16 मार्च 2009

जनता को अधिकार ही कहाँ है?

देश में लोकसभा चुनाव की घोषणा क्या हुई हर आमो-खास इसी चर्चा में लग गया। हम सब किस तरह स्थितियों के वशीभूत होकर अपने-अपने काम करना शुरू कर देते हैं यह बात इसी से सिद्ध हो जाती है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसी में किसी न किसी रूप में शामिल है। लोकतन्त्र का स्वरूप अब इतना ही दिखता है, इसके आगे नहीं। कहीं राजनीतिविज्ञान के अध्ययन के दौरान पढ़ रखा था कि लोकतन्त्र में जनता को किसी भी सरकार को उखाड़ फेंकने की ताकत होती है। ऐसा दिखता तो नहीं।
सैद्धांतिक रूप से इस तरह की बाते सही होतीं होंगी किन्तु इनका व्यावहारिक पक्ष अभी तक देखने को नहीं मिला है। एक बार चुने जाने के बाद सरकार को गिराने बचाने का काम चुने गये राजनेता ही करते हैं और जनता बेचारी बस तमाशा ही देखती है। किसी भी प्रकार से किसी भी समय ऐसा महसूस नहीं हुआ कि जनता ने अपनी ताकत के द्वारा किसी भी सरकार को गिराने का काम किया है।
देखा जाये तो जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन किताबी बात है। शासन है मंत्रियों का, शासन है मंत्रियों के लिए, शासन है मंत्रियों द्वारा। इसे विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं। कुछ लोग इसे विचारों का नकारात्मक स्वरूप कहेंगे पर क्या हम सब अपने आप से यही सब नहीं कहते हैं?
एक बार नहीं बार-बार यह सिद्ध हुआ है कि जनता एक बार बस मतदान करने का काम करती है शेष काम तो वही चुने गये प्रतिनिधि करते हैं। इनका ही कर्तव्य होना चाहिए कि जिस जनता के मत से वे विजयी हुए हैं उसका मान रखें पर वे सत्ता-लोलुपता और धन-लोलुपता में ऐसा कर नहीं पाते हैं। स्वार्थ उन्हें अपनी जनता के मत और समर्थन से गद्दारी करना सिखा देता है। जनता सबक सिखाती है पर वक्त के बहुत देर से आने के बाद और तब तक............

होना यह चाहिए कि अब जनता को भी अधिकार मिले और मतदान करने से भी अधिक का अधिकार मिले। देखा जाये तो वर्तमान में जनता के पास सिर्फ और सिर्फ मत देने का अधिकार ही है। वह चाहे तो अपनी इच्छा के बाद भी किसी प्रत्याशी को न चुनने का अधिकार नहीं रखता है। चुनाव आयोग इस बारे में ऐसी व्यवस्था करे जिससे मतदाताओं के सामने एक विकल्प हो जो प्रत्याशियों के विरोध में भी, उनको नकाराने के क्रम में भी मतदान कर सके। आखिर मतदान की मशीन में इतनी बटनों के बीच एक और ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प लगी हुई बटन क्यों नहीं हो सकती है?
इसी तरह से देखा जाये तो किसी भी सांसद/विधायक के एक बार चुने जाने के बाद, यदि किसी तरह से सरकार नहीं गिरती है, वह अपने पूरे कार्यकाल में निरंकुशता का वातावरण निर्मित करता दिखता है। मतदाताओं के सामने कोई विकल्प नहीं होता है सिवाय अपने मतदान पर पछताने के। जबकि आये दिन चुनाव आयोग की ओर से चुनाव प्रणाली को सुधारने के सम्बन्ध में उपाय किये जा रहे हैं, ऐसे में इस प्रकार की व्यवस्था भी हो कि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस भी बुला सके। आज की स्वार्थपरक राजनीति में सम्भव है कि इस सुविधा का राजनैतिक दल अपने हित में प्रयोग करना शुरू कर दें, तो ऐसे में चुनाव आयोग की ओर से इस पर किसी तरह की शर्त लगाई जा सकती है, किसी तरह का अनुबंध लगाया जा सकता है।
कुछ भी हो किन्तु चुनाव प्रणाली में अब जनता को अधिकार अधिक से अधिक दिये जाने की आवश्यकता है। उसे सिर्फ और सिर्फ अपने प्रतिनिधि चुनकर उनका तमाशा देखने को विवश नहीं किया जाना चाहिए।
इस विवशता का कारण ए है कि बने कोई, आये कोई, चुने कोई...........मरती तो जनता ही है क्योंकि ‘एक सांपनाथ, एक नागनाथ, डसना तो दोनों को ही है।’

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