सावन का मौसम अपने आपमें अनेक तरह की रागात्मक क्रियाएं छिपाए
रहता है. रक्षाबंधन का पावन पर्व, पेड़ों पर डाले गए झूले, उनमें पेंग भरते हर उम्र
के लोग, गीत गाते हुए महिलाओं का झूलों के सहारे आसमान को धरती पर उतार लाने की
कोशिश. सामान्य बातचीत में जब भी सावन का जिक्र होता है तो उसके साथ सहज ही झूलों
की चर्चा होने लगती है. झूलों की चर्चा होने पर उसके साथ महिलाओं का जुड़ा होना
पाया जाता है. ऐसा शायद कोई दृष्टान्त सामने आया हो जबकि सावन के झूलों की बात चल
रही हो और उसमें पुरुषों की चर्चा की जा रही हो. ऐसा माना जाता रहा है कि झूला
झूलने का काम सिर्फ महिलाओं का है. अब ऐसा मानने वाले लोग भी कम दिखने लगे हैं.
इसका कारण स्त्री-पुरुष समानता नहीं वरन झूलों का न के बराबर दिखाई देना है. पहले
झूले बहुतायत में दिखाई देते थे. शायद ही कोई बड़ा, घना पेड़ बिना झूले के रहता हो.
अब ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता. अब ऐसे पेड़ भी बहुत कम दिखते हैं और झूले भी न के
बराबर दिखते हैं. हाँ, पार्कों में अवश्य ही ऐसे झूले दिखते हैं. उनमें बच्चों का
पेंग भरते देखना सुखद लगता है. भले ही पेड़ की कमी यहाँ दिखती हो मगर झूले का असल
स्वाद यहाँ अवश्य ही मिलता है.
बरगद का पेड़ (यही जगह कहलाती है बरगदिया तरे) |
हमें अपना बचपन और उसके बाद की स्थिति भली-भांति याद है जबकि
खूब झूला झूला जाता था. उस समय जहाँ हम लोग रहते थे वहाँ पर एक बड़ा बरगद का पेड़
हुआ करता था. जिसकी छाँव में हम बच्चे अपनी शरारतें करते और बड़े लोग अपनी चर्चाएँ.
उस जगह को बरगदिया तरे कह कर पुकारा जाता था. सभी लोग उस जगह को इसी नाम से आज भी
पहचानते हैं. उसी बरगद के पेड़ पर झूला डल जाया करता था फिर क्या दिन क्या रात,
क्या सुबह क्या शाम, क्या बच्चे क्या बड़े, क्या महिलाएं क्या पुरुष सभी लोग झूला
झूलते नजर आते थे. दो-दो, चार-चार के अलावा कई बार आठ-आठ लोग एकसाथ झूला झूलते नजर
आते. किसी दिन खूब मजबूत लम्बा सा बांस लेकर बाँधा जाता और उसी के अनुपात में मोटी
रस्सी. बस फिर क्या एक-एक करके झूला झूलने वालों की संख्या बढ़ती रहती, पेंग भी
बढ़ती रहती. किसी-किसी दिन डंडे की जगह बड़ा सा तख्ता बाँध दिया जाता. फिर क्या, कुछ
लोग एक तरफ मुंह करके बैठते, कुछ लोग दूसरी तरफ मुंह करके. कभी-कभी शरारत का आलम
ये रहता कि झूले को बजे झुलाने के, पेंग बढाने के उसी को गोल-गोल घुमाया जाता
रहता. जिस-जिस बच्चे को गोल-गोल घूमने से समस्या होती वह चक्कर खाता हुआ इधर से
उधर डोलता नजर आता.
अपने घर के पास के झूले के साथ-साथ ननिहाल में भी झूले का खूब
आनंद उठाया है. एक बार का किस्सा तो बहुत अच्छे से याद है जबकि घर के बाहर लगे नीम
के पेड़ पर झूला डाला गया. उस झूले में बजे डंडे के चारपाई का इस्तेमाल किया गया.
इसका कारण ये कि हमने इच्छा जताई कि लेट कर झूला झूलना है. फिर क्या था, ननिहाल
में सबके अत्यंत प्रिय होने के कारण मामा लोगों ने आनन-फानन डंडे की जगह चारपाई
बाँध दी. अब लेटे-लेटे झूले का आनंद किया गया. कॉलेज टाइम में भी झूला झूलने का
आनंद लिया. मेले में, प्रदर्शनी में आज भी झूला झूलने का आनंद लेते हैं. अब ये बात
और है कि ये झूले पेड़ के बजाय जमीन पर खड़े होते हैं और बिजली के सहारे से गोल-गोल
चक्कर लगवाते हैं. इन झूलों में रफ़्तार का मजा भले आये मगर न तो पेंग बढ़ाकर आसमान छूने
जैसा रोमांच आता है, न ही महिलाओं के लोकगीतों की मधुर स्वर-लहरियाँ सुनाई देती
हैं, न ही बच्चों की शरारतें देखने को मिलती हैं. अब तो रफ़्तार, तकनीक के चलते
शोर, चीख-पुकार, चिल्ला-चोट ही सुनाई देती है. आज भी आने-जाने के दौरान, घूमने के
दौरान कहीं भी पेड़ पर पड़ा झूला दिख जाता है तो बिना झूले मन मानता नहीं है.
कभी-कभी इस मन को घर के जाल पर बेटी के लिए लगाए जाते झूले में झूल कर भी समझा
लिया जाता है.
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