी को दोष देते, उसे कोसते हुए देखा जाता है. क्या वाकई ज़िन्दगी के कारण ऐसा हुआ? बहुत से लोग जीवन-शैली के बाहरी आवरण को देखने के साथ ही उसे ज़िन्दगी से परिभाषित करते हैं और किसी भी व्यक्ति के जीवन को ज़िन्दगी से जोड़ते हुए उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं. असल में ज़िन्दगी उस व्यक्ति के द्वारा खुद के आकलन का विषय है. एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने जीवन को भले ही अभावों में गुजार रहा हो मगर वह अपनी ज़िन्दगी से खुश रहता है. इसी तरह एक बहुत ही धन-संपन्न, सत्ता-संपन्न, अधिकार-संपन्न व्यक्ति अपने जीवन को बहुत ही प्रभावी ढंग से बिता रहा हो मगर आवश्यक नहीं कि वह अपनी ज़िन्दगी को भी उसी खुशनुमा तरीके से बिता रहा हो. ज़िन्दगी और जीवन का यही बारीक अंतर समाज में तमाम सारी बुराइयों, परेशानियों, समस्याओं का कारण बना हुआ है.

04 जुलाई 2019

ड्राइविंग लाइसेंस की आवश्यकता क्या और क्यों?


ड्राइविंग लाइसेंस की क्या आवश्यकता है? क्या ड्राइविंग लाइसेंस का होना किसी भी दुर्घटना को रोक लेता है? क्या इसकी गारंटी है कि यदि व्यक्ति के पास लाइसेंस है तो वह एक्सीडेंट नहीं करेगा? हमारा सन्दर्भ महज इससे है कि यदि एक बालिग व्यक्ति किसी दो-पहिया या चार-पहिया वाहन को अथवा उससे बड़े वाहन को चला लेता है तो फिर उसके लिए ड्राइविंग लाइसेंस लेने की बाध्यता क्यों? पहली बात देश में ड्राइविंग लाइसेंस किसी भी स्थिति में व्यक्ति को कुछ सिखाते नहीं. न वाहन चलाना, न ट्रेफिक के नियम, न सड़क के नियम. यदि मान भी लिया जाये कि ड्राइविंग लाइसेंस देने से पहले वो सब कुछ सिखाया जाता है जो एक वाहन चालक के लिए आवश्यक है तब भी सड़क पर सबसे ज्यादा दुर्घटना उन्हीं के द्वारा होती हैं जो ड्राइविंग लाइसेंस धारक हैं. 



यहाँ दो बातें ड्राइविंग लाइसेंस और वाहन चालन के सन्दर्भ में याद रखनी चाहिए कि ड्राइविंग लाइसेंस की अहमियत यदि सिर्फ व्यक्ति की पहचान तक है तो फिर वर्तमान में बहुत से प्रमाण व्यक्ति की पहचान के हैं. आधार कार्ड इसमें सबसे आगे दिख रहा है. अब आगे बढिए, यदि सड़क पर किसी व्यक्ति द्वारा कोई दुर्घटना की जाती है या फिर उससे हो जाती है तो उससे सम्बंधित कई बिंदु हैं जो व्यक्ति की पहचान सिद्ध करते हैं. एक तो वह वाहन पंजीकृत होगा. उसका नंबर होगा. उसके आधार पर संदर्भित व्यक्ति की पहचान की जा सकती है.

दुर्घटना वाली स्थिति में व्यक्ति तीन तरह से मिल सकता है. घायल, मृत या फिर दुर्घटना स्थल से फरार. यदि व्यक्ति घायल है तो उसकी पहचान के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह स्वयं अपनी पहचान सिद्ध करेगा. यदि व्यक्ति मृत है तो फिर उसके पास से मिले दस्तावेजों के आधार पर उसकी पहचान की जाएगी. इसमें आधार कार्ड या कोई अन्य पहचान पत्र काम करेगा. इसके साथ-साथ यदि व्यक्ति फरार है तो फिर सम्बंधित वाहन का पंजीकरण, उसका नंबर सम्बंधित व्यक्ति तक पहुँचा देगा. अब यदि वाहन और व्यक्ति दोनों ही फरार हैं तो फिर ड्राइविंग लाइसेंस क्या चूं-चूं बोलेगा?
विगत कई सालों का व्यक्तिगत अनुभव है कि ड्राइविंग लाइसेंस के नाम पर व्यक्ति का शोषण किया जा रहा है. इस माध्यम से दलाली पनप रही है, रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिल रहा है. अनाप-शनाप तरीके से, मनमाफिक ढंग से अधिकारियों, दलालों की मिलीभगत से ड्राइविंग लाइसेंस के नाम पर भ्रष्टाचार चरम पर है. फिर सोचियेगा, ड्राइविंग लाइसेंस की आवश्यकता क्यों जबकि दुर्घटनाएँ तो लाइसेंस वाले भी कर रहे हैं?

