19 जुलाई 2019

कुछ अलग सा करने का मन है


बहुत बार ऐसा होता है जबकि बिना किसी व्यस्तता के भी व्यस्तता समझ आती है. समझ नहीं आता कि चौबीस घंटे का समय कहाँ, कैसे निकल जाता है. दिन भर के क्रियाकलापों पर नजर डाली जाये तो कुछ भी ऐसा समझ नहीं आता है कि महसूस हो कि अति-व्यस्त रहने वाला काम किया है. इसके बाद भी ऐसा लगता है जैसे चौबीस घंटे कम पड़ गए. कुछ काम सोचते-सोचते भी पूरे नहीं हो पाते हैं या कहें कि करे जा पाते हैं. कुछ इसी तरह के कामों में आजकल लिखना होता जा रहा है. हाँ, पढ़ना तो हो रहा है मगर लिखना उस गति से नहीं हो पा रहा है जैसा कि किसी समय हुआ करता था. इधर बहुत दिनों से न तो ब्लॉग पर नियमित लिखना हो पा रहा है और न ही किसी पत्र-पत्रिका के लिए लिखा जाना हो पा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है, यह समझ से परे है.


इस तरह की स्थिति कई बार आई, उस दौर में भी आई जबकि हम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे. हालाँकि उस दौर में लिखने का काम आज की तरह नहीं हुआ करता था तथापि पढ़ने का, परीक्षाओं से सम्बंधित अध्ययन करने का काम तो चलता ही था. पता नहीं क्यों एक दिन अचानक से सबकुछ गड़बड़ सा समझ आने लगा. नियमित रूप से की जाने वाली बाजार की चहलकदमी के बीच अचानक से सबकुछ बेकार सा समझ आने लगा. बाजार की अपनी यात्रा के दौरान ही निर्णय लिया कि अब कुछ दिन कुछ भी पढ़ा नहीं जायेगा. किसी भी तरह से दिमाग पर पढ़ने का बोझ नहीं डाला जायेगा. एक तरह से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति जैसा कुछ. मिलने-जुलने वालों को, मित्रों को, परिजनों को इस बारे में अवगत भी करा दिया गया ताकि अनावश्यक रूप से पढ़ने का, तैयारी करने का दबाव न बनाया जाए. लगभग तीन महीने की इस संन्यास वाली अवस्था से जब वापसी की तो बहुत सुखद स्थिति से परिचय हुआ. खुद में ही बहुत अच्छा सा महसूस हुआ. 

आजकल जिस तरह की मानसिक स्थिति बनी हुई है, उसे देखकर लगता है कि जल्द ही किसी तरह का ऐसा ही निर्णय लेना पड़ेगा. जैसा कि आजकल आर्थिक वातावरण है, भौतिकतावादी सोच बनती जा रही है उसमें लोगों के द्वारा समझाया जाता है कि अब नौकरी में स्थायित्व आ गया है, अब इस तरह से निर्णय नहीं लिए जाने चाहिए जिनसे धन का नुकसान हो. यहाँ आजतक एक बात समझ नहीं आई कि खुद की मनोस्थिति से ऊपर ऐसी कौन से स्थिति होती है जो सुखद कही जाये? अपनी मानसिक सक्षमता के आगे कौन सी सक्षमता कही जाएगी जो खुद को प्रसन्न रख सके. समझ नहीं आता कि एकमात्र धन ही क्यों सबके जीवन में हावी होता जा रहा है? हाँ, ऐसा समझा जाना सही है कि आज के समय में धन का महत्त्व है. संभव है कि आज के समय में धन आवश्यक भी हो मगर जहाँ तक हमारा समझना है कि धन अनिवार्य नहीं है. धन से अधिक अनिवार्य खुद की प्रसन्नता है. परिवार की प्रसन्नता है. मन की प्रसन्नता है. यदि मन ही प्रसन्न नहीं है, मानसिक स्थिति ही सक्षम नहीं है तो फिर धन कहाँ से आकर सुख देगा? ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जो समय-समय पर हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती हैं और फिर किसी न किसी रूप में कुछ अलग करने को प्रेरित करती हैं, प्रोत्साहित करती हैं. जल्द ही कुछ नया करने का विचार है, कुछ अलग सा करने का मन है. क्या होगा, कब होगा ये अभी समय के गर्भ में है.

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