समान
नागरिक संहिता का मसला उस समय चर्चा में आया जबकि इसी 14 जून को 22वें विधि आयोग
ने समान नागरिक संहिता पर जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के विचार माँगे
हैं. एक सामान्य नागरिक भी इस पर अपने विचार विधि आयोग को तीस दिन के भीतर भेज
सकता है. आयोग ने यह भी कहा है कि यदि आवश्यकता महसूस हुई तो वह चर्चा के लिए
व्यक्ति अथवा संगठन को बुला भी सकता है. जैसे ही समान नागरिक संहिता की चर्चा शुरू
हुई वैसे ही इसका विरोध भी शुरू कर दिया गया. समान नागरिक संहिता का मुद्दा कोई
राजनैतिक नहीं वरन संविधान में ही इसके तत्त्व समाहित हैं. संविधान की प्रस्तावना
और नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 में
कहा गया है कि सरकार सभी के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करे.
आज़ादी
के बाद नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में
समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली. बहस में इस्लामिक चिन्तक
मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार
के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक
मुस्लिम नेताओं ने भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था. तब डॉ० अम्बेडकर ने समान
नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए कहा था कि देश में एक आपराधिक विधि संहिता है,
दंड विधान में एक विधि है, संपत्ति हस्तांतरण
का एक विधान है. जबरदस्त विरोध के बीच हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का प्रस्ताव
विजयी हुआ. मुस्लिम सदस्य बुरी तरह पराजित हुए और संविधान के अनुच्छेद 44 में बहुमत की राय से समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान
लाया गया. इसके बाद भी बँटवारे की त्रासदी झेल रहे मुसलमानों के प्रति सौहार्द्र
दर्शाते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार कुछ वर्षों के लिए टाल दिया
गया. समय गुजरने के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरता बढ़ती गई, मुस्लिम
तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई. इसी विरोध और
कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का
जन्म हुआ. तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और
कानून से ऊपर बताती-मानती है.
इसके
विरोध में खड़े लोगों का यह तर्क तो अत्यंत हास्यास्पद है कि समान नागरिक संहिता की
बात हिन्दुओं द्वारा महज इस कारण की जाती है क्योंकि वे मुसलमानों की चार शादी और
तलाक देने की सुविधा को आबादी बढ़ाने वाला मानते हैं. यहाँ सवाल उठता है कि क्या ये
प्रासंगिक है कि एक महिला को मात्र तीन बार तलाक बोलकर हमेशा के लिए बेघर कर दिया
जाये, जैसा कि शाहबानो प्रकरण में हुआ? 1985 में शाहबानो की उम्र 62 वर्ष थी और उसके पति ने तीन
बार तलाक कहकर उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था. पाँच बच्चों की माँ शाहबानो को तब
सिर्फ मैहर की रकम वापस की गई थी. इसी वर्ष उच्चतम न्यायालय ने कहा भी था कि संसद
को समान नागरिक संहिता पर आगे बढ़ना चाहिए. वर्ष 2015 में भी पुनः उच्चतम न्यायालय
ने इसकी आवश्यकता पर बल दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने इससे पूर्व वर्ष 2003 में भी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 118 को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को समान नागरिक संहिता के निर्माण के
सम्बन्ध में अपनी टिप्पणी प्रेषित की थी.
गैर-भाजपा
राजनैतिक दलों का आरोप है कि भाजपा ध्रुवीकरण के लिए इस विषय को उठाती रहती है. सत्तारूढ़
केंद्र सरकार द्वारा राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के वायदे को पूरा करने के बाद ऐसा
अनुमान लगाया जा रहा है कि वह हिंदुत्व, हिन्दू वोट के लिए समान नागरिक संहिता को
देश में लागू करना चाहती है. ये समझने का विषय है कि आज़ादी के तुरंत बाद तो भाजपा
नहीं थी,
तब हिंदुत्व साम्प्रदायिकता जैसी कोई स्थिति भी नहीं थी तब उस समय
क्यों इसका विरोध किया गया? सभी नागरिकों के एक अधिकार हो
जाने का विरोध क्यों? शरीयत की बात करने वाला कट्टरपंथी
मुसलमान क्या सभी कार्य शरीयत के अनुसार ही करता है? किसी
मुसलमान द्वारा अपराध किये जाने पर शरीयत के अनुसार उसको कोड़े मारना, हाथ काटना, पत्थर मारना, फांसी
पर लटकाना आदि जैसी सजाएँ दी जाती हैं? कुरान में बाल विवाह
प्रतिबंधित है. उसके अनुसार विवाह केवल बालिग स्त्री-पुरुष के बीच हो सकता है.
जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार ख्याल-उल-बलूग अर्थात बाल विवाह का
प्रावधान है. कुरान के अनुसार तलाक बिना अदालती हस्तक्षेप के संभव नहीं जबकि
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार मुस्लिम मर्द को अपनी मर्जी से तलाक लेने का
अधिकार है. कुरान विधवा विवाह और पुनर्विवाह को मान्य करती है जबकि मुस्लिम पर्सनल
लॉ बोर्ड ऐसा प्रतिबंधित करता है. ऐसे एक-दो नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनके आधार पर न
ही शरीयत का सम्पूर्ण पालन होता दिखता है न ही कुरान और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
में समन्वय दिखता है. ऐसे में ये लोग किस शरीयत की दुहाई देते हुए समान नागरिक
संहिता का विरोध करने में लगे हैं? क्यों इस विषय पर
मुस्लिमों के एकमत होने का इंतजार किया जाता है? क्यों उनको
अंतरात्मा की आवाज़ सुनने के लिए कहा जाता है? सवाल उठता है
कि क्या सन 1955-56 में हिन्दू कोड बिल लागू करते समय
हिन्दुओं की भावनाओं का ख्याल रखा गया था? क्या उत्तराधिकार,
बाल विवाह आदि पर नियम बनाते समय हिन्दुओं की अंतरात्मा की आवाज़ को
सुनने का प्रयास किया गया था?
आखिर
चन्द गैरजिम्मेवार लोगों के विरोध के चलते कब तक अपरिहार्य विधान को लागू होने से
रोका जाता रहेगा? समान नागरिक संहिता
किसी एक समुदाय विशेष के विवाह अथवा तलाक की बात नहीं करती वरन एक महिला को भी
नागरिक के रूप में अधिकार प्रदान किये जाने की बात करती है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में आवश्यकता इसकी है कि सभी लोग हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि धार्मिक मानसिकता से ऊपर उठकर विशुद्ध भारतीय नागरिक की मानसिकता
से विचार करें. देश में एक ऐसी संहिता का निर्माण करने में योगदान दें जो सभी
समुदायों पर समान रूप से लागू हो, सभी को भारतीयता की पहचान
कराती हो.
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