01 जुलाई 2019

भगवान न सही मगर भगवान जैसा ही है डॉक्टर


आज, 01 जुलाई को डॉक्टर्स डे है, ऐसी जानकारी हुई. डॉक्टर, यह एक ऐसा शब्द है जिससे हमारा सम्बन्ध बचपन से ही रहा है. बचपन से इसलिए क्योंकि हमारे मामा-मामी चिकित्सा क्षेत्र से ही रहे हैं. मामी जनपद जालौन मुख्यालय उरई में स्थित जिला चिकित्सालय में कार्यरत थीं और मामा उरई में अपना क्लिनिक बनाये हुए थे. जिला चिकित्सालय, उरई के सरकारी आवास में उनका निवास हुआ करता था. इस निवास में लगभग रोज ही इस कारण जाना हुआ करता था क्योंकि उसी के बगल में बने राजकीय इंटर कॉलेज में हमारा पढ़ना हुआ करता था. इसके अलावा किसी न किसी कार्यक्रम में, किसी पारिवारिक आयोजन में अथवा पारिवारिक मुलाकातों के क्रम में वहाँ जाना हुआ करता था. इसी आने-जाने के कारण से बचपन से ही अनेक डॉक्टर्स से संपर्क बना रहा.


मामा-मामी के अलावा हॉस्पिटल से हमारा संपर्क होश संभालने से लेकर आज तक बना हुआ है. हमारा पैतृक गाँव और ननिहाल जनपद जालौन में ही है. यहाँ से बहुत से लोगों का चिकित्सकीय परामर्श हेतु उरई आना हुआ करता है. इसके अलावा शहर के भी बहुत से लोगों को मेडिकल सुविधा उपलब्ध करवाए जाने के कारण डॉक्टर्स से मिलना होता रहता है. बहुतायत में लोगों की सहायता के लिए और कभी-कभार खुद के लिए, अपने परिजनों के लिए हॉस्पिटल जाना होता रहता है. यदि कहा जाये कि अभी तक के जीवन का बहुत बड़ा भाग हॉस्पिटल में गुजरा है तो अतिश्योक्ति न होगी. लोगों की सहायता करने के, अपने और परिजनों के इलाज के सम्बन्ध में हॉस्पिटल, डॉक्टर्स से संपर्क बना रहने के अलावा अपने 'बिटोली' प्रोजेक्ट के कारण भी इस क्षेत्र से सम्बन्ध बना हुआ है. बिटोली अभियान के पहले संचालित कन्या भ्रूण हत्या निवारण सम्बन्धी कार्यक्रम में तो हम यहाँ की पीसीपीएनडीटी समिति के सदस्य भी रहे हैं. इससे भी लगातार डॉक्टर्स से संपर्क बना रहा. जिला चिकित्सालय के साथ-साथ निजी प्रैक्टिस करने वाले, अल्ट्रासाउंड वाले डॉक्टर्स से भी संपर्क बना रहा. बहुतों से संपर्क आज भी बना हुआ है. इन सबके अलावा हमारे मित्र, हमारे छोटे-बड़े भाई-बहिन भी चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े हुए हैं, जिनके चलते भी डॉक्टर्स लगातार संपर्क में हैं.

लगातार और नियमित संपर्क के चलते कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में अच्छे और बुरे दोनों तरह के डॉक्टर्स से सामना हुआ. आप सबका भी सामना ऐसे लोगों से होता होगा, हुआ भी होगा. बुरे स्वभाव के डॉक्टर्स का विरोध करने के बाद भी आवश्यकता होने पर हम सभी डॉक्टर्स के पास ही जाते हैं. इन्सान के एक उम्र को पार करने के बाद डॉक्टर्स जैसे उसके लिए अनिवार्य हो जाता है. ऐसे में अच्छा-बुरा जानने के बाद भी हम सभी डॉक्टर्स के पास जाने को मजबूर होते हैं. यहाँ एक बाद ध्यान रखने वाली होती है कि डॉक्टर्स भी इन्सान हैं. मानवीय कमियाँ उनमें भी विद्यमान रहती हैं, भले ही उनके धरती पर भगवान का स्थान दिया जाता हो. उनकी तमाम कमियों के बाद भी समाज को स्वस्थ रखने का काम उन्हीं डॉक्टर्स के द्वारा किया जा रहा है. न सही बुरे स्वभाव के डॉक्टर्स के लिए वरन अच्छे स्वभाव के डॉक्टर्स के लिए हम सभी मंगल कामना तो कर ही सकते हैं.

भगवान न करे कि अभी किसी को शारीरिक कष्ट का सामना करना पड़े मगर यदि ऐसा होता है तो मददगार सिर्फ डॉक्टर्स ही होते हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए उनके प्रति भी वही कोमल भावनाएँ बनाये रखनी चाहिए जो हम अपने किसी निकट परिचित के लिए, आत्मीय परिजन के लिए, घनिष्ट सहयोगी के लिए, अभिन्न मित्र के लिए बनाये रखते हैं